शिव पुराण – वायवीय संहिता – पूर्वखण्ड – 6


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शिव पुराण संहिता लिंकविद्येश्वर | रुद्र संहिता | शतरुद्र | कोटिरुद्र | उमा | कैलास | वायवीय


ब्रह्माजीकी मूर्च्छा, उनके मुखसे रुद्रदेवका प्राकट्य, सप्राण हुए ब्रह्माजीके द्वारा आठ नामोंसे महेश्वरकी स्तुति तथा रुद्रकी आज्ञासे ब्रह्माद्वारा सृष्टि-रचना

तदनन्तर कालमहिमा, प्रलय, ब्रह्माण्डकी स्थिति तथा सर्ग आदिका वर्णन करके वायु-देवताने कहा – पहले ब्रह्माजीने पाँच मानसपुत्रोंको उत्पन्न किया, जो उनके ही समान थे।

उनके नाम इस प्रकार हैं – सनक, सनन्दन, विद्वान् सनातन, ऋभु और सनत्कुमार।

वे सब-के-सब योगी, वीतराग और ईर्ष्यादोषसे रहित थे।

इन सबका मन ईश्वरके चिन्तनमें लगा रहता था।

इसलिये उन्होंने सृष्टिरचनाकी इच्छा नहीं की।

सृष्टिसे विरत हो सनक आदि महात्मा जब चले गये, तब ब्रह्माजीने पुनः सृष्टिकी इच्छासे बड़ी भारी तपस्या की।

इस प्रकार दीर्घकालतक तपस्या करनेपर भी जब कोई काम न बना, तब उनके मनमें दुःख हुआ।

उस दुःखसे क्रोध प्रकट हुआ।

क्रोधसे आविष्ट होनेपर ब्रह्माजीके दोनों नेत्रोंसे आँसूकी बूँदें गिरने लगीं।

उन अश्रुबिन्दुओंसे भूत-प्रेत उत्पन्न हुए।

अश्रुसे उत्पन्न हुए उन सब भूतों-प्रेतोंको देखकर ब्रह्माजीने अपनी निन्दा की।

उस समय क्रोध और मोहके कारण उन्हें तीव्र मूर्च्छा आ गयी।

क्रोधसे आविष्ट हुए प्रजापतिने मूर्च्छित होनेपर अपने प्राण त्याग दिये।

तब प्राणोंके स्वामी भगवान् नीललोहित रुद्र अनुपम कृपाप्रसाद प्रकट करनेके लिये ब्रह्माजीके मुखसे वहाँ प्रकट हुए।

उन जगदीश्वर प्रभुने अपनेको ग्यारह रूपोंमें प्रकट किया।

महादेवजीने अपने उन महामना ग्यारह स्वरूपोंसे कहा – ‘बच्चो! मैंने लोकपर अनुग्रह करनेके लिये तुमलोगोंकी सृष्टि की है; अतः तुम आलस्यरहित हो सम्पूर्ण लोककी स्थापना, हितसाधन तथा प्रजा-संतानकी वृद्धिके लिये प्रयत्न करो।’ महेश्वरके ऐसा कहनेपर वे रोने और चारों ओर दौड़ने लगे।

रोने और दौड़नेके कारण उनका नाम ‘रुद्र’ हुआ।

जो रुद्र हैं, वे निश्चय ही प्राण हैं और जो प्राण हैं, वे महात्मा रुद्र हैं।

तत्पश्चात् ब्रह्मपुत्र महेश्वरने दया करके मरे हुए देवता परमेष्ठी ब्रह्माजीको पुनः प्राण-दान दिया।

ब्रह्माजीके शरीरमें प्राणोंके लौट आनेपर रुद्रदेवका मुख प्रसन्नतासे खिल उठा।

उन विश्वनाथने ब्रह्माजीसे यह उत्तम बात कही – ‘उत्तम व्रतका पालन करनेवाले जगद् गुरु महाभाग विरिंच! डरो मत! डरो मत! मैंने तुम्हारे प्राणोंको नूतन जीवन प्रदान किया है; अतः सुखसे उठो।’ स्वप्नमें सुने हुए वाक्यकी भाँति उस मनोहर वचनको सुनकर ब्रह्माजीने प्रफुल्ल कमलके समान सुन्दर नेत्रोंद्वारा धीरेसे भगवान् हरकी ओर देखा।

