शिव पुराण – वायवीय संहिता – पूर्वखण्ड – 2


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ऋषियोंका ब्रह्माजीके पास जा उनकी स्तुति करके उनसे परमपुरुषके विषयमें प्रश्न करना और ब्रह्माजीका आनन्दमग्न हो ‘रुद्र’ कहकर उत्तर देना

सूतजी कहते हैं – महर्षियो! पहले अनेक कल्पोंके बारंबार बीतनेपर सुदीर्घकालके पश्चात् जब यह वर्तमान कल्प उपस्थित हुआ और सृष्टिका कार्य आरम्भ हुआ, जब जीविका-साधक कर्म – कृषि, गोरक्षा और वाणिज्यकी प्रतिष्ठा हुई तथा प्रजावर्गके लोग सजग एवं सचेत हो गये, तब छः कुलोंमें उत्पन्न हुए महर्षियोंमें परस्पर बहस छिड़ गयी।

‘यह परब्रह्म है या नहीं है’ इस प्रकार उनमें महान् विवाद होने लगा, किंतु परम तत्त्वका निरूपण अत्यन्त कठिन होनेके कारण उस समय वहाँ कुछ निश्चय न हो सका।

तब वे सब लोग जगत्-स्रष्टा अविनाशी ब्रह्माजीका दर्शन करनेके लिये उस स्थानपर गये, जहाँ देवताओं और असुरोंके मुखसे अपनी स्तुति सुनते हुए भगवान् ब्रह्मा विराजमान थे।

देवताओं और दानवोंसे भरे हुए सुन्दर रमणीय मेरुशिखरपर, जहाँ सिद्ध और चारण परस्पर बातचीत करते हैं, यक्ष और गन्धर्व सदा रहते हैं, विहंगोंके समुदाय कलरव करते हैं, मणि और मूँगे जिसकी शोभा बढ़ाते हैं तथा निकुंज, कन्दराएँ, छोटी गुफाएँ और अनेकानेक निर्झर जिसे सुशोभित करते हैं, एक ब्रह्मवन नामसे प्रसिद्ध वन है।

उसमें नाना प्रकारके वन्यपशु भरे हुए हैं।

उसकी लंबाई सौ योजन और चौड़ाई दस योजनकी है।

उसके भीतर एक रमणीय सरोवर है, जो सुस्वादु निर्मल जलसे भरा रहता है।

वहाँके रमणीय पुष्पित वृक्षोंपर मतवाले भौंरे छाये रहते हैं।

उस वनमें एक मनोहर एवं विशाल नगर है, जो प्रातःकालके सूर्यकी भाँति प्रकाशित होता रहता है।

वहाँ दुर्धर्ष शक्तिसे युक्त बलाभिमानी दैत्य, दानव तथा राक्षसोंका निवास है।

वह नगर तपाये हुए सुवर्णका बना जान पड़ता है।

उसकी चहारदीवारियाँ और सदर फाटक बहुत ऊँचे हैं।

छोटे बुर्जों, ढालू छतों, आवासस्थानों तथा सैकड़ों गलियोंसे उस नगरकी बड़ी शोभा है।

वह विचित्र बहुमूल्य मणियोंसे आकाशको चूमता-सा प्रतीत होता है तथा कई करोड़ विशाल भवनोंसे अलंकृत है।

उस नगरमें प्रजापति ब्रह्मा अपने सभासदोंके साथ निवास करते हैं।

वहाँ जाकर उन मुनियोंने साक्षात् लोकपितामह ब्रह्माजीको देखा।

देवर्षियोंके समुदाय उनकी सेवामें बैठे थे।

उनकी अंगकान्ति शुद्ध सुवर्णके समान थी।

वे सब आभूषणोंसे विभूषित थे।

उनका मुख प्रसन्न था, उससे सौम्यभाव प्रकट होता था।

उनके नेत्र कमलदलके समान विशाल थे।

दिव्य कान्तिसे सम्पन्न, दिव्य गन्ध एवं अनुलेपनसे चर्चित, दिव्य श्वेत वस्त्रोंसे सुशोभित तथा दिव्य मालाओंसे विभूषित ब्रह्माजीके चरणारविन्दोंकी वन्दना सुरेन्द्र, असुरेन्द्र तथा योगीन्द्र भी करते थे।

