शिव पुराण – वायवीय संहिता – पूर्वखण्ड – 4


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शिव पुराण संहिता लिंकविद्येश्वर | रुद्र संहिता | शतरुद्र | कोटिरुद्र | उमा | कैलास | वायवीय


नैमिषारण्यमें दीर्घसत्रके अन्तमें मुनियोंके पास वायुदेवताका आगमन, उनका सत्कार तथा ऋषियोंके पूछनेपर वायुके द्वारा पशु, पाश एवं पशुपतिका तात्त्विक विवेचन

सूतजी कहते हैं – मुनीश्वरो! उस समय उत्तम व्रतका पालन करनेवाले उन महाभाग महर्षियोंने उस देशमें महादेवजीकी आराधना करते हुए एक महान् यज्ञका आयोजन किया।

वह यज्ञ जब आरम्भ हुआ, तब महर्षियोंको सर्वथा आश्चर्यजनक जान पड़ा।

तदनन्तर समय बीतनेपर जब प्रचुर दक्षिणाओंसे युक्त वह यज्ञ समाप्त हुआ, तब ब्रह्माजीकी आज्ञासे वायुदेव स्वयं वहाँ पधारे।

उनको आया देख दीर्घकालिक यज्ञका अनुष्ठान करनेवाले वे मुनि ब्रह्माजीकी बातको याद करके अनुपम हर्षका अनुभव करने लगे।

उन सबने उठकर आकाशजन्मा वायुदेवताको प्रणाम किया और उन्हें बैठनेके लिये एक सोनेका बना हुआ आसन दिया।

वायुदेवता उस आसनपर बैठे।

मुनियोंने उनकी विधिवत् पूजा की।

तदनन्तर उन सबका अभिनन्दन करके वे कुशल-मंगल पूछने लगे।

वायुदेवता बोले – ब्राह्मणो! इस महान् यज्ञका अनुष्ठान पूर्ण होनेतक तुम सब लोग सकुशल रहे न? यज्ञहन्ता देवद्रोही दैत्योंने तुम्हें बाधा तो नहीं पहुँचायी? तुम्हें कोई प्रायश्चित्त तो नहीं करना पड़ा? तुम्हारे यज्ञमें कोई दोष तो नहीं आया? क्या तुमलोगोंने स्तोत्र और शस्त्रग्रहोंद्वारा देवताओंका तथा पितृकर्मोंद्वारा पितरोंका भलीभाँति पूजन करके यज्ञ-विधिका अनुष्ठान भलीभाँति सम्पन्न किया? इस महायज्ञकी समाप्ति हो जानेपर अब आपलोग क्या करना चाहते हैं? मुनियोंने कहा – प्रभो! हमारे कल्याणकी वृद्धिके लिये जब आप स्वयं यहाँ आ गये, तब अब हमारा सब प्रकारसे कुशल-मंगल ही है तथा हमारी तपस्या भी उत्तम होगी।

अब पहलेका वृत्तान्त सुनिये।

हमारा हृदय अज्ञानान्धकारसे आक्रान्त हो गया था, तब हमने विज्ञानकी प्राप्तिके लिये पूर्वकालमें प्रजापतिकी उपासना की।

शरणागतवत्सल प्रजापतिने हम शरणागतों-पर कृपा करके इस प्रकार कहा – ‘ब्राह्मणो! रुद्रदेव सबसे श्रेष्ठ हैं।

वे ही परम कारण हैं।

उन्हें तर्कसे नहीं जाना जा सकता।

भक्तिमान् पुरुष ही उनके स्वरूपको ठीक-ठीक देखता और समझता है।

भक्ति भी उनकी कृपासे ही मिलती है और उस कृपासे ही परमानन्दकी प्राप्ति होती है।

अतः उनके कृपाप्रसादको प्राप्त करनेके लिये तुमलोग नैमिषारण्यमें यज्ञका आयोजन करो।

दीर्घकालतक चलनेवाले उस यज्ञके द्वारा परम कारण रुद्रदेवकी आराधना करो।

यज्ञके अन्तमें उन रुद्रदेवके कृपा-प्रसादसे वायुदेवता वहाँ पधारेंगे।

उनके मुखसे वहाँ तुम्हें ज्ञानलाभ होगा और उससे कल्याणकी प्राप्ति होगी।’ महाभाग! ऐसा आदेश देकर परमेष्ठीने हम सबको यहाँ भेजा।

हम इस देशमें आपके आगमनकी प्रतीक्षा करते हुए एक सहस्र दिव्य वर्षोंतक दीर्घकालिक यज्ञके अनुष्ठानमें लगे रहे हैं।

