शिव पुराण - शतरुद्र संहिता - 1


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शतरुद्रसंहिता शिवजीके सद्योजात, वामदेव, तत्पुरुष, अघोर और ईशान नामक पाँच अवतारोंका वर्णन

वन्दे महानन्दमनन्तलीलं महेश्वरं सर्वविभुं महान्तम्।
गौरीप्रियं कार्तिकविघ्नराजसमुद्भवं शंकरमादिदेवम्।।

जो परमानन्दमय हैं, जिनकी लीलाएँ अनन्त हैं, जो ईश्वरोंके भी ईश्वर, सर्व-व्यापक, महान्, गौरीके प्रियतम तथा स्वामिकार्तिक और विघ्नराज गणेशको उत्पन्न करनेवाले हैं, उन आदिदेव शंकरकी मैं वन्दना करता हूँ।

शौनकजीने कहा – महाभाग सूतजी! आप तो (पुराणकर्ता) व्यासजीके शिष्य तथा ज्ञान और दयाकी निधि हैं, अतः अब आप शम्भुके उन अवतारोंका वर्णन कीजिये, जिनके द्वारा उन्होंने सत्पुरुषोंका कल्याण किया है।

सूतजी बोले – शौनकजी! आप तो मननशील व्यक्ति हैं, अतः अब मैं आपसे शिवजीके उन अवतारोंका वर्णन करता हूँ, आप अपनी इन्द्रियोंको वशमें करके सद्भक्तिपूर्वक मन लगाकर श्रवण कीजिये।

मुने! पूर्वकालमें सनत्कुमारजीने नन्दीश्वरसे, जो सत्पुरुषोंकी गति तथा शिवस्वरूप ही हैं, यही प्रश्न किया था; उस समय नन्दीश्वरने शिवजीका स्मरण करते हुए उन्हें यों उत्तर दिया था।

नन्दीश्वरने कहा – मुने! यों तो सर्वव्यापी सर्वेश्वर शिवके कल्प-कल्पान्तरोंमें असंख्य अवतार हुए हैं, तथापि इस समय मैं अपनी बुद्धिके अनुसार उनमेंसे कुछका वर्णन करता हूँ।

उन्नीसवाँ कल्प, जो श्वेतलोहित नामसे विख्यात है, उसमें शिवजीका ‘सद्योजात’ नामक अवतार हुआ था।

वह उनका प्रथम अवतार कहलाता है।

उस कल्पमें जब ब्रह्मा परब्रह्मका ध्यान कर रहे थे, उसी समय एक श्वेत और लोहित-वर्णवाला शिखाधारी कुमार उत्पन्न हुआ।

उसे देखकर ब्रह्माने मन-ही-मन विचार किया।

जब उन्हें यह ज्ञात हो गया कि यह पुरुष ब्रह्मरूपी परमेश्वर है, तब उन्होंने अंजलि बाँधकर उसकी वन्दना की।

फिर जब भुवनेश्वर ब्रह्माको पता लग गया कि यह सद्योजात कुमार शिव ही हैं, तब उन्हें महान् हर्ष हुआ।

वे अपनी सद् बुद्धिसे बारंबार उस परब्रह्मका चिन्तन करने लगे।

ब्रह्माजी ध्यान कर ही रहे थे कि वहाँ श्वेत-वर्णवाले चार यशस्वी कुमार प्रकट हुए।

वे परमोत्कृष्ट ज्ञानसम्पन्न तथा परब्रह्मके स्वरूप थे।

उनके नाम थे – सुनन्द, नन्दन, विश्वनन्द और उपनन्दन।

ये सब-के-सब महात्मा थे और ब्रह्माजीके शिष्य हुए।

इनसे वह ब्रह्मलोक व्याप्त हो गया।

तदनन्तर सद्योजातरूपसे प्रकट हुए परमेश्वर शिवने परम प्रसन्न होकर ब्रह्माको ज्ञान तथा सृष्टिरचनाकी शक्ति प्रदान की।

(यह सद्योजात नामक पहला अवतार हुआ।) तदनन्तर ‘रक्त’ नामसे प्रसिद्ध बीसवाँ कल्प आया।

उस कल्पमें ब्रह्माजीने रक्त-वर्णका शरीर धारण किया था।

जिस समय ब्रह्माजी पुत्रकी कामनासे ध्यान कर रहे थे, उसी समय उनसे एक पुत्र प्रकट हुआ।

