शिव पुराण - शतरुद्र संहिता - 20

शिव पुराण – शतरुद्र संहिता – 20


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शिव पुराण संहिता लिंकविद्येश्वर | रुद्र संहिता | शतरुद्र | कोटिरुद्र | उमा | कैलास | वायवीय


अर्जुन और शिवदूतका वार्तालाप, किरातवेषधारी शिवजीके साथ अर्जुनका युद्ध, पहचाननेपर अर्जुनद्वारा शिव-स्तुति, शिवजीका अर्जुनको वरदान देकर अन्तर्धान होना, अर्जुनका आश्रमपर लौटकर भाइयोंसे मिलना, श्रीकृष्णका अर्जुनसे मिलनेके लिये वहाँ पधारना

नन्दीश्वरजी कहते हैं – महाज्ञानी सनत्कुमारजी! अब परमात्मा शिवकी उस लीलाको श्रवण करो, जो भक्तवत्सलतासे युक्त तथा उनकी दृढ़तासे भरी हुई है।

तदनन्तर शिवजीने उस बाणको लानेके लिये तुरंत ही अपने अनुचरको भेजा।

उधर अर्जुन भी उसी निमित्त वहाँ आये।

इस प्रकार एक ही समयमें रुद्रानुचर तथा अर्जुन दोनों बाण उठानेके लिये वहाँ पहुँचे।

तब अर्जुनने उसे डरा-धमकाकर अपना बाण उठा लिया।

यह देखकर उस अनुचरने कहा – ‘ऋषिसत्तम! आप क्यों इस बाणको ले रहे हैं? यह हमारा सायक है, इसे छोड़ दीजिये।’ भिल्लराजके उस अनुचरद्वारा यों कहे जानेपर मुनिश्रेष्ठ अर्जुनने शंकरजीका स्मरण किया और इस प्रकार कहा।

अर्जुन बोले – वनेचर! तू बड़ा मूर्ख है।

तू बिना समझे-बूझे क्या बक रहा है? इस बाणको तो मैंने अभी-अभी छोड़ा है, फिर यह तेरा कैसे? इसकी धारियों तथा पिच्छोंपर मेरा ही नाम अंकित है, फिर यह तेरा कैसे हो गया? ठीक है, तेरा कुटिल-स्वभाव छूटना कठिन है।

नन्दीश्वरजी कहते हैं – मुने! अर्जुनका वह कथन सुनकर भिल्लरूपी गणेश्वरको हँसी आ गयी।

तब वह ऋषिरूपमें वर्तमान अर्जुनको यों उत्तर देते हुए बोला – ‘रे तापस! सुन।

जान पड़ता है, तू तपस्या नहीं कर रहा है, केवल तेरा वेष ही तपस्वीका है; क्योंकि सच्चा तपस्वी छल-कपट नहीं करता।

भला, जो मनुष्य तपस्यामें निरत होगा, वह कैसे मिथ्या भाषण करेगा एवं कैसे छल करेगा।

अरे तू मुझे अकेला मत समझ।

तुझे ज्ञात होना चाहिये कि मैं एक सेनाका अधिपति हूँ।

हमारे स्वामी बहुत-से वनचारी भीलोंके साथ वहाँ बैठे हैं।

वे विग्रह तथा अनुग्रह करनेमें सर्वथा समर्थ हैं।

यह बाण, जिसे तूने अभी उठा लिया है, उन्हींका है।

यह बाण कभी तेरे पास टिक नहीं सकेगा।

तापस! तू क्यों अपनी तपस्याका फल नष्ट करना चाहता है? मैंने तो ऐसा सुन रखा है कि चोरी करनेसे, छलपूर्वक किसीको कष्ट पहुँचानेसे, विस्मय करनेसे तथा सत्यका त्याग करनेसे प्राणीका तप क्षीण हो जाता है – यह बिलकुल सत्य है।* ऐसी दशामें तुझे अब तपका फल कैसे प्राप्त होगा? उस बाणको ले लेनेसे तू तपसे च्युत तथा कृतघ्न हो जायगा; क्योंकि निश्चय ही यह मेरे स्वामीका बाण है और तेरी रक्षाके लिये ही उन्होंने इसे छोड़ा था।

