शिव पुराण – वायवीय संहिता – पूर्वखण्ड – 5


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शिव पुराण संहिता लिंकविद्येश्वर | रुद्र संहिता | शतरुद्र | कोटिरुद्र | उमा | कैलास | वायवीय


महेश्वरकी महत्ताका प्रतिपादन

वायुदेवता कहते हैं – महर्षियो! इस विश्वका निर्माण करनेवाला कोई पति है, जो अनन्त रमणीय गुणोंका आश्रय कहा गया है।

वही पशुओंको पाशसे मुक्त करनेवाला है।

उसके बिना संसारकी सृष्टि कैसे हो सकती है; क्योंकि पशु अज्ञानी और पाश अचेतन है।

प्रधान परमाणु आदि जितने भी जड तत्त्व हैं, उन सबका कर्ता वह पति ही है – यह बात स्वयं समझमें आ जाती है।

किसी बुद्धिमान् या चेतन कारणके बिना इन जड तत्त्वोंका निर्माण कैसे सम्भव है।

पशु, पाश और पतिका जो वास्तवमें पृथक्-पृथक् स्वरूप है, उसे जानकर ही ब्रह्मवेत्ता पुरुष योनिसे मुक्त होता है।

क्षर और अक्षर – ये दोनों एक-दूसरेसे संयुक्त होते हैं।

पति या महेश्वर ही व्यक्ताव्यक्त जगत् का भरण-पोषण करते हैं।

वे ही जगत् को बन्धनसे छुड़ानेवाले हैं।

भोक्ता, भोग्य और प्रेरक – ये तीन ही तत्त्व जाननेयोग्य हैं।

विज्ञ पुरुषोंके लिये इनसे भिन्न दूसरी कोई वस्तु जाननेयोग्य नहीं है।

सृष्टिके आरम्भमें एक ही रुद्रदेव विद्यमान रहते हैं, दूसरा कोई नहीं होता।

वे ही इस जगत् की सृष्टि करके इसकी रक्षा करते हैं और अन्तमें सबका संहार कर डालते हैं।

उनके सब ओर नेत्र हैं, सब ओर मुख हैं, सब ओर भुजाएँ हैं और सब ओर चरण हैं।

ये ही सबसे पहले देवताओंमें ब्रह्माजीको उत्पन्न करते हैं।

श्रुति कहती है कि ‘रुद्रदेव सबसे श्रेष्ठ महान् ऋषि हैं।

मैं इन महान् अमृतस्वरूप अविनाशी पुरुष परमेश्वरको जानता हूँ।

इनकी अंगकान्ति सूर्यके समान है।

ये प्रभु अज्ञानान्धकारसे परे विराजमान हैं।’१ इन परमात्मासे परे दूसरी कोई वस्तु नहीं है।

इनसे अत्यन्त सूक्ष्म और इनसे अधिक महान् भी कुछ नहीं है।

इनसे यह सारा जगत् परिपूर्ण है।

इनके सब ओर हाथ, पैर, नेत्र, मस्तक, मुख और कान हैं।

ये लोकमें सबको व्याप्त करके स्थित हैं।

ये सम्पूर्ण इन्द्रियोंके विषयोंको जाननेवाले हैं, परंतु वास्तवमें सब इन्द्रियोंसे रहित हैं।

सबके स्वामी, शासक, शरणदाता और सुहृद् हैं।

ये नेत्रके बिना भी देखते हैं और कानके बिना भी सुनते हैं।

ये सबको जानते हैं, किंतु इनको पूर्णरूपसे जाननेवाला कोई नहीं है।

इन्हें परम पुरुष कहते हैं।

ये अणुसे भी अत्यन्त अणु और महान् से भी परम महान् हैं।

ये अविनाशी महेश्वर इस जीवकी हृदय-गुफामें निवास करते हैं।२ एक साथ रहनेवाले दो पक्षी एक ही वृक्ष (शरीर)-का आश्रय लेकर रहते हैं।

