शिव पुराण – कैलास संहिता – 3


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शिव पुराण संहिता लिंकविद्येश्वर | रुद्र संहिता | शतरुद्र | कोटिरुद्र | उमा | कैलास | वायवीय


संन्यासग्रहणकी शास्त्रीय विधि – गणपति-पूजन, होम, तत्त्व-शुद्धि, सावित्री-प्रवेश, सर्वसंन्यास और दण्ड-धारण आदिका प्रकार

स्कन्द कहते हैं – वामदेव! तदनन्तर मध्याह्नकालमें स्नान करके साधक अपने मनको वशमें रखते हुए गन्ध, पुष्प और अक्षत आदि पूजा-द्रव्योंको ले आये और नैर्ऋत्यकोणमें देवपूजित विघ्नराज गणेशकी पूजा करे।

‘गणानां त्वा’ इत्यादि मन्त्रसे विधिपूर्वक गणेशजीका आवाहन करे।

आवाहनके पश्चात् उनके स्वरूपका इस प्रकार ध्यान करना चाहिये।

उनकी अंगकान्ति लाल है, शरीर विशाल है।

सब प्रकारके आभूषण उनकी शोभा बढ़ा रहे हैं।

उन्होंने अपने करकमलोंमें क्रमशः पाश, अंकुश, अक्षमाला तथा वर नामक मुद्राएँ धारण कर रखी हैं।

इस प्रकार आवाहन और ध्यान करनेके पश्चात् शम्भुपुत्र गजाननकी पूजा करके खीर, पूआ, नारियल और गुड़ आदिका उत्तम नैवेद्य निवेदन करे।

तत्पश्चात् ताम्बूल आदि दे उन्हें संतुष्ट करके नमस्कार करे और अपने अभीष्ट कार्यकी निर्विघ्न पूर्तिके लिये प्रार्थना करे।

तदनन्तर अपने गृह्यसूत्रमें बतायी हुई विधिके अनुसार औपासनाग्निमें आज्यभागान्न२ हवन करके अग्निदेवतासम्बन्धी यज्ञविषयक स्थालीपाक होम करना चाहिये।

इसके बाद ‘भूः स्वाहा’ इस मन्त्रसे पूर्णाहुति होम करके हवनका कार्य समाप्त करे।

तत्पश्चात् आलस्यरहित हो अपराह्णकालतक गायत्री-मन्त्रका जप करता रहे।

तदनन्तर स्नान करके सायंकालकी संध्योपासना तथा सायंकालिक उपासनासम्बन्धी नित्य-होम आदि करके मौन हो गुरुकी आज्ञा ले चरु पकाये।

फिर अग्निमें समिधा, चरु और घीकी रुद्रसूक्तसे और सद्योजातादि पाँच मन्त्रोंसे पृथक्-पृथक् आहुति दे।

अग्निमें उमासहित महेश्वरकी भावना करे और गौरीदेवीका चिन्तन करते हुए ‘गौरीर्मिमाय१ इस मन्त्रसे एक सौ आठ बार होम करके ‘अग्नये स्विष्टकृते स्वाहा’ इस मन्त्रसे एक बार आहुति दे।

इस प्रकार मन्त्रसे हवन करनेके पश्चात् विद्वान् पुरुष अग्निसे उत्तरमें एक आसनपर बैठे, जिसमें नीचे कुशा, उसके ऊपर मृगचर्म और उसके ऊपर वस्त्र बिछा हुआ हो।

ऐसे सुखद आसनपर बैठकर मौन-भावसे सुस्थिरचित्त हो जागरणपूर्वक ब्राह्ममुहूर्त आनेतक गायत्रीका जप करता रहे।

इसके बाद स्नान करे।

जो जलसे स्नान करनेमें असमर्थ हो, वह भस्मसे ही विधि-पूर्वक स्नान करे फिर उस अग्निपर ही चरु पकाकर उसे घीसे तर करे।

उसे उतारकर अग्निसे उत्तर दिशामें कुशपर रखे।

पुनः घीसे चरुको मिश्रित करे।

इसके बाद व्याहृति-मन्त्र, रुद्रसूक्त तथा सद्योजातादि पाँच मन्त्रोंका जप करे और इनके द्वारा एक-एक आहुति भी दे।

