शिव पुराण – वायवीय संहिता – पूर्वखण्ड – 8


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ब्रह्माजीके द्वारा अर्द्धनारीश्वररूपकी स्तुति तथा उस स्तोत्रकी महिमा

वायुदेव कहते हैं – जब फिर ब्रह्माजीकी रची हुई प्रजा बढ़ न सकी, तब उन्होंने पुनः मैथुनी सृष्टि करनेका विचार किया।

इसके पहले ईश्वरसे नारियोंका समुदाय प्रकट नहीं हुआ था।

इसलिये तबतक पितामह मैथुनी सृष्टि नहीं कर सके थे।

तब उन्होंने मनमें ऐसे विचारको स्थान दिया, जो निश्चितरूपसे उनके मनोरथकी सिद्धिमें सहायक था।

उन्होंने सोचा कि प्रजाओंकी वृद्धिके लिये परमेश्वरसे ही पूछना चाहिये; क्योंकि उनकी कृपाके बिना ये प्रजाएँ बढ़ नहीं सकतीं।

ऐसा सोचकर विश्वात्मा ब्रह्माने तपस्या करनेकी तैयारी की।

तब जो आद्या, अनन्ता, लोकभाविनी, सूक्ष्मतरा, शुद्धा, भावगम्या, मनोहरा, निर्गुणा, निष्प्रपंचा, निष्कला, नित्या तथा सदा ईश्वरके पास रहनेवाली जो उनकी परमा शक्ति है, उसीसे युक्त भगवान् त्रिलोचनका अपने हृदयमें चिन्तन करते हुए ब्रह्माजी बड़ी भारी तपस्या करने लगे।

तीव्र तपस्यामें लगे हुए परमेष्ठी ब्रह्मापर उनके पिता महादेवजी थोड़े ही समयमें संतुष्ट हो गये।

तदनन्तर अपने अनिर्वचनीय अंशसे किसी अद् भुत मूर्तिमें आविष्ट हो भगवान् महादेव आधे शरीरसे नारी और आधे शरीरसे ईश्वर होकर स्वयं ब्रह्माजीके पास गये।

उन सर्वव्यापी, सब कुछ देनेवाले, सत्-असत् से रहित, समस्त उपमाओंसे शून्य, शरणागतवत्सल और सनातन शिवको दण्डवत् प्रणाम करके ब्रह्माजी उठे और हाथ जोड़ महादेवजी तथा महादेवी पार्वतीकी स्तुति करने लगे।

ब्रह्मा बोले – देव! महादेव! आपकी जय हो।

ईश्वर! महेश्वर! आपकी जय हो।

सर्वगुणश्रेष्ठ शिव! आपकी जय हो।

सम्पूर्ण देवताओंके स्वामी शंकर! आपकी जय हो।

प्रकृतिरूपिणी कल्याणमयी उमे! आपकी जय हो।

प्रकृतिकी नायिके! आपकी जय हो।

प्रकृतिसे दूर रहनेवाली देवि! आपकी जय हो।

प्रकृतिसुन्दरि! आपकी जय हो।

अमोघ महामाया और सफल मनोरथवाले देव! आपकी जय हो, जय हो।

अमोघ महालीला और कभी व्यर्थ न जानेवाले महान् बलसे युक्त परमेश्वर! आपकी जय हो, जय हो।

सम्पूर्ण जगत् की माता उमे! आपकी जय हो।

विश्व-जगन्मये! आपकी जय हो।

विश्वजगद्धात्रि! आपकी जय हो।

समस्त संसारकी सखी-सहायिके! आपकी जय हो।

प्रभो! आपका ऐश्वर्य तथा धाम दोनों सनातन हैं।

आपकी जय हो, जय हो।

आपका रूप और अनुचरवर्ग भी आपकी ही भाँति सनातन है।

आपकी जय हो, जय हो।

अपने तीन रूपोंद्वारा तीनों लोकोंका निर्माण, पालन और संहार करनेवाली देवि! आपकी जय हो, जय हो, जय हो।

तीनों लोकों अथवा आत्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा – तीनों आत्माओंकी नायिके! आपकी जय हो।

प्रभो! जगत् के कारण तत्त्वोंका प्रादुर्भाव और विस्तार आपकी कृपादृष्टिके ही अधीन है, आपकी जय हो।

प्रलयकालमें आपकी उपेक्षायुक्त कटाक्षपूर्ण दृष्टिसे जो भयानक आग प्रकट होती है, उसके द्वारा सारा भौतिक जगत् भस्म हो जाता है; आपकी जय हो।

देवि! आपके स्वरूपका सम्यक् ज्ञान देवता आदिके लिये भी असम्भव है।

आपकी जय हो।

आप आत्मतत्त्वके सूक्ष्म ज्ञानसे प्रकाशित होती हैं।

आपकी जय हो।

ईश्वरि! आपने स्थूल आत्मशक्तिसे चराचर जगत् को व्याप्त कर रखा है।

आपकी जय हो, जय हो।

प्रभो! विश्वके तत्त्वोंका समुदाय अनेक और एकरूपमें आपके ही आधारपर स्थित है, आपकी जय हो।

आपके श्रेष्ठ सेवकोंका समूह बड़े-बड़े असुरोंके मस्तकपर पाँव रखता है।

आपकी जय हो।

शरणागतोंकी रक्षा करनेमें अतिशय समर्थ परमेश्वरि! आपकी जय हो।

संसाररूपी विषवृक्षके उगनेवाले अंकुरोंका उन्मूलन करनेवाली उमे! आपकी जय हो।

प्रादेशिक ऐश्वर्य, वीर्य और शौर्यका विस्तार करनेवाले देव! आपकी जय हो।

विश्वसे परे विद्यमान देव! आपने अपने वैभवसे दूसरोंके वैभवोंको तिरस्कृत कर दिया है, आपकी जय हो।