उनमेंसे एक तो उस वृक्षके कर्मरूप फलोंका स्वाद ले-लेकर उपभोग करता है, किंतु दूसरा उस वृक्षके फलका उपभोग न करता हुआ केवल देखता रहता है।३ जीवात्मा इस वृक्षके प्रति आसक्तिमें डूबा हुआ है, अतः मोहित होकर शोक करता रहता है।

वह जब कभी भगवत्कृपासे भक्तसेवित परम कारणरूप परमेश्वरका और उनकी महिमाका साक्षात्कार कर लेता है, तब शोकरहित हो सुखी हो जाता है।

छन्द, यज्ञ, क्रतु तथा भूत, वर्तमान और भविष्य सम्पूर्ण विश्वको वह मायावी रचता है और मायासे ही उसमें प्रविष्ट होकर रहता है।

प्रकृतिको ही माया समझना चाहिये और महेश्वर ही वह मायावी है।४ ये विश्वकर्मा महेश्वर ही परम देवता परमात्मा हैं, जो सबके हृदयमें विराजमान हैं।

उन्हें जानकर ही पुरुष परमानन्दमय अमृतका अनुभव करता है।

ब्रह्मासे भी श्रेष्ठ, असीम एवं अविनाशी परमात्मामें विद्या और अविद्या दोनों गूढ़भावसे स्थित हैं।

विनाशशील जडवर्गको ही यहाँ अविद्या कहा गया है और अविनाशी जीवको विद्या नाम दिया गया है; जो उन दोनों विद्या और अविद्यापर शासन करते हैं, वे महेश्वर उनसे सर्वथा भिन्न – विलक्षण हैं।

ये प्रतापी महेश्वर इस जगत् में समष्टिभूत और इन्द्रियवर्गरूप एक-एक जालको अनेक प्रकारसे रचकर इसका विस्तार करते हैं।

फिर अन्तमें संहार करके सबको अनेकसे एकमें परिणत कर देते हैं तथा पुनः सृष्टिकालमें सबकी पूर्ववत् रचना करके सबपर आधिपत्य करते हैं।

जैसे सूर्य अकेला ही ऊपर-नीचे तथा अगल-बगलकी दिशाओंको प्रकाशित करता हुआ स्वयं भी देदीप्यमान होता है, उसी प्रकार ये भजनीय परमेश्वर अकेले ही समस्त कारणरूप पृथ्वी आदि तत्त्वोंका नियमन करते हैं।

श्रद्धा और भक्तिके भावसे प्राप्त होनेयोग्य, आश्रयरहित कहे जानेवाले, जगत् की उत्पत्ति और संहार करनेवाले, कल्याण-स्वरूप एवं सोलह कलाओंकी रचना कर उन महादेवको जो जानते हैं, वे शरीरके बन्धनको सदाके लिये त्याग देते हैं अर्थात् जन्म-मृत्युके चक्करसे छूट जाते हैं।

वे ही परमेश्वर तीनों कालोंसे परे, निष्कल, सर्वज्ञ, त्रिगुणाधीश्वर एवं साक्षात् परात्पर ब्रह्म हैं।

सम्पूर्ण विश्व उन्हींका रूप है।

वे सबकी उत्पत्तिके कारण होकर भी स्वयं अजन्मा हैं, स्तुतिके योग्य हैं, प्रजाओंके पालक, देवताओंके भी देवता और सम्पूर्ण जगत् के लिये पूजनीय हैं।

अपने हृदयमें विराजमान उन परमेश्वरकी हम उपासना करते हैं।

जो काल आदिसे परे, जिनसे यह समस्त प्रपंच प्रकट होता है, जो धर्मके पालक, पापके नाशक, भोगोंके स्वामी तथा सम्पूर्ण विश्वके धाम हैं, जो ईश्वरोंके भी परम महेश्वर, देवताओंके भी परम देवता तथा पतियोंके भी परम पति हैं, उन भुवनेश्वरोंके भी ईश्वर महादेवको हम सबसे परे जानते हैं।

उनके शरीररूप कार्य और इन्द्रिय तथा मनरूपी करण नहीं हैं, उनके समान और उनसे अधिक भी इस जगत् में कोई नहीं दिखायी देता।

