शिव पुराण – वायवीय संहिता – उत्तरखण्ड – 6


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शिव पुराण संहिता लिंकविद्येश्वर | रुद्र संहिता | शतरुद्र | कोटिरुद्र | उमा | कैलास | वायवीय


शिवके शुद्ध, बुद्ध, मुक्त, सर्वमय, सर्वव्यापक एवं सर्वातीत स्वरूपका तथा उनकी प्रणवरूपताका प्रतिपादन

उपमन्यु कहते हैं – यदुनन्दन! शिवको न तो आणव मलका ही बन्धन प्राप्त है, न कर्मका और न मायाका ही।

प्राकृत, बौद्ध, अहंकार, मन, चित्त, इन्द्रिय, तन्मात्रा और पंचभूतसम्बन्धी भी कोई बन्धन उन्हें नहीं छू सका है।

अमिततेजस्वी शम्भुको न काल, न कला, न विद्या, न नियति, न राग और न द्वेषरूप ही बन्धन प्राप्त है।

उनमें न तो कर्म हैं, न उन कर्मोंका परिपाक है, न उनके फलस्वरूप सुख और दुःख हैं, न उनका वासनाओंसे सम्बन्ध है, न कर्मोंके संस्कारोंसे।

भूत, भविष्य और वर्तमान भोगों तथा उनके संस्कारोंसे भी उनका सम्पर्क नहीं है।

न उनका कोई कारण है, न कर्ता।

न आदि है, न अन्त और न मध्य है; न कर्म और करण है; न अकर्तव्य है और न कर्तव्य ही है।

उनका न कोई बन्धु है और न अबन्धु; न नियन्ता है, न प्रेरक; न पति है, न गुरु है और न त्राता ही है।

उनसे अधिककी चर्चा कौन करे, उनके समान भी कोई नहीं है।

उनका न जन्म होता है न मरण।

उनके लिये कोई वस्तु न तो वांछित है और न अवांछित ही।

उनके लिये न विधि है न निषेध।

न बन्धन है न मुक्ति।

जो-जो अकल्याणकारी दोष हैं वे उनमें कभी नहीं रहते।

परंतु सम्पूर्ण कल्याणकारी गुण उनमें सदा ही रहते हैं; क्योंकि शिव साक्षात् परमात्मा हैं।

वे शिव अपनी शक्तियोंद्वारा इस सम्पूर्ण जगत् में व्याप्त होकर अपने स्वभावसे च्युत न होते हुए सदा ही स्थित रहते हैं; इसलिये उन्हें स्थाणु कहते हैं।

यह सम्पूर्ण चराचर जगत् शिवसे अधिष्ठित है; अतः भगवान् शिव सर्वरूप माने गये हैं।

जो ऐसा जानता है, वह कभी मोहमें नहीं पड़ता।

रुद्र सर्वरूप हैं।

उन्हें नमस्कार है।

वे सत्स्वरूप, परम महान् पुरुष, हिरण्यबाहु भगवान्, हिरण्यपति, ईश्वर, अम्बिकापति, ईशान, पिनाकपाणि तथा वृषभवाहन हैं।

एकमात्र रुद्र ही परब्रह्म परमात्मा हैं।

वे ही कृष्ण-पिंगलवर्णवाले पुरुष हैं।

वे हृदयके भीतर कमलके मध्यभागमें केशके अग्रभागकी भाँति सूक्ष्मरूपसे चिन्तन करने-योग्य हैं।

उनके केश सुनहरे रंगके हैं।

नेत्र कमलके समान सुन्दर हैं।

अंगकान्ति अरुण और ताम्रवर्णकी है।

वे सुवर्णमय नीलकण्ठ देव सदा विचरते रहते हैं।

उन्हें सौम्य, घोर, मिश्र, अक्षर, अमृत और अव्यय कहा गया है।

वे पुरुषविशेष परमेश्वर भगवान् शिव कालके भी काल हैं।

चेतन और अचेतनसे परे हैं।

इस प्रपंचसे भी परात्पर हैं।

शिवमें ऐसे ज्ञान और ऐश्वर्य देखे गये हैं, जिनसे बढ़कर ज्ञान और ऐश्वर्य अन्यत्र नहीं हैं।