जैसे प्रभा दिवाकरकी सेवा करती है, उसी प्रकार समस्त शुभ लक्षणोंसे युक्त साक्षात् सरस्वतीदेवी हाथमें चँवर ले उनकी सेवा कर रही थीं, इससे उनकी बड़ी शोभा हो रही थी।

ब्रह्माजीका दर्शन करके उन सभी महर्षियोंके मुख और नेत्र खिल उठे।

उन्होंने मस्तकपर अंजलि बाँधकर उन सुर-श्रेष्ठकी स्तुति की।

ऋषि बोले – संसारकी सृष्टि, पालन और संहारके हेतु तीन रूप धारण करनेवाले आप पुराणपुरुष परमात्मा ब्रह्माको नमस्कार है।

प्रकृति जिनका शरीर है, जो प्रकृतिमें क्षोभ उत्पन्न करनेवाले हैं तथा प्रकृतिरूपमें तेईस विकारोंसे युक्त होनेपर भी जो वास्तवमें निर्विकार हैं, उन ब्रह्मदेवको नमस्कार है।

ब्रह्माण्ड जिनकी देह है, तो भी जो ब्रह्माण्डके उदरमें निवास करते हैं तथा वहाँ रहकर जिनके कार्य और करण सम्यक्-रूपसे सिद्ध होते हैं, उन ब्रह्माजीको नमस्कार है।

जो सर्वलोकस्वरूप तथा समस्त लोकोंके स्रष्टा हैं, जो सम्पूर्ण जीवोंका शरीरसे संयोग और वियोग करानेमें हेतु हैं, उन ब्रह्माजीको नमस्कार है।

नाथ! पितामह! आपसे ही सम्पूर्ण जगत् की सृष्टि, पालन और संहार होते हैं, तथापि मायासे आवृत होनेके कारण हम आपको नहीं जानते।

सूतजी कहते हैं – उन महाभाग महर्षियोंके इस प्रकार स्तुति करनेपर ब्रह्माजी उन मुनियोंको आह्लाद प्रदान करते हुए गम्भीर वाणीमें इस प्रकार बोले।

ब्रह्माजीने कहा – महान् सत्त्वगुणसे सम्पन्न महाभाग महातेजस्वी महर्षियो! तुम सब लोग एक साथ यहाँ किसलिये आये हो? ब्रह्माजीके इस प्रकार पूछनेपर ब्रह्मवेत्ताओंमें श्रेष्ठ उन सभी मुनियोंने हाथ जोड़ विनयभरी वाणीमें कहा।

मुनि बोले – भगवन्! हमलोग अज्ञानके महान् अन्धकारसे आवृत हो खिन्न हो रहे हैं।

परस्पर विवाद करते हुए हमें परमतत्त्वका साक्षात्कार नहीं हो रहा है।

आप सम्पूर्ण जगत् के धारण-पोषण करनेवाले तथा समस्त कारणोंके भी कारण हैं।

नाथ! यहाँ कोई ऐसी वस्तु नहीं है, जो आपको विदित न हो।

कौन ऐसा पुरुष है, जो सम्पूर्ण जीवोंसे पुरातन, अन्तर्यामी, उत्कृष्ट विशुद्ध परिपूर्ण एवं सनातन परमेश्वर है? कौन अपने अद्भुत क्रियाकलापद्वारा सबसे प्रथम संसारकी सृष्टि करता है? महाप्राज्ञ! हमारे इस संदेहका निवारण करनेके लिये आप हमें परमार्थतत्त्वका उपदेश दें।

मुनियोंके इस प्रकार पूछनेपर ब्रह्माजीके नेत्र आश्चर्यसे खिल उठे।

वे देवताओं, दानवों और मुनियोंके निकट खड़े हो गये और चिरकालतक ध्यानमग्न हो ‘रुद्र’ ऐसा कहते हुए आनन्दविभोर हो गये।

उनका सारा शरीर पुलकित हो उठा और वे हाथ जोड़कर बोले।

(अध्याय २)


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