ज्ञान, बल और क्रियारूप उनकी स्वाभाविक पराशक्ति वेदोंमें नाना प्रकारकी सुनी गयी है।

उन्हीं शक्तियोंसे इस सम्पूर्ण विश्वकी रचना हुई है।

उसका न कोई स्वामी है, न कोई निश्चित चिह्न है, न उसपर किसीका शासन है।

वह समस्त कारणोंका कारण होता हुआ ही उनका अधीश्वर भी है।

उनका न कोई जन्मदाता है, न जन्म है, न जन्मके माया-मलादि हेतु ही हैं।

वह एक ही सम्पूर्ण विश्वमें, समस्त भूतोंमें गुह्यरूपसे व्याप्त है।

वही सब भूतोंका अन्तरात्मा और धर्माध्यक्ष कहलाता है।

वह सब भूतोंके अंदर बसा हुआ, सबका द्रष्टा, साक्षी, चेतन और निर्गुण है।

वह एक है, वशी है, अनेकों विवशात्मा निष्क्रिय पुरुषोंको वशमें रखनेवाला है।

वह नित्योंका नित्य, चेतनोंका चेतन है।

वह एक है, कामनारहित है और बहुतोंकी कामना पूर्ण करनेवाला ईश्वर है।

सांख्य और योग अर्थात् ज्ञानयोग और निष्काम कर्मयोगसे प्राप्त करनेयोग्य सबके कारणरूप उन जगदीश्वर परमदेवको जानकर जीव सम्पूर्ण पाशों (बन्धनों)-से मुक्त हो जाता है।

वे सम्पूर्ण विश्वके स्रष्टा, सर्वज्ञ, स्वयं ही अपने प्राकट्यके हेतु, ज्ञानस्वरूप, कालके भी स्रष्टा, सम्पूर्ण दिव्य गुणोंसे सम्पन्न, प्रकृति और जीवात्माके स्वामी, समस्त गुणोंके शासक तथा संसार-बन्धनसे छुड़ानेवाले हैं।

जिन परमदेवने सबसे पहले ब्रह्माजीको उत्पन्न किया और स्वयं उन्हें वेदोंका ज्ञान दिया, अपने स्वरूपविषयक बुद्धिको प्रसन्न (विकसित) करनेवाले उन परमेश्वर शिवको जानकर मैं इस संसारबन्धनसे छूटनेके लिये उनकी शरणमें जाता हूँ।१ यह वेदान्तशास्त्रका परम गोपनीय ज्ञान है; पूर्वकल्पमें मुझे इसका उपदेश किया गया था।

मैंने बड़े भारी सौभाग्यसे ब्रह्माजीके मुखसे इस ज्ञानको पाया था।

जो शम-दमसे रहित हो, उसे इस परम उत्तम ज्ञानका उपदेश नहीं देना चाहिये।

जो अपना पुत्र, सदाचारी तथा शिष्य न हो, उसे भी नहीं देना चाहिये।

जिनकी परमदेव परमेश्वरमें परम भक्ति है, जैसे परमेश्वरमें है, वैसे ही गुरुमें भी है, उस महात्मा पुरुषके हृदयमें ही ये बताये हुए रहस्यमय अर्थ प्रकाशित होते हैं।२ अतः संक्षेपसे यह सिद्धान्तकी बात सुनो।

