शिव पुराण – कैलास संहिता – 9


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शिव पुराण संहिता लिंकविद्येश्वर | रुद्र संहिता | शतरुद्र | कोटिरुद्र | उमा | कैलास | वायवीय


यतिके द्वादशाह-कृत्यका वर्णन, स्कन्द और वामदेवका कैलास पर्वतपर जाना तथा सूतजीके द्वारा इस संहिताका उपसंहार

स्कन्दजी कहते हैं – वामदेव! बारहवें दिन प्रातःकाल उठकर श्राद्धकर्ता पुरुष स्नान और नित्यकर्म करके शिवभक्तों, यतियों अथवा शिवके प्रति प्रेम रखनेवाले ब्राह्मणोंको* निमन्त्रित करे।

मध्याह्नकालमें स्नान करके पवित्र हुए उन ब्राह्मणोंको बुलाकर भक्तिभावसे विधिपूर्वक भाँति-भाँतिके स्वादिष्ठ अन्न भोजन कराये।

फिर परमेश्वरके निकट बिठाकर पंचावरण-पद्धतिसे उनका पूजन करे।

तत्पश्चात् मौनभावसे प्राणायाम करके देश-काल आदिके कीर्तनपूर्वक महान् संकल्पकी प्रणालीके अनुसार संकल्प करते हुए – ‘अस्मद् गुरोरिह पूजां करिष्ये (मैं अपने गुरुकी यहाँ पूजा करूँगा)’ ऐसा कहकर कुशोंका स्पर्श करे।

फिर ब्राह्मणोंके पैर धोकर आचमन करके श्राद्धकर्ता मौन रहे और भस्मसे विभूषित उन ब्राह्मणोंको पूर्वाभिमुख आसनपर बिठाये।

वहाँ सदाशिव आदिके क्रमसे उन आठ ब्राह्मणोंका बड़े आदरके साथ चिन्तन करे अर्थात् उन्हें सदाशिव आदिका स्वरूप माने।

मुने! अन्य चार ब्राह्मणोंका भी चार गुरुओंके रूपमें चिन्तन करे।

चारों गुरु ये हैं – गुरु, परम गुरु, परात्पर गुरु और परमेष्ठी गुरु।

परमेष्ठी गुरुका उनमें उमासहित महेश्वरकी भावना करते हुए चिन्तन करे।

अपने गुरुका नाम लेकर ध्यान करे।

उन सबके लिये ‘इदमासनम्’ ऐसा कहकर पृथक्-पृथक् आसन रखे।

आदिमें प्रणव, बीचमें द्वितीयान्त गुरु तथा अन्तमें ‘आवाहयामि नमः’ बोलकर आवाहन करे।

यथा – ॐ अमुकनामानं गुरुम् आवाहयामि नमः।

ॐ परमगुरुम् आवाहयामि नमः।

ॐ परात्परगुरुम् आवाहयामि नमः।

ॐ परमेष्ठिगुरुम् आवाहयामि नमः।

इस प्रकार आवाहन करके अर्घोदक (अर्घेमें रखे हुए जल)-से पाद्य, आचमन और अर्घ्य निवेदन करे।

फिर वस्त्र, गन्ध और अक्षत देकर ‘ॐ गुरवे नमः’ इत्यादि रूपसे गुरुओंको तथा ‘ॐ सदाशिवाय नमः’ इत्यादि रूपसे आठ नामोंके उच्चारणपूर्वक आठ अन्य ब्राह्मणोंको सुगन्धित फूलोंसे अलंकृत करे।

तत्पश्चात् धूप, दीप देकर ‘कृतमिदं सकलमाराधनं सम्पूर्णमस्तु (की गयी यह सारी आराधना पूर्णरूपसे सफल हो)’ ऐसा कहकर खड़ा हो नमस्कार करे।

इसके बाद केलेके पत्तोंको पात्ररूपमें बिछाकर जलसे शुद्ध करके उनपर शुद्ध अन्न, खीर, पूआ, दाल और साग आदि व्यंजन परोसकर केलेके फल, नारियल और गुड़ भी रखे।

पात्रोंको रखनेके लिये आसन भी अलग-अलग दे।

उन आसनोंका क्रमशः प्रोक्षण करके उन्हें यथास्थान रखे।

फिर भोजनपात्रका भी प्रोक्षण एवं अभिषेक करके हाथसे उसका स्पर्श करते हुए कहे – ‘विष्णो! हव्यमिदं रक्षस्व (हे विष्णो! इस हविष्यको आप सुरक्षित रखें)’ फिर उठकर उन ब्राह्मणोंको पीनेके लिये जल देकर उनसे इस प्रकार प्रार्थना करे – ‘सदाशिवादयो मे प्रीता वरदा भवन्तु (सदाशिव आदि मुझपर प्रसन्न हो अभीष्ट वर देनेवाले हों)’।

इसके बाद ‘ये देवा’ (शु० यजु० १७।१३-१४) आदि मन्त्रका उच्चारण करके अक्षतसहित इस अन्नका त्याग करे।

फिर नमस्कार करके उठे और ‘सर्वत्राकृतमस्तु।’ ऐसा कहकर ब्राह्मणोंको संतुष्ट करके ‘गणानां त्वा’ (शु० यजु० २३।१९) इस मन्त्रका पहले पाठ करके चारों वेदोंके आदिमन्त्रोंका, रुद्राध्यायका, चमकाध्यायका, रुद्रसूक्तका तथा सद्योजातादि पाँच ब्रह्ममन्त्रोंका पाठ करे।

