शिव पुराण – वायवीय संहिता – उत्तरखण्ड – 2


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उपमन्युद्वारा श्रीकृष्णको पाशुपत ज्ञानका उपदेश

ऋषियोंने पूछा – पाशुपत ज्ञान क्या है? भगवान् शिव पशुपति कैसे हैं? और अनायास ही महान् कर्म करनेवाले भगवान् श्रीकृष्णने उपमन्युसे किस प्रकार प्रश्न किया था? वायुदेव! आप साक्षात् शंकरके स्वरूप हैं, इसलिये ये सब बातें बताइये।

तीनों लोकोंमें आपके समान दूसरा कोई वक्ता इन बातोंको बतानेमें समर्थ नहीं है।

सूतजी कहते हैं – उन महर्षियोंकी यह बात सुनकर वायुदेवने भगवान् शंकरका स्मरण करके इस प्रकार उत्तर देना आरम्भ किया।

वायुदेव बोले – महर्षियो! पूर्वकालमें श्रीकृष्णरूपधारी भगवान् विष्णुने अपने आसनपर बैठे हुए महर्षि उपमन्युसे उन्हें प्रणाम करके न्यायपूर्वक यों प्रश्न किया।

श्रीकृष्णने कहा – भगवन्! महादेवजीने देवी पार्वतीको जिस दिव्य पाशुपत ज्ञान तथा अपनी सम्पूर्ण विभूतिका उपदेश दिया था, मैं उसीको सुनना चाहता हूँ।

महादेवजी पशुपति कैसे हुए? पशु कौन कहलाते हैं? वे पशु किन पाशोंसे बाँधे जाते हैं और फिर किस प्रकार उनसे मुक्त होते हैं? महात्मा श्रीकृष्णके इस प्रकार पूछनेपर श्रीमान् उपमन्युने महादेवजी तथा देवी पार्वतीको प्रणाम करके उनके प्रश्नके अनुसार उत्तर देना आरम्भ किया।

उपमन्यु बोले – देवकीनन्दन! ब्रह्माजीसे लेकर स्थावरपर्यन्त जो भी संसारके वशवर्ती चराचर प्राणी हैं, वे सब-के-सब भगवान् शिवके पशु कहलाते हैं और उनके पति होनेके कारण देवेश्वर शिवको पशुपति कहा गया है।

वे पशुपति अपने पशुओंको मल और माया आदि पाशोंसे बाँधते हैं और भक्तिपूर्वक उनके द्वारा आराधित होनेपर वे स्वयं ही उन्हें उन पाशोंसे मुक्त करते हैं।

जो चौबीस तत्त्व हैं, वे मायाके कार्य एवं गुण हैं।

वे ही विषय कहलाते हैं, जीवों (पशुओं)-को बाँधनेवाले पाश वे ही हैं।

इन पाशोंद्वारा ब्रह्मासे लेकर कीटपर्यन्त समस्त पशुओंको बाँधकर महेश्वर पशुपतिदेव उनसे अपना कार्य कराते हैं।

उन महेश्वरकी ही आज्ञासे प्रकृति पुरुषोचित बुद्धिको जन्म देती है।

बुद्धि अहंकारको प्रकट करती है तथा अहंकार कल्याणदायी देवाधिदेव शिवकी आज्ञासे ग्यारह इन्द्रियों और पाँच तन्मात्राओंको उत्पन्न करता है।

तन्मात्राएँ भी उन्हीं महेश्वरके महान् शासनसे प्रेरित हो क्रमशः पाँच महाभूतोंको उत्पन्न करती हैं।

वे सब महाभूत शिवकी आज्ञासे ब्रह्मासे लेकर तृणपर्यन्त देहधारियोंके लिये देहकी सृष्टि करते हैं, बुद्धि कर्तव्यका निश्चय करती है और अहंकार अभिमान करता है।

चित्त चेतता है और मन संकल्प-विकल्प करता है, श्रवण आदि ज्ञानेन्द्रियाँ पृथक्-पृथक् शब्द आदि विषयोंको ग्रहण करती हैं।

वे महादेवजीके आज्ञाबलसे केवल अपने ही विषयोंको ग्रहण करती हैं।

वाक् आदि कर्मेन्द्रियाँ कहलाती हैं और शिवकी इच्छासे अपने लिये नियत कर्म ही करती हैं, दूसरा कुछ नहीं।

