शिव पुराण - रुद्र संहिता - युद्ध खण्ड - 1


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शिव पुराण संहिता लिंकविद्येश्वर | रुद्र संहिता | शतरुद्र | कोटिरुद्र | उमा | कैलास | वायवीय


तारकपुत्र तारकाक्ष, विद्युन्माली और कमलाक्षकी तपस्या, ब्रह्माद्वारा उन्हें वर-प्रदान, मयद्वारा उनके लिये तीन पुरोंका निर्माण और उनकी सजावट-शोभाका वर्णन

नारदजीने कहा – पिताजी! जो गणेश और स्वामिकार्तिककी उत्तम कथाओंसे ओतप्रोत तथा आनन्द प्रदान करनेवाला है, भगवान् शंकरके गृहस्थ-सम्बन्धी उस उत्तम चरित्रको हमने सुन लिया।

अब आप कृपा करके उस परमोत्तम चरित्रका वर्णन कीजिये, जिसमें रुद्रदेवने खेल-ही-खेलमें दुष्टोंका वध किया था।

महान् वीर्यशाली भगवान् शंकरने देवद्रोहियोंके तीनों नगरोंको एक ही साथ एक ही बाणसे किस कारण एवं कैसे भस्म कर डाला था? भगवन्! जिनके भालमें बालचन्द्रमा सुशोभित है तथा जो सदा मायाके साथ विहार करनेवाले हैं, उन भगवान् शंकरका चरित तो देवर्षियोंको आनन्द प्रदान करनेवाला है।

आप वह सारा चरित विस्तारपूर्वक वर्णन कीजिये।

ब्रह्माजी बोले – ऋषिश्रेष्ठ! पहले किसी समय व्यासने सनत्कुमारसे ऐसा ही प्रश्न किया था।

उस समय सनत्कुमारने जो कुछ उत्तर दिया था, वही मैं वर्णन करता हूँ।

उस समय सनत्कुमारने कहा था – महाबुद्धिमान् व्यासजी! विश्वका संहार करनेवाले चन्द्रमौलि शिवने जिस प्रकार एक ही बाणसे त्रिपुरको भस्म किया था, वह चरित्र कहता हूँ; सुनो।

मुनीश्वर! जब शिवकुमार स्कन्दने तारकासुरको मार डाला, तब उसके तीनों पुत्रोंको महान् संताप हुआ।

उनमें तारकाक्ष सबसे ज्येष्ठ था, विद्युन्माली मझला था और छोटेका नाम कमलाक्ष था।

उन तीनोंमें समान बल था।

वे जितेन्द्रिय, सदा कार्यके लिये उद्यत, संयमी, सत्यवादी, दृढ़चित्त, महान् वीर और देवोंसे द्रोह करनेवाले थे।

उन तीनोंने सभी उत्तमोत्तम एवं मनोहर भोगोंका परित्याग करके मेरुपर्वतकी एक कन्दरामें जाकर परम अद्भुत तपस्या आरम्भ की।

वहाँ उन्होंने हजारों वर्षोंतक ब्रह्माजीकी प्रसन्नताके लिये अत्यन्त उग्र तप किया।

तब सुर और असुरोंके गुरु महायशस्वी ब्रह्माजी उनकी तपस्यासे अत्यन्त संतुष्ट होकर उन्हें वर देनेके लिये प्रकट हुए।

ब्रह्माजीने कहा – महादैत्यो! मैं तुमलोगोंके तपसे प्रसन्न हो गया हूँ, अतः तुम्हारी कामनाके अनुसार तुम्हें सभी वर प्रदान करूँगा।

देवद्रोहियो! मैं सबकी तपस्याके फलदाता और सर्वदा सब कुछ करनेमें समर्थ हूँ; अतः बताओ, तुमलोगोंने इतना घोर तप किसलिये किया है? सनत्कुमारजी कहते हैं – मुने! ब्रह्माजीकी वह बात सुनकर उन सबने अंजलि बाँधकर पितामहके चरणोंमें प्रणिपात किया और फिर धीरे-धीरे अपने मनकी बात कहना आरम्भ किया।

दैत्य बोले – देवेश! यदि आप हमपर प्रसन्न हैं और हमें वर देना चाहते हैं तो यह वर दीजिये कि समस्त प्राणियोंमें हम सबके लिये अवध्य हो जायँ।

जगन्नाथ! आप हमें स्थिर कर दें और हमारे जरा, रोग आदि सभी शत्रु नष्ट हो जायँ तथा कभी भी मृत्यु हमारे समीप न फटके।

हमलोगोंका ऐसा विचार है कि हमलोग अजर-अमर हो जायँ और त्रिलोकीमें अन्य सभी प्राणियोंको मौतके घाट उतारते रहें; क्योंकि ब्रह्मन्! यदि पाँच ही दिनोंमें कालके गालमें चला जाना निश्चित ही है तो अतुल लक्ष्मी, उत्तमोत्तम नगर, अन्यान्य भोग-सामग्री, उत्कृष्ट पद और ऐश्वर्यसे क्या प्रयोजन है।

