शिव पुराण – कोटिरुद्र संहिता – 21


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शिव पुराण संहिता लिंकविद्येश्वर | रुद्र संहिता | शतरुद्र | कोटिरुद्र | उमा | कैलास | वायवीय


अनजानमें शिवरात्रि-व्रत करनेसे एक भीलपर भगवान् शंकरकी अद्भुत कृपा

ऋषियोंने पूछा – सूतजी! पूर्वकालमें किसने इस उत्तम शिवरात्रि-व्रतका पालन किया था और अनजानमें भी इस व्रतका पालन करके किसने कौन-सा फल प्राप्त किया था? सूतजीने कहा – ऋषियो! तुम सब लोग सुनो! मैं इस विषयमें एक निषादका प्राचीन इतिहास सुनाता हूँ, जो सब पापोंका नाश करनेवाला है।

पहलेकी बात है – किसी वनमें एक भील रहता था, जिसका नाम था – गुरुद्रुह।

उसका कुटुम्ब बड़ा था तथा वह बलवान् और क्रूर स्वभावका होनेके साथ ही क्रूरतापूर्ण कर्ममें तत्पर रहता था।

वह प्रतिदिन वनमें जाकर मृगोंको मारता और वहीं रहकर नाना प्रकारकी चोरियाँ करता था।

उसने बचपनसे ही कभी कोई शुभ कर्म नहीं किया था।

इस प्रकार वनमें रहते हुए उस दुरात्मा भीलका बहुत समय बीत गया।

तदनन्तर एक दिन बड़ी सुन्दर एवं शुभकारक शिवरात्रि आयी।

किंतु वह दुरात्मा घने जंगलमें निवास करनेवाला था, इसलिये उस व्रतको नहीं जानता था।

उसी दिन उस भीलके माता-पिता और पत्नीने भूखसे पीड़ित होकर उससे याचना की – ‘वनेचर! हमें खानेको दो।’ उनके इस प्रकार याचना करनेपर वह तुरंत धनुष लेकर चल दिया और मृगोंके शिकारके लिये सारे वनमें घूमने लगा।

दैवयोगसे उसे उस दिन कुछ भी नहीं मिला और सूर्य अस्त हो गया।

इससे उसको बड़ा दुःख हुआ और वह सोचने लगा – ‘अब मैं क्या करूँ! कहाँ जाऊँ? आज तो कुछ नहीं मिला।

घरमें जो बच्चे हैं, उनका तथा माता-पिताका क्या होगा? मेरी जो पत्नी है, उसकी भी क्या दशा होगी? अतः मुझे कुछ लेकर ही घर जाना चाहिये; अन्यथा नहीं।’ ऐसा सोचकर वह व्याध एक जलाशयके समीप पहुँचा और जहाँ पानीमें उतरनेका घाट था, वहाँ जाकर खड़ा हो गया।

वह मन-ही-मन यह विचार करता था कि ‘यहाँ कोई-न-कोई जीव पानी पीनेके लिये अवश्य आयेगा।

उसीको मारकर कृतकृत्य हो उसे साथ लेकर प्रसन्नतापूर्वक घरको जाऊँगा।’ ऐसा निश्चय करके वह व्याध एक बेलके पेड़पर चढ़ गया और वहीं जल साथ लेकर बैठ गया।

उसके मनमें केवल यही चिन्ता थी कि कब कोई जीव आयेगा और कब मैं उसे मारूँगा।

इसी प्रतीक्षामें भूख-प्याससे पीड़ित हो वह बैठा रहा।

उस रातके पहले पहरमें एक प्यासी हरिणी वहाँ आयी, जो चकित होकर जोर-जोरसे चौकड़ी भर रही थी।

ब्राह्मणो! उस मृगीको देखकर व्याधको बड़ा हर्ष हुआ और उसने तुरंत ही उसके वधके लिये अपने धनुषपर एक बाणका संधान किया।

