शिव पुराण - शतरुद्र संहिता - 18

शिव पुराण – शतरुद्र संहिता – 18


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शिवजीके किरातावतारके प्रसंगमें श्रीकृष्णद्वारा द्वैतवनमें दुर्वासाके शापसे पाण्डवोंकी रक्षा, व्यासजीका अर्जुनको शक्रविद्या और पार्थिवपूजनकी विधि बताकर तपके लिये सम्मति देना, अर्जुनका इन्द्रकील पर्वतपर तप, इन्द्रका आगमन और अर्जुनको वरदान, अर्जुनका शिवजीके उद्देश्यसे पुनः तपमें प्रवृत्त होना

तदनन्तर पार्वतीके विवाहप्रसंगमें हुए जटिल, नर्तक तथा द्विज अवतारोंकी, फिर अश्वत्थामा-अवतारकी बात कहकर नन्दीश्वरजी आगे कहते हैं – बुद्धिमान् सनत्कुमारजी! अब तुम पिनाकधारी भगवान् शिवके किरात नामक अवतारका वर्णन सुनो।

उस अवतारमें उन्होंने मूक नामक दैत्यका वध और प्रसन्न होकर अर्जुनको वर प्रदान किया था।

जब सुयोधनने महाबली पाण्डवोंको (जूएमें) जीत लिया, तब वे सती-साध्वी द्रौपदीके साथ द्वैतवनमें चले आये।

वहीं वे पाण्डव सूर्यद्वारा दी हुई बटलोईका आश्रय लेकर सुखपूर्वक अपना समय बिताने लगे।

प्रियवर! उसी समय सुयोधनने आदरपूर्वक मुनिवर दुर्वासाको छल करनेके प्रयोजनसे पाण्डवोंके निकट जानेके लिये प्रेरित किया।

तब महर्षि दुर्वासा अपने दस हजार शिष्योंके साथ आनन्दपूर्वक वहाँ गये और पाण्डवोंसे मनोऽनुकूल भोजनकी याचना की।

तब उन सभी पाण्डवोंने उनकी प्रार्थना स्वीकार करके दुर्वासा आदि तपस्वी मुनियोंको स्नान करनेके लिये भेजा।

मुनीश्वर! इधर अन्नाभावके कारण वे सभी पाण्डव बड़े संकटमें पड़ गये और मन-ही-मन प्राण त्याग देनेका विचार करने लगे।

तब द्रौपदीने श्रीकृष्णका स्मरण किया।

वे तत्काल ही वहाँ आ पहुँचे और शाक (के पत्ते)-का भोग लगाकर उन सभी तपस्वियोंको तृप्त कर दिया।

फिर तो महर्षि दुर्वासा अपने शिष्योंको तृप्त हुआ जानकर वहाँसे चलते बने।

इस प्रकार श्रीकृष्णकी कृपासे उस समय पाण्डव संकटसे मुक्त हुए।

तदनन्तर भगवान् श्रीकृष्णने पाण्डवोंको शिवजीकी आराधना करनेकी सम्मति दी।

फिर व्यासजीने भी आकर उन्हें शंकरके समाराधनका आदेश देते हुए कहा – ‘शिवजी सम्पूर्ण दुःखोंका विनाश करनेवाले हैं।

वे भक्ति करनेसे थोड़े ही समयमें प्रसन्न हो जाते हैं।

इसलिये सभी लोगोंको शंकरजीकी सेवा करनी चाहिये।

वे महेश्वर प्रसन्न होनेपर भक्तोंकी सारी अभिलाषाएँ पूर्ण कर देते हैं, यहाँतक कि वे इस लोकमें सारा भोग और परलोकमें मोक्षतक दे डालते हैं – यह बिलकुल निश्चित बात है।

इसलिये भुक्ति-मुक्तिरूपी फलकी कामनावाले मनुष्योंको सदा शम्भुकी सेवा करनी चाहिये; क्योंकि भगवान् शंकर साक्षात् परम पुरुष, दुष्टोंके संहारक और सत्पुरुषोंके आश्रय-स्वरूप हैं।

अब अर्जुन पहले दृढ़तापूर्वक शक्रविद्याका जप करें।

तब इन्द्र पहले परीक्षा लेंगे, पीछे संतुष्ट हो जायँगे।

प्रसन्न होनेपर वे सर्वदा विघ्नोंका नाश करते रहेंगे और फिर शिवजीका श्रेष्ठ मन्त्र प्रदान करेंगे।’ नन्दीश्वरजी कहते हैं – मुने! इतना कहकर व्यासजी अर्जुनको बुलाकर उन्हें शक्रविद्याका उपदेश देनेको उद्यत हुए, तब तीक्ष्णबुद्धि अर्जुनने स्नान करके पूर्वमुख बैठकर उस विद्याको ग्रहण कर लिया।

फिर उदारबुद्धि मुनिवर व्यासजीने अर्जुनको पार्थिवलिंगके पूजनका विधान बतलाकर उनसे कहा।

व्यासजी बोले – ‘पार्थ! अब तुम यहाँसे परम रमणीय इन्द्रकील पर्वतपर जाओ और वहाँ जाह्नवीके तटपर बैठकर सम्यक्-रूपसे तपस्या करो।

यह विद्या अदृश्यरूपसे सदा तुम्हारा हित करती रहेगी।’ अर्जुनको ऐसा आशीर्वाद देकर व्यासजी पाण्डवोंसे कहने लगे – ‘नृपश्रेष्ठो! तुम सब लोग धर्मपर दृढ़ बने रहो, इससे तुम्हें सर्वथा श्रेष्ठ सिद्धि प्राप्त होगी; इसमें अन्यथा विचार करनेकी आवश्यकता नहीं है।’ नन्दीश्वरजी कहते हैं – मुने! इस प्रकार मुनिवर व्यास उन पाण्डवोंको आशीर्वाद दे तथा शिवजीके चरणकमलोंका स्मरण करके तुरंत ही अन्तर्धान हो गये।