उनके प्राण पहलेकी तरह लौट आये थे।

अतः ब्रह्माजीने दोनों हाथ जोड़ स्नेहयुक्त गम्भीर वाणीद्वारा उनसे कहा – ‘प्रभो! आप दर्शनमात्रसे मेरे मनको आनन्द प्रदान कर रहे हैं; अतः बताइये, आप कौन हैं? जो सम्पूर्ण जगत् के रूपमें स्थित हैं, क्या वे ही भगवान् आप ग्यारह रूपोंमें प्रकट हुए हैं?’ उनकी यह सब बात सुनकर देवताओंके स्वामी महेश्वर अपने परम सुखदायक करकमलोंद्वारा ब्रह्माजीका स्पर्श करते हुए बोले – ‘देव! तुम्हें ज्ञात होना चाहिये कि मैं परमात्मा हूँ और इस समय तुम्हारा पुत्र होकर प्रकट हुआ हूँ।

ये जो ग्यारह रुद्र हैं, तुम्हारी सुरक्षाके लिये यहाँ आये हैं।

अतः तुम मेरे अनुग्रहसे इस तीव्र मूर्च्छाको त्यागकर जाग उठो और पूर्ववत् प्रजाकी सृष्टि करो।’ भगवान् शिवके ऐसा कहनेपर ब्रह्माजीके मनमें बड़ी प्रसन्नता हुई।

उन विश्वात्माने आठ नामोंद्वारा परमेश्वर शिवका स्तवन किया।

ब्रह्माजी बोले – भगवन्! रुद्र! आपका तेज असंख्य सूर्योंके समान अनन्त है।

आपको नमस्कार है।

रसस्वरूप और जलमय विग्रहवाले आप भवदेवताको नमस्कार है।

नन्दी और सुरभि (कामधेनु) ये दोनों आपके स्वरूप हैं।

आप पृथ्वीरूपधारी शर्वको नमस्कार है।

स्पर्शमय वायुरूपवाले आपको नमस्कार है।

आप ही वसुरूपधारी ईश हैं।

आपको नमस्कार है।

अत्यन्त तेजस्वी अग्निरूप आप पशुपतिको नमस्कार है।

शब्दतन्मात्रासे युक्त आकाशरूपधारी आप भीमदेवको नमस्कार है।

उग्ररूपवाले यजमानमूर्ति आपको नमस्कार है।

सोमरूप आप अमृतमूर्ति महादेवजीको नमस्कार है।

इस प्रकार आठ मूर्ति और आठ नामवाले आप भगवान् शिवको मेरा नमस्कार है।* इस प्रकार विश्वनाथ महादेवजीकी स्तुति करके लोकपितामह ब्रह्माने प्रणामपूर्वक उनसे प्रार्थना की – ‘भूत, भविष्य और वर्तमानके स्वामी मेरे पुत्र भगवान् महेश्वर! कामनाशन! आप सृष्टिके लिये मेरे शरीरसे उत्पन्न हुए हैं; इसलिये जगत्प्रभो! इस महान् कार्यमें संलग्न हुए मुझ ब्रह्माकी आप सर्वत्र सहायता करें और स्वयं भी प्रजाकी सृष्टि करें।’ ब्रह्माजीके इस प्रकार प्रार्थना करनेपर कल्याणकारी, त्रिपुरनाशक रुद्रदेवने ‘बहुत अच्छा’ कहकर उनकी बात मान ली।

तदनन्तर प्रसन्न हुए महादेवजीका अभिनन्दन करके सृष्टिके लिये उनकी आज्ञा पाकर भगवान् ब्रह्माने अन्यान्य प्रजाओंकी सृष्टि आरम्भ की।