मेरे विचारसे तो उस प्राणीके लिये ये सभी व्यर्थ हैं।

सनत्कुमारजी कहते हैं – महर्षे! उन तपस्वी दैत्योंकी यह बात सुनकर ब्रह्मा अपने स्वामी गिरिशायी भगवान् शंकरका ध्यान करके बोले।

ब्रह्माजीने कहा – असुरो! अमरत्व सभीको नहीं मिल सकता, अतः तुमलोग अपना यह विचार छोड़ दो।

इसके अतिरिक्त अन्य कोई वर जो तुम्हें रुचता हो, माँग लो।

क्योंकि दैत्यो! इस भूतलपर जहाँ कहीं भी जो प्राणी जन्मा है अथवा जन्म लेगा, वह जगत् में अजर-अमर नहीं हो सकता।

इसलिये पापरहित असुरो! तुमलोग स्वयं अपनी बुद्धिसे विचारकर मृत्युकी वंचना करते हुए कोई ऐसा दुर्लभ एवं दुस्साध्य वर माँग लो, जो देवता और असुरोंके लिये अशक्य हो।

उस प्रसंगमें तुमलोग अपने बलका आश्रय लेकर पृथक्-पृथक् अपने मरणमें किसी हेतुको माँग लो, जिससे तुम्हारी रक्षा हो जाय और मृत्यु तुम्हें वरण न कर सके।

सनत्कुमारजी कहते हैं – महर्षे! ब्रह्माजीके ऐसे वचन सुनकर वे दो घड़ीतक ध्यानस्थ हो गये, फिर कुछ सोच-विचारकर सर्वलोकपितामह ब्रह्माजीसे बोले।

दैत्योंने कहा – भगवन्! यद्यपि हमलोग प्रबल पराक्रमी हैं तथापि हमारे पास कोई ऐसा घर नहीं है, जहाँ हम शत्रुओंसे सुरक्षित रहकर सुखपूर्वक निवास कर सकें; अतः आप हमारे लिये ऐसे तीन नगरोंका निर्माण करा दीजिये, जो अत्यन्त अद्भुत और सम्पूर्ण सम्पत्तियोंसे सम्पन्न हों तथा देवता जिनका प्रधर्षण न कर सकें।

लोकेश! आप तो जगद् गुरु हैं।

हमलोग आपकी कृपासे ऐसे तीनों पुरोंमें अधिष्ठित होकर इस पृथ्वीपर विचरण करेंगे।

इसी बीच तारकाक्षने कहा कि विश्वकर्मा मेरे लिये जिस नगरका निर्माण करें, वह स्वर्णमय हो और देवता भी उसका भेदन न कर सकें।

तत्पश्चात् कमलाक्षने चाँदीके बने हुए अत्यन्त विशाल नगरकी याचना की और विद्युन्मालीने प्रसन्न होकर वज्रके समान कठोर लोहेका बना हुआ बड़ा नगर माँगा।

ब्रह्मन्! ये तीनों पुर मध्याह्नके समय अभिजित् मुहूर्तमें चन्द्रमाके पुष्य नक्षत्रपर स्थित होनेपर एक स्थानपर मिला करें और आकाशमें नीले बादलोंपर स्थित होकर ये क्रमशः एकके ऊपर एक रहते हुए लोगोंकी दृष्टिसे ओझल रहें।

फिर पुष्करावर्त नामक कालमेघोंके वर्षा करते समय एक सहस्र वर्षके बाद ये तीनों नगर परस्पर मिलें और एकीभावको प्राप्त हों, अन्यथा नहीं।

उस समय कृत्तिवासा भगवान् शंकर, जो वैर-भावसे रहित, सर्वदेवमय और सबके देव हैं।

लीलापूर्वक सम्पूर्ण सामग्रियोंसे युक्त एक असम्भव रथपर बैठकर एक अनोखे बाणसे हमारे पुरोंका भेदन करें।

किंतु भगवान् शंकर सदा हमलोगोंके वन्दनीय, पूज्य और अभिवादनके पात्र हैं; अतः वे हमलोगोंको कैसे भस्म करेंगे – मनमें ऐसी धारणा करके हम ऐसे दुर्लभ वरको माँग रहे हैं।

सनत्कुमारजी कहते हैं – व्यासजी! उन दैत्योंका कथन सुनकर सृष्टिकर्ता लोक-पितामह ब्रह्माने शिवजीका स्मरण करके उनसे कहा कि ‘अच्छा, ऐसा ही होगा।’ फिर मयको भी आज्ञा देते हुए उन्होंने कहा – ‘हे मय! तुम सोने, चाँदी और लोहेके तीन नगर बना दो।’ यों मयको आदेश देकर ब्रह्माजी उन तारकपुत्रोंके देखते-देखते अपने धाम स्वर्गको चले गये।

