शिव पुराण – कोटिरुद्र संहिता – 24


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शिवसम्बन्धी तत्त्वज्ञानका वर्णन तथा उसकी महिमा, कोटिरुद्रसंहिताका माहात्म्य एवं उपसंहार

सूतजीने कहा – ऋषियो! मैंने शिवज्ञान जैसा सुना है, उसे बता रहा हूँ।

तुम सब लोग सुनो, वह अत्यन्त गुह्य और परम मोक्षस्वरूप है।

ब्रह्मा, नारद, सनकादि, मुनि व्यास तथा कपिल – इनके समाजमें इन्हीं लोगोंने निश्चय करके ज्ञानका जो स्वरूप बताया है, उसीको यथार्थ ज्ञान समझना चाहिये।

सम्पूर्ण जगत् शिवमय है, यह ज्ञान सदा अनुशीलन करनेयोग्य है।

सर्वज्ञ विद्वान् को यह निश्चितरूपसे जानना चाहिये कि शिव सर्वमय हैं।

ब्रह्मासे लेकर तृणपर्यन्त जो कुछ जगत् दिखायी देता है, वह सब शिव ही हैं।

वे महादेवजी ही शिव कहलाते हैं।

जब उनकी इच्छा होती है, तब वे इस जगत् की रचना करते हैं।

वे ही सबको जानते हैं, उनको कोई नहीं जानता।

वे इस जगत् की रचना करके स्वयं इसके भीतर प्रविष्ट होकर भी इससे दूर हैं।

वास्तवमें उनका इसमें प्रवेश नहीं हुआ है; क्योंकि वे निर्लिप्त, सच्चिदानन्दस्वरूप हैं।

जैसे सूर्य आदि ज्योतियोंका जलमें प्रतिबिम्ब पड़ता है, वास्तवमें जलके भीतर उनका प्रवेश नहीं होता, उसी प्रकार साक्षात् शिवके विषयमें समझना चाहिये।

वस्तुतः तो वे स्वयं ही सब कुछ हैं।

मतभेद ही अज्ञान है; क्योंकि शिवसे भिन्न किसी द्वैत वस्तुकी सत्ता नहीं है।

सम्पूर्ण दर्शनोंमें मतभेद ही दिखाया जाता है, परंतु वेदान्ती नित्य अद्वैत तत्त्वका वर्णन करते हैं।

जीव परमात्मा शिवका ही अंश है; परंतु अविद्यासे मोहित होकर अवश हो रहा है और अपनेको शिवसे भिन्न समझता है।

अविद्यासे मुक्त होनेपर वह शिव ही हो जाता है।

शिव सबको व्याप्त करके स्थित हैं और सम्पूर्ण जन्तुओंमें व्यापक हैं।

वे जड और चेतन – सबके ईश्वर होकर स्वयं ही सबका कल्याण करते हैं।

जो विद्वान् पुरुष वेदान्तमार्गका आश्रय ले उनके साक्षात्कारके लिये साधना करता है, उसे वह साक्षात्काररूप फल अवश्य प्राप्त होता है।

व्यापक अग्नितत्त्व प्रत्येक काष्ठमें स्थित है; परंतु जो उस काष्ठका मन्थन करता है, वही असंदिग्धरूपसे अग्निको प्रकट करके देखता है।

उसी तरह जो बुद्धिमान् यहाँ भक्ति आदि साधनोंका अनुष्ठान करता है, उसे अवश्य शिवका दर्शन प्राप्त होता है, इसमें संशय नहीं है।

सर्वत्र केवल शिव हैं, शिव हैं, शिव हैं; दूसरी कोई वस्तु नहीं है।

वे शिव भ्रमसे ही सदा नाना रूपोंमें भासित होते हैं।

जैसे समुद्र, मिट्टी अथवा सुवर्ण – ये उपाधिभेदसे नानात्वको प्राप्त होते हैं, उसी प्रकार भगवान् शंकर भी उपाधियोंसे ही अनेक रूपोंमें भासते हैं।