चित्तको भगवान् शिवके चरणारविन्दमें लगाकर प्रजापति, इन्द्र, विश्वेदेव और ब्रह्माके लिये भी एक-एक आहुति दे।

इन सबके नामके आदिमें ॐ और अन्तमें ‘नमः स्वाहा’ जोड़कर चतुर्थ्यन्त उच्चारण करे (यथा – ॐ प्रजापतये नमः स्वाहा – इत्यादि)।

तत्पश्चात् पुण्याहवाचन कराकर ‘अग्नये स्वाहा’ इस मन्त्रसे अग्निके मुखमें आहुति देने-तकका कार्य सम्पन्न करे।

फिर ‘प्राणाय स्वाहा’ इत्यादि पाँच मन्त्रोंद्वारा घृतसहित चरुकी आहुति दे।

इसके बाद ‘अग्नये स्विष्टकृते स्वाहा’ बोलकर एक आहुति और दे।

तदनन्तर फिर रुद्रसूक्त तथा ईशानादि पाँच मन्त्रोंका जप करे।

महेशादि चतुर्व्यूह मन्त्रोंका भी पाठ करे।

इस प्रकार तन्त्र-होम करके अपनी गृह्यशाखामें बतायी हुई पद्धतिके अनुसार उन-उन देवताओंके उद्देश्यसे बुद्धिमान् पुरुष सांग होम करे।

इस तरह जो अग्निमुख आदि कर्मतन्त्रको प्रवर्तित किया गया है, उसका निर्वाह करके विरजा होम करे।

छब्बीस तत्त्वरूप इस शरीरमें छिपे हुए तत्त्व-समुदायकी शुद्धिके लिये विरजा होम करना चाहिये।

उस समय यह कहे कि ‘मेरे शरीरमें जो ये तत्त्व हैं, इन सबकी शुद्धि हो।’ उस प्रसंगमें आत्मतत्त्वकी शुद्धिके लिये आरुणकेतुक मन्त्रोंका पाठ करते हुए पृथ्वी आदि तत्त्वसे लेकर पुरुषतत्त्वपर्यन्त क्रमशः सभी तत्त्वोंकी शुद्धिके निमित्त घृतयुक्त चरुका होम करे तथा शिवके चरणारविन्दोंका चिन्तन करते हुए मौन रहै२।

पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश ये पृथिव्यादिपंचक कहलाते हैं।

शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध – ये शब्दादिपंचक हैं।

वाक्, पाणि, पाद, पायु तथा उपस्थ – ये वागादिपंचक हैं।

श्रोत्र, नेत्र, नासिका, रसना, और त्वक् – ये श्रोत्रादिपंचक हैं।

शिर, पार्श्व, पृष्ठ और उदर – ये चार हैं।

इन्हींमें जंघाको भी जोड़ ले।

फिर त्वक् आदि सात धातुएँ हैं।

प्राण, अपान आदि पाँच वायुओंको प्राणादिपंचक कहा गया है।

अन्नमयादि पाँचों कोशोंको कोशपंचक कहते हैं।

(उनके नाम इस प्रकार हैं – अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय और आनन्दमय।) इनके सिवा मन, चित्त, बुद्धि, अहंकार, ख्याति, संकल्प, गुण, प्रकृति और पुरुष हैं।

भोक्तापनको प्राप्त हुए पुरुषके लिये भोगकालमें जो पाँच अन्तरंग साधन हैं, उन्हें तत्त्वपंचक कहा गया है।

उनके नाम ये हैं – नियति, काल, राग, विद्या और कला।

ये पाँचों मायासे उत्पन्न हैं।

‘मायां तु प्रकृतिं विद्यात्’।

इस श्रुतिमें प्रकृति ही माया कही गयी है।

उसीसे ये तत्त्व उत्पन्न हुए हैं, इसमें संशय नहीं है।

कालका स्वभाव ही ‘नियति’ है, ऐसा श्रुतिका कथन है।

ये नियति आदि जो पाँच तत्त्व हैं, इन्हींको ‘पंचकंचुक’ कहते हैं।

इन पाँच तत्त्वोंको न जाननेवाला विद्वान् भी मूढ़ ही कहा गया है।

नियति प्रकृतिसे नीचे है और यह पुरुष प्रकृतिसे ऊपर है।

जैसे कौएकी एक ही आँख उसके दोनों गोलकोंमें घूमती रहती है, उसी प्रकार पुरुष प्रकृति और नियति दोनोंके पास रहता है।