इस बाणसे तो उन्होंने शत्रुको मार ही डाला और फिर बाणको भी सुरक्षित रखा।

तू तो महान् कृतघ्न तथा तपस्यामें अमंगल करनेवाला है।

जब तू सत्य नहीं बोल रहा है, तब फिर इस तपसे सिद्धिकी अभिलाषा कैसे करता है? अथवा यदि तुझे बाणसे ही प्रयोजन है तो मेरे स्वामीसे माँग ले।

वे स्वयं इस प्रकारके बहुत-से बाण तुझे दे सकते हैं।

मेरे स्वामी आज यहाँ वर्तमान हैं।

तू उनसे क्यों नहीं याचना करता? तू जो उपकारका परित्याग करके अपकार करना चाहता है तथा अभी-अभी कर रहा है, यह तेरे लिये उचित नहीं है।

तू चपलता छोड़ दे।’ इसपर कुपित होकर अर्जुनने उससे कई बातें कहीं।

दोनोंमें बड़ा विवाद हुआ।

अन्तमें अर्जुनने कहा – ‘वनचारी भील! तू मेरी सार बात सुन ले।

जिस समय तेरा स्वामी आयेगा, उस समय मैं उसे उसका फल चखाऊँगा।

तेरे साथ युद्ध करना तो मुझे शोभा नहीं देता, अतः मैं तेरे स्वामीके साथ ही लोहा लूँगा; क्योंकि सिंह और गीदड़का युद्ध उपहासास्पद ही माना जाता है।

भील! तूने मेरी बात तो सुन ही ली, अब तू मेरे महान् बलको भी देखेगा।

जा, अपने स्वामीके पास लौट जा अथवा जैसी तेरी इच्छा हो, वैसा कर।’ नन्दीश्वरजी कहते हैं – मुने! अर्जुनके यों कहनेपर वह भील जहाँ शिवावतार सेनापति किरात विराजमान थे, वहाँ गया और उन भिल्लराजसे अर्जुनका सारा वचन विस्तारपूर्वक कह सुनाया।

उसकी बात सुनकर उन किरातेश्वरको महान् हर्ष हुआ।

तब भीलरूपधारी भगवान् शंकर अपनी सेनाके साथ वहाँ गये।

उधर पाण्डुपुत्र अर्जुनने भी जब किरातकी उस सेनाको देखा, तब वे भी धनुष-बाण ले सामने आकर डट गये।

तदनन्तर किरातने पुनः उस दूतको भेजा और उसके द्वारा भरतवंशी महात्मा अर्जुनसे यों कहलवाया।

किरातने कहा – तपस्विन्! तनिक इस सेनाकी ओर तो दृष्टिपात करो।

अरे! अब तुम बाण छोड़कर जल्दी भाग जाओ।

क्यों तुम इस समय एक सामान्य कामके लिये प्राण गँवाना चाहते हो? तुम्हारे भाई दुःखसे पीड़ित हैं, स्त्री तो उनसे भी बढ़कर दुःखी है।

मेरा तो ऐसा विचार है कि ऐसा करनेसे पृथ्वी भी तुम्हारे हाथसे चली जायगी।

नन्दीश्वरजी कहते हैं – मुने! जब अर्जुनकी सब तरहसे रक्षा करनेके लिये किरातरूपधारी परमेश्वर शम्भुने उनकी भक्तिकी दृढ़ताकी परीक्षाके निमित्त ऐसी बात कही, तब वह शिवदूत उसी समय अर्जुनके पास पहुँचा और उसने वह सारा वृत्तान्त उनसे विस्तारपूर्वक कह सुनाया।

उसकी बात सुनकर अर्जुनने उस समागत दूतसे पुनः कहा – ‘दूत! तुम जाकर अपने सेनापतिसे कहो कि तुम्हारे कथनानुसार करनेसे सारी बातें विपरीत हो जायँगी।