कार्य और कारणमें वास्तविक भेद नहीं होता।

केवल भ्रमसे भरी हुई बुद्धिके द्वारा ही उसमें भेदकी प्रतीति होती है।

भ्रम दूर होते ही भेदबुद्धिका नाश हो जाता है।

जब बीजसे अंकुर उत्पन्न होता है, तब वह नानात्वको प्रकट करता है; फिर अन्तमें वह बीजरूपमें ही स्थित होता है और अंकुर नष्ट हो जाता है।

ज्ञानी बीजरूपमें ही स्थित है और नाना प्रकारके विकार अंकुररूप हैं।

उन विकारस्वरूप अंकुरोंकी निवृत्ति हो जानेपर पुरुष फिर ज्ञानीरूपमें ही स्थित होता है – इसमें अन्यथा विचार नहीं करना चाहिये।

सब कुछ शिव है और शिव ही सब कुछ हैं।

शिव तथा सम्पूर्ण जगत् में कोई भेद नहीं है; फिर क्यों कोई अनेकता देखता है और क्यों एकता ढूँढ़ता है।

जैसे एक ही सूर्य नामक ज्योति जल आदि उपाधियोंमें विशेषरूपसे नाना प्रकारकी दिखायी देती है, उसी प्रकार शिव भी हैं।

जैसे आकाश सर्वत्र व्यापक होकर भी स्पर्श आदि बन्धनमें नहीं आता, उसी प्रकार व्यापक शिव भी कहीं नहीं बँधते।

अहंकारसे युक्त होनेके कारण शिवका अंश जीव कहलाता है।

उस अहंकारसे मुक्त होनेपर वह साक्षात् शिव ही है।

कर्मोंके भोगमें लिप्त होनेके कारण जीव तुच्छ है और निर्लिप्त होनेके कारण शिव महान् हैं।

जैसे एक ही सुवर्ण आदि चाँदी आदिसे मिल जानेपर कम कीमतका हो जाता है, उसी प्रकार अहंकारयुक्त जीव अपना महत्त्व खो बैठता है।

जैसे क्षार आदिसे शुद्ध किया हुआ उत्तम सुवर्ण आदि पूर्ववत् बहुमूल्य हो जाता है, उसी प्रकार संस्कारविशेषसे शुद्ध होकर जीव भी शुद्ध हो जाता है।

पहले सद् गुरुको पाकर भक्तिभावसे युक्त हो शिवबुद्धिसे उनका पूजन और स्मरण आदि करे।

गुरुमें शिवबुद्धि करनेसे सारे पाप आदि मल शरीरसे निकल जाते हैं।

उस समय अज्ञान नष्ट हो जाता है और मनुष्य ज्ञानवान् हो जाता है।

उस अवस्थामें अहंकारमुक्त निर्मल बुद्धिवाला जीव भगवान् शंकरके प्रसादसे पुनः शिवरूप हो जाता है।

जैसे दर्पणमें अपना रूप दिखायी देता है, उसी तरह उसे सर्वत्र शम्भुका साक्षात्कार होने लगता है।

वही जीवन्मुक्त कहलाता है।

शरीर गिर जानेपर वह जीवन्मुक्त ज्ञानी शिवमें मिल जाता है।

शरीर प्रारब्धके अधीन है; जो उस देहके अभिमानसे रहित है, उसे ज्ञानी माना गया है।

जो शुभ वस्तुको पाकर हर्षसे खिल नहीं उठता, अशुभको पाकर क्रोध या शोक नहीं करता तथा सुख-दुःख आदि सभी द्वन्द्वोंमें समभाव रखता है, वह ज्ञानवान् कहलाता है।* आत्मचिन्तनसे तथा तत्त्वोंके विवेकसे ऐसा प्रयत्न करे कि शरीरसे अपनी पृथक्ताका बोध हो जाय।

मुक्तिकी इच्छा रखनेवाला पुरुष शरीर एवं उसके अभिमानको त्यागकर अहंकारशून्य एवं मुक्त हो सदाशिवमें विलीन हो जाता है।