उसके शरीरपर लाल रंगकी माला और लाल ही वस्त्र शोभा पा रहे थे।

उसके नेत्र भी लाल थे और वह आभूषण भी लाल रंगका ही धारण किये हुए था।

उस महान् आत्मबलसे सम्पन्न कुमारको देखकर ब्रह्माजी ध्यानस्थ हो गये।

जब उन्हें ज्ञात हो गया कि ये वामदेव शिव हैं, तब उन्होंने हाथ जोड़कर उस कुमारको प्रणाम किया।

तत्पश्चात् उनके विरजा, विवाह, विशोक और विश्वभावन नामके चार पुत्र उत्पन्न हुए, जो सभी लाल वस्त्र धारण किये हुए थे।

तब वामदेवरूपधारी परमेश्वर शम्भुने परम प्रसन्न होकर ब्रह्माको ज्ञान तथा सृष्टिरचनाकी शक्ति प्रदान की।

(यह ‘वामदेव’ नामक दूसरा अवतार हुआ।) इसके बाद इक्कीसवाँ कल्प आया, जो ‘पीतवासा’ नामसे कहा जाता था।

उस कल्पमें महाभाग ब्रह्मा पीतवस्त्रधारी हुए।

जब वे पुत्रकी कामनासे ध्यान कर रहे थे, उस समय उनसे एक महातेजस्वी कुमार उत्पन्न हुआ।

उस प्रौढ़ कुमारकी भुजाएँ विशाल थीं और उसके शरीरपर पीताम्बर झलमला रहा था।

उस ध्यानमग्न बालकको देखकर ब्रह्माजीने अपनी बुद्धिके बलसे उसे ‘तत्पुरुष’ शिव समझा।

तब उन्होंने ध्यानयुक्त चित्तसे सम्पूर्ण लोकोंद्वारा नमस्कृत महादेवी शांकरी गायत्री (तत्पुरुषाय विद्महे महादेवाय धीमहि)-का जप करके उन्हें नमस्कार किया, इससे महादेवजी प्रसन्न हो गये।

तत्पश्चात् उनके पार्श्वभागसे पीतवस्त्र-धारी दिव्यकुमार प्रकट हुए, वे सब-के-सब योगमार्गके प्रवर्तक हुए।

(यह ‘तत्पुरुष’ नामक तीसरा अवतार हुआ।) तत्पश्चात् स्वयम्भू ब्रह्माके उस पीतवर्ण नामक कल्पके बीत जानेपर पुनः दूसरा कल्प प्रवृत्त हुआ।

उसका नाम ‘शिव’ था।

जब एकार्णवकी दशामें एक सहस्र दिव्य वर्ष व्यतीत हो गये, तब ब्रह्माजी प्रजाओंकी सृष्टि करनेकी इच्छासे दुःखी हो विचार करने लगे।

उस समय उन महातेजस्वी ब्रह्माके समक्ष एक कुमार उत्पन्न हुआ।

उस महापराक्रमी बालकके शरीरका रंग काला था।

वह अपने तेजसे उद्दीप्त हो रहा था तथा काला वस्त्र, काली पगड़ी और काला यज्ञोपवीत धारण किये हुए था।

उसका मुकुट भी काला था और स्नानके पश्चात् अनुलेपन – चन्दन भी काले रंगका ही था।

उन भयंकरपराक्रमी, महामनस्वी, देवदेवेश्वर, अलौकिक, कृष्णपिंगलवर्णवाले अघोरको देखकर ब्रह्माजीने उनकी वन्दना की।

तत्पश्चात् ब्रह्माजी उन भक्तवत्सल अविनाशी अघोरको ब्रह्मरूप समझकर इष्ट वचनोंद्वारा उनकी स्तुति करने लगे।

तब उनके पार्श्वभागसे कृष्णवर्णवाले तथा काले रंगका अनुलेपन धारण किये हुए चार महामनस्वी कुमार उत्पन्न हुए।

वे सब-के-सब परम तेजस्वी, अव्यक्तनामा तथा शिवसरीखे रूपवाले थे।

उनके नाम थे – कृष्ण, कृष्णशिख, कृष्णास्य और कृष्णकण्ठधृक्।

इस प्रकार उत्पन्न होकर इन महात्माओंने ब्रह्माजीकी सृष्टिरचनाके निमित्त महान् अद्भुत ‘घोर’ नामक योगका प्रचार किया।