ऐसा करते हुए उसके हाथके धक्केसे थोड़ा-सा जल और बिल्वपत्र नीचे गिर पड़े।

उस पेड़के नीचे शिवलिंग था।

उक्त जल और बिल्वपत्रसे शिवकी प्रथम प्रहरकी पूजा सम्पन्न हो गयी।

उस पूजाके माहात्म्यसे उस व्याधका बहुत-सा पातक तत्काल नष्ट हो गया।

वहाँ होनेवाली खड़खड़ाहटकी आवाजको सुनकर हरिणीने भयसे ऊपरकी ओर देखा।

व्याधको देखते ही वह व्याकुल हो गयी और बोली – मृगीने कहा – व्याध! तुम क्या करना चाहते हो मेरे सामने सच-सच बताओ।

हरिणीकी वह बात सुनकर व्याधने कहा – आज मेरे कुटुम्बके लोग भूखे हैं; अतः तुमको मारकर उनकी भूख मिटाऊँगा, उन्हें तृप्त करूँगा।

व्याधका वह दारुण वचन सुनकर तथा जिसे रोकना कठिन था, उस दुष्ट भीलको बाण ताने देखकर मृगी सोचने लगी कि ‘अब मैं क्या करूँ? कहाँ जाऊँ? अच्छा कोई उपाय रचती हूँ।’ ऐसा विचारकर उसने वहाँ इस प्रकार कहा।

मृगी बोली – भील! मेरे मांससे तुमको सुख होगा, इस अनर्थकारी शरीरके लिये इससे अधिक महान् पुण्यका कार्य और क्या हो सकता है? उपकार करनेवाले प्राणीको इस लोकमें जो पुण्य प्राप्त होता है, उसका सौ वर्षोंमें भी वर्णन नहीं किया जा सकता*।

परंतु इस समय मेरे सब बच्चे मेरे आश्रममें ही हैं।

मैं उन्हें अपनी बहिनको अथवा स्वामीको सौंपकर लौट आऊँगी।

वनेचर! तुम मेरी इस बातको मिथ्या न समझो।

मैं फिर तुम्हारे पास लौट आऊँगी, इसमें संशय नहीं है।

सत्यसे ही धरती टिकी हुई है, सत्यसे ही समुद्र अपनी मर्यादामें स्थित है और सत्यसे ही निर्झरोंसे जलकी धाराएँ गिरती रहती हैं।

सत्यमें ही सब कुछ स्थित है।* सूतजी कहते हैं – मृगीके ऐसा कहनेपर भी जब व्याधने उसकी बात नहीं मानी, तब उसने अत्यन्त विस्मित एवं भयभीत हो पुनः इस प्रकार कहना आरम्भ किया।

मृगी बोली – व्याध! सुनो, मैं तुम्हारे सामने ऐसी शपथ खाती हूँ, जिससे घर जानेपर मैं अवश्य तुम्हारे पास लौट आऊँगी।

ब्राह्मण यदि वेद बेचे और तीनों काल संध्या न करे तो उसे जो पाप लगता है, पतिकी आज्ञाका उल्लंघन करके स्वेच्छानुसार कार्य करनेवाली स्त्रियोंको जिस पापकी प्राप्ति होती है, किये हुए उपकारको न माननेवाले, भगवान् शंकरसे विमुख रहनेवाले, दूसरोंसे द्रोह करनेवाले, धर्मको लाँघनेवाले तथा विश्वासघात और छल करनेवाले लोगोंको जो पाप लगता है, उसी पापसे मैं भी लिप्त हो जाऊँ, यदि लौटकर यहाँ न आऊँ।

इस तरह अनेक शपथ खाकर जब मृगी चुपचाप खड़ी हो गयी, तब उस व्याधने उसपर विश्वास करके कहा – ‘अच्छा, अब तुम अपने घरको जाओ।’ तब वह मृगी बड़े हर्षके साथ पानी पीकर अपने आश्रम-मण्डलमें गयी।