पंचविध मोक्षरूप पुरुषार्थके प्रयोगद्वारा परमानन्दमय अमृतकी प्राप्ति करानेवाले परमेश्वर! आपकी जय हो।

पंचविध पुरुषार्थके विज्ञानरूप अमृतसे परिपूर्ण स्तोत्रस्वरूपिणी परमेश्वरि! आपकी जय हो।

अत्यन्त भयानक संसाररूपी महारोगको दूर करनेवाले वैद्यशिरोमणि! आपकी जय हो।

अनादि कर्ममल एवं अज्ञानरूपी अन्धकारराशिको दूर करनेवाली चन्द्रिकारूपिणी शिवे! आपकी जय हो।

त्रिपुरका विनाश करनेके लिये कालाग्निस्वरूप महादेव! आपकी जय हो।

त्रिपुरभैरवि! आपकी जय हो।

तीनों गुणोंसे मुक्त महेश्वर! आपकी जय हो।

तीनों गुणोंका मर्दन करनेवाली महेश्वरि! आपकी जय हो।

आदिसर्वज्ञ! आपकी जय हो।

सबको ज्ञान देनेवाली देवि! आपकी जय हो।

प्रचुर दिव्य अंगोंसे सुशोभित देव! आपकी जय हो।

मनोवांछित वस्तु देनेवाली देवि! आपकी जय हो।

भगवन्! देव! कहाँ तो आपका उत्कृष्ट धाम और कहाँ मेरी तुच्छ वाणी, तथापि भक्तिभावसे प्रलाप करते हुए मुझ सेवकके अपराधको आप क्षमा कर दें।* इस प्रकार सुन्दर उक्तियोंद्वारा भगवान् रुद्र और देवीका एक साथ गुणगान करके चतुर्मुख ब्रह्माने रुद्र एवं रुद्राणीको बारंबार नमस्कार किया।

ब्रह्माजीके द्वारा पठित यह पवित्र एवं उत्तम अर्द्धनारीश्वर-स्तोत्र शिव तथा पार्वतीके हर्षको बढ़ानेवाला है।

जो भक्तिपूर्वक जिस किसी भी गुरुकी शिक्षासे इस स्तोत्रका पाठ करता है, वह शिव और पार्वतीको प्रसन्न करनेके कारण अपने अभीष्ट फलको प्राप्त कर लेता है।

जो समस्त भुवनोंके प्राणियोंको उत्पन्न करनेवाले हैं, जिनके विग्रह जन्म और मृत्युसे रहित हैं तथा जो श्रेष्ठ नर और सुन्दरी नारीके रूपमें एक ही शरीर धारण करके स्थित हैं, उन कल्याणकारी भगवान् शिव और शिवाको मैं प्रणाम करता हूँ।

(अध्याय १५) * ब्रह्मोवाच – जय देव महादेव जयेश्वर महेश्वर।

जय सर्वगुणश्रेष्ठ जय सर्वसुराधिप।।

जय प्रकृतिकल्याणि जय प्रकृतिनायिके।

जय प्रकृतिदूरे त्वं जय प्रकृतिसुन्दरि।।

जयामोघमहामाय जयामोघमनोरथ।

जयामोघमहालील जयामोघमहाबल।।

जय विश्वजगन्मातर्जय विश्वजगन्मयि।

जय विश्वजगद्धात्रि जय विश्वजगत्सखि।।

जय शाश्वतिकैश्वर्य जय शाश्वतिकालय।

जय शाश्वतिकाकार जय शाश्वतिकानुग।।

जयात्मत्रयनिर्मात्रि जयात्मत्रयपालिनि।

जयात्मत्रयसंहर्त्रि जयात्मत्रयनायिके।।

जयावलोकनायत्तजगत्कारणबृंहण।

जयापेक्षाकटाक्षोत्थहुतभुग्भुक्तभौतिक।।

जय देवाद्यविज्ञेये स्वात्मसूक्ष्मदृशोज्ज्वले।

जय स्थूलात्मशक्यत्येशे जय व्याप्तचराचरे।।

जय नानैकविन्यस्तविश्वतत्त्वसमुच्चय।

जयासुरशिरोनिष्ठश्रेष्ठानुगकदम्बक।।

जयोपाश्रितसंरक्षासंविधानपटीयसि।

जयोन्मूलितसंसारविषवृक्षाङ्कुरोद् गमे।।

जय प्रादेशिकैश्वर्यवीर्यशौर्यविजृम्भण।

जय विश्ववहिर्भूत निरस्तपरवैभव।।

जय प्रणीतपञ्चार्थप्रयोगपरमामृत।

जय पञ्चार्थविज्ञानसुधास्तोत्रस्वरूपिणि।।

जयातिघोरसंसारमहारोगभिषग्वर।

जयानादिमलाज्ञानतमःपटलचन्द्रिके।।

जय त्रिपुरकालाग्ने जय त्रिपुरभैरवि।

जय त्रिगुणनिर्मुक्त जय त्रिगुणमर्दिनि।।

जय प्रथमसर्वज्ञ जय सर्वप्रबोधिके।

जय प्रचुरदिव्याङ्ग जय प्रार्थितदायिनि।।

क्व देव ते परं धाम क्व च तुच्छं हि नो वचः।

तथापि भगवन् भक्त्या प्रलपन्तं क्षमस्व माम्।।

(शि० पु० वा० सं० पू० खं० १५।१६ – ३१)


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