मनीषी पुरुषोंने भगवान् शिवको लोकमें सबसे अधिक ऐश्वर्यशाली पदपर प्रतिष्ठित बताया है।

प्रत्येक कल्पमें उत्पन्न होकर एक सीमित कालतक रहनेवाले ब्रह्माओंको आदिकालमें विस्तारपूर्वक शास्त्रका उपदेश देनेवाले भगवान् शिव ही हैं।

एक सीमित कालतक रहनेवाले गुरुओंके भी वे गुरु हैं।

वे सर्वेश्वर सदा सभीके गुरु हैं।

कालकी सीमा उन्हें छू नहीं सकती।

उनकी शुद्ध स्वाभाविक शक्ति सबसे बढ़कर है।

उन्हें अनुपम ज्ञान और नित्य अक्षय शरीर प्राप्त है।

उनके ऐश्वर्यकी कहीं तुलना नहीं है।

उनका सुख अक्षय और बल अनन्त है।

उनमें असीम तेज, प्रभाव, पराक्रम, क्षमा और करुणा भरी है।

वे नित्य परिपूर्ण हैं।

उन्हें सृष्टि आदिसे अपने लिये कोई प्रयोजन नहीं है।

दूसरोंपर परम अनुग्रह ही उनके समस्त कर्मोंका फल है।

प्रणव उन परमात्मा शिवका वाचक है।

शिव, रुद्र आदि नामोंमें प्रणव ही सबसे उत्कृष्ट माना गया है।

प्रणववाच्य शम्भुके चिन्तन और जपसे जो सिद्धि प्राप्त होती है, वही परा सिद्धि है, इसमें संशय नहीं है।

इसीलिये शास्त्रोंके पारंगत मनस्वी विद्वान् वाच्य और वाचककी एकता स्वीकार करते हुए महादेवजीको प्रणवरूप कहते हैं।

माण्डूक्य-उपनिषद् में प्रणवकी चार मात्राएँ बतायी गयी हैं – अकार, उकार, मकार और नाद।

अकारको ऋग्वेद कहते हैं।

उकार यजुर्वेदरूप कहा गया है।

मकार सामवेद है और नाद अथर्ववेदकी श्रुति है।

अकार महाबीज है, वह रजोगुण तथा सृष्टिकर्ता ब्रह्मा है।

उकार प्रकृतिरूपा योनि है, वह सत्त्वगुण तथा पालनकर्ता श्रीहरि है।

मकार जीवात्मा एवं बीज है, वह तमोगुण तथा संहारकर्ता रुद्र है।

नाद परम पुरुष परमेश्वर है, वह निर्गुण एवं निष्क्रिय शिव है।

इस प्रकार प्रणव अपनी तीन मात्राओंके द्वारा ही तीन रूपोंमें इस जगत् का प्रतिपादन करके अपनी अर्द्धमात्रा (नाद)-के द्वारा शिवस्वरूपका बोध कराता है।

जिनसे श्रेष्ठ दूसरा कुछ भी नहीं है जिनसे बढ़कर कोई न तो अधिक सूक्ष्म है और न महान् ही है तथा जो अकेले ही वृक्षकी भाँति निश्चलभावसे प्रकाशमय आकाशमें स्थित हैं, उन परम पुरुष परमेश्वर शिवसे यह सम्पूर्ण जगत् परिपूर्ण है।*
(अध्याय ६) * यस्मात्परं नापरमस्ति किंचिद् यस्मान्नाणीयो न ज्यायोऽस्ति कश्चित्।।

वृक्ष इव स्तब्धो दिवि तिष्ठत्येकस्तेनेदं पूर्णं पुरुषेण सर्वम्।।

(शि० पु० वा० सं० उ० ख० ६।३१, यह मन्त्र अक्षरशः (३।९) श्वेताश्वतरोपनिषद् में है।)


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