शिव पुराण – वायवीय संहिता – पूर्वखण्ड – 15


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जगत् ‘वाणी और अर्थरूप’ है – इसका प्रतिपादन

वायुदेवता कहते हैं – महर्षियो! अब यह बता रहा हूँ कि जगत् की वागर्थात्मकता-की सिद्धि कैसे की गयी है।

छः अध्वाओं (मार्गों)-का सम्यक् ज्ञान मैं संक्षेपसे ही करा रहा हूँ, विस्तारसे नहीं।

कोई भी ऐसा अर्थ नहीं है, जो बिना शब्दका हो और कोई भी ऐसा शब्द नहीं है जो बिना अर्थका हो।

अतः समयानुसार सभी शब्द सम्पूर्ण अर्थोंके बोधक होते हैं।

प्रकृतिका यह परिणाम शब्दभावना और अर्थभावनाके भेदसे दो प्रकारका है।

उसे परमात्मा शिव तथा पार्वतीकी प्राकृत मूर्ति कहते हैं।

उनकी जो शब्दमयी विभूति है, उसे विद्वान् तीन प्रकारकी बताते हैं – स्थूला, सूक्ष्मा और परा।

स्थूला वह है, जो कानोंको प्रत्यक्ष सुनायी देती है; जो केवल चिन्तनमें आती है, वह सूक्ष्मा कही गयी है और जो चिन्तनकी भी सीमासे परे है, उसे परा कहा गया है।

वह शक्तिस्वरूपा है।

वही शिवतत्त्वके आश्रित रहनेवाली, पराशक्ति कही गयी है।

ज्ञानशक्तिके संयोगसे वही इच्छाकी उपोद् बलिका (उसे दृढ़ करनेवाली) होती है।

वह सम्पूर्ण शक्तियोंकी समष्टिरूपा है।

वही शक्तितत्त्वके नामसे विख्यात हो समस्त कार्यसमूहकी मूल प्रकृति मानी गयी है।

उसीको कुण्डलिनी कहा गया है।

वही विशुद्धाध्वपरा माया है।

वह स्वरूपतः विभागरहित होती हुई भी छः अध्याओंके रूपमें विस्तारको प्राप्त होती है।

उन छः अध्वाओंमेंसे तीन तो शब्दरूप हैं और तीन अर्थरूप बताये गये हैं।

सभी पुरुषोंको आत्मशुद्धिके अनुरूप सम्पूर्ण तत्त्वोंके विभागसे लय और भोगके अधिकार प्राप्त होते हैं।

वे सम्पूर्ण तत्त्वकलाओंद्वारा यथायोग्य प्राप्त हैं।

परा प्रकृतिके जो आदिमें पाँच प्रकारके परिणाम होते हैं, वे ही निवृत्ति आदि कलाएँ हैं।

मन्त्राध्वा, पदाध्वा और वर्णाध्वा – ये तीन अध्वा शब्दसे सम्बन्ध रखते हैं तथा भुवनाध्वा, तत्त्वाध्वा और कलाध्वा – ये तीन अर्थसे सम्बन्ध रखनेवाले हैं।

इन सबमें भी परस्पर व्याप्य-व्यापक भाव बताया जाता है।

सम्पूर्ण मन्त्र पदोंसे व्याप्त हैं; क्योंकि वे वाक्यरूप हैं।

सम्पूर्ण पद भी वर्णोंसे व्याप्त हैं; क्योंकि विद्वान् पुरुष वर्णोंके समूहको ही पद कहते हैं।

वे वर्ण भी भुवनोंसे व्याप्त हैं; क्योंकि उन्हींमें उनकी उपलब्धि होती है।

भुवन भी तत्त्वोंके समूहद्वारा बाहर-भीतरसे व्याप्त हैं; क्योंकि उनकी उत्पत्ति ही तत्त्वोंसे हुई है।

उन कारणभूत तत्त्वोंसे ही उनका आरम्भ हुआ है।

अनेक भुवन उनके अंदरसे ही प्रकट हुए हैं।

उनमेंसे कुछ तो पुराणोंमें प्रसिद्ध हैं।

अन्य भुवनोंका ज्ञान शिवसम्बन्धी आगमसे प्राप्त करना चाहिये।

कुछ तत्त्व सांख्य और योगशास्त्रोंमें भी प्रसिद्ध हैं।

शिवशास्त्रोंमें प्रसिद्ध तथा दूसरे-दूसरे भी जो तत्त्व हैं, वे सब-के-सब कलाओंद्वारा यथायोग्य व्याप्त हैं।