इतनेमें ही रातका वह पहला प्रहर व्याधके जागते-ही-जागते बीत गया।

तब उस हिरनीकी बहिन दूसरी मृगी, जिसका पहलीने स्मरण किया था, उसीकी राह देखती हुई जल पीनेके लिये वहाँ आ गयी।

उसे देखकर भीलने स्वयं बाणको तरकशसे खींचा।

ऐसा करते समय पुनः पहलेकी भाँति भगवान् शिवके ऊपर जल और बिल्वपत्र गिरे।

उसके द्वारा महात्मा शम्भुकी दूसरे प्रहरकी पूजा सम्पन्न हो गयी।

यद्यपि वह प्रसंगवश ही हुई थी, तो भी व्याधके लिये सुखदायिनी हो गयी।

मृगीने उसे बाण खींचते देख पूछा – ‘वनेचर! यह क्या करते हो?’ व्याधने पूर्ववत् उत्तर दिया – ‘मैं अपने भूखे कुटुम्बको तृप्त करनेके लिये तुझे मारूँगा।’ यह सुनकर वह मृगी बोली।

मृगीने कहा – व्याध! मेरी बात सुनो।

मैं धन्य हूँ।

मेरा देह-धारण सफल हो गया; क्योंकि इस अनित्य शरीरके द्वारा उपकार होगा।

परंतु मेरे छोटे-छोटे बच्चे घरमें हैं।

अतः मैं एक बार जाकर उन्हें अपने स्वामीको सौंप दूँ, फिर तुम्हारे पास लौट आऊँगी।

व्याध बोला – तुम्हारी बातपर मुझे विश्वास नहीं है।

मैं तुझे मारूँगा, इसमें संशय नहीं है।

यह सुनकर वह हरिणी भगवान् विष्णुकी शपथ खाती हुई बोली – ‘व्याध! जो कुछ मैं कहती हूँ, उसे सुनो।

यदि मैं लौटकर न आऊँ तो अपना सारा पुण्य हार जाऊँ; क्योंकि जो वचन देकर उससे पलट जाता है, वह अपने पुण्यको हार जाता है।

जो पुरुष अपनी विवाहिता स्त्रीको त्यागकर दूसरीके पास जाता है, वैदिक धर्मका उल्लंघन करके कपोलकल्पित धर्मपर चलता है, भगवान् विष्णुका भक्त होकर शिवकी निन्दा करता है, माता-पिताकी निधन-तिथिको श्राद्ध आदि न करके उसे सूना बिता देता है तथा मनमें संतापका अनुभव करके अपने दिये हुए वचनको पूरा करता है, ऐसे लोगोंको जो पाप लगता है, वही मुझे भी लगे, यदि मैं लौटकर न आऊँ।’ सूतजी कहते हैं – उसके ऐसा कहनेपर व्याधने उस मृगीसे कहा – ‘जाओ।’ मृगी जल पीकर हर्षपूर्वक अपने आश्रमको गयी।

इतनेमें ही रातका दूसरा प्रहर भी व्याधके जागते-जागते बीत गया।

इसी समय तीसरा प्रहर आरम्भ हो जानेपर मृगीके लौटनेमें बहुत विलम्ब हुआ जान चकित हो व्याध उसकी खोज करने लगा।

इतनेमें ही उसने जलके मार्गमें एक हिरनको देखा।

वह बड़ा हृष्ट-पुष्ट था।

उसे देखकर वनेचरको बड़ा हर्ष हुआ और वह धनुषपर बाण रखकर उसे मार डालनेको उद्यत हुआ।

ऐसा करते समय उसके प्रारब्धवश कुछ जल और बिल्वपत्र शिवलिंगपर गिरे, उससे उसके सौभाग्यसे भगवान् शिवकी तीसरे प्रहरकी पूजा सम्पन्न हो गयी।