उधर शिव-मन्त्रके धारण करनेसे अर्जुनमें भी अनुपम तेज व्याप्त हो गया।

वे उस समय उद् दीप्त हो उठे।

अर्जुनको देखकर सभी पाण्डवोंको निश्चय हो गया कि अवश्य ही हमारी विजय होगी; क्योंकि अर्जुनमें विपुल तेज उत्पन्न हो गया है।

(तब उन्होंने अर्जुनसे कहा – ) ‘व्यासजीके कथनसे ऐसा प्रतीत होता है कि इस कार्यको केवल तुम्हीं कर सकते हो, यह दूसरेके द्वारा कभी भी सिद्ध नहीं हो सकता; अतः जाओ और हमलोगोंका जीवन सफल बनाओ।’ तब अर्जुनने चारों भाइयों तथा द्रौपदीसे अनुमति माँगी।

उन लोगोंको अर्जुनके विछोहका दुःख तो हुआ, पर कार्यकी महत्ता देखकर सभीने अनुमति दे दी।

फिर तो अर्जुन मन-ही-मन प्रसन्न होते हुए उस उत्तम पर्वत (इन्द्रकील)-को चले गये।

वहाँ पहुँचकर वे गंगाजीके समीप एक मनोरम स्थानपर, जो स्वर्गसे भी उत्तम और अशोकवनसे सुशोभित था, ठहर गये।

वहाँ उन्होंने स्नान करके गुरुवरको नमस्कार किया और जैसा उपदेश मिला था, उसीके अनुसार स्वयं ही अपना वेष बनाया।

फिर पहले मन-ही-मन इन्द्रियोंका अपकर्ष करके वे आसन लगाकर बैठ गये।

तत्पश्चात् समसूत्रवाले सुन्दर पार्थिव (शिवलिंग)-का निर्माण करके उनके आगे अनुपम तेजोराशि शंकरका ध्यान करने लगे।

वे तीनों समय स्नान करके अनेक प्रकारसे बारंबार शिवजीकी पूजा करते हुए उपासनामें तत्पर हो गये।

तब अर्जुनके शिरोभागसे तेजकी ज्वाला निकलने लगी।

उसे देखकर इन्द्रके गुप्तचर भयभीत हो गये।

वे सोचने लगे – यह यहाँ कब आ गया? पुनः उन्होंने ऐसा विचार किया कि यह घटना इन्द्रको बतला देनी चाहिये।

ऐसा सोचकर वे तत्काल ही इन्द्रके समीप गये।

गुप्तचरोंने कहा – देवेश! वनमें एक पुरुष तप कर रहा है; परंतु हमें पता नहीं कि वह देवता है, ऋषि है, सूर्य है अथवा अग्नि है।

उसीके तेजसे संतप्त होकर हम आपके संनिकट आये हैं।

हमने उसका चरित्र भी आपसे निवेदित कर दिया।

अब आप जैसा उचित समझें, वैसा करें।

नन्दीश्वरजी कहते हैं – मुने! उन गुप्तचरोंके यों कहनेपर इन्द्रको अपने पुत्र अर्जुनका सारा मनोरथ ज्ञात हो गया।

तब वे पर्वतरक्षकोंको विदा करके स्वयं वहाँ जानेका विचार करने लगे।

विप्रवर! इन्द्र अर्जुनकी परीक्षा करनेके लिये वृद्ध ब्रह्मचारी ब्राह्मणका वेष बनाकर वहाँ पहुँचे।

उस समय उन्हें आया हुआ देखकर पाण्डुपुत्र अर्जुनने उनकी पूजा की और फिर उनकी स्तुति करके आगे खड़े हो पूछने लगे – ‘ब्रह्मन्! बताइये, इस समय कहाँसे आपका शुभागमन हुआ है?’ इसपर ब्राह्मणवेषधारी इन्द्रने अर्जुनको ऐसे वचन कहे, जिससे वह तपसे डिग जाय; पर जब अर्जुनको दृढ़निश्चय देखा, तब अपने स्वरूपमें प्रकट होकर इन्द्रने अर्जुनको भगवान् शंकरका मन्त्र बताया और उसका जप करनेकी आज्ञा दी।

तदनन्तर अपने अनुचरोंको सावधानीके साथ अर्जुनकी रक्षा करनेका आदेश देकर वे अर्जुनसे बोले – ‘भद्र! तुम्हें कभी भी प्रमादपूर्वक राज्य नहीं करना चाहिये।

परंतप! यह विद्या तुम्हारे लिये श्रेयस्करी होगी।

साधकको सर्वथा धैर्य धारण किये रहना चाहिये, रक्षक तो भगवान् शिव हैं ही।

वे सम्पत्तियाँ और फल (मोक्ष) दोनों समानरूपसे देंगे।

इसमें तनिक भी संशय नहीं है।’ नन्दीश्वरजी कहते हैं – मुने! इस प्रकार अर्जुनको वरदान देकर देवराज इन्द्र शिवजीके चरणकमलोंका स्मरण करते हुए अपने भवनको लौट गये।

तब महावीर अर्जुनने भी सुरेश्वरको प्रणाम किया और फिर वे मनको वशमें करके इन्द्रके उपदेशानुसार शिवजीके उद् देश्यसे तपस्या करने लगे।

(अध्याय ३३ – ३८)


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