शिव पुराण – वायवीय संहिता – पूर्वखण्ड – 13


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मन्दराचलपर गौरीदेवीका स्वागत,महादेवजीके द्वारा उनके और अपने उत्कृष्ट स्वरूप एवं अविच्छेद्य सम्बन्धपर प्रकाश तथा देवीके साथ आये हुए व्याघ्रको उनका गणाध्यक्ष बनाकर अन्तःपुरके द्वारपर सोमनन्दी नामसे प्रतिष्ठित करना

ऋषियोंने पूछा – अपने शरीरको दिव्य गौरवर्णसे युक्त बनाकर गिरिराजकुमारी देवी पार्वतीने जब मन्दराचल प्रदेशमें प्रवेश किया, तब वे अपने पतिसे किस प्रकार मिलीं? प्रवेशकालमें उनके भवनद्वारपर रहनेवाले गणेश्वरोंने क्या किया तथा महादेवजीने भी उन्हें देखकर उस समय उनके साथ कैसा बर्ताव किया? वायुदेवताने कहा – जिस प्रेमगर्भित रसके द्वारा अनुरागी पुरूषोंके मनका हरण हो जाता है, उस परम रसका ठीक-ठीक वर्णन करना असम्भव है।

द्वारपाल बड़ी उतावलीसे राह देखते थे।

उनके साथ ही महादेवजी भी देवीके आगमनके लिये उत्सुक थे।

जब वे भवनमें प्रवेश करने लगीं, तब शंकित हो उन-उन प्रेमजनित भावोंसे वे उनकी ओर देखने लगे।

देवी भी उनकी ओर उन्हीं भावोंसे देख रही थीं।

उस समय उस भवनमें रहनेवाले श्रेष्ठ पार्षदोंने देवीकी वन्दना की।

फिर देवीने विनययुक्त वाणीद्वारा भगवान् त्रिलोचनको प्रणाम किया।

वे प्रणाम करके अभी उठने भी नहीं पायी थीं कि परमेश्वरने उन्हें दोनों हाथोंसे पकड़कर बड़े आनन्दके साथ हृदयसे लगा लिया।

फिर मुसकराते हुए वे एकटक नेत्रोंसे उनके मुखचन्द्रकी सुधाका पान-सा करने लगे।

फिर उनसे बातचीत करनेके लिये उन्होंने पहले अपनी ओरसे वार्ता आरम्भ की।

देवाधिदेव महादेवजी बोले – सर्वांगसुन्दरि प्रिये! क्या तुम्हारी वह मनोदशा दूर हो गयी, जिसके रहते तुम्हारे क्रोधके कारण मुझे अनुनय-विनयका कोई भी उपाय नहीं सूझता था।

यदि साधारण लोगोंकी भाँति हम दोनोंमें भी एक-दूसरेके अप्रियका कारण विद्यमान है? तब तो इस चराचर जगत् का नाश हुआ ही समझना चाहिये।

मैं अग्निके मस्तकपर स्थित हूँ और तुम सोमके।

हम दोनोंसे ही यह अग्नि-सोमात्मक जगत् प्रतिष्ठित है! जगत् के हितके लिये स्वेच्छासे शरीर धारण करके विचरनेवाले हम दोनोंके वियोगमें यह जगत् निराधार हो जायगा।

इसमें शास्त्र और युक्तिसे निश्चित किया हुआ दूसरा हेतु भी है।

यह स्थावर-जंगमरूप जगत् वाणी और अर्थमय ही है।

तुम साक्षात् वाणीमय अमृत हो और मैं अर्थमय परम उत्तम अमृत हूँ।

ये दोनों अमृत एक-दूसरेसे विलग कैसे हो सकते हैं।

तुम मेरे स्वरूपका बोध करानेवाली विद्या हो और मैं तुम्हारे दिये हुए विश्वासपूर्ण बोधसे जाननेयोग्य परमात्मा हूँ।

हम दोनों क्रमशः विद्यात्मा और वेद्यात्मा हैं, फिर हममें वियोग होना कैसे सम्भव है।

मैं अपने प्रयत्नसे जगत् की सृष्टि और संहार नहीं करता।

एकमात्र आज्ञासे ही सबकी सृष्टि और संहार उपलब्ध होते हैं।

वह अत्यन्त गौरवपूर्ण आज्ञा तुम्हीं हो।

ऐश्वर्यका एकमात्र सार आज्ञा (शासन) है, क्योंकि वही स्वतन्त्रताका लक्षण है।

आज्ञासे वियुक्त होनेपर मेरा ऐश्वर्य कैसा होगा।

हमलोगोंका एक-दूसरेसे विलग होकर रहना कभी सम्भव नहीं है।

देवताओंके कार्यकी सिद्धिके उद्देश्यसे ही मैंने उस समय उस दिन लीलापूर्वक व्यंग्य वचन कहा था।