इस तरह भगवान् ने उसपर अपनी दया दिखायी।

पत्तोंके गिरने आदिका शब्द सुनकर उस मृगने व्याधकी ओर देखा और पूछा – ‘क्या करते हो?’ व्याधने उत्तर दिया – ‘मैं अपने कुटुम्बको भोजन देनेके लिये तुम्हारा वध करूँगा।’ व्याधकी यह बात सुनकर हरिणके मनमें बड़ा हर्ष हुआ और तुरंत ही व्याधसे इस प्रकार बोला।

हरिणने कहा – मैं धन्य हूँ।

मेरा हृष्ट-पुष्ट होना सफल हो गया; क्योंकि मेरे शरीरसे आपलोगोंकी तृप्ति होगी।

जिसका शरीर परोपकारके काममें नहीं आता, उसका सब कुछ व्यर्थ चला गया।

जो सामर्थ्य रहते हुए भी किसीका उपकार नहीं करता है, उसकी वह सामर्थ्य व्यर्थ चली जाती है तथा वह परलोकमें नरकगामी होता है*।

परंतु एक बार मुझे जाने दो।

मैं अपने बालकोंको उनकी माताके हाथमें सौंपकर और उन सबको धीरज बँधाकर यहाँ लौट आऊँगा।

उसके ऐसा कहनेपर व्याध मन-ही-मन बड़ा विस्मित हुआ।

उसका हृदय कुछ शुद्ध हो गया था और उसके सारे पापपुंज नष्ट हो चुके थे।

उसने इस प्रकार कहा।

व्याध बोला – जो-जो यहाँ आये, वे सब तुम्हारी ही तरह बातें बनाकर चले गये; परंतु वे वंचक अभीतक यहाँ नहीं लौटे हैं।

मृग! तुम भी इस समय संकटमें हो, इसलिये झूठ बोलकर चले जाओगे।

फिर आज मेरा जीवन-निर्वाह कैसे होगा? मृग बोला – व्याध! मैं जो कुछ कहता हूँ, उसे सुनो।

मुझमें असत्य नहीं है।

सारा चराचर ब्रह्माण्ड सत्यसे ही टिका हुआ है।

जिसकी वाणी झूठी होती है, उसका पुण्य उसी क्षण नष्ट हो जाता है; तथापि भील! तुम मेरी सच्ची प्रतिज्ञा सुनो।

संध्याकालमें मैथुन तथा शिवरात्रिके दिन भोजन करनेसे जो पाप लगता है, झूठी गवाही देने, धरोहरको हड़प लेने तथा संध्या न करनेसे द्विजको जो पाप होता है, वही पाप मुझे भी लगे, यदि मैं लौटकर न आऊँ।

जिसके मुखसे कभी शिवका नाम नहीं निकलता, जो सामर्थ्य रहते हुए भी दूसरोंका उपकार नहीं करता, पर्वके दिन श्रीफल तोड़ता, अभक्ष्य-भक्षण करता तथा शिवकी पूजा किये बिना और भस्म लगाये बिना भोजन कर लेता है, इन सबका पातक मुझे लगे, यदि मैं लौटकर न आऊँ।

सूतजी कहते हैं – उसकी बात सुनकर व्याधने कहा – ‘जाओ, शीघ्र लौटना।’ व्याधके ऐसा कहनेपर मृग पानी पीकर चला गया।

वे सब अपने आश्रमपर मिले।

तीनों ही प्रतिज्ञाबद्ध हो चुके थे।

आपसमें एक-दूसरेके वृत्तान्तको भलीभाँति सुनकर सत्यके पाशसे बँधे हुए उन सबने यही निश्चय किया कि वहाँ अवश्य जाना चाहिये।

इस निश्चयके बाद वहाँ बालकोंको आश्वासन देकर वे सब-के-सब जानेके लिये उत्सुक हो गये।

उस समय जेठी मृगीने वहाँ अपने स्वामीसे कहा – ‘स्वामिन्! आपके बिना यहाँ बालक कैसे रहेंगे? प्रभो! मैंने ही वहाँ पहले जाकर प्रतिज्ञा की है, इसलिये केवल मुझको जाना चाहिये।