परा प्रकृतिके जो आदिकालमें पाँच परिणाम हुए, वे ही निवृत्ति आदि कलाएँ हैं।

वे पाँच कलाएँ उत्तरोत्तर तत्त्वोंसे व्याप्त हैं।

अतः परा शक्ति सर्वत्र व्यापक है।

वह विभागरहित होकर भी छः अध्याओंके रूपमें विभक्त है।

शक्तिसे लेकर पृथ्वीतत्त्वपर्यन्त सम्पूर्ण तत्त्वोंका प्रादुर्भाव शिवतत्त्वसे हुआ है।

अतः जैसे घड़े आदि मिट्टीसे व्याप्त हैं, उसी प्रकार वे सारे तत्त्व एकमात्र शिवसे ही व्याप्त हैं।

जो छः अध्याओंसे प्राप्त होनेवाला है, वही शिवका परम धाम है।

पाँच तत्त्वोंके शोधनसे व्यापिका और अव्यापिका शक्ति जानी जाती है।

निवृत्तिकलाके द्वारा रुद्रलोकपर्यन्त ब्रह्माण्डकी स्थितिका शोधन होता है।

प्रतिष्ठा-कलाद्वारा उससे भी ऊपर जहाँतक अव्यक्तकी सीमा है, वहाँतककी शोध की जाती है।

मध्यवर्तिनी विद्या-कलाद्वारा उससे भी ऊपर विद्येश्वरपर्यन्त स्थानका शोधन होता है।

शान्ति-कलाद्वारा उससे भी ऊपरके स्थानका तथा शान्त्यतीता-कलाके द्वारा अध्वाके अन्ततकका शोधन हो जाता है।

उसीको ‘परम व्योम’ कहा गया है।

ये पाँच तत्त्व बताये गये, जिनसे सम्पूर्ण जगत् व्याप्त है।

वहीं साधकोंको यह सब कुछ देखना चाहिये; जो अध्वाकी व्याप्तिको न जानकर शोधन करना चाहता है, वह शुद्धिसे वंचित रह जाता है, उसके फलको नहीं पा सकता।

उसका सारा परिश्रम व्यर्थ, केवल नरककी ही प्राप्ति करानेवाला होता है।

शक्तिपातका संयोग हुए बिना तत्त्वोंका ठीक-ठीक ज्ञान नहीं हो सकता।

उनकी व्याप्ति और वृद्धिका ज्ञान भी असम्भव है।

शिवकी जो चित्स्वरूपा परमेश्वरी परा-शक्ति है, वही आज्ञा है।

उस कारणरूपा आज्ञाके सहयोगसे ही शिव सम्पूर्ण शिवके अधिष्ठाता होते हैं।

विचारदृष्टिसे देखा जाय तो आत्मामें कभी विकार नहीं होता।

यह विकारकी प्रतीति मायामात्र है।

न तो बन्धन है और न उस बन्धनसे छुटकारा दिलानेवाली कोई मुक्ति है।

शिवकी जो अव्यभिचारिणी पराशक्ति है, वही सम्पूर्ण ऐश्वर्यकी पराकाष्ठा है।

वह उन्हींके समान धर्मवाली है और विशेषतः उनके उन-उन विलक्षण भावोंसे युक्त है।

उसी शक्तिके साथ शिव गृहस्थ बने हुए हैं और वह भी सदा उन शिवके ही साथ उनकी गृहिणी बनकर रहती है।

जो प्रकृतिजन्य जगत्-रूप कार्य है, वही उन शिव दम्पतिकी संतान है।

शिव कर्ता हैं और शक्ति कारण।

यही उन दोनोंका भेद है।

वास्तवमें एकमात्र साक्षात् शिव ही दो रूपोंमें स्थित हैं।

कुछ लोगोंका कहना है कि स्त्री और पुरुषरूपमें ही उनका भेद है।

अन्य लोग कहते हैं कि पराशक्ति शिवमें नित्य समवेत है।

जैसे प्रभा सूर्यसे भिन्न नहीं है, उसी प्रकार चित्स्वरूपिणी पराशक्ति शिवसे अभिन्न ही है।

यही सिद्धान्त है।

अतः शिव परम कारण हैं, उनकी आज्ञा ही परमेश्वरी है।

उसीसे प्रेरित होकर शिवकी अविनाशी मूल प्रकृति कार्यभेदसे महामाया, माया और त्रिगुणात्मिक प्रकृति – इन तीन रूपोंमें स्थित हो छः अध्वाओंको प्रकट करती है।

वह छः प्रकारका अध्वा वागर्थमय है, वही सम्पूर्ण जगत् के रूपमें स्थित है; सभी शास्त्रसमूह इसी भावका विस्तारसे प्रतिपादन करते हैं।

(अध्याय २९)


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