शिव पुराण – वायवीय संहिता – पूर्वखण्ड – 3


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शिव पुराण संहिता लिंकविद्येश्वर | रुद्र संहिता | शतरुद्र | कोटिरुद्र | उमा | कैलास | वायवीय


ब्रह्माजीके द्वारा परमतत्त्वके रूपमें भगवान् शिवकी ही महत्ताका प्रतिपादन, उनकी कृपाको ही सब साधनोंका फल बताना तथा उनकी आज्ञासे सब मुनियोंका नैमिषारण्यमें आना

ब्रह्माजीने कहा – मुनियो! जिन्हें न पाकर मनसहित वाणी लौट आती है, जिनके आनन्दमय स्वरूपका अनुभव करनेवाला पुरुष कभी किसीसे नहीं डरता, जिनसे सम्पूर्ण भूतों और इन्द्रियोंके साथ ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र और इन्द्रपूर्वक यह समस्त जगत् पहले प्रकट होता है, जो कारणोंके भी स्रष्टा और विचारक परम कारण हैं, जिनके सिवा और किसीसे कभी भी जगत् की उत्पत्ति नहीं होती,* सम्पूर्ण ऐश्वर्यसे सम्पन्न होनेके कारण जो स्वयं ही सर्वेश्वर नाम धारण करते हैं, सब मुमुक्षु जिन शम्भुका अपने हृदय-आकाशके भीतर ध्यान करते हैं, जिन्होंने सबसे पहले मुझे ही अपने पुत्रके रूपमें उत्पन्न किया और मुझे ही सम्पूर्ण वेदोंका ज्ञान दिया, जिनके कृपाप्रसादसे मैंने यह प्रजापतिका पद प्राप्त किया है, जो ईश्वर अकेले ही वृक्षकी भाँति निश्चल-भावसे प्रकाशमान आकाशमें विराजमान है, जिन परमपुरुष परमात्मासे यह सम्पूर्ण जगत् परिपूर्ण है, जो अकेले ही बहुत-से निष्क्रिय जीवोंके शासक एवं उन्हें सक्रियता प्रदान करनेवाले हैं, जो महेश्वर एक बीजको अनेक रूपोंमें परिणत कर देते हैं, जो सबका शासन करनेवाले ईश्वर इन जीवोंसहित इन समस्त लोकोंको वशमें रखते हैं, सब रूपोंमें जो एकमात्र भगवान् रुद्र ही हैं, दूसरा कोई नहीं है, जो सदा ही मनुष्योंके हृदयमें भलीभाँति प्रविष्ट होकर स्थित हैं, जो स्वयं सम्पूर्ण विश्वको देखते हुए भी दूसरोंसे कदापि लक्षित नहीं होते और सदा समस्त जगत् के अधिष्ठाता हैं, जो अनन्त शक्तिशाली एकमात्र भगवान् रुद्र कालसे मुक्त समस्त कारणोंपर भी शासन करते हैं, जिनके लिये न दिन है न रात्रि है, जिनके समान भी कोई नहीं है, फिर अधिक तो हो ही कैसे सकता है, जिनकी ज्ञान, बल और क्रियारूपा पराशक्ति स्वाभाविक एवं नित्य है।’१ जो इस क्षर (विनाशशील), अव्यक्त (प्रकृति)-पर तथा अमृतस्वरूप अक्षर (अविनाशी) जीवात्मापर शासन करते हैं, उनका निरन्तर ध्यान करनेसे, मनको उनमें लगाये रहनेसे तथा उन्हींके तत्त्वकी भावना करते हुए उनमें तन्मय रहनेसे जीव अन्तमें उन्हींको प्राप्त हो जाता है।

फिर तो सारी माया अपने-आप दूर हो जाती है।

उनके पास न तो बिजली प्रकाश करती है और न सूर्य तथा चन्द्रमा ही अपनी प्रभा फैलाते हैं, अपितु उन्हींके प्रकाशसे यह सम्पूर्ण जगत् प्रकाशित होता है।