आप दोनों यहीं रहें।’ उसकी यह बात सुनकर छोटी मृगी बोली – ‘बहिन! मैं तुम्हारी सेविका हूँ, इसलिये आज मैं ही व्याधके पास जाती हूँ।

तुम यहीं रहो।’ यह सुनकर मृग बोला – ‘मैं ही वहाँ जाता हूँ।

तुम दोनों यहाँ रहो; क्योंकि शिशुओंकी रक्षा मातासे ही होती है।’ स्वामीकी यह बात सुनकर उन दोनों मृगियोंने धर्मकी दृष्टिसे उसे स्वीकार नहीं किया।

वे दोनों अपने पतिसे प्रेमपूर्वक बोलीं – ‘प्रभो! पतिके बिना इस जीवनको धिक्कार है।’ तब उन सबने अपने बच्चोंको सान्त्वना देकर उन्हें पड़ोसियोंके हाथमें सौंप दिया और स्वयं शीघ्र ही उस स्थानको प्रस्थान किया, जहाँ वह व्याध-शिरोमणि उनकी प्रतीक्षामें बैठा था।

उन्हें जाते देख उनके वे सब बच्चे भी पीछे-पीछे चले आये।

उन्होंने यह निश्चय कर लिया था कि इन माता-पिताकी जो गति होगी, वही हमारी भी हो।

उन सबको एक साथ आया देख व्याधको बड़ा हर्ष हुआ।

उसने धनुषपर बाण रखा।

उस समय पुनः जल और बिल्वपत्र शिवके ऊपर गिरे।

उससे शिवकी चौथे प्रहरकी शुभ पूजा भी सम्पन्न हो गयी।

उस समय व्याधका सारा पाप तत्काल भस्म हो गया।

इतनेमें ही दोनों मृगियाँ और मृग बोल उठे – ‘व्याधशिरोमणे! शीघ्र कृपा करके हमारे शरीरको सार्थक करो।’ उनकी यह बात सुनकर व्याधको बड़ा विस्मय हुआ।

शिवपूजाके प्रभावसे उसको दुर्लभ ज्ञान प्राप्त हो गया।

उसने सोचा – ‘ये मृग ज्ञानहीन पशु होनेपर भी धन्य हैं, सर्वथा आदरणीय हैं; क्योंकि अपने शरीरसे ही परोपकारमें लगे हुए हैं।

मैंने इस समय मनुष्य-जन्म पाकर भी किस पुरुषार्थका साधन किया? दूसरेके शरीरको पीड़ा देकर अपने शरीरको पोसा है।

प्रतिदिन अनेक प्रकारके पाप करके अपने कुटुम्बका पालन किया है।

हाय! ऐसे पाप करके मेरी क्या गति होगी? अथवा मैं किस गतिको प्राप्त होऊँगा? मैंने जन्मसे लेकर अबतक जो पातक किया है, उसका इस समय मुझे स्मरण हो रहा है।

मेरे जीवनको धिक्कार है, धिक्कार है।’ इस प्रकार ज्ञानसम्पन्न होकर व्याधने अपने बाणको रोक लिया और कहा – ‘श्रेष्ठ मृगो! तुम जाओ।

तुम्हारा जीवन धन्य है।’ व्याधके ऐसा कहनेपर भगवान् शंकर तत्काल प्रसन्न हो गये और उन्होंने व्याधको अपने सम्मानित एवं पूजित स्वरूपका दर्शन कराया तथा कृपापूर्वक उसके शरीरका स्पर्श करके उससे प्रेमसे कहा – ‘भील! मैं तुम्हारे व्रतसे प्रसन्न हूँ।

वर माँगो।’ व्याध भी भगवान् शिवके उस रूपको देखकर तत्काल जीवन्मुक्त हो गया और ‘मैंने सब कुछ पा लिया’ यों कहता हुआ उनके चरणोंके आगे गिर पड़ा।