यह विद्यातत्त्व कहा गया है।

शुद्ध विद्या, महेश्वर, सदाशिव, शक्ति और शिव – इन पाँचोंको शिवतत्त्व कहते हैं।

ब्रह्मन्! ‘प्रज्ञानं ब्रह्म’ इस श्रुतिके वाक्यसे यह शिवतत्त्व ही प्रतिपादित हुआ है।

मुनीश्वर! पृथ्वीसे लेकर शिवपर्यन्त जो तत्त्वसमूह है, उसमेंसे प्रत्येकको क्रमशः अपने-अपने कारणमें लीन करते हुए उसकी शुद्धि करो।

१ पृथिव्यादिपञ्चक, २ शब्दादिपञ्चक, ३ वागादिपञ्चक, ४ श्रोत्रादिपञ्चक, ५ शिरादिपञ्चक, ६ त्वगादिधातुसप्तक, ७ प्राणादिपञ्चक, ८ अन्नमयादिकोशपञ्चक, ९ मन आदि पुरुषान्त तत्त्व, १० नियत्यादि तत्त्वपञ्चक (अथवा पञ्चकञ्चुक) और ११ शिवतत्त्व-पञ्चक – ये ग्यारह वर्ग हैं; इन एकादश-वर्गसम्बन्धी मन्त्रोंके अन्तमें ‘परस्मै शिवज्योतिषे इदं न मम’ इस वाक्यका उच्चारण करे*।

इसके द्वारा अपने उद्देश्यका त्याग बताया गया है।

इसके बाद ‘विविद्या’ तथा ‘कर्षोत्क’ सम्बन्धी मन्त्रोंके अन्तमें अर्थात् ‘विविद्यायै स्वाहा’, ‘कर्षोत्काय स्वाहा’ इनके अन्तमें स्वत्वत्यागके लिये ‘व्यापकाय परमात्मने शिवज्योतिषे विश्वभूतघसनोत्सुकाय परस्मै देवाय इदं न मम’ इसका उच्चारण करे।

तत्पश्चात् ‘उत्तिष्ठब्रह्मणस्पते देवयन्तस्त्वेमहे।

उप प्रयन्तु मरुतः सुदानव इन्द्र प्राशूर्भवाः स चा’ इस मन्त्रके अन्तमें ‘विश्वरूपाय पुरुषाय ॐ स्वाहा’ बोलकर स्वत्वत्यागके लिये ‘लोकत्रयव्यापिने परमात्मने शिवायेदं न मम’ का उच्चारण करे।

तदनन्तर अपनी शाखामें बतायी हुई विधिसे पहले तन्त्रकर्मका सम्पादन करके घृतमिश्रित चरुका प्राशन एवं आचमन करनेके पश्चात् पुरोधा आचार्यको सुवर्ण आदिसे सम्पन्न समुचित दक्षिणा दे।

फिर ब्रह्माका विसर्जन करके प्रातः-कालिक उपासनासम्बन्धी नित्य होम करे।

इसके बाद मनुष्य ‘सं मा सिञ्चन्तु मरुतः’ इस मन्त्रका जप करे।१ तत्पश्चात् – ‘या ते अग्ने यज्ञिया तनूस्तयेह्यारोहात्मात्मानम्’२ इत्यादि मन्त्रोंसे हाथको अग्निमें तपाकर उस अग्निको अद्वैतधामस्वरूप अपने आत्मामें आरोपित करे।

तदनन्तर प्रातःकालकी संध्योपासना करके सूर्योपस्थानके पश्चात् जलाशयमें जाकर नाभितक जलके भीतर प्रवेश करे।

वहाँ प्रसन्नतापूर्वक मनको स्थिरकर उत्सुकतापूर्वक वेदमन्त्रोंका जप करे।३ जो अग्निहोत्री हो, वह स्थापित अग्निमें ‘प्राजापत्येष्टि’४ करे तथा वेदोक्त वैश्वानर स्थालीपाक होम करके उसमें अपना सब कुछ दान कर दे।