अध्यात्मचिन्तन एवं भगवान् शिवकी भक्ति – ये ज्ञानके मूल कारण हैं।

भक्तिसे साधनविषयक प्रेमकी उपलब्धि बतायी गयी है।

प्रेमसे श्रवण होता है, श्रवणसे सत्संग प्राप्त होता है और सत्संगसे ज्ञानी गुरुकी उपलब्धि होती है।

गुरुकी कृपासे ज्ञान प्राप्त हो जानेपर मनुष्य निश्चय ही मुक्त हो जाता है।

इसलिये जो समझदार है, उसे सदा शम्भुका ही भजन करना चाहिये।

जो अनन्यभक्तिसे युक्त होकर शम्भुका भजन करता है, उसे अन्तमें अवश्य ही मोक्ष प्राप्त हो जाता है।

अतः मुक्तिकी प्राप्तिके लिये भगवान् शंकरसे बढ़कर दूसरा कोई देवता।

नहीं है।

उनकी शरण लेकर जीव संसार-बन्धनसे छूट जाता है।

ब्राह्मणो! इस प्रकार वहाँ पधारे हुए ऋषि योंने परस्पर निश्चय करके जो यह ज्ञानकी बात बतायी है, इसे अपनी बुद्धिके द्वारा प्रयत्नपूर्वक धारण करना चाहिये।

मुनीश्वरो! तुमने जो कुछ पूछा था, वह सब मैंने तुम्हें बता दिया।

इसे तुम्हें प्रयत्नपूर्वक गुप्त रखना चाहिये।

बताओ, अब और क्या सुनना चाहते हो? ऋषि बोले – व्यासशिष्य! आपको नमस्कार है।

आप धन्य हैं, शिवभक्तोंमें श्रेष्ठ हैं।

आपने हमें शिवतत्त्वसम्बन्धी परम उत्तम ज्ञानका श्रवण कराया है।

आपकी कृपासे हमारे मनकी भ्रान्ति मिट गयी।

हम आपसे मोक्षदायक शिवतत्त्वका ज्ञान पाकर बहुत संतुष्ट हुए हैं।

सूतजीने कहा – द्विजो! जो नास्तिक हो, श्रद्धाहीन हो और शठ हो, जो भगवान् शिवका भक्त न हो तथा इस विषयको सुननेकी रुचि न रखता हो, उसे इस तत्त्वज्ञानका उपदेश नहीं देना चाहिये।

व्यासजीने इतिहास, पुराणों, वेदों और शास्त्रोंका बारंबार विचार करके उनका सार निकालकर मुझे उपदेश दिया है।

इसका एक बार श्रवण करनेमात्रसे सारे पाप भस्म हो जाते हैं, अभक्तको भक्ति प्राप्त होती है और भक्तकी भक्ति बढ़ती है।

दुबारा सुननेसे उत्तम भक्ति प्राप्त होती है।

तीसरी बार सुननेसे मोक्ष प्राप्त होता है।

अतः भोग और मोक्षरूप फलकी इच्छा रखनेवाले लोगोंको इसका बारंबार श्रवण करना चाहिये।

उत्तम फलको पानेके उद्देश्यसे इस पुराणकी पाँच आवृत्तियाँ करनी चाहिये।

ऐसा करनेपर मनुष्य उसे अवश्य पाता है, इसमें संदेह नहीं है; क्योंकि यह व्यासजीका वचन है।

जिसने इस उत्तम पुराणको सुना है, उसे कुछ भी दुर्लभ नहीं है।

यह शिव-विज्ञान भगवान् शंकरको अत्यन्त प्रिय है।

यह भोग और मोक्ष देनेवाला तथा शिवभक्तिको बढ़ानेवाला है।

इस प्रकार मैंने शिवपुराणकी यह चौथी आनन्ददायिनी तथा परम पुण्यमयी संहिता कही है, जो कोटिरुद्रसंहिताके नामसे विख्यात है।

जो पुरुष एकाग्रचित्त हो भक्तिभावसे इस संहिताको सुनेगा या सुनायेगा, वह समस्त भोगोंका उपभोग करके अन्तमें परमगतिको प्राप्त कर लेगा। (अध्याय ४३)

।। कोटिरुद्रसंहिता सम्पूर्ण।।


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