उन्होंने अपने मनसे ही मरीचि, भृगु, अंगिरा, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु, अत्रि और वसिष्ठकी सृष्टि की।

ये सब ब्रह्माजीके पुत्र कहे गये हैं।

धर्म, संकल्प और रुद्रके साथ इनकी संख्या बारह होती है।

ये सब पुराने गृहस्थ हैं।

देवगणोंसहित इनके बारह दिव्य वंश कहे गये हैं।

जो प्रजावान्, क्रियावान् तथा महर्षियोंसे अलंकृत हैं।

तत्पश्चात् जलपर स्थित हुए रुद्रसहित ब्रह्माजीने देवताओं, असुरों, पितरों और मनुष्योंकी सृष्टि करनेका विचार किया।

ब्रह्माजीने सृष्टिके लिये समाधिस्थ हो अपने चित्तको एकाग्र किया।

तत्पश्चात् मुखसे देवताओंको, कोखसे पितरोंको, कटिके अगले भागसे असुरोंको तथा प्रजननेन्द्रिय (लिंग)-से सब मनुष्योंको उत्पन्न किया।

उनके गुदास्थानसे राक्षस उत्पन्न हुए, जो सदा भूखसे व्याकुल रहते हैं।

उनमें तमोगुण और रजोगुणकी प्रधानता होती है।

वे रातको विचरते और बलवान् होते हैं।

साँप, यक्ष, भूत और गन्धर्व ये भी ब्रह्माजीके अंगोंसे उत्पन्न हुए।

उनके पक्षभागसे पक्षी हुए।

वक्षःस्थलसे अजंगम (स्थावर) प्राणियोंका जन्म हुआ।

मुखसे बकरों और पार्श्वभागसे भुजंगमोंकी उत्पत्ति हुई।

दोनों पैरोंसे घोड़े, हाथी, शरभ, नीलगाय, मृग, ऊँट, खच्चर, न्यंकु नामक मृग तथा पशुजातिके अन्यान्य प्राणी उत्पन्न हुए।

रोमावलियोंसे ओषधियों और फल-मूलोंका प्राकट्य हुआ।

ब्रह्माजीके पूर्ववर्ती मुखसे गायत्री छन्द, ऋग्वेद, त्रिवृत् स्तोम, रथन्तर साम तथा अग्निष्टोम नामक यज्ञकी उत्पत्ति हुई।

उनके दक्षिण मुखसे यजुर्वेद, त्रिष्टुप् छन्द, पंचदश स्तोम, बृहत्साम और उक्थ नामक यज्ञकी उत्पत्ति हुई।

उन्होंने अपने पश्चिम मुखसे सामवेद, जगती छन्द, सप्तदश स्तोम, वैरूप्य साम और अतिरात्र नामक यज्ञको प्रकट किया।

उनके उत्तरवर्ती मुखसे एकविंश स्तोम, अथर्ववेद, आप्तोर्याम नामक यम, अनुष्टुप् छन्द और वैराज नामक सामका प्रादुर्भाव हुआ।

उनके अंगोंसे और भी बहुत-से छोटे-बड़े प्राणी उत्पन्न हुए।

उन्होंने यक्ष, पिशाच, गन्धर्व, अप्सराओंके समुदाय, किंनर, राक्षस, पक्षी, पशु, मृग और सर्प आदि सम्पूर्ण नित्य एवं अनित्य स्थावर-जंगम जगत् की रचना की।

उनमेंसे जिन्होंने जैसे-जैसे कर्म पूर्वकल्पोंमें अपनाये थे, पुनः-पुनः सृष्टि होनेपर उन्होंने फिर उन्हीं कर्मोंको अपनाया।

उस समय वे अपनी पूर्वभावनासे भावित होकर हिंसा-अहिंसासे युक्त मृदु-कठोर, धर्म-अधर्म तथा सत्य और मिथ्या कर्मको अपनाते हैं; क्योंकि पहलेकी वासनाके अनुकूल कर्म ही उन्हें अच्छे लगते हैं।