ऐसा सनातन श्रुतिका कथन है।२ एकमात्र महादेव महेश्वरको ही अपना आराध्यदेव जानना चाहिये।

उनसे श्रेष्ठ दूसरा कोई पद उपलब्ध नहीं होता।

ये स्वयं ही सबके आदि हैं, किंतु इनका न आदि है न अन्त।

ये स्वभावसे ही निर्मल, स्वतन्त्र, परिपूर्ण, स्वेच्छाधीन तथा चराचररूप हैं।

इनका शरीर अप्राकृतिक (दिव्य) है।

ये श्रीमान् महेश्वर लक्ष्य और लक्षणसे रहित हैं।

ये नित्यमुक्त होकर सबको बन्धनसे मुक्त करनेवाले हैं।

कालकी सीमासे परे रहकर कालको प्रेरित करने-वाले हैं।३ ये सबके ऊपर निवास करते हैं।

स्वयं ही सबके आवासस्थान हैं, सर्वज्ञ हैं तथा छः प्रकारके अध्वा (मार्ग)-से युक्त इस सम्पूर्ण जगत् के पालक हैं।

उत्तरोत्तर उत्कृष्ट भूतोंसे वे परम उत्कृष्ट हैं।

उनसे बढ़कर दूसरा कोई नहीं है।

अनन्त आनन्दराशिरूपी मकरन्दका पान करनेवाले मधुव्रत (भ्रमर) हैं।

अखण्ड ब्रह्माण्डोंको मसलकर मृत्पिण्डके समान कर देनेकी कलामें पण्डित हैं।

उदारता, वीरता, गम्भीरता और मधुरताके महासागर हैं।

इनके समान भी कोई वस्तु नहीं है, फिर इनसे बढ़कर तो हो ही कैसे सकती है।

ये उपमारहित हैं।

समस्त प्राणियोंके राजाधिराजके रूपमें विराजमान हैं।

ये ही सृष्टिके प्रारम्भमें अपने अद्भुत क्रियाकलापद्वारा इस सम्पूर्ण जगत् की सृष्टि करते हैं और अन्तकालमें यह फिर इन्हींमें लीन हो जायगा।

सब प्राणी इन्हींके वशमें हैं।

ये ही सबको विभिन्न कार्योंमें नियुक्त करनेवाले हैं।

पराभक्तिसे ही इनका दर्शन होता है, अन्य किसी प्रकारसे कभी नहीं।

व्रत, सम्पूर्ण दान, तपस्या और नियम – इन सब साधनोंको पूर्वकालमें सत्पुरुषोंने भावशुद्धि तथा अनुरागकी उत्पत्तिके लिये ही बताया था, इसमें संशय नहीं है।

मैं, भगवान् विष्णु, रुद्रदेव तथा दूसरे-दूसरे देवता एवं असुर आज भी उग्र तपस्याओंके द्वारा उनके दर्शनकी इच्छा रखते हैं।

धर्मभ्रष्ट, मूढ़, दुष्ट और घृणित आचार-विचारवाले लोगोंको उनका दर्शन होना असम्भव है।

भक्तजन भीतर और बाहर भी उन्हींका पूजन एवं ध्यान करते हैं।

यह रूप तीन प्रकारका है – स्थूल, सूक्ष्म और इन दोनोंसे परे।

हम सब देवता आदि जिस रूपको प्रत्यक्ष देखते हैं, वह स्थूल है।

सूक्ष्मरूपका दर्शन केवल योगियोंको होता है और उससे भी परे जो नित्य, ज्ञानस्वरूप आनन्दमय तथा अविनाशी भगवत्स्वरूप है, वह उसमें निष्ठा रखनेवाले भजनपरायण भक्तोंकी ही दृष्टिमें आता है।

