शिव पुराण – वायवीय संहिता – उत्तरखण्ड – 5


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परमेश्वर शिवके यथार्थ स्वरूपका विवेचन तथा उनकी शरणमें जानेसे जीवके कल्याणका कथन

उपमन्यु कहते हैं – यदुनन्दन! यह चराचर जगत् देवाधिदेव महादेवजीका स्वरूप है।

परंतु पशु (जीव) भारी पाशसे बँधे होनेके कारण जगत् को इस रूपमें नहीं जानते।

महर्षिगण उन परमेश्वर शिवके निर्विकल्प परम भावको न जाननेके कारण उन एकका ही अनेक रूपोंमें वर्णन करते हैं – कोई उस परमतत्त्वको अपर ब्रह्मरूप कहते हैं, कोई परब्रह्मरूप बताते हैं और कोई आदि-अन्तसे रहित उत्कृष्ट महादेवस्वरूप कहते हैं।

पंच महाभूत, इन्द्रिय, अन्तःकरण तथा प्राकृत विषयरूप जड तत्त्वको अपर ब्रह्म कहा गया है।

इससे भिन्न समष्टि चैतन्यका नाम परब्रह्म है।

बृहत् और व्यापक होनेके कारण उसे ब्रह्म कहते हैं।

प्रभो! वेदों एवं ब्रह्माजीके अधिपति परब्रह्म परमात्मा शिवके वे पर और अपर दो रूप हैं।

कुछ लोग महेश्वर शिवको विद्याविद्यास्वरूपी कहते हैं।

इनमें विद्या चेतना है और अविद्या अचेतना।

यह विद्याविद्यारूप विश्व जगद् गुरु भगवान् शिवका रूप ही है, इसमें संदेह नहीं है; क्योंकि विश्व उनके वशमें है।

भ्रान्ति, विद्या तथा पराविद्या या परम तत्त्व – ये शिवके तीन उत्कृष्ट रूप माने गये हैं।

पदार्थोंके विषयमें जो अनेक प्रकारकी असत्य धारणाएँ हैं, उन्हें भ्रान्ति कहते हैं।

यथार्थ धारणा या ज्ञानका नाम विद्या है तथा जो विकल्परहित परम ज्ञान है, उसे परम तत्त्व कहते हैं।

परम तत्त्व ही सत् है, इससे विपरीत असत् कहा गया है।

सत् और असत् दोनोंका पति होनेके कारण शिव सदसत्पति कहलाते हैं।

अन्य महर्षियोंने क्षर, अक्षर और उन दोनोंसे परे परम तत्त्वका प्रतिपादन किया है।

सम्पूर्ण भूत क्षर हैं और जीवात्मा अक्षर कहलाता है।

वे दोनों परमेश्वरके रूप हैं; क्योंकि उन्हींके अधीन हैं।

शान्तस्वरूप शिव उन दोनोंसे परे हैं, इसलिये क्षराक्षरपर कहे गये हैं।

कुछ महर्षि परम कारणरूप शिवको समष्टि-व्यष्टिस्वरूप तथा समष्टि और व्यष्टिका कारण कहते हैं।

अव्यक्तको समष्टि कहते हैं और व्यक्तको व्यष्टि।

वे दोनों परमेश्वर शिवके रूप हैं, क्योंकि उन्हींकी इच्छासे प्रवृत्त होते हैं।

उन दोनोंके कारणरूपसे स्थित भगवान् शिव परम कारण हैं।

अतः कारणार्थवेत्ता ज्ञानी पुरुष उन्हें समष्टि-व्यष्टिका कारण बताते हैं।

कुछ लोग परमेश्वरको जाति-व्यक्ति-स्वरूप कहते हैं।

जिसका शरीरमें भी अनुवर्तन हो, वह जाति कही गयी है।

शरीरकी जातिके आश्रित रहनेवाली जो व्यावृत्ति है, जिसके द्वारा जातिभावनाका आच्छादन और वैयक्तिक भावनाका प्रकाशन होता है, उसका नाम व्यक्ति है।

जाति और व्यक्ति दोनों ही भगवान् शिवकी आज्ञासे परिपालित हैं, अतः उन महादेवजीको जाति-व्यक्तिस्वरूप कहा गया है।

कोई-कोई शिवको प्रधान, पुरुष, व्यक्त और कालरूप कहते हैं।

प्रकृतिका ही नाम प्रधान है।

जीवात्माको ही क्षेत्रज्ञ कहते हैं।

तेईस तत्त्वोंको मनीषी पुरुषोंने व्यक्त कहा है और जो कार्य-प्रपंचके परिणामका एकमात्र कारण है, उसका नाम काल है।