इस प्रकार विधाताने ही स्वयं इन्द्रियोंके विषय, भूत और शरीर आदिमें विभिन्नता एवं व्यवहारकी सृष्टि की है।

उन पितामहने कल्पके आरम्भमें देवता आदि प्राणियोंके नाम, रूप तथा कार्य-विस्तारको वेदोक्त वर्णनके अनुसार ही निश्चित किया।

ऋषियोंके नाम तथा जीविका-साधक कर्म भी उन्होंने वेदोंके अनुसार ही निर्दिष्ट किये।

अपनी रात व्यतीत होनेपर अजन्मा ब्रह्माने स्वरचित प्राणियोंको वे ही नाम और कर्म दिये, जो पूर्वकल्पमें उन्हें प्राप्त थे।

जिस प्रकार भिन्न-भिन्न ऋतुओंके पुनः-पुनः आनेपर उनके चिह्न और नाम-रूप आदि पूर्ववत् रहते हैं, उसी प्रकार युगादि कालमें भी उनके पूर्वभाव ही दृष्टिगोचर होते हैं।

इस प्रकार स्वयम्भू ब्रह्माजीकी लोकसृष्टि उन्हींके विभिन्न अंगोंसे प्रकट हुई हैं।

महत् से लेकर विशेषपर्यन्त सब कुछ प्रकृतिका विकार है।

यह प्राकृत जगत् चन्द्रमा और सूर्यकी प्रभासे उद्भासित, ग्रह और नक्षत्रोंसे मण्डित, नदियों, पर्वतों तथा समुद्रोंसे अलंकृत और भाँति-भाँतिके रमणीय नगरों एवं समृद्धिशाली जनपदोंसे सुशोभित है।

इसीको ब्रह्माजीका वन या ब्रह्मवृक्ष कहते हैं उस ब्रह्मवनमें अव्यक्त एवं सर्वज्ञ ब्रह्मा विचरते हैं।

वह सनातन ब्रह्मवृक्ष अव्यक्तरूपी बीजसे प्रकट एवं ईश्वरके अनुग्रहपर स्थित है।

बुद्धि इसका तना और बड़ी-बड़ी डालियाँ हैं।

इन्द्रियाँ भीतरके खोखले हैं।

महाभूत इसकी सीमा है।

विशेष पदार्थ इसके निर्मल पत्ते हैं।

धर्म और अधर्म इसके सुन्दर फूल हैं।

इसमें सुख और दुःखरूपी फल लगते हैं तथा यह सम्पूर्ण भूतोंके जीवनका सहारा है।

ब्राह्मणलोग द्युलोकको उनका मस्तक, आकाशको नाभि, चन्द्रमा और सूर्यको नेत्र, दिशाओंको कान और पृथ्वीको उनके पैर बताते हैं।

वे अचिन्त्य-स्वरूप महेश्वर ही सब भूतोंके निर्माता हैं।

उनके मुखसे ब्राह्मण प्रकट हुए हैं।

वक्षःस्थलके ऊपरी भागसे क्षत्रियोंकी उत्पत्ति हुई है, दोनों जाँघोंसे वैश्य और पैरोंसे शूद्र उत्पन्न हुए हैं।

इस प्रकार उनके अंगोंसे ही सम्पूर्ण वर्णोंका प्रादुर्भाव हुआ है।

(अध्याय ७ – १२) * ब्रह्मोवाच – नमस्ते भगवन् रुद्र भास्करामिततेजसे।

नमो भवाय देवाय रसायाम्बुमयात्मने।।

शर्वाय क्षितिरूपाय नन्दीसुरभये नमः।

ईशाय वसवे तुभ्यं नमः स्पर्शमयात्मने।।

पशूनां पतये चैव पावकायातितेजसे।

भीमाय व्योमरूपाय शब्दमात्राय ते नमः।।

उग्रायोग्रस्वरूपाय यजमानात्मने नमः।

महाशिवाय सोमाय नमस्त्वमृतमूर्तये।।

(शि० पु० वा० सं० पू० खं० १२।४१ – ४४)


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