भगवद्व्रतका आश्रय लेनेवाले भक्त ही उसको देख पाते हैं।

इस विषयमें अधिक कहनेसे क्या लाभ, गुह्यसे भी गुह्यतर एवं उत्कृष्ट साधन है भगवान् शिवके प्रति भक्ति।

जो उस भक्तिसे युक्त है, वह संसारबन्धनसे मुक्त हो जाता है – इसमें संदेह नहीं है।

वह भक्ति भगवान् शिवकी कृपासे ही उपलब्ध होती है और उनकी कृपा भी भक्तिसे ही सम्भव होती है – इस प्रकार ये दोनों एक-दूसरेके आश्रित हैं – ठीक वैसे ही, जैसे अंकुरसे बीज और बीजसे अंकुर होता है।

जीवको भगवत्कृपासे ही सर्वत्र सिद्धियाँ मिलती हैं।

सम्पूर्ण साधनोंसे अन्तमें भगवान् की कृपा ही साध्य है।

अन्तःकरणकी शुद्धि या प्रसादका साधन है धर्म और उस धर्मके स्वरूपका प्रतिपादन वेदने किया है।

वेदोंके अभ्याससे पहलेके पुण्य और पापोंमें समता आती है, उस समतासे प्रसाद (प्रसन्नता या अन्तःशुद्धि)-का सम्पर्क प्राप्त होता है और उससे धर्मकी वृद्धि होती है।

धर्मकी वृद्धिसे पशु (जीव)-के पापोंका क्षय होता है।

इस तरह जिसके पाप क्षीण हो गये हैं, उस जीवको अनेक जन्मोंके अभ्याससे क्रमशः उमा-महेश्वरके तत्त्वका ज्ञान प्राप्त होकर उसके हृदयमें उनके प्रति भक्तिका उदय होता है।

उस भक्तिभावके अनुरूप ही महेश्वरके कृपाप्रसादका उद्रेक होता है।

उस प्रसादसे कर्मोंका त्याग होता है।

कर्मोंके त्यागका अभिप्राय उनके फलोंके त्यागसे है, कर्मोंके स्वरूपतः त्यागसे नहीं।

अतः यह सिद्ध हुआ कि कर्मफलोंके त्यागसे शिवधर्ममें मंगलमयी प्रवृत्ति होती है।

इसलिये शिवका कृपाप्रसाद प्राप्त करनेके उद् देश्यसे तुम सब लोग अपने स्त्री-पुत्रों और अग्नियोंके साथ वाणी और मनके दोषोंसे रहित होकर एकमात्र भगवान् शिवका ही ध्यान करते रहो।

उन्हींमें निष्ठा रखकर उनके भजनमें तत्पर हो जाओ।

उन्हींमें मन लगाकर उनके आश्रित होकर रहो।

सब कार्य करते हुए मनसे उन्हींका चिन्तन किया करो।

एक सहस्र दिव्य वर्षोंके लिये दीर्घकालिक यज्ञका आरम्भ करके उसे पूर्ण करो।

यज्ञके अन्तमें मन्त्रद्वारा आवाहन करनेपर साक्षात् वायुदेवता वहाँ पधारेंगे।

फिर वे ही तुम सब लोगोंके कल्याणका साधन एवं उपाय बतायेंगे।

तत्पश्चात् तुम सब लोग परम सुन्दर पुण्यमयी वाराणसी-पुरीको जाना, जहाँ पिनाकपाणि श्रीमान् भगवान् विश्वनाथ भक्तजनोंपर अनुग्रह करनेके लिये देवी पार्वतीके साथ सदा विहार करते हैं।

द्विजोत्तमो! वहाँ तुम्हें बड़ा भारी आश्चर्य दिखायी देगा।

उस आश्चर्यको देखकर तुम फिर मेरे पास आना, तब मैं तुम्हें मोक्षका उपाय बताऊँगा।

उस उपायसे एक ही जन्ममें मुक्ति तुम्हारे हाथमें आ जायगी, जो अनेक जन्मोंके संसारबन्धनसे छुटकारा दिलानेवाली होगी।