यदि मैं तुम्हें अपना बाण दे देता हूँ तो निस्संदेह मैं अपने कुलको दूषित करनेवाला सिद्ध होऊँगा।

इसलिये भले ही मेरे भाई दुःखार्त हो जायँ तथा मेरी सारी विद्याएँ निष्फल हो जायँ, परंतु तुम आओ तो सही।

मैंने ऐसा कभी नहीं सुना है कि कहीं सिंह गीदड़से डर गया हो।

इसी प्रकार राजा (क्षत्रिय) कभी भी वनेचरसे भयभीत नहीं हो सकता।

नन्दीश्वरजी कहते हैं – मुने! अर्जुनके यों कहनेपर वह दूत पुनः अपने स्वामीके पास लौट गया और उसने अर्जुनकी कही हुई सारी बातें उनके सामने विशेषरूपसे निवेदन कर दीं।

उन्हें सुनकर किरातवेषधारी सेनानायक महादेवजी अपनी सेनाके साथ अर्जुनके सम्मुख आये।

उन्हें आया हुआ देखकर अर्जुनने शिवजीका ध्यान किया।

फिर निकट जाकर उनके साथ अत्यन्त भीषण संग्राम छेड़ दिया।

इस प्रकार गणोंसहित महादेवजीके साथ अर्जुनका घोर युद्ध हुआ।

अन्तमें अर्जुनने शिवजीके चरणकमलका ध्यान किया।

उनका ध्यान करनेसे अर्जुनका बल बढ़ गया।

तब वे शंकरजीके दोनों पैर पकड़कर उन्हें घुमाने लगे।

उस समय भक्तवत्सल महादेवजी हँस रहे थे।

मुने! भक्तपराधीन होनेके कारण वे अर्जुनको अपनी दासता प्रदान करना चाहते थे, इसीलिये उन्होंने ऐसी लीला रची थी; अन्यथा ऐसा होना सर्वथा असम्भव था।

तत्पश्चात् शंकरजीने भक्त-परवशताके कारण मुसकराकर वहीं अपना सौम्य एवं अद्भुत रूप सहसा प्रकट कर दिया।

पुरुषोत्तम! शिवजीका जो स्वरूप वेदों, शास्त्रों तथा पुराणोंमें वर्णित है तथा व्यासजीने अर्जुनको ध्यान करनेके लिये जिस सर्वसिद्धिदाता रूपका उपदेश दिया था, शिवजीने वही रूप दिखाया।

तब ध्यानद्वारा प्राप्त होनेवाले शिवजीके उस सुन्दर रूपको देखकर अर्जुनको महान् विस्मय हुआ।

फिर वे लज्जित होकर स्वयं पश्चात्ताप करने लगे – ‘अहो! जिनको मैंने प्रमुखरूपसे वरण किया है, वे त्रिलोकीके अधीश्वर कल्याणकर्ता साक्षात् स्वयं शिव तो ये ही हैं।

हाय! इस समय मैंने यह क्या कर डाला? अहो! भगवान् शिवकी माया बड़ी बलवती है।

वह बड़े-बड़े मायावियोंको भी मोहमें डाल देती है (फिर मेरी तो बिसात ही क्या है)।

उन्हीं प्रभुने अपने रूपको छिपाकर यह कौन-सी लीला रची है? मैं तो उनके द्वारा छला गया।’ इस प्रकार अपनी बुद्धिसे भलीभाँति विचार करके अर्जुनने प्रेमपूर्वक हाथ जोड़ एवं मस्तक झुकाकर भगवान् शिवको प्रणाम किया, फिर खिन्नमनसे यों कहा।

अर्जुन बोले – देवाधिदेव महादेव! आप तो बड़े कृपालु तथा भक्तोंके कल्याणकर्ता हैं।

सर्वेश! आपको मेरा अपराध क्षमा कर देना चाहिये।

इस समय आपने अपने रूपको छिपाकर यह कौन-सा खेल किया है? आपने तो मुझे छल लिया।

प्रभो! आप स्वामीके साथ युद्ध करनेवाले मुझको धिक्कार है! नन्दीश्वरजी कहते हैं – मुने! इस प्रकार पाण्डुपुत्र अर्जुनको महान् पश्चात्ताप हुआ।