पूर्वोक्तरूपसे अग्निका आत्मामें आरोप करके ब्राह्मण घरसे निकल जाय।

मुनीश्वर! फिर वह साधक निम्नांकितरूपसे ‘सावित्रीप्रवेश’ करे – ॐ भूः सावित्रीं प्रवेशयामि, ॐ तत्सवितुर्वरेण्यम्, ॐ भुवः सावित्रीं प्रवेशयामि५ भर्गो देवस्य धीमहि, ॐ स्वः सावित्रीं प्रवेशयामि, धियो यो नः प्रचोदयात्, ॐ भूर्भुवः स्वः सावित्रीं प्रवेशयामि, तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।

– इन वाक्योंका प्रेमपूर्वक उच्चारण करे और चित्तको चंचल न होने दे।

उस समय गायत्रीका इस प्रकार ध्यान करे – ये भगवती गायत्री साक्षात् भगवान् शंकरके आधे शरीरमें वास करनेवाली हैं।

इनके पाँच मुख और दस भुजाएँ हैं।

ये पंद्रह नेत्रोंसे प्रकाशित होती हैं।

नूतन रत्नमय किरीटसे जगमगाती हुई चन्द्रलेखा इनके मस्तकको विभूषित करती है।

इनकी अंगकान्ति शुद्ध स्फटिक मणिके समान उज्ज्वल है।

ये शुभलक्षणा देवी अपने दस हाथोंमें दस प्रकारके आयुध धारण करती हैं।

हार, केयूर (बाजूबंद), कड़े, करधनी और नूपुर आदि आभूषणोंसे इनके अंग विभूषित हैं।

इन्होंने दिव्य वस्त्र धारण कर रखा है।

इनके सभी आभूषण रत्ननिर्मित हैं।

विष्णु, ब्रह्मा, देवता, ऋषि तथा गन्धर्वराज और मनुष्य ही सदा इनका सेवन करते हैं।

ये सर्वव्यापिनी शिवा सदाशिवदेवकी मनोहारिणी धर्मपत्नी हैं।

सम्पूर्ण जगत् की माता, तीनों लोकोंकी जननी, त्रिगुणमयी, निर्गुणा तथा अजन्मा हैं।

इस प्रकार गायत्रीदेवीके स्वरूपका चिन्तन करते हुए शुद्धबुद्धिवाला पुरुष ब्राह्मणत्व आदि प्रदान करनेवाली अजन्मा आदि देवी त्रिपदा गायत्रीका जप करे।

गायत्री व्याहृतियोंसे उत्पन्न हुई हैं और उन्हींमें लीन होती हैं।

व्याहृतियाँ प्रणवसे प्रकट हुई हैं और प्रणवमें ही लयको प्राप्त होती हैं।

प्रणव सम्पूर्ण वेदोंका आदि है।

वह शिवका वाचक, मन्त्रोंका राजाधिराज, महाबीजस्वरूप और श्रेष्ठ मन्त्र है।

शिव प्रणव है और प्रणव शिव कहा गया है; क्योंकि वाच्य और वाचकमें अधिक भेद नहीं होता।

इसी महामन्त्रको काशीमें शरीर-त्याग करनेवाले जीवोंके मरणकालमें उन्हें सुनाकर भगवान् शिव परम मोक्ष प्रदान करते हैं।

इसलिये श्रेष्ठ यति अपने हृदयकमलके मध्यमें विराजमान एकाक्षर प्रणवरूप परम कारण शिवदेवकी उपासना करते हैं।

दूसरे मुमुक्षु, धीर एवं विरक्त लौकिक पुरुष भी मनसे विषयोंका परित्याग करके प्रणवरूप परम शिवकी उपासना करते हैं।

इस प्रकार गायत्रीका शिववाचक प्रणवमें लय करके ‘अहं वृक्षस्य रेरिवा’१ इन अनुवाकका जप करे।