ब्राह्मण-भोजनके अन्तमें भी यथासम्भव मन्त्र बोले और अक्षत छोड़े, फिर आचमनादि जल दे।

हाथ-पैर और मुँह धोनेके लिये भी जल अर्पित करे।

आचमनके पश्चात् सब ब्राह्मणोंको सुखपूर्वक आसनोंपर बिठाकर शुद्ध जल देनेके अनन्तर मुखशुद्धिके लिये यथोचित कपूर आदिसे युक्त ताम्बूल अर्पित करे।

फिर दक्षिणा, चरणपादुका, आसन, छाता, व्यजन, चौकी और बाँसकी छड़ी देकर परिक्रमा और नमस्कारके द्वारा उन ब्राह्मणोंको संतुष्ट करे तथा उनसे आशीर्वाद ले।

पुनः प्रणाम करके गुरुके प्रति अविचल भक्तिके लिये प्रार्थना करे।

तत्पश्चात् विसर्जनकी भावनासे कहे – ‘सदाशिवादयः प्रीता यथासुखं गच्छन्तु’ (सदाशिव आदि संतुष्ट हो सुखपूर्वक यहाँसे पधारें)।

इस प्रकार विदा करके दरवाजेतक उनके पीछे-पीछे जाय।

फिर उनके रोकनेपर आगे न जाकर लौट आये।

लौटकर द्वारपर बैठे हुए ब्राह्मणों, बन्धुजनों, दीनों और अनाथोंके साथ स्वयं भी भोजन करके सुखपूर्वक रहे।

ऐसा करनेसे उसमें कहीं भी विकृति नहीं हो सकती।

यह सब सत्य है, सत्य है और बारंबार सत्य है।

इस प्रकार प्रतिवर्ष गुरुकी उत्तम आराधना करनेवाला शिष्य इस लोकमें महान् भोगोंका उपभोग करके अन्तमें शिवलोकको प्राप्त कर लेता है।

मुने! यह साक्षात् भगवान् शिवका कहा हुआ उत्तम रहस्य है? जो वेदान्तके सिद्धान्तसे निश्चित किया गया है।

तुमने मुझसे जो कुछ सुना है, उसे विद्वान् पुरुष तुम्हारा ही मत कहेंगे।

अतः यति इसी मार्गसे चलकर ‘शिवोऽहमस्मि’ (मैं शिव हूँ) इस रूपमें आत्मस्वरूप शिवकी भावना करता हुआ शिवरूप हो जाता है।

सूतजी कहते हैं – इस प्रकार मुनीश्वर वामदेवको उपदेश देकर दिव्य ज्ञानदाता गुरु देवेश्वर कार्तिकेय पिता-माताके सर्वदेव-वन्दित चरणारविन्दोंका चिन्तन करते हुए अनेक शिखरोंसे आवृत, शोभाशाली एवं परम आश्चर्यमय कैलासशिखरको चले गये।

श्रेष्ठ शिष्योंसहित वामदेव भी मयूर-वाहन कार्तिकेयको प्रणाम करके शीघ्र ही परम अद्भुत कैलासशिखरपर जा पहुँचे और महादेवजीके निकट जा उन्होंने उमासहित महेश्वरके मायानाशक मोक्षदायक चरणोंका दर्शन किया।

फिर भक्तिभावसे अपना सारा अंग भगवान् शिवको समर्पित करके, वे शरीरकी सुधि भुलाकर उनके निकट दण्डकी भाँति पड़ गये और बारंबार उठ-उठकर नमस्कार करने लगे।

तत्पश्चात् उन्होंने भाँति-भाँतिके स्तोत्रोंद्वारा, जो वेदों और आगमोंके रससे पूर्ण थे, जगदम्बा और पुत्रसहित परमेश्वर शिवका स्तवन किया।

इसके बाद देवी पार्वती और महादेवजीके चरणारविन्दको अपने मस्तकपर रखकर उनका पूर्ण अनुग्रह प्राप्त करके वे वहीं सुखपूर्वक रहने लगे।

तुम सभी ऋषि भी इसी प्रकार प्रणवके अर्थभूत महेश्वरका तथा वेदोंके गोपनीय रहस्य, वेदसर्वस्व और मोक्षदायक तारक मन्त्र ॐकारका ज्ञान प्राप्त करके यहीं सुखसे रहो तथा विश्वनाथजीके चरणोंमें सायुज्यरूपा अनुपम एवं उत्तम मुक्तिका चिन्तन किया करो।

अब मैं गुरुदेवकी सेवाके लिये बदरिकाश्रम तीर्थको जाऊँगा।

तुम्हें फिर मेरे साथ सम्भाषणका एवं सत्संगका अवसर प्राप्त हो। (अध्याय २३)

।। कैलाससंहिता सम्पूर्ण।।

* धर्मसिन्धुके अनुसार सोलह ब्राह्मणोंको निमन्त्रित करना चाहिये।
इनमेंसे चार तो गुरु, परमगुरु, परमेष्ठिगुरु और परात्पर गुरुके लिये होते हैं और बारह ब्राह्मणोंकी केशवादि नामोंसे पूजा होती है।
परंतु इस पुराणमें दिये गये वर्णनके अनुसार बारह ब्राह्मणोंको निमन्त्रित करना आवश्यक है।


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