शिव पुराण – वायवीय संहिता – उत्तरखण्ड – 1


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ऋषियोंके पूछनेपर वायुदेवका श्रीकृष्ण और उपमन्युके मिलनका प्रसंग सुनाना, श्रीकृष्णको उपमन्युसे ज्ञानका और भगवान् शंकरसे पुत्रका लाभ

सूत उवाच नमः समस्तसंसारचक्रभ्रमणहेतवे।

गौरीकुचतटद्वन्द्वकुङ् कुमाङ्कितवक्षसे।।

सूतजी कहते हैं – जो समस्त संसार-चक्रके परिभ्रमणमें कारणरूप हैं तथा गौरीके युगल उरोजोंमें लगे हुए केसरसे जिनका वक्षःस्थल अंकित है, उन भगवान् उमावल्लभ शिवको नमस्कार है।

उपमन्युको भगवान् शंकरके कृपा-प्रसादके प्राप्त होनेका प्रसंग सुनाकर मध्याह्नकालमें नित्य-नियमके उद्देश्यसे वायुदेव कथा बंद करके उठ गये।

तब नैमिषारण्यनिवासी अन्य ऋषि भी ‘अब अमुक बात पूछनी है’ ऐसा निश्चय करके उठे और प्रतिदिनकी भाँति अपना तात्कालिक नित्यकर्म पूरा करके भगवान् वायुदेवको आया देख फिर आकर उनके पास बैठ गये।

नियम समाप्त होनेपर जब आकाशजन्मा वायुदेव मुनियोंकी सभामें अपने लिये निश्चित उत्तम आसनपर विराजमान हो गये – सुखपूर्वक बैठ गये, तब वे लोकवन्दित पवनदेव परमेश्वरकी श्रीसम्पन्न विभूतिका मन-ही-मन चिन्तन करके इस प्रकार बोले – ‘मैं उन सर्वज्ञ और अपराजित महान् देव भगवान् शंकरकी शरण लेता हूँ, जिनकी विभूति इस समस्त चराचर जगत् के रूपमें फैली हुई है।’ उनकी शुभ वाणीको सुनकर वे निष्पाप ऋषि भगवान् की विभूतिका विस्तारपूर्वक वर्णन सुननेके लिये यह उत्तम वचन बोले।

ऋषियोंने कहा – भगवन्! आपने महात्मा उपमन्युका चरित्र सुनाया, जिससे यह ज्ञात हुआ कि उन्होंने केवल दूधके लिये तपस्या करके भी परमेश्वर शिवसे सब कुछ पा लिया।

हमने पहलेसे ही सुन रखा है कि अनायास ही महान् कर्म करनेवाले वसुदेवनन्दन भगवान् श्रीकृष्ण किसी समय धौम्यके बड़े भाई उपमन्युसे मिले थे और उनकी प्रेरणासे पाशुपत-व्रतका अनुष्ठान करके उन्होंने परम ज्ञान प्राप्त कर लिया था; अतः आप यह बतायें कि भगवान् श्रीकृष्णने परम उत्तम पाशुपतज्ञान किस प्रकार प्राप्त किया।

वायुदेव बोले – अपनी इच्छासे अवतीर्ण होनेपर भी सनातन वासुदेवने मानव-शरीरकी निन्दा-सी करते हुए लोकसंग्रहके लिये शरीरकी शुद्धि की थी।

वे पुत्र-प्राप्तिके निमित्त तप करनेके लिये उन महामुनिके आश्रमपर गये थे, जहाँ बहुत-से मुनि उपमन्युजीका दर्शन कर रहे थे।

भगवान् श्रीकृष्णने भी वहाँ जाकर उनका दर्शन किया।

उनके सारे अंग भस्मसे उज्ज्वल दिखायी देते थे।

मस्तक त्रिपुण्ड्रसे अंकित था।

रुद्राक्षकी माला ही उनका आभूषण थी।

वे जटामण्डलसे मण्डित थे।

शास्त्रोंसे वेदकी भाँति वे अपने शिष्यभूत महर्षियोंसे घिरे हुए थे और शिवजीके ध्यानमें तत्पर हो शान्तभावसे बैठे थे।

उन महातेजस्वी उपमन्युका दर्शन करके श्रीकृष्णने उन्हें नमस्कार किया।

उस समय उनके सम्पूर्ण शरीरमें रोमांच हो आया।

श्रीकृष्णने बड़े आदरके साथ मुनिकी तीन बार परिक्रमा की।

फिर अत्यन्त प्रसन्नताके साथ मस्तक झुका हाथ जोड़कर उनका स्तवन किया।

तदनन्तर उपमन्युने विधिपूर्वक ‘अग्निरिति भस्म’ इत्यादि मन्त्रोंसे श्रीकृष्णके शरीरमें भस्म लगाकर उनसे बारह महीनेका साक्षात् पाशुपत-व्रत करवाया।

तत्पश्चात् मुनिने उन्हें उत्तम ज्ञान प्रदान किया।

उसी समयसे उत्तम व्रतका पालन करनेवाले सम्पूर्ण दिव्य पाशुपत मुनि उन श्रीकृष्णको चारों ओर घेरकर उनके पास बैठे रहने लगे।

फिर गुरुकी आज्ञासे परम शक्तिमान् श्रीकृष्णने पुत्रके लिये साम्ब शिवकी आराधनाका उद्देश्य मनमें लेकर तपस्या की।

उस तपस्यासे संतुष्ट हो एक वर्षके पश्चात् पार्षदोंसहित, परम ऐश्वर्यशाली परमेश्वर साम्ब शिवने उन्हें दर्शन दिया।

श्रीकृष्णने वर देनेके लिये प्रकट हुए सुन्दर अंगवाले महादेवजीको हाथ जोड़कर प्रणाम किया और उनकी स्तुति भी की।

गणोंसहित साम्ब सदाशिवका स्तवन करके श्रीकृष्णने अपने लिये एक पुत्र प्राप्त किया।

वह पुत्र तपस्यासे संतुष्ट चित्त हुए साक्षात् शिवने श्रीविष्णुको दिया था।

चूँकि साम्ब शिवने उन्हें अपना पुत्र प्रदान किया, इसलिये श्रीकृष्णने जाम्बवती-कुमारका नाम साम्ब ही रखा।

इस प्रकार अमितपराक्रमी श्रीकृष्णको महर्षि उपमन्युसे ज्ञान-लाभ और भगवान् शंकरसे पुत्र-लाभ हुआ।

इस प्रकार यह सब प्रसंग मैंने पूरा-पूरा कह सुनाया।

जो प्रतिदिन इसे कहता-सुनता या सुनाता है, वह भगवान् विष्णुका ज्ञान पाकर उन्हींके साथ आनन्दित होता है।

(अध्याय १)


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