तत्पश्चात् ‘यश्छन्दसामृषभः’ (तैत्तिरीय० १।४।१) – इस अनुवाकको आरम्भसे लेकर……. ‘श्रुतं मे गोपाय’२ तक पढ़कर कहे – ‘दारैषणायाश्च वित्तैषणायाश्च लोकैषणायाश्च व्युत्थितोऽहम्’ अर्थात् ‘मैं स्त्रीकी कामना, धनकी कामना और लोकोंमें ख्यातिकी कामनासे ऊपर उठ गया हूँ।’ मुने! इस वाक्यका मन्द, मध्यम और उच्चस्वरसे क्रमशः तीन बार उच्चारण करे।

तत्पश्चात् सृष्टि, स्थिति और लयके क्रमसे पहले प्रणवमन्त्रका उद्धार करके फिर क्रमशः इन वाक्योंका उच्चारण करे – ‘ॐ भूः संन्यस्तं मया’, ‘ॐ भुवः संन्यस्तं मया’, ‘ॐ सुवः संन्यस्तं मया’, ‘ॐ भूर्भुवः सुवः संन्यस्तं मया’१ इन वाक्योंका मन्द, मध्यम और उच्चस्वरसे हृदयमें सदाशिवका ध्यान करते हुए सावधान चित्तसे उच्चारण करे।

तदनन्तर ‘अभयं सर्वभूतेभ्यो मत्तः स्वाहा’ (मेरी ओरसे सब प्राणियोंको अभयदान दिया गया) – ऐसा कहते हुए पूर्वदिशामें एक अंजलि जल लेकर छोड़े।

इसके बाद शिखाके शेष बालोंको हाथसे उखाड़ डाले और यज्ञोपवीतको निकालकर जलके साथ हाथमें ले इस प्रकार कहे – ‘ॐ भूः समुद्रं गच्छ स्वाहा’ यों कहकर उसका जलमें ही होम कर दे।

फिर ‘ॐ भूः संन्यस्तं मया’, ‘ॐ भुवः संन्यस्तं मया’, ‘ॐ सुवः संन्यस्तं मया’ – इस प्रकार तीन बार कहकर तीन बार जलको अभिमन्त्रित करके उसका आचमन करे।

फिर जलाशयके किनारे आकर वस्त्र और कटिसूत्रको भूमिपर त्याग दे तथा उत्तर या पूर्वकी ओर मुँह करके सात पदसे कुछ अधिक चले।

कुछ दूर जानेपर आचार्य उससे कहे, ‘ठहरो, ठहरो भगवन्! लोक-व्यवहारके लिये कौपीन और दण्ड स्वीकार करो।’ यों कह आचार्य अपने हाथसे ही उसे कटिसूत्र और कौपीन देकर गेरुआ वस्त्र भी अर्पित करे।

तत्पश्चात् संन्यासी जब उससे अपने शरीरको ढककर दो बार आचमन कर ले तब आचार्य शिष्यसे कहे – ‘इन्द्रस्य वज्रोऽसि’ यह मन्त्र बोलकर दण्ड ग्रहण करो।

तब वह इस मन्त्रको पढ़े और ‘सखा मा गोपायौजः सखा योऽसीन्द्रस्य वज्रोऽसि वार्त्रघ्नः शर्म मे भव यत्पापं तन्निवारय’२ – इस मन्त्रका उच्चारण करते हुए दण्डकी प्रार्थना करके उसे हाथमें ले।

(तत्पश्चात् प्रणव या गायत्रीका उच्चारण करके कमण्डलु ग्रहण करे।) तदनन्तर भगवान् शिवके चरणारविन्दका चिन्तन करते हुए गुरुके निकट जा वह तीन बार पृथ्वीमें लोटकर दण्डवत् प्रणाम करे।

उस समय वह अपने मनको पूर्णतया संयममें रखे।

फिर धीरेसे उठकर प्रेमपूर्वक अपने गुरुकी ओर देखते हुए हाथ जोड़ उनके चरणोंके समीप खड़ा हो जाय।

संन्यासदीक्षा-विषयक कर्म आरम्भ होनेके पहले ही शुद्ध गोबर लेकर आँवले बराबर उसके गोले बना ले और सूर्यकी किरणोंसे ही उन्हें सुखाये।