उसके इस भावको देखकर भगवान् शिव भी मन-ही-मन बड़े प्रसन्न हुए और उसे ‘गुह’ नाम देकर कृपादृष्टिसे देखते हुए उन्होंने उसे दिव्य वर दिये।

शिव बोले – व्याध! सुनो, आजसे तुम शृंगवेरपुरमें उत्तम राजधानीका आश्रय ले दिव्य भोगोंका उपभोग करो।

तुम्हारे वंशकी वृद्धि निर्विघ्नरूपसे होती रहेगी।

देवता भी तुम्हारी प्रशंसा करेंगे।

व्याध! मेरे भक्तोंपर स्नेह रखनेवाले भगवान् श्रीराम एक दिन निश्चय ही तुम्हारे घर पधारेंगे और तुम्हारे साथ मित्रता करेंगे।

तुम मेरी सेवामें मन लगाकर दुर्लभ मोक्ष पा जाओगे।

इसी समय वे सब मृग भगवान् शंकरका दर्शन और प्रणाम करके मृगयोनिसे मुक्त हो गये तथा दिव्यदेहधारी हो विमानपर बैठकर शिवके दर्शनमात्रसे शापमुक्त हो दिव्यधामको चले गये।

तबसे अर्बुद पर्वतपर भगवान् शिव व्याधेश्वरके नामसे प्रसिद्ध हुए, जो दर्शन और पूजन करनेपर तत्काल भोग और मोक्ष प्रदान करनेवाले हैं।

महर्षियो! वह व्याध भी उस दिनसे दिव्य भोगोंका उपभोग करता हुआ अपनी राजधानीमें रहने लगा।

उसने भगवान् श्रीरामकी कृपा पाकर शिवका सायुज्य प्राप्त कर लिया।

अनजानमें ही इस व्रतका अनुष्ठान करनेसे उसको सायुज्य मोक्ष मिल गया; फिर जो भक्तिभावसे सम्पन्न होकर इस व्रतको करते हैं, वे शिवका शुभ सायुज्य प्राप्त कर लें, इसके लिये तो कहना ही क्या है।

सम्पूर्ण शास्त्रों तथा अनेक प्रकारके धर्मोंके विषयमें भलीभाँति विचार करके इस शिवरात्रि-व्रतको सबसे उत्तम बताया गया है।

इस लोकमें जो नाना प्रकारके व्रत, विविध तीर्थ, भाँति-भाँतिके विचित्र दान, अनेक प्रकारके यज्ञ, तरह-तरहके तप तथा बहुत-से जप हैं, वे सब इस शिवरात्रि-व्रतकी समानता नहीं कर सकते।

इसलिये अपना हित चाहनेवाले मनुष्योंको इस शुभतर व्रतका अवश्य पालन करना चाहिये।

यह शिवरात्रि-व्रत दिव्य है।

इससे सदा भोग और मोक्षकी प्राप्ति होती है।

महर्षियो! यह शुभ शिवरात्रि-व्रत व्रतराजके नामसे विख्यात है।

इसके विषयमें सब बातें मैंने तुम्हें बता दीं।

अब और क्या सुनना चाहते हो?
(अध्याय ४०) * उपकारकरस्यैव यत् पुण्यं जायते त्विह।

तत् पुण्यं शक्यते नैव वक्तुं वर्षशतैरपि।।

(शि० पु० को० रु० सं० ४०।२६) * स्थिता सत्येन धरणी सत्येनैव च वारिधिः।

सत्येन जलधाराश्च सत्ये सर्वं प्रतिष्ठितम्।।

(शि० पु० को० रु० सं० ४०।२९) * यो वै सामर्थ्ययुक्तश्च नोपकारं करोति वै।

तत्सामर्थ्यं भवेद् व्यर्थं परत्र नरकं व्रजेत्।।

(शि० पु० को० रु० सं० ४०।५७)


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