तुम्हें भी तो यह बात अज्ञात नहीं थी।

फिर तुम कुपित कैसे हो गयीं! अतः यही कहना पड़ता है कि तुमने मुझपर भी जो क्रोध किया था, वह त्रिलोकीकी रक्षाके लिये ही था; क्योंकि तुममें ऐसी कोई बात नहीं है, जो जगत् के प्राणियोंका अनर्थ करनेवाली हो।

इस प्रकार प्रिय वचन बोलनेवाले साक्षात् परमेश्वर शिवके प्रति शृंगाररसके सारभूत भावोंकी प्राकृतिक जन्मभूमि देवी पार्वती अपने पतिकी कही हुई यह मनोहर बात सुनकर इसे सत्य जान मुसकराकर रह गयीं, लज्जावश कोई उत्तर न दे सकीं।

केवल कौशिकीके यशका वर्णन छोड़कर और कुछ उन्होंने नहीं कहा।

देवीने कौशिकीके विषयमें जो कुछ कहा उसका वर्णन करता हूँ।

देवी बोलीं – ‘भगवन्! मैंने जिस कौशिकीकी सृष्टि की है, उसे क्या आपने नहीं देखा है? वैसी कन्या न तो इस लोकमें हुई है और न होगी।’ यों कहकर देवीने उसके विन्ध्यपर्वतपर निवास करने तथा समरांगणमें शुम्भ और निशुम्भका वध करके उनपर विजय पानेका प्रसंग सुनाकर उसके बल-पराक्रमका वर्णन किया।

साथ ही यह भी बताया कि वह उपासना करनेवाले लोगोंको सदा प्रत्यक्ष फल देती है तथा निरन्तर लोकोंकी रक्षा करती रहती है।

इस विषयमें ब्रह्माजी आपको आवश्यक बातें बतायेंगे।

उस समय इस प्रकार बातचीत करती हुई देवीकी आज्ञासे ही एक सखीने उस व्याघ्रको लाकर उनके सामने खड़ा कर दिया।

उसे देखकर देवी कहने लगीं – ‘देव! यह व्याघ्र मैं आपके लिये भेंट लायी हूँ।

आप इसे देखिये।

इसके समान मेरा उपासक दूसरा कोई नहीं है।

इसने दुष्ट जन्तुओंके समूहसे मेरे तपोवनकी रक्षा की थी।

यह मेरा अत्यन्त भक्त है और अपने रक्षणात्मक कार्यसे मेरा विश्वासपात्र बन गया है।

मेरी प्रसन्नताके लिये यह अपना देश छोड़कर यहाँ आ गया है।

महेश्वर! यदि मेरे आनेसे आपको प्रसन्नता हुई है और यदि आप मुझसे अत्यन्त प्रेम करते हैं तो मैं चाहती हूँ कि यह नन्दीकी आज्ञासे मेरे अन्तःपुरके द्वारपर अन्य रक्षकोंके साथ उन्हींके चिह्न धारण करके सदा स्थित रहे।’ वायुदेव कहते हैं – देवीके इस मधुर और अन्ततोगत्वा प्रेम बढ़ानेवाले शुभ वचनको सुनकर महादेवजीने कहा – ‘मैं बहुत प्रसन्न हूँ।’ फिर तो वह व्याघ्र उसी क्षण लचकती हुई सुवर्णजटित बेंतकी छड़ी, रत्नोंसे जटित विचित्र कवच, सर्पकी-सी आकृतिवाली छुरी तथा रक्षकोचित वेष धारण किये गणाध्यक्षके पदपर प्रतिष्ठित दिखायी दिया।

उसने उमासहित महादेव और नन्दीको आनन्दित किया था।

इसलिये सोमनन्दी नामसे विख्यात हुआ।

इस प्रकार देवीका प्रिय कार्य करके चन्द्रार्धभूषण महादेवजीने उन्हें रत्नभूषित दिव्य आभूषणोंसे भूषित किया।

चन्द्रभूषण भगवान् शिवने सर्वमनोहारिणी गिरिराजकुमारी गौरी देवीको पलंगपर बिठाकर उस समय सुन्दर अलंकारोंसे स्वयं ही उनका शृंगार किया।

(अध्याय २७)


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