फिर होम आरम्भ होनेपर उन गोलोंको होमाग्नि के बीचमें डाल दे।

होम समाप्त होनेपर उन सबको संग्रह करके सुरक्षित रखे।

तदनन्तर दण्डधारणके पश्चात् गुरु विरजाग्निजनित उस श्वेत भस्मको लेकर उसीको शिष्यके अंगोंमें लगाये अथवा उसे लगानेकी आज्ञा दे।

उसका क्रम इस प्रकार है।

‘ॐ अग्निरिति भस्म वायुरिति भस्म जलमिति भस्म स्थलमिति भस्म व्योमेति भस्म सर्व्ँ ह वा इदं भस्म मन एतानि चक्षुँ्षि’ इस मन्त्रसे भस्मको अभिमन्त्रित करे।

तदनन्तर ईशानादि पाँच मन्त्रोंद्वारा उस भस्मका शिष्यके अंगोंसे स्पर्श कराकर उसे मस्तकसे लेकर पैरोंतक सर्वांगमें लगानेके लिये दे दे।

शिष्य उस भस्मको विधिपूर्वक हाथमें लेकर ‘त्र्यायुषम्०१’ तथा ‘त्र्यम्बकम्०२’ इन दोनों मन्त्रोंको तीन-तीन बार पढ़ते हुए ललाट आदि अंगोंमें क्रमशः त्रिपुण्ड्र धारण करे।

तत्पश्चात् श्रेष्ठ शिष्य अपने हृदय-कमलमें विराजमान उमासहित भगवान् शंकरका भक्तियुक्त चित्तसे ध्यान करे।

फिर गुरु शिष्यके मस्तकपर हाथ रखकर उसके दाहिने कानमें ऋषि, छन्द और देवतासहित प्रणवका उपदेश करे।

इसके बाद कृपा करके प्रणवके अर्थका भी बोध कराये।

श्रेष्ठ गुरुको चाहिये कि वह प्रणवके छः प्रकारके अर्थका ज्ञान कराते हुए उसके बारह भेदोंका उपदेश दे।

तत्पश्चात् शिष्य दण्डकी भाँति पृथ्वीपर पड़कर गुरुको साष्टांग प्रणाम करे और सदा उनके अधीन रहे, उनकी आज्ञाके बिना दूसरा कोई कार्य न करे।

गुरुकी आज्ञासे शिष्य वेदान्तके तात्पर्यके अनुसार सगुण-निर्गुणभेदसे शिवके ज्ञानमें तत्पर रहे।

गुरु अपने उसी शिष्यके द्वारा श्रवण, मनन और निदिध्यासनपूर्वक जपके अन्तमें प्रातःकालिक आदि नियमोंका अनुष्ठान करवाये।

कैलासप्रस्तर नामक मण्डलमें शिवके द्वारा प्रतिपादित मार्गके अनुसार शिष्य वहीं रहकर शिवपूजन करे।

यदि गुरुके आदेशके अनुसार वह प्रतिदिन वहीं रहकर मंगलमय देवता शिवकी पूजा करनेमें असमर्थ हो तो उनसे अर्घासहित स्फटिकमय शिवलिंग ग्रहण कर ले और कहीं भी रहकर नित्य उसका पूजन किया करे।

वह गुरुके निकट शपथ खाते हुए इस तरह प्रतिज्ञा करे – ‘मेरे प्राण चले जायँ, यह अच्छा है।

मेरा सिर काट लिया जाय, यह भी अच्छा है; परंतु मैं भगवान् त्रिलोचनकी पूजा किये बिना कदापि भोजन नहीं कर सकता।’ ऐसा कहकर सुदृढ़ चित्तवाला शिष्य मनमें शिवकी भक्ति लिये गुरुके निकट तीन बार शपथ खाय और तभीसे मनमें उत्साह रखकर उत्तम भक्तिभावसे पंचावरण-पूजनकी पद्धतिके अनुसार प्रतिदिन महादेवजीकी पूजा करे।

(अध्याय १३) १- धर्मसिन्धुकारने इसके लिये तीन मन्त्र लिखे हैं।

प्रथम बार चाटकर कहे ‘त्रिवृदसि’, द्वितीय बार ‘प्रवृदसि’ और तृतीय बार ‘विवृदसि’।

२- कुशकण्डिकाके अनन्तर अग्निमें जो चार आहुतियाँ दी जाती हैं, उनमें प्रथम दो को ‘आघार’ और अन्तिम दोको ‘आज्यभाग’ कहते हैं।