(यह ‘अघोर’ नामक चौथा अवतार हुआ।) मुनीश्वरो! तदनन्तर ब्रह्माका दूसरा कल्प प्रारम्भ हुआ।

वह परम अद् भुत था और ‘विश्वरूप’ नामसे विख्यात था।

उस कल्पमें जब ब्रह्माजी पुत्रकी कामनासे मन-ही-मन शिवजीका ध्यान कर रहे थे, उसी समय महान् सिंहनाद करनेवाली विश्वरूपा सरस्वती प्रकट हुईं तथा उसी प्रकार परमेश्वर भगवान् ईशान प्रादुर्भूत हुए, जिनका वर्ण शुद्ध स्फटिकके समान उज्ज्वल था और जो समस्त आभूषणोंसे विभूषित थे।

उन अजन्मा, सर्वव्यापी, सर्वान्तर्यामी, सब कुछ प्रदान करनेवाले, सर्वस्वरूप, सुन्दर रूपवाले तथा अरूप ईशानको देखकर ब्रह्माजीने उन्हें प्रणाम किया।

तब शक्तिसहित विभु ईशानने भी ब्रह्माको सन्मार्गका उपदेश देकर चार सुन्दर बालकोंकी कल्पना की।

उन उत्पन्न हुए शिशुओंका नाम था – जटी, मुण्डी, शिखण्डी और अर्धमुण्ड।

वे योगानुसार सद् धर्मका पालन करके योगगतिको प्राप्त हो गये।

(यह ‘ईशान’ नामक पाँचवाँ अवतार हुआ।) सर्वज्ञ सनत्कुमारजी! इस प्रकार मैंने जगत् की हितकामनासे सद्योजात आदि अवतारोंका प्राकट्य संक्षेपसे वर्णन किया।

उनका वह सारा लोकहितकारी व्यवहार याथातथ्यरूपसे ब्रह्माण्डमें वर्तमान है।

महेश्वरकी ईशान, पुरुष, घोर, वामदेव और ब्रह्म – ये पाँच मूर्तियाँ विशेषरूपसे प्रसिद्ध हैं।

इनमें ईशान, जो शिवस्वरूप तथा सबसे बड़ा है, पहला कहा जाता है।

वह साक्षात् प्रकृतिके भोक्ता क्षेत्रज्ञमें निवास करता है।

शिवजीका दूसरा स्वरूप तत्पुरुष नामसे ख्यात है।

वह गुणोंके आश्रयरूप तथा भोग्य सर्वज्ञमें अधिष्ठित है।

पिनाकधारी शिवका जो अघोर नामक तीसरा स्वरूप है, वह धर्मके लिये अंगोंसहित बुद्धितत्त्वका विस्तार करके अंदर विराजमान रहता है।

वामदेव नामवाला शंकरका चौथा स्वरूप अहंकारका अधिष्ठान है।

वह सदा अनेकों प्रकारका कार्य करता रहता है।

विचारशील बुद्धिमानोंका कथन है कि शंकरका ईशानसंज्ञक स्वरूप सदा कर्ण, वाणी और सर्वव्यापी आकाशका अधीश्वर है तथा महेश्वरका पुरुष नामक रूप त्वक्, पाणि और स्पर्शगुणविशिष्ट वायुका स्वामी है।

मनीषीगण अघोर नामवाले रूपको शरीर, रस, रूप और अग्निका अधिष्ठान बतलाते हैं।

शंकरजीका वामदेवसंज्ञक स्वरूप रसना, पायु, रस और जलका स्वामी कहा जाता है।

प्राण, उपस्थ, गन्ध और पृथ्वीका ईश्वर शिवजीका सद्योजात नामक रूप बताया जाता है।

कल्याणकामी मनुष्योंको शंकरजीके इन स्वरूपोंकी सदा प्रयत्नपूर्वक वन्दना करनी चाहिये; क्योंकि ये श्रेयःप्राप्तिमें एकमात्र हेतु हैं।

जो मनुष्य इन सद्योजात आदि अवतारोंके प्राकट्यको पढ़ता अथवा सुनता है, वह जगत् में समस्त काम्य भोगोंका उपभोग करके अन्तमें परमगतिको प्राप्त होता है।

(अध्याय १)


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