तत्पश्चात् वे शीघ्र ही महाप्रभु शंकरजीके चरणोंमें लोट गये।

यह देखकर भक्तवत्सल महेश्वरका चित्त प्रसन्न हो गया।

तब वे अर्जुनको अनेकों प्रकारसे आश्वासन देकर यों बोले।

शंकरजीने कहा – पार्थ! तुम तो मेरे परम भक्त हो, अतः खेद न करो।

यह तो मैंने आज तुम्हारी परीक्षा लेनेके लिये ऐसी लीला रची थी, इसलिये तुम शोक त्याग दो।

नन्दीश्वरजी कहते हैं – मुने! यों कहकर भगवान् शिवने अपने दोनों हाथोंसे पकड़कर अर्जुनको उठा लिया और अपने तथा गणोंके समक्ष उनकी लाजका निवारण किया।

फिर भक्तवत्सल भगवान् शंकर वीरोंमें मान्य पाण्डुपुत्र अर्जुनको सब तरहसे हर्ष प्रदान करते हुए प्रेमपूर्वक बोले।

शिवजीने कहा – पाण्डवोंमें श्रेष्ठ अर्जुन! मैं तुमपर परम प्रसन्न हूँ, अतः अब तुम वर माँगो।

इस समय तुमने जो मुझपर प्रहार एवं आघात किया है, उसे मैंने अपनी पूजा मान लिया है।

साथ ही यह सब तो मैंने अपनी इच्छासे किया है।

इसमें तुम्हारा अपराध ही क्या है।

अतः तुम्हारी जो लालसा हो, वह माँग लो; क्योंकि मेरे पास कोई भी ऐसी वस्तु नहीं है, जो तुम्हारे लिये अदेय हो।

यह जो कुछ हुआ है, वह शत्रुओंमें तुम्हारे यश और राज्यकी स्थापनाके लिये अच्छा ही हुआ है।

तुम्हें इसका दुःख नहीं मानना चाहिये।

अब तुम अपनी सारी घबराहट छोड़ दो।

नन्दीश्वरजी कहते हैं – मुने! भगवान् शंकरके यों कहनेपर अर्जुन भक्तिपूर्वक सावधानीसे खड़े होकर शंकरजीसे बोले।

अर्जुनने कहा – ‘शम्भो! आप तो बड़े उत्तम स्वामी हैं, आपको भक्त बहुत प्रिय हैं।

देव! भला, मैं आपकी करुणाका क्या वर्णन कर सकता हूँ।

सदाशिव! आप तो बड़े कृपालु हैं।’ यों कहकर अर्जुनने महाप्रभु शंकरकी सद्भक्तियुक्त एवं वेदसम्मत स्तुति आरम्भ की।

अर्जुन बोले – आप देवाधिदेवको नमस्कार है।

कैलासवासिन्! आपको प्रणाम है।

सदाशिव! आपको अभिवादन है।

पंचमुख परमेश्वर! आपको मैं सिर झुकाता हूँ।

आप जटाधारी तथा तीन नेत्रोंसे विभूषित हैं, आपको बारंबार नमस्कार है।

आप प्रसन्नरूपवाले तथा सहस्रों मुखोंसे युक्त हैं, आपको प्रणाम है।

नीलकण्ठ! आपको मेरा नमस्कार प्राप्त हो।

मैं सद्योजातको अभिवादन करता हूँ।

वामांकमें गिरिजाको धारण करनेवाले वृषध्वज! आपको प्रणाम है।

दस भुजाधारी आप परमात्माको पुनः-पुनः अभिवादन है।

आपके हाथोंमें डमरू और कपाल शोभा पाते हैं तथा आप मुण्डोंकी माला धारण करते हैं, आपको नमस्कार है।