प्रजापति और इन्द्रके उद्देश्यसे ‘आघार’ तथा अग्नि और सोमके उद्देश्यसे ‘आज्यभाग’ दिया जाता है।

१- पूरा मन्त्र इस प्रकार है – गौरीर्मिमाय सलिलानि तक्षत्येकपदी द्विपदी सा चतुष्पदी।

अष्टापदी नवपदी बभूवुषी सहस्राक्षरा परमे व्योमन् स्वाहा।

(ऋग्वेद मं० १ सू० १६५।४१) २- तत्त्वशुद्धिके लिये पृथक्-पृथक् वाक्य-योजना करनी चाहिये, जैसे पृथ्वी आदिके लिये – ‘पृथिव्यापस्तेजो वायुराकाशो मे शुध्यतां ज्योतिरहं विरजा विपाप्मा भूयास्ँ स्वाहा’ इतना बोलकर समिधा, चरु और आज्यकी चालीस-चालीस आहुतियाँ दे।

इसी तरह सभी तत्त्वोंके नाम लेकर वाक्य-योजना करे।

* यथा – ‘पृथिव्यादिपञ्चकं मे शुध्यतां ज्योतिरहं विरजा विपाप्मा भूयास्ँ स्वाहा – पृथिव्यादिपञ्चकाय परस्मै शिवज्योतिषे इदं न मम।’ १- धर्मसिन्धुकारने कहा है कि ‘सं मा सिञ्चन्तु मरुतः’ इस मन्त्रसे अग्निका उपस्थान करके उसमें काष्ठमय यज्ञपात्रोंको जला दे।

यदि पात्र तैजस धातुके हों तो उन्हेंआचार्यको दे दे।

पूरा मन्त्र और उसका अर्थ इस प्रकार है – सं मा सिञ्चन्तु मरुतः समिन्द्रः सं बृहस्पतिः।

सं मायमग्निः सिञ्चत्वायुषा च धनेन च बलेन चायुष्मन्तं करोतु मा।

अर्थात् मरुद् गण, इन्द्र, बृहस्पति तथा अग्नि – ये सभी देवता मुझपर कल्याणकी वर्षा करें।

ये अग्निदेव मुझे आयु, ज्ञानरूपी धन तथा साधनकी शक्तिसे सम्पन्न करें।

साथ ही मुझको दीर्घजीवी भी बनायें।

२- पूरे मन्त्र और अर्थ यों है – या ते अग्ने यज्ञिया तनूस्तयेह्यारोहात्मात्मानम्।

अच्छा वसूनि कृण्वन्नस्ये नर्या पुरूणि।।

यज्ञो भूत्वा यज्ञमासीद स्वां योनिम्।

जातवेदो भुव आजायमानः सक्षय एहि।।

‘हे अग्निदेव! जो तुम्हारा यज्ञिय (यज्ञोंमें प्रकट होनेवाला) स्वरूप है, उसी स्वरूपसे तुम यहाँ पधारो और मेरे लिये बहुत-से मनुष्योपयोगी विशुद्ध धन (साधन-सम्पत्ति)-की सृष्टि करते हुए आत्मारूपसे मेरे आत्मामें विराजमान हो जाओ।

तुम यज्ञरूप होकर अपने कारणरूप यज्ञमें पहुँच जाओ।

हे जातवेदा! तुम पृथिवीसे उत्पन्न होकर अपने धामके साथ यहाँ पधारो।’ ३- वहाँ जल लेकर उसे ‘आशुः शिशानः’ इस सूक्तसे अभिमन्त्रित करके ‘सर्वाभ्यो देवताभ्यः स्वाहा’ ऐसा कहकर छोड़ दे।

फिर संन्यासका संकल्प ले तीन बार जलांजलि दे।

उसके मन्त्र इस प्रकार हैं – ॐ एष ह वा अग्निः सूर्यः प्राणं गच्छ स्वाहा।। १।। ॐ स्वाम योनिं गच्छ स्वाहा।। २।। ॐ आपो वै गच्छ स्वाहा।। ३।।