भगवान् शिव इन सबके ईश्वर, पालक, धारणकर्ता, प्रवर्तक, निवर्तक तथा आविर्भाव और तिरोभावके एकमात्र हेतु हैं।

वे स्वयंप्रकाश एवं अजन्मा हैं।

इसीलिये उन महेश्वरको प्रधान, पुरुष, व्यक्त और कालरूप कहा गया है।

कारण, नेता, अधिपति और धाता बताया गया है।

कुछ लोग महेश्वरको विराट् और हिरण्यगर्भरूप बताते हैं।

जो सम्पूर्ण लोकोंकी सृष्टिके हेतु हैं, उनका नाम हिरण्यगर्भ है और विश्वरूपको विराट् कहते हैं।

ज्ञानी पुरुष भगवान् शिवको अन्तर्यामी और परम पुरुष कहते हैं।

दूसरे लोग उन्हें प्राज्ञ, तैजस और विश्वरूप बताते हैं।

कोई उन्हें तुरीयरूप मानते हैं और कोई सौम्यरूप।

कितने ही विद्वानोंका कथन है कि वे ही माता, मान, मेय और मितिरूप हैं।

अन्य लोग कर्ता, क्रिया, कार्य, करण और कारणरूप कहते हैं।

दूसरे ज्ञानी उन्हें जाग्रत्, स्वप्न और सुषुप्तिरूप बताते हैं।

कोई भगवान् शिवको तुरीयरूप कहते हैं तो कोई तुरीयातीत।

कोई निर्गुण बताते हैं, कोई सगुण।

कोई संसारी कहते हैं, कोई असंसारी।

कोई स्वतन्त्र मानते हैं, कोई अस्वतन्त्र।

कोई उन्हें घोर समझते हैं, कोई सौम्य।

कोई रागवान् कहते हैं, कोई वीतराग; कोई निष्क्रिय बताते हैं, कोई सक्रिय।

किन्हींके कथनानुसार वे निरिन्द्रिय हैं तो किन्हींके मतमें सेन्द्रिय हैं।

एक उन्हें ध्रुव कहता है तो दूसरा अध्रुव; कोई उन्हें साकार बताते हैं तो कोई निराकार।

किन्हींके मतमें वे अदृश्य हैं तो किन्हींके मतमें दृश्य; कोई उन्हें वर्णनीय मानते हैं तो कोई अनिर्वचनीय।

किन्हींके मतमें वे शब्दस्वरूप हैं तो किन्हींके मतमें शब्दातीत; कोई उन्हें चिन्तनका विषय मानते हैं तो कोई अचिन्त्य समझते हैं।

दूसरे लोगोंका कहना है कि वे ज्ञानस्वरूप हैं, कोई उन्हें विज्ञानकी संज्ञा देते हैं।

किन्हींके मतमें वे ज्ञेय हैं और किन्हींके मतमें अज्ञेय।

कोई उन्हें पर बताता है तो कोई अपर।

इस तरह उनके विषयमें नाना प्रकारकी कल्पनाएँ होती हैं।

इन नाना प्रतीतियोंके कारण मुनिजन उन परमेश्वरके यथार्थ स्वरूपका निश्चय नहीं कर पाते।

जो सर्वभावसे उन परमेश्वरकी शरणमें आ गये हैं, वे ही उन परम कारण शिवको बिना यत्नके ही जान पाते हैं।

जबतक पशु (जीव), जिनका दूसरा कोई ईश्वर नहीं है उन सर्वेश्वर, सर्वज्ञ, पुराणपुरुष तथा तीनों लोकोंके शासक शिवको नहीं देखता, तबतक वह पाशोंसे बद्ध हो इस दुःखमय संसार-चक्रमें गाड़ीके पहियेकी नेमिके समान घूमता रहता है।

जब यह द्रष्टा जीवात्मा सबके शासक, ब्रह्माके भी आदिकारण, सम्पूर्ण जगत् के रचयिता, सुवर्णोपम, दिव्य प्रकाशस्वरूप परम पुरुषका साक्षात्कार कर लेता है, तब पुण्य और पाप दोनोंको भलीभाँति हटाकर निर्मल हुआ वह ज्ञानी महात्मा सर्वोत्तम समताको प्राप्त कर लेता है।

(अध्याय ५)


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