शब्द आदि जाने जाते हैं और बोलना आदि कर्म किये जाते हैं।

इन सबके लिये भगवान् शंकरकी गुरुतर आज्ञाका उल्लंघन करना असम्भव है।

परमेश्वर शिवके शासनसे ही आकाश सर्वव्यापी होकर समस्त प्राणियोंको अवकाश प्रदान करता है, वायुतत्त्व प्राण आदि नामभेदोंद्वारा बाहर-भीतरके सम्पूर्ण जगत् को धारण करता है।

अग्नितत्त्व देवताओंके लिये हव्य और कव्यभोजी पितरोंके लिये कव्य पहुँचाता है।

साथ ही मनुष्योंके लिये पाक आदिका भी कार्य करता है।

जल सबको जीवन देता है और पृथ्वी सम्पूर्ण जगत् को सदा धारण किये रहती है।

शिवकी आज्ञा सम्पूर्ण देवताओंके लिये अलंघनीय है।

उसीसे प्रेरित होकर देवराज इन्द्र देवताओंका पालन, दैत्योंका दमन और तीनों लोकोंका संरक्षण करते हैं।

वरुणदेव सदा जलतत्त्वके पालन और संरक्षणका कार्य सँभालते हैं, साथ ही दण्डनीय प्राणियोंको अपने पाशोंद्वारा बाँध लेते हैं।

धनके स्वामी यक्षराज कुबेर प्राणियोंको उनके पुण्यके अनुरूप सदा धन देते हैं और उत्तम बुद्धिवाले पुरुषोंको सम्पत्तिके साथ ज्ञान भी प्रदान करते हैं।

ईश्वर असाधु पुरुषोंका निग्रह करते हैं तथा शेष शिवकी ही आज्ञासे अपने मस्तकपर पृथ्वीको धारण करते हैं।

उन शेषको श्रीहरिकी तामसी रौद्रमूर्ति कहा गया है, जो जगत् का प्रलय करनेवाली है।

ब्रह्माजी शिवकी ही आज्ञासे सम्पूर्ण जगत् की सृष्टि करते हैं तथा अपनी अन्य मूर्तियोंद्वारा पालन और संहारका कार्य भी करते हैं।

भगवान् विष्णु अपनी त्रिविध मूर्तियोंद्वारा विश्वका पालन, सर्जन और संहार भी करते हैं।

विश्वात्मा भगवान् हर भी तीन रूपोंमें विभक्त हो सम्पूर्ण जगत् का संहार, सृष्टि और रक्षा करते हैं।

काल सबको उत्पन्न करता है।

वही प्रजाकी सृष्टि करता है तथा वही विश्वका पालन करता है।

यह सब वह महाकालकी आज्ञासे प्रेरित होकर ही करता है।

भगवान् सूर्य उन्हींकी आज्ञासे अपने तीन अंशोंद्वारा जगत् का पालन करते, अपनी किरणोंद्वारा वृष्टिके लिये आदेश देते और स्वयं ही आकाशमें मेघ बनकर बरसते हैं।

चन्द्रभूषण शिवका शासन मानकर ही चन्द्रमा ओषधियोंका पोषण और प्राणियोंको आह्लादित करते हैं।

साथ ही देवताओंको अपनी अमृतमयी कलाओंका पान करने देते हैं।

आदित्य, वसु, रुद्र, अश्विनीकुमार, मरुद् गण, आकाशचारी ऋषि, सिद्ध, नागगण, मनुष्य, मृग, पशु, पक्षी, कीट आदि, स्थावर प्राणी, नदियाँ, समुद्र, पर्वत, वन, सरोवर, अंगोंसहित वेद, शास्त्र, मन्त्र, वैदिकस्तोत्र और यज्ञ आदि, कालाग्निसे लेकर शिवपर्यन्त भुवन, उनके अधिपति, असंख्य ब्रह्माण्ड, उनके आवरण, वर्तमान, भूत और भविष्य, दिशा-विदिशाएँ, कला आदि कालके भिन्न-भिन्न भेद तथा जो कुछ भी इस जगत् में देखा और सुना जाता है, वह सब भगवान् शंकरकी आज्ञाके बलसे ही टिका हुआ है।

उनकी आज्ञाके ही बलसे यहाँ पृथ्वी, पर्वत, मेघ, समुद्र, नक्षत्रगण, इन्द्रादि देवता, स्थावर, जंगम अथवा जड और चेतन – सबकी स्थिति है।

(अध्याय २)


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