शिव पुराण - रुद्र संहिता - युद्ध खण्ड - 20

शिव पुराण – रुद्र संहिता – युद्ध खण्ड – 20


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शिव पुराण संहिता लिंकविद्येश्वर | रुद्र संहिता | शतरुद्र | कोटिरुद्र | उमा | कैलास | वायवीय


विदल और उत्पल नामक दैत्योंका पार्वतीपर मोहित होना और पार्वतीका कन्दुकप्रहारद्वारा उनका काम तमाम करना, कन्दुकेश्वरकी स्थापना और उनकी महिमा

सनत्कुमारजी कहते हैं – व्यासजी! जिस प्रकार परमेश्वर शिवने संकेतसे दैत्यको लक्ष्य कराकर अपनी प्रियाद्वारा उसका वध कराया था, उनके उस चरित्रको तुम परम प्रेमपूर्वक श्रवण करो।

विदल और उत्पल नामक दो महादैत्य थे।

उन्होंने ब्रह्माजीसे किसी पुरुषके हाथसे न मरनेका वर प्राप्त करके सब देवताओंको जीत लिया था।

तब देवताओंने ब्रह्माजीके पास जाकर अपना दुःख सुनाया।

उनकी कष्ट-कहानी सुनकर ब्रह्माने उनसे कहा – ‘तुमलोग शिवासहित शिवका आदरपूर्वक स्मरण करके धैर्य धारण करो।

वे दोनों दैत्य निश्चय ही देवीके हाथों मारे जायँगे।

शिवासहित शिव परमेश्वर, कल्याणकर्ता और भक्तवत्सल हैं।

वे शीघ्र ही तुमलोगोंका कल्याण करेंगे।’ सनत्कुमारजी कहते हैं – मुने! देवोंसे यों कहकर ब्रह्माजी शिवका स्मरण करते हुए मौन हो गये।

तब देवगण भी आनन्दित होकर अपने-अपने धामको लौट गये।

एक समय नारदजीके द्वारा पार्वतीके सौन्दर्यकी प्रशंसा सुनकर वे दोनों दैत्य उनका अपहरण करनेकी बात सोचने लगे और पार्वतीजी जहाँ गेंद उछाल रही थीं, वहीं वे जाकर आकाशमें विचरने लगे।

वे दोनों घोर दुराचारी थे।

उनका मन अत्यन्त चंचल हो रहा था।

वे गणोंका रूप धारण करके अम्बिकाके निकट आये।

तब दुष्टोंका संहार करनेवाले शिवने अवहेलनापूर्वक उनकी ओर देखकर उनके नेत्रोंसे प्रकट हुई चंचलताके कारण तुरंत उन्हें पहचान लिया।

फिर तो सर्वस्वरूपी महादेवने दुर्गतिनाशिनी दुर्गाको कटाक्षद्वारा सूचित कर दिया कि ये दोनों दैत्य हैं, गण नहीं।

तात! तब पार्वती अपने स्वामी महाकौतुकी परमेश्वर शंकरके उस नेत्रसंकेतको समझ गयीं।

तदनन्तर सर्वज्ञ शिवकी अर्धांगिनी पार्वतीने उस संकेतको समझकर उसी गेंदसे एक साथ ही उन दोनोंपर चोट की।

तब महादेवीकी गेंदसे आहत होकर वे दोनों महाबली दुष्ट दैत्य चक्कर काटते हुए उसी प्रकार भूतलपर गिर पड़े, जैसे वायुके झोंकेसे चंचल होकर दो पके हुए ताड़के फल अपनी डंठलसे टूटकर गिर पड़ते हैं अथवा जैसे वज्रके आघातसे महागिरिके दो शिखर ढह जाते हैं।

इस प्रकार अकार्य करनेके लिये उद्यत उन दोनों महादैत्योंको धराशायी करके वह गेंद लिंगरूपमें परिणत हो गया।

समस्त दुष्टोंका निवारण करनेवाला वह लिंग कन्दुकेश्वरके नामसे विख्यात हुआ और ज्येष्ठेश्वरके समीप स्थित हो गया।

काशीमें स्थित कन्दुकेश्वरलिंग दुष्टोंका विनाशक, भोग-मोक्षका प्रदाता और सर्वदा सत्पुरुषों-की समस्त कामनाओंको पूर्ण करनेवाला है।

जो मनुष्य इस अनुपम आख्यानको हर्षपूर्वक सुनता, सुनाता अथवा पढ़ता है, उसे भयका दुःख कहाँ।

वह इस लोकमें नाना प्रकारके सम्पूर्ण उत्तमोत्तम सुखोंको भोगकर अन्तमें देवदुर्लभ दिव्य गतिको प्राप्त कर लेता है।

ब्रह्माजी कहते हैं – मुनिसत्तम! मैंने तुमसे रुद्रसंहिताके अन्तर्गत इस युद्ध-खण्डका वर्णन कर दिया।

यह खण्ड सम्पूर्ण मनोरथोंका फल प्रदान करनेवाला है।

इस प्रकार मैंने पूरी-की-पूरी रुद्र-संहिताका वर्णन कर दिया।

यह शिवजीको सदा परम प्रिय है और भुक्ति-मुक्तिरूप फल प्रदान करनेवाली है।

सूतजी कहते हैं – इस प्रकार शिवानुगामी ब्रह्मपुत्र नारद शंकरके उत्तम यशको तथा शिव-शतनामको सुनकर कृतार्थ हो गये।

यों मैंने सम्पूर्ण चरित्रोंमें प्रधान तथा कल्याणकारक यह ब्रह्मा और नारदका संवाद पूर्णरूपसे कह दिया, अब तुम्हारी और क्या सुननेकी इच्छा है? (अध्याय ५९)

।। रुद्रसंहिताका युद्धखण्ड सम्पूर्ण।।

।। रुद्रसंहिता समाप्त।।


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