यह मैंने मनोमय चक्रका निर्माण किया है।

इस चक्रको मैं यहाँसे छोड़ता हूँ।

जहाँ जाकर इसकी नेमि विशीर्ण हो जाय – टूट-फूट जाय, वही तपस्याके लिये शुभ देश है।

ऐसा कहकर पितामह ब्रह्माने उस सूर्यतुल्य तेजस्वी मनोमय चक्रकी ओर देखा और महादेवजीको प्रणाम करके उसे छोड़ दिया।

वे सब ब्राह्मण उन लोकनाथ ब्रह्माजीको प्रणाम करके उस स्थानके लिये चल दिये, जहाँ उस चक्रकी नेमि जीर्ण-शीर्ण होनेवाली थी।

ब्रह्माजीका फेंका हुआ वह सुन्दर चक्र मनोहर शिलाखण्डोंसे युक्त और निर्मल एवं स्वादिष्ठ जलसे पूर्ण किसी वनमें गिरा।

उस चक्रकी नेमिके शीर्ण होनेसे वह मुनिपूजित वन नैमिष नामसे विख्यात हुआ।

अनेक यक्ष, गन्धर्व और विद्याधर वहाँ आकर रहने लगे।

पूर्वकालमें जगत् की सृष्टिकी इच्छा रखनेवाले विश्वस्रष्टा एवं गार्हपत्य अग्निके उपासक ब्रह्मज्ञ प्रजापतियोंने वहीं दिव्य यज्ञका आरम्भ किया था।

वहीं शब्दशास्त्र, अर्थशास्त्र तथा न्यायशास्त्रके ज्ञाता विद्वान् महर्षियोंने शक्ति, ज्ञान और क्रियायोगके द्वारा शास्त्रीय विधिका अनुष्ठान किया था।

उसी स्थानपर वेदवेत्ता विद्वान् सदा वाद और जल्पके बलसे युक्त वचनोंद्वारा अतिवाद करनेवाले वेदबहिष्कृत नास्तिकोंको पराहत या पराजित करते थे।

तभीसे नैमिषारण्य ऋषियोंकी तपस्याके योग्य स्थान बन गया।

स्फटिक-मणिमय पर्वतकी शिलाओंसे झरते हुए अमृतके समान मधुर एवं स्वच्छ जलके कारण वह वन बड़ा रमणीय प्रतीत होता है।

वहाँ प्रायः अत्यन्त रसीले फल देनेवाले वृक्ष हैं तथा उस वनमें हिंसक जीव-जन्तुओंका अभाव है।

(अध्याय ३) * यतो वाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सह।

आनन्दं यस्य वै विद्वान् न बिभेति कुतश्चन।।

यस्मात् सर्वमिदं ब्रह्मविष्णुरुद्रेन्द्रपूर्वकम्।

सह भूतेन्द्रियैः सर्वैः प्रथमं सम्प्रसूयते।।

कारणानां च यो धाता ध्याता परमकारणम्।

न सम्प्रसूयतेऽन्यस्मात् कुतश्चन कदाचन।।

(शि० पु० वा० सं० पू० खं० ३।१ – ३) १- न यस्य दिवसो रात्रिर्न समानो न चाधिकः।

स्वाभाविकी पराशक्तिर्नित्या ज्ञानक्रिये अपि।।

(शि० पु० वा० सं० पू० खं० ३।११) २- यस्मिन्न भासते विद्युन्न सूर्यो न च चन्द्रमाः।

यस्य भासा विभातीदमित्येषा शाश्वती श्रुतिः।।

(शि० पु० वा० सं० पू० खं० ३।१४) ३- अप्राकृतवपुः श्रीमान् लक्ष्यलक्षणवर्जितः।

अयं मुक्तो मोचकश्च ह्यकालः कालचोदकः।।

(शि० पु० वा० सं० पू० खं० ३।१७)


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