आपका श्रीविग्रह शुद्ध स्फटिक तथा निर्मल कर्पूरके समान गौरवर्णका है, हाथमें पिनाक सुशोभित है, तथा आप उत्तम त्रिशूल धारण किये हुए हैं; आपको प्रणाम है।

गंगाधर! आप व्याघ्रचर्मका उत्तरीय तथा गजचर्मका वस्त्र लपेटनेवाले हैं, आपके अंगोंमें नाग लिपटे रहते हैं; आपको बारंबार अभिवादन है।

सुन्दर लाल-लाल चरणोंवाले आपको नमस्कार है।

नन्दी आदि गणोंद्वारा सेवित आप गणनायकको प्रणाम है।

जो गणेशस्वरूप हैं, कार्तिकेय जिनके अनुगामी हैं, जो भक्तोंको भक्ति और मुक्ति प्रदान करनेवाले हैं, उन आपको पुनः-पुनः नमस्कार है।

आप निर्गुण, सगुण, रूपरहित, रूपवान्, कलायुक्त तथा निष्कल हैं; आपको मैं बारंबार सिर झुकाता हूँ।

जिन्होंने मुझपर अनुग्रह करनेके लिये किरातवेष धारण किया है, जो वीरोंके साथ युद्ध करनेके प्रेमी तथा नाना प्रकारकी लीलाएँ करनेवाले हैं, उन महेश्वरको प्रणाम है।

जगत् में जो कुछ भी रूप दृष्टिगोचर हो रहा है, वह सब आपका ही तेज कहा जाता है।

आप चिद्रूप हैं और अन्वयभेदसे त्रिलोकीमें रमण कर रहे हैं।

जैसे धूलिकणोंकी, आकाशमें उदय हुई तारकाओंकी तथा बरसते हुए जलकी बूँदोंकी गणना नहीं की जा सकती, उसी प्रकार आपके गुणोंकी भी संख्या नहीं है।

नाथ! आपके गुणोंकी गणना करनेमें तो वेद भी समर्थ नहीं हैं, मैं तो एक मन्दबुद्धि व्यक्ति हूँ; फिर मैं उनका वर्णन कैसे कर सकता हूँ।

महेशान! आप जो कोई भी हों, आपको मेरा नमस्कार है।

महेश्वर! आप मेरे स्वामी हैं और मैं आपका दास हूँ; अतः आपको मुझपर कृपा करनी ही चाहिये।

नन्दीश्वरजी कहते हैं – मुने! अर्जुनद्वारा किये गये इस स्तवनको सुनकर भगवान् शंकरका मन परम प्रसन्न हो गया।

तब वे हँसते हुए पुनः अर्जुनसे बोले।

शंकरजीने कहा – वत्स! अब अधिक कहनेसे क्या लाभ, तुम मेरी बात सुनो और अपना अभीष्ट वर माँग लो।

इस समय तुम जो कुछ कहोगे, वह सब मैं तुम्हें प्रदान करूँगा।

नन्दीश्वरजी कहते हैं – महर्षे! शंकरजीके यों कहनेपर अर्जुनने हाथ जोड़कर नत-मस्तक हो सदाशिवको प्रणाम किया और फिर प्रेमपूर्वक गद् गद वाणीमें कहना आरम्भ किया।

अर्जुनने कहा – विभो! आप तो स्वयं ही अन्तर्यामीरूपसे सबके अंदर विराजमान हैं (अतः घट-घटकी जाननेवाले हैं), ऐसी दशामें मैं क्या कहूँ; तथापि मैं जो कुछ कहता हूँ, उसे आप सुनिये।

भगवन्! मुझपर शत्रुओंद्वारा जो संकट प्राप्त हुआ था, वह तो आपके दर्शनसे ही विनष्ट हो गया।

अब जिस प्रकार मुझे इस लोककी परासिद्धि प्राप्त हो सके, वैसी कृपा कीजिये।

नन्दीश्वरजी कहते हैं – मुने! इतना कहकर अर्जुनने भक्तवत्सल भगवान् शंकरको नमस्कार किया और फिर वे हाथ जोड़कर मस्तक झुकाये हुए उनके निकट खड़े हो गये।