अतः इस समय आपके आगमनके सिवा हमारे लिये दूसरी कोई प्रार्थनीय वस्तु नहीं है।

दीर्घकालसे यज्ञानुष्ठानमें लगे हुए उन महर्षियोंका यह पुरातन वृत्तान्त सुनकर वायुदेवता मन-ही-मन प्रसन्न हो मुनियोंसे घिरे हुए वहाँ बैठे रहे।

फिर उन सबके पूछनेपर उनके भक्तिभावकी वृद्धिके लिये उन्होंने भगवान् शंकरके सृष्टि आदि ऐश्वर्यको संक्षेपसे बताया।

नैमिषारण्यके ऋषियोंने पूछा – देव! आपने ईश्वरविषयक ज्ञान कैसे प्राप्त किया? तथा आप अव्यक्तजन्मा ब्रह्माजीके शिष्य किस प्रकार हुए? वायुदेवता बोले – महर्षियो! उन्नीसवें कल्पका नाम श्वेतलोहितकल्प समझना चाहिये।

उसी कल्पमें चतुर्मुख ब्रह्माने सृष्टिकी कामनासे तपस्या की।

उनकी उस तीव्र तपस्यासे संतुष्ट हो स्वयं उनके पिता देवदेव महेश्वरने उन्हें दर्शन दिया।

वे दिव्य कुमारावस्थासे युक्त रूप धारण करके रूपवानोंमें श्रेष्ठ श्वेत नामक मुनि होकर दिव्य वाणी बोलते हुए उनके सामने उपस्थित हुए।

वेदोंके अधिपति तथा सबके पालक पिता महेश्वरका दर्शन करके गायत्रीसहित ब्रह्माजीने उन्हें प्रणाम किया और उन्हींसे उत्तम ज्ञान पाया।

ज्ञान पाकर विश्वकर्मा चतुर्मुख ब्रह्मा सम्पूर्ण चराचर भूतोंकी सृष्टि करने लगे।

साक्षात् परमेश्वर शिवसे सुनकर ब्रह्माजीने अमृतस्वरूप ज्ञान प्राप्त किया था, इसलिये मैंने तपस्याके बलसे उन्हींके मुखसे उस ज्ञानको उपलब्ध किया।

मुनियोंने पूछा – आपने वह कौन-सा ज्ञान प्राप्त किया, जो सत्यसे भी परम सत्य एवं शुभ है तथा जिसमें उत्तम निष्ठा रखकर पुरुष परमानन्दको प्राप्त करता है? वायुदेवता बोले – महर्षियो! मैंने पूर्वकालमें पशु-पाश और पशुपतिका जो ज्ञान प्राप्त किया था, सुख चाहनेवाले पुरुषको उसीमें ऊँची निष्ठा रखनी चाहिये।

अज्ञानसे उत्पन्न होनेवाला दुःख ज्ञानसे ही दूर होता है।

वस्तुके विवेकका नाम ज्ञान है।

वस्तुके तीन भेद माने गये हैं – जड (प्रकृति), चेतन (जीव) और उन दोनोंका नियन्ता (परमेश्वर)।

इन्हीं तीनोंको क्रमसे पाश, पशु तथा पशुपति कहते हैं।

तत्त्वज्ञ पुरुष प्रायः इन्हीं तीन तत्त्वोंको क्षर, अक्षर तथा उन दोनोंसे अतीत कहते हैं।

अक्षर ही पशु कहा गया है।

क्षर तत्त्वका ही नाम पाश है तथा क्षर और अक्षर दोनोंसे परे जो परमतत्त्व है, उसीको पति या पशुपति कहते हैं।

प्रकृतिको ही क्षर कहा गया है।

पुरुष (जीव)-को ही अक्षर कहते हैं और जो इन दोनोंको प्रेरित करता है, वह क्षर और अक्षर दोनोंसे भिन्न तत्त्व परमेश्वर कहा गया है।

मायाका ही नाम प्रकृति है।

पुरुष उस मायासे आवृत है।

मल और कर्मके द्वारा प्रकृतिका पुरुषके साथ सम्बन्ध होता है।

शिव ही इन दोनोंके प्रेरक ईश्वर हैं।

माया महेश्वरकी शक्ति है।

चित्स्वरूप जीव उस मायासे आवृत है।

चेतन जीवको आच्छादित करनेवाला अज्ञानमय पाश ही मल कहलाता है।

उससे शुद्ध हो जानेपर जीव स्वतः शिव हो जाता है।

वह विशुद्ध ही शिवत्व है।

मुनियोंने पूछा – सर्वव्यापी चेतनको माया किस हेतुसे आवृत करती है? किसलिये पुरुषको आवरण प्राप्त होता है? और किस उपायसे उसका निवारण होता है? वायुदेवता बोले – व्यापक तत्त्वको भी आंशिक आवरण प्राप्त होता है; क्योंकि कला आदि भी व्यापक हैं।

