शिव पुराण - शतरुद्र संहिता - 2

शिव पुराण – शतरुद्र संहिता – 2


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शिवजीकी अष्टमूर्तियोंका तथा अर्धनारीनररूपका सविस्तर वर्णन

नन्दीश्वरजी कहते हैं – ऐश्वर्यशाली मुने! अब तुम महेश्वरके उन श्रेष्ठ अवतारोंका वर्णन श्रवण करो, जो लोकमें सबके सम्पूर्ण कार्योंको पूर्ण करनेवाले अतएव सुखदाता हैं।

तात! यह जगत् उन परमेश्वर शम्भुकी आठ मूर्तियोंका स्वरूप ही है।

जैसे सूतमें मणियाँ पिरोयी रहती हैं, उसी तरह यह विश्व उन अष्टमूर्तियोंमें व्याप्त होकर स्थित है।

वे प्रसिद्ध आठ मूर्तियाँ ये हैं – शर्व, भव, रुद्र, उग्र, भीम, पशुपति, ईशान और महादेव।

शिवजीके इन शर्व आदि अष्टमूर्तियोंद्वारा पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, क्षेत्रज्ञ, सूर्य और चन्द्रमा अधिष्ठित हैं।

शास्त्रका ऐसा निश्चय है कि कल्याणकर्ता महेश्वरका विश्वम्भरात्मक रूप ही चराचर विश्वको धारण किये हुए है।

परमात्मा शिवका सलिलात्मक रूप जो समस्त जगत् को जीवन प्रदान करनेवाला है, ‘भव’ नामसे कहा जाता है।

जो जगत् के बाहर-भीतर वर्तमान है और स्वयं ही विश्वका भरण-पोषण करता तथा स्पन्दित होता है, उग्ररूपधारी प्रभुके उस रूपको सत्पुरुष ‘उग्र’ कहते हैं।

महादेवका जो सबको अवकाश देनेवाला सर्वव्यापी आकाशात्मक रूप है, उसे ‘भीम’ कहते हैं।

वह भूतवृन्दका भेदक है।

जो रूप समस्त आत्माओंका अधिष्ठान, सम्पूर्ण क्षेत्रोंमें निवास करनेवाला और जीवोंके भव-पाशका छेदक है, उसे ‘पशुपति’ का रूप समझना चाहिये।

महेश्वरका सम्पूर्ण जगत् को प्रकाशित करनेवाला जो सूर्य नामक रूप है, उसे ‘ईशान’ कहते हैं।

वह द्युलोकमें भ्रमण करता है।

अमृतमयी रश्मियोंवाला जो चन्द्रमा सम्पूर्ण विश्वको आह्लादित करता है, शिवका वह रूप ‘महादेव’ नामसे पुकारा जाता है।

‘आत्मा’ परमात्मा शिवका आठवाँ रूप है।

यह मूर्ति अन्य मूर्तियोंकी व्यापिका है।

इसलिये सारा विश्व शिवमय है।

जिस प्रकार वृक्षके मूलको सींचनेसे उसकी शाखाएँ पुष्पित हो जाती हैं, उसी तरह शिवका पूजन करनेसे शिवस्वरूप विश्व परिपुष्ट होता है।

जैसे इस लोकमें पुत्र-पौत्र आदिको प्रसन्न देखकर पिता हर्षित होता है, उसी तरह विश्वको भलीभाँति हर्षित देखकर शंकरको आनन्द मिलता है।

इसलिये यदि कोई किसी भी देहधारीको कष्ट देता है तो निस्संदेह मानो उसने अष्टमूर्ति शिवका ही अनिष्ट किया है।

सनत्कुमारजी! इस प्रकार भगवान् शिव अपनी अष्टमूर्तियोंद्वारा समस्त विश्वको अधिष्ठित करके विराजमान हैं, अतः तुम पूर्ण भक्तिभावसे उन परम कारण रुद्रका भजन करो।

प्रिय सनत्कुमारजी! अब तुम शिवजीके अनुपम अर्धनारीनररूपका वर्णन सुनो।

महाप्राज्ञ! वह रूप ब्रह्माकी कामनाओंको पूर्ण करनेवाला है।

(सृष्टिके आदिमें) जब सृष्टिकर्ता ब्रह्माद्वारा रची हुई सारी प्रजाएँ विस्तारको नहीं प्राप्त हुईं, तब ब्रह्मा उस दुःखसे दुःखी हो चिन्ताकुल हो गये।

उसी समय यों आकाशवाणी हुई – ‘ब्रह्मन्! अब मैथुनी सृष्टिकी रचना करो।’ उस व्योमवाणीको सुनकर ब्रह्माने मैथुनी सृष्टि उत्पन्न करनेका विचार किया; परंतु इससे पहले नारियोंका कुल ईशानसे प्रकट ही नहीं हुआ था, इसलिये पद्मयोनि ब्रह्मा मैथुनी सृष्टि रचनेमें समर्थ न हो सके।

तब वे यों विचार कर कि शम्भुकी कृपाके बिना मैथुनी प्रजा उत्पन्न नहीं हो सकती, तप करनेको उद्यत हुए।

उस समय ब्रह्मा पराशक्ति शिवासहित परमेश्वर शिवका प्रेमपूर्वक हृदयमें ध्यान करके घोर तप करने लगे।