जब स्वामी शिवजीको यह ज्ञात हो गया कि यह पाण्डुपुत्र अर्जुन मेरा अनन्य भक्त है, तब वे भी परम प्रसन्न हुए।

फिर उन महेश्वरने अपने पाशुपत नामक अस्त्रको, जो सर्वथा समस्त प्राणियोंके लिये दुर्जय है, अर्जुनको दे दिया और इस प्रकार कहा।

शिवजी बोले – वत्स! मैंने तुम्हें अपना महान् अस्त्र दे दिया।

इसे धारण करनेसे अब तुम समस्त शत्रुओंके लिये अजेय हो जाओगे।

जाओ, विजय-लाभ करो।

साथ ही मैं श्रीकृष्णसे भी कहूँगा, वे तुम्हारी सहायता करेंगे; क्योंकि श्रीकृष्ण मेरे आत्मस्वरूप, भक्त और मेरा कार्य करनेवाले हैं।

भारत! मेरे प्रभावसे तुम निष्कण्टक राज्य भोगो और अपने भाई युधिष्ठिरसे सर्वदा नाना प्रकारके धर्मकार्य कराते रहो।

नन्दीश्वरजी कहते हैं – मुने! यों कहकर शंकरजीने अर्जुनके मस्तकपर अपना करकमल रख दिया और अर्जुनद्वारा पूजित हो वे शीघ्र ही अन्तर्धान हो गये।

इस प्रकार भगवान् शंकरसे वरदान और अस्त्र पाकर अर्जुनका मन प्रसन्न हो गया।

तब वे अपने मुख्य गुरु शिवका भक्तिपूर्वक स्मरण करते हुए अपने आश्रमको लौट गये।

वहाँ अर्जुनसे मिलकर सभी भाइयोंको ऐसा आनन्द प्राप्त हुआ मानो मृतक शरीरमें प्राणका संचार हो गया हो।

उत्तम व्रतका पालन करनेवाली द्रौपदीको अत्यन्त सुख मिला।

जब उन पाण्डवोंको यह ज्ञात हुआ कि शिवजी परम संतुष्ट हो गये हैं, तब उनके हर्षका पार नहीं रहा।

उन्हें उस सम्पूर्ण वृत्तान्तके सुननेसे तृप्ति ही नहीं होती थी।

उस समय उस आश्रममें महा-मनस्वी पाण्डवोंका भला करनेके लिये चन्दनयुक्त पुष्पोंकी वृष्टि होने लगी।

तब उन्होंने हर्षपूर्वक सम्पत्तिदाता तथा कल्याणकर्ता शिवको नमस्कार किया और (तेरह वर्षकी) अवधिको समाप्त हुई जानकर यह निश्चय किया कि अवश्य ही हमारी विजय होगी।

इसी अवसरपर जब श्रीकृष्णको पता चला कि अर्जुन लौटकर आ गये हैं, तब यह समाचार सुनकर उन्हें बड़ा सुख मिला और वे अर्जुनसे मिलनेके लिये वहाँ पधारे तथा कहने लगे कि ‘इसीलिये मैंने कहा था कि शंकरजी सम्पूर्ण कष्टोंका विनाश करनेवाले हैं।

मैं नित्य उनकी सेवा करता हूँ, अतः आपलोग भी उनकी सेवा करें।’ मुने! इस प्रकार मैंने शंकरजीके किरात नामक अवतारका वर्णन किया।

जो इसे सुनता अथवा दूसरेको सुनाता है, उसकी सारी कामनाएँ पूर्ण हो जाती हैं।

(अध्याय ४०-४१) * चौर्याच्छलार्द्यमानाच्च विस्मयात्सत्यभञ्जनात्।

तपसा क्षीयते सत्यमेतदेव मया श्रुतम्।।

(शि० पु० शतरुद्रसंहिता ४०।१३-१४)


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