तदनन्तर धैर्यशाली मयने अपने तपोबलसे नगरोंका निर्माण करना आरम्भ किया।

उसने तारकाक्षके लिये स्वर्णमय, कमलाक्षके लिये रजतमय और विद्युन्मालीके लिये लौहमय – यों तीन प्रकारके उत्तम दुर्ग तैयार किये।

वे पुर क्रमशः स्वर्ग, अन्तरिक्ष और भूतलपर निर्मित हुए थे।

असुरोंके हितमें तत्पर रहनेवाला मय इन तीनों पुरोंको तारकाक्ष आदि असुरोंके हवाले करके स्वयं भी उसीमें प्रवेश कर गया।

इस प्रकार उन तीनों पुरोंको पाकर महान् बल-पराक्रमसे सम्पन्न वे तारकासुरके लड़के उनमें प्रविष्ट हुए और समस्त भोगोंका उपभोग करने लगे।

वे नगर कल्पवृक्षोंसे व्याप्त तथा हाथी-घोड़ोंसे सम्पन्न थे।

उनमें मणिनिर्मित जालियोंसे आच्छादित बहुतेरे महल बने हुए थे।

वे पद्मरागके बने हुए एवं सूर्य-मण्डलके समान चमकीले विमानोंसे, जिनमें चारों ओर दरवाजे लगे थे, शोभायमान थे।

कैलासशिखरके समान ऊँचे तथा चन्द्रमाके समान उज्ज्वल दिव्य प्रासादों तथा गोपुरोंसे उनकी अद्भुत शोभा हो रही थी।

वे अप्सराओं, गन्धर्वों, सिद्धों तथा चारणोंसे खचाखच भरे थे।

प्रत्येक महलमें शिवालय तथा अग्निहोत्रशालाकी प्रतिष्ठा हुई थी।

उनमें शिवभक्तिपरायण शास्त्रज्ञ ब्राह्मण सदा निवास करते थे।

वे बावली, कूप, तालाब और बड़ी-बड़ी तलैयोंसे तथा समूह-के-समूह स्वर्गसे च्युत हुए वृक्षोंसे युक्त उद्यानों और वनोंमें सुशोभित थे।

बड़ी-बड़ी नदियों, नदों और छोटी-छोटी सरिताओंसे, जिनमें कमल खिले हुए थे, उनकी शोभा और बढ़ गयी थी।

उनमें सम्पूर्ण कामनाओंको पूर्ण करनेवाले अनेकों फलोंके भारसे लदे हुए वृक्ष लगे थे, जिनसे वे नगर विशेष मनोहर लगते थे।

वे झुंड-के-झुंड मदमत्त गजराजोंसे, सुन्दर-सुन्दर घोड़ोंसे, नाना प्रकारके आकार-प्रकारवाले रथों एवं शिबिकाओंसे अलंकृत थे।

उनमें समयानुसार पृथक्-पृथक् क्रीडास्थल बने थे और वेदाध्ययनकी पाठशालाएँ भी भिन्न-भिन्न निर्मित हुई थीं।

वे पापी पुरूषोंके लिये मन-वाणीसे भी अगोचर थे।

उन्हें सदाचारी पुण्यशील महात्मा ही देख सकते थे।

पतिसेवापरायण तथा कुधर्मसे विमुख रहनेवाली पतिव्रता नारियोंने उन नगरोंके उत्तम स्थलोंको सर्वत्र पवित्र कर रखा था।

उनमें महाभाग शूरवीर दैत्य और श्रुति-स्मृतिके अर्थके तत्त्वज्ञ एवं स्वधर्मपरायण ब्राह्मण अपनी स्त्रियों तथा पुत्रोंके साथ निवास करते थे।

उनमें मयद्वारा सुरक्षित ऐसे सुदृढ़ पराक्रमी वीर भरे हुए थे, जिनके केश नील कमलके समान नीले और घुँघराले थे।

वे सभी सुशिक्षित थे, जिससे उनमें सदा युद्धकी लालसा भरी रहती थी।

वे बड़े-बड़े समरोंसे प्रेम करनेवाले थे, ब्रह्मा और शिवका पूजन करनेसे उनके पराक्रम विशुद्ध थे; वे सूर्य, मरुद् गण और महेन्द्रके समान बली थे और देवताओंके मथन करनेवाले थे।

वेदों, शास्त्रों और पुराणोंमें जिन-जिन धर्मोंका वर्णन किया गया है, वे सभी धर्म और शिवके प्रेमी देवता वहाँ चारों ओर व्याप्त थे।

उन नगरोंमें प्रवेश करके वे दैत्य सदा शिवभक्तिनिरत होकर सारी त्रिलोकीको बाधित करके विशाल राज्यका उपभोग करने लगे।

मुने! इस प्रकार वहाँ निवास करनेवाले उन पुण्यात्माओंके सुख एवं प्रीतिपूर्वक उत्तम राज्यका पालन करते हुए बहुत लंबा काल व्यतीत हो गया।

(अध्याय १)


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