(धर्मसिन्धु) ४- ‘यदिष्टं यच्च पूर्तं यच्चापद्यनापदि प्रजापतौ तन्मनसि जुहोमि।

विमुक्तोऽहं देवकिल्बिषात्स्वाहा’ ऐसा कह घीकी आहुति दे – ‘इदं प्रजापतये न मम’ कहकर त्याग करे।

यही प्राजापत्येष्टि है।

५- धर्मसिन्धुमें ‘प्रविशामि’ पाठ है।

१- अहं वृक्षस्य रेरिवा।

कीर्तिः पृष्ठं गिरेरिव।

ऊर्ध्वपवित्रो वाजिनीव स्वमृतमस्मि।

द्रविणं सवर्चसम्।

सुमेधा अमृतोक्षितः।

इति त्रिशङ्कोर्वेदानुवचनम्।

(तैत्तिरीय० १।१०।१) ‘मैं संसारवृक्षका उच्छेद करनेवाला हूँ, मेरी कीर्ति पर्वतके शिखरकी भाँति उन्नत है; अन्नोत्पादक शक्तिसे युक्त सूर्यमें जैसे उत्तम अमृत है, उसी प्रकार मैं भी अतिशय पवित्र अमृतस्वरूप हूँ तथा मैं प्रकाशयुक्त धनका भण्डार हूँ, परमानन्दमय अमृतसे अभिषिक्त तथा श्रेष्ठबुद्धिवाला हूँ – इस प्रकार यह त्रिशंकु ऋषिका अनुभव किया हुआ वैदिक प्रवचन है।’ २- यश्छन्दसामृषभो विश्वरूपः।

छन्दोभ्योऽध्यमृतात्सम्बभूव।

स मेन्द्रो मेधया स्पृणोतु।

अमृतस्य देव धारणो भूयासम्।

शरीरं मे विचर्षणम्।

जिह्वा मे मधुमत्तमा।

कर्णाभ्यां भूरि विश्रुवम्।

ब्रह्मणः केशोऽसि मेधया पिहितः श्रुतं मे गोपाय।

‘जो वेदोंमें सर्वश्रेष्ठ है, सर्वरूप है और अमृतस्वरूप वेदोंसे प्रधानरूपमें प्रकट हुआ है, वह सबका स्वामी परमेश्वर मुझे धारणायुक्त बुद्धिसे सम्पन्न करे।

हे देव! मैं आपकी कृपासे अमृतमय परमात्माको अपने हृदयमें धारण करनेवाला बन जाऊँ।

मेरा शरीर विशेष फुर्तीला – सब प्रकारसे रोगरहित हो और मेरी जिह्वा अतिशय मधुमती (मधुरभाषिणी) हो जाय।

मैं दोनों कानोंद्वारा अधिक सुनता रहूँ।

(हे प्रणव! तू) लौकिक बुद्धिसे ढकी हुई परमात्माकी निधि है।

तू मेरे सुने हुए उपदेशकी रक्षा कर।’ १- मैंने भूलोकका संन्यास (पूर्णतः त्याग) कर दिया।

मैंने भुवः (अन्तरिक्ष) लोकका परित्याग कर दिया तथा मैंने स्वर्गलोकका भी सर्वथा त्याग कर दिया।

मैंने भूर्लोक, भुवर्लोक और स्वर्गलोक – इन तीनोंको भलीभाँति त्याग दिया।

२- हे दण्ड! तुम मेरे सखा (सहायक) हो, मेरी रक्षा करो।

मेरे ओज (प्राणशक्ति)-की रक्षा करो।

तुम वही मेरे सखा हो, जो इन्द्रके हाथमें वज्रके रूपमें रहते हो।

तुमने ही वज्ररूपसे आघात करके वृत्रासुरका संहार किया है।

तुम मेरे लिये कल्याणमय बनो।

मुझमें जो पाप हो, उसका निवारण करो।

१- त्र्यायुषं जमदग्नेः कश्यपस्य त्र्यायुषम्।

यद्देवेषु त्र्यायुषं तन्नोऽस्तु त्र्यायुषम्।।

(यजुर्वेद ३।६१) २- त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्।

उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय मामृतात्।।

(यजुर्वेद ३।६०)


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