भगवान् शिव प्रकृति और पुरुषसे परे हैं।

वे ही सृष्टिकालमें जगत् को रचते और संहारकालमें पुनः सबको आत्मसात् कर लेते हैं।

(अध्याय ६) १- विश्वस्मादधिको रुद्रो महर्षिरिति हि श्रुतिः।।

वेदाहमेतं पुरुषं महान्तममृतं ध्रुवम्।

आदित्यवर्णं तमसः परस्तात्संस्थितं प्रभुम्।।

(शि० पु० वा० सं० पू० खं० ६।१७-१८) २- सर्वतःपाणिपादोऽयं सर्वतोऽक्षिशिरोमुखः।

सर्वतःश्रुतिमाँल्लोके सर्वमावृत्य तिष्ठति।।

सर्वेन्द्रियगुणाभासः सर्वेन्द्रियविवर्जितः।

सर्वस्य प्रभुरीशानः सर्वस्य शरणं सुहृत्।।

अचक्षुरपि यः पश्यत्यकर्णोऽपि शृणोति यः।

सर्वं वेत्ति न वेत्तास्य तमाहुः पुरुषं परम्।।

अणोरणीयान्महतो महीयानयमव्ययः।

गुहायां निहितश्चापि जन्तोरस्य महेश्वरः।।

(शि० पु० वा० सं० पू० खं० ६।२१ – २४) ३- द्वौ सुपर्णौ च सयुजौ समानं वृक्षमास्थितौ।

एकोऽत्ति पिप्पलं स्वादु परोऽनश्नन् प्रपश्यति।।

(शि० पु० वा० सं० पू० खं० ६।३०) ४- छन्दांसि यज्ञाः क्रतवो यद्भूतं भव्यमेव च।

माया विश्वं सृजत्यस्मिन्निविष्टो मायया परः।

मायां तु प्रकृतिं विद्यान्मायिनं तु महेश्वरम्।।

(शि० पु० वा० सं० पू० खं० ६।३२-३३) १-परस्त्रिकालादकलः स एव परमेश्वरः।

सर्ववित् त्रिगुणाधीशो ब्रह्म साक्षात् परात्परः।।

तं विश्वरूपमभवं भवमीड्यं प्रजापतिम्।

देवदेवं जगत्पूज्यं स्वचित्तस्थमुपास्महे।।

कालादिभिः परो यस्मात् प्रपञ्चः परिवर्तते।

धर्मावहं पापनुदं भोगेशं विश्वधाम च।।

तमीश्वराणां परमं महेश्वरं तं देवतानां परमं च दैवतम्।

पतिं पतीनां परमं परस्ताद्विदाम देवं भुवनेश्वरेश्वरम्।।

न तस्य विद्यते कार्यं कारणं च न विद्यते।

न तत्समोऽधिकश्चापि क्वचिज्जगति दृश्यते।।

परास्य विविधा शक्तिः श्रुतौ स्वाभाविकी श्रुता।

ज्ञानं बलं क्रिया चैव याभ्यो विश्वमिदं कृतम्।।

न तस्यास्ति पतिः कश्चिन्नैव लिङ्गं न चेशिता।

कारणं कारणानां च स तेषामधिपाधिपः।।

न चास्य जनिता कश्चिन्न च जन्म कुतश्चन।

न जन्महेतवस्तद्वन्मलमायादिसंज्ञकाः।।

स एकः सर्वभूतेषु गूढो व्याप्तश्च विश्वतः।

सर्वभूतान्तरात्मा च धर्माध्यक्षः स कथ्यते।।

सर्वभूताधिवासश्च साक्षी चेता च निर्गुणः।

एको वशी निष्क्रियाणां बहूनां विवशात्मनाम्।।

नित्यानामप्यसौ नित्यश्चेतनानां च चेतनः।

एको बहूनां चाकामः कामानीशः प्रयच्छति।।

सांख्ययोगाधिगम्यं यत् कारणं जगतां पतिम्।

ज्ञात्वा देवं पशुः पाशैः सर्वैरेव विमुच्यते।।

विश्वकृद् विश्ववित् स्वात्मयोनिज्ञः कालकृद् गुणी।

प्रधानः क्षेत्रज्ञपतिर्गुणेशः पाशमोचकः।।

ब्रह्माणं विदधे पूर्वं वेदांश्चोपादिशत्स्वयम्।

यो देवस्तमहं बुद्ध्वा स्वात्मबुद्धिप्रसादतः।।

मुमुक्षुरस्मात् संसारात् प्रपद्ये शरणं शिवम्।

(शि० पु० वा० सं० पू० खं० ६।५५ – ६८) २- यस्य देवे परा भक्तिर्यथा देवे तथा गुरौ।

तस्यैते कथिता ह्यर्थाः प्रकाशन्ते महात्मनः।।

(शि० पु० वा० सं० पू० खं० ६।७५)


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