भोगके लिये किया गया कर्म ही उस आवरणमें कारण है।

मलका नाश होनेसे वह आवरण दूर हो जाता है।

कला, विद्या, राग, काल और नियति – इन्हींको कला आदि कहते हैं।

कर्मफलका जो उपभोग करता है, उसीका नाम पुरुष (जीव) है।

कर्म दो प्रकारके हैं – पुण्यकर्म और पापकर्म।

पुण्यकर्मका फल सुख और पापकर्मका फल दुःख है।

कर्म अनादि है और फलका उपभोग कर लेनेपर उसका अन्त हो जाता है।

यद्यपि जड कर्मका चेतन आत्मासे कुछ सम्बन्ध नहीं है, तथापि अज्ञानवश जीवने उसे अपने-आपमें मान रखा है।

भोग कर्मका विनाश करनेवाला है, प्रकृतिको भोग्य कहते हैं और भोगका साधन है शरीर।

बाह्य इन्द्रियाँ और अन्तःकरण उसके द्वार हैं।

अतिशय भक्तिभावसे उपलब्ध हुए महेश्वरके कृपाप्रसादसे मलका नाश होता है और मलका नाश हो जानेपर पुरुष निर्मल – शिवके समान हो जाता है।

विद्या पुरुषकी ज्ञानशक्तिको और कला उसकी क्रियाशक्तिको अभिव्यक्त करनेवाली है।

राग भोग्य वस्तुके लिये क्रियामें प्रवृत्त करनेवाला होता है।

काल उसमें अवच्छेदक होता है और नियति उसे नियन्त्रणमें रखनेवाली है।

अव्यक्तरूप जो कारण है, वह त्रिगुणमय है; उसीसे जड जगत् की उत्पत्ति होती है और उसीमें उसका लय होता है।

तत्त्व-चिन्तक पुरुष उस अव्यक्तको ही प्रधान और प्रकृति कहते हैं।

सत्त्व, रज और तम – ये तीनों गुण प्रकृतिसे प्रकट होते हैं; तिलमें तेलकी भाँति वे प्रकृतिमें सूक्ष्मरूपसे विद्यमान रहते हैं।

सुख और उसके हेतुको संक्षेपसे सात्त्विक कहा गया है, दुःख और उसके हेतु राजस कार्य हैं तथा जडता और मोह – वे तमोगुणके कार्य हैं।

सात्त्विकी वृत्ति ऊर्ध्वको ले जानेवाली है, तामसी वृत्ति अधोगतिमें डालनेवाली है तथा राजसी वृत्ति मध्यम स्थितिमें रखनेवाली है।

पाँच तन्मात्राएँ, पाँच भूत, पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ तथा प्रधान (चित्त), महत्तत्त्व (बुद्धि), अहंकार और मन – ये चार अन्तःकरण – सब मिलकर चौबीस तत्त्व होते हैं।

इस प्रकार संक्षेपसे ही विकारसहित अव्यक्त (प्रकृति)-का वर्णन किया गया।

कारणावस्थामें रहनेपर ही इसे अव्यक्त कहते हैं और शरीर आदिके रूपमें जब वह कार्यावस्थाको प्राप्त होता है, तब उसकी ‘व्यक्त’ संज्ञा होती है – ठीक उसी तरह, जैसे कारणावस्थामें स्थित होनेपर जिसे हम ‘मिट्टी’ कहते हैं वही कार्यावस्थामें ‘घट’ आदि नाम धारण कर लेती है।

जैसे घट आदि कार्य मृत्तिका आदि कारणसे अधिक भिन्न नहीं है, उसी प्रकार शरीर आदि व्यक्त पदार्थ अव्यक्तसे अधिक भिन्न नहीं हैं।

इसलिये एकमात्र अव्यक्त ही कारण, करण, उनका आधारभूत शरीर तथा भोग्य वस्तु है, दूसरा कोई नहीं।

मुनियोंने पूछा – प्रभो! बुद्धि, इन्द्रिय और शरीरसे व्यतिरिक्त किसी आत्मा नामक वस्तुकी वास्तविक स्थिति कहाँ है? वायुदेवता बोले – महर्षियो! सर्वव्यापी चेतनका बुद्धि, इन्द्रिय और शरीरसे पार्थक्य अवश्य है।