तदनन्तर तपोऽनुष्ठानमें लगे हुए ब्रह्माके उस तीव्र तपसे थोड़े ही समयमें शिवजी प्रसन्न हो गये।

तब वे कष्टहारी शंकर पूर्णसच्चिदानन्दकी कामदा मूर्तिमें प्रविष्ट होकर अर्धनारीनरके रूपसे ब्रह्माके निकट प्रकट हो गये! उन देवाधिदेव शंकरको पराशक्ति शिवाके साथ आया हुआ देख ब्रह्माने दण्डकी भाँति भूमिपर लेटकर उन्हें प्रणाम किया और फिर वे हाथ जोड़कर स्तुति करने लगे।

तब विश्वकर्ता देवाधिदेव महादेव महेश्वर परम प्रसन्न होकर ब्रह्मासे मेघकी-सी गम्भीर वाणीमें बोले।

ईश्वरने कहा – महाभाग वत्स! मेरे प्यारे पुत्र पितामह! मुझे तुम्हारा सारा मनोरथ पूर्णतया ज्ञात हो गया है।

तुमने जो इस समय प्रजाओंकी वृद्धिके लिये घोर तप किया है, तुम्हारे उस तपसे मैं प्रसन्न हो गया हूँ और तुम्हें तुम्हारा अभीष्ट प्रदान करूँगा।

यों स्वभावसे ही मधुर तथा परम उदार वचन कहकर शिवजीने अपने शरीरके अर्धभागसे शिवादेवीको पृथक् कर दिया।

तब शिवसे पृथक् होकर प्रकट हुई उन परमा शक्तिको देखकर ब्रह्मा विनम्रभावसे प्रणाम करके उनसे प्रार्थना करने लगे।

ब्रह्माने कहा – शिवे! सृष्टिके प्रारम्भमें तुम्हारे पति देवाधिदेव परमात्मा शम्भुने मेरी सृष्टि की थी और (मेरे द्वारा) सारी प्रजाओंकी रचना की थी।

शिवे! तब मैंने देवता आदि समस्त प्रजाओंकी मानसिक सृष्टि की; परंतु बारंबार रचना करनेपर भी उनकी वृद्धि नहीं हो रही है, अतः अब मैं स्त्री-पुरुषके समागमसे उत्पन्न होनेवाली सृष्टिका निर्माण करके अपनी सारी प्रजाओंकी वृद्धि करना चाहता हूँ।

किंतु अभीतक तुमसे अक्षय नारीकुलका प्राकट्य नहीं हुआ है, इस कारण नारीकुलकी सृष्टि करना मेरी शक्तिके बाहर है।

चूँकि सारी शक्तियोंका उद् गमस्थान तुम्हीं हो, इसलिये मैं तुम अखिलेश्वरी परमा शक्तिसे प्रार्थना करता हूँ।

शिवे! मैं तुम्हें नमस्कार करता हूँ, तुम मुझे नारीकुलकी सृष्टि करनेके लिये शक्ति प्रदान करो; क्योंकि शिवप्रिये! इसीको तुम चराचर जगत् की उत्पत्तिका कारण समझो।

वरदेश्वरि! मैं तुमसे एक और वरकी याचना करता हूँ, जगन्मातः! कृपा करके उसे भी मुझे दीजिये।

मैं तुम्हारे चरणोंमें नमस्कार करता हूँ।

(वह वर यह है – ) ‘सर्वव्यापिनी जगज्जननि! तुम चराचर जगत् की वृद्धिके लिये अपने एक सर्वसमर्थ रूपसे मेरे पुत्र दक्षकी पुत्री हो जाओ।’ ब्रह्माद्वारा यों याचना किये जानेपर परमेश्वरी देवी शिवाने ‘तथास्तु – ऐसा ही होगा’ कहकर वह शक्ति ब्रह्माको प्रदान कर दी।

सुतरां जगन्मयी शिवशक्ति शिवादेवीने अपनी भौंहोंके मध्यभागसे अपने ही समान प्रभावाली एक शक्तिकी रचना की।

उस शक्तिको देखकर देवश्रेष्ठ भगवान् शंकर, जो लीलाकारी, कष्टहारी और कृपाके सागर हैं, हँसते हुए जगदम्बिकासे बोले।

शिवजीने कहा – ‘देवि! परमेष्ठी ब्रह्माने तपस्याद्वारा तुम्हारी आराधना की है, अतः अब तुम उनपर प्रसन्न हो जाओ और उनका सारा मनोरथ पूर्ण करो।’ तब शिवादेवीने परमेश्वर शिवकी उस आज्ञाको सिर झुकाकर ग्रहण किया और ब्रह्माके कथनानुसार दक्षकी पुत्री होना स्वीकार कर लिया।

मुने! इस प्रकार शिवादेवी ब्रह्माको अनुपम शक्ति प्रदान करके शम्भुके शरीरमें प्रविष्ट हो गयीं।

तत्पश्चात् भगवान् शंकर भी तुरंत ही अन्तर्धान हो गये।

तभीसे इस लोकमें स्त्रीभागकी कल्पना हुई और मैथुनी सृष्टि चल पड़ी; इससे ब्रह्माको महान् आनन्द प्राप्त हुआ।

तात! इस प्रकार मैंने तुमसे शिवजीके महान् अनुपम अर्धनारीनरार्धरूपका वर्णन कर दिया, यह सत्पुरुषोंके लिये मंगलदायक है।

(अध्याय २-३)


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