आत्मा नामक कोई पदार्थ निश्चय ही विद्यमान है; परन्तु उसकी सत्तामें किसी हेतुकी उपलब्धि बहुत ही कठिन है! सत्पुरुष बुद्धि, इन्द्रिय और शरीरको आत्मा नहीं मानते; क्योंकि स्मृति (बुद्धिका ज्ञान) अनियत है तथा उसे सम्पूर्ण शरीरका एक साथ अनुभव नहीं होता।

इसीलिये वेदों और वेदान्तोंमें आत्माको पूर्वानुभूत विषयोंका स्मरणकर्ता, सम्पूर्ण ज्ञेय पदार्थोंमें व्यापक तथा अन्तर्यामी कहा जाता है।

यह न स्त्री है, न पुरुष है और न नपुंसक ही है।

न ऊपर है, न अगल-बगलमें है, न नीचे है और न किसी स्थान-विशेषमें।

यह सम्पूर्ण चल शरीरोंमें अविचल, निराकार एवं अविनाशीरूपसे स्थित है।

ज्ञानी पुरुष निरन्तर विचार करनेसे उस आत्मतत्त्वका साक्षात्कार कर पाते हैं।१ पुरुषका जो वह शरीर कहा गया है, इससे बढ़कर अशुद्ध, पराधीन, दुःखमय और अस्थिर दूसरी कोई वस्तु नहीं है।

शरीर ही सब विपत्तियोंका मूल कारण है।

उससे युक्त हुआ पुरुष अपने कर्मके अनुसार सुखी, दुःखी और मूढ़ होता है।२ जैसे पानीसे सींचा हुआ खेत अंकुर उत्पन्न करता है, उसी प्रकार अज्ञानसे आप्लावित हुआ कर्म नूतन शरीरको जन्म देता है।

ये शरीर अत्यन्त दुःखोंके आलय माने जाते हैं।

इनकी मृत्यु अनिवार्य होती है।

भूतकालमें कितने ही शरीर नष्ट हो गये और भविष्यकालमें सहस्रों शरीर आनेवाले हैं, वे सब आ-आकर जब जीर्ण-शीर्ण हो जाते हैं, तब पुरुष उन्हें छोड़ देता है।

कोई भी जीवात्मा किसी भी शरीरमें अनन्त कालतक रहनेका अवसर नहीं पाता।

यहाँ स्त्रियों, पुत्रों और बन्धु-बान्धवोंसे जो मिलन होता है, वह पथिकको मार्गमें मिले हुए दूसरे पथिकोंके समागमके ही समान है।

जैसे महासागरमें एक काष्ठ कहींसे और दूसरा काष्ठ कहींसे बहता आता है, वे दोनों काष्ठ कहीं थोड़ी देरके लिये मिल जाते हैं और मिलकर फिर बिछुड़ जाते हैं।

उसी प्रकार प्राणियोंका यह समागम भी संयोग-वियोगसे युक्त है।* ब्रह्माजीसे लेकर स्थावर प्राणियोंतक सभी जीव पशु कहे गये हैं।

उन सभी पशुओंके लिये ही यह दृष्टान्त या दर्शन-शास्त्र कहा गया है।

यह जीव पाशोंमें बँधता और सुख-दुःख भोगता है, इसलिये ‘पशु’ कहलाता है।

यह ईश्वरकी लीलाका साधन-भूत है, ऐसा ज्ञानी महात्मा कहते हैं।

(अध्याय ४-५) १- न च स्त्री न पुमानेष नैव चापि नपुंसकः।

नैवोर्ध्वं नापि तिर्यक् च नाधस्तान्न कुतश्चन।।

अशरीरं शरीरेषु चलेषु स्थाणुमव्ययम्।

सदा पश्यति तं धीरो नरः प्रत्यवमर्शनात्।।

(शि० पु० वा० सं० पू० खं० ५।४८-४९) २- यच्छरीरमिदं प्रोक्तं पुरुषस्य ततः परम्।

अशुद्धमवशं दुःखमध्रुवं न च विद्यते।।

विपदां बीजभूतेन पुरुषस्तेन संयुतः।

सुखी दुःखी च मूढश्च भवति स्वेन कर्मणा।।

(शि० पु० वा० सं० पू० खं० ५।५१-५२) * नैवास्य भविता कश्चिन्नासौ भवति कस्यचित्।

पथि संगम एवायं दारैः पुत्रैश्च बन्धुभिः।।

यथा काष्ठं च काष्ठं च समेयातां महोदधौ।

समेत्य च व्यपेयातां तद्वद् भूतसमागमः।।

(शि० पु० वा० सं० पू० खं० ५।५८-५९)


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