शिव पुराण – कैलास संहिता – 1


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ऋषियोंका सूतजीसे तथा वामदेवजीका स्कन्दसे प्रश्न – प्रणवार्थ-निरूपणके लिये अनुरोध

नमः शिवाय साम्बाय सगणाय ससूनवे।

प्रधानपुरुषेशाय सर्गस्थित्यन्तहेतवे।।

जो प्रधान (प्रकृति) और पुरूषके नियन्ता तथा सृष्टि, पालन और संहारके कारण हैं, उन पार्वतीसहित शिवको उनके पार्षदों और पुत्रोंके साथ प्रणाम है।

ऋषि बोले – सूतजी! हमने अनेक आख्यानोंसे युक्त परम मनोहर उमासंहिता सुनी।

अब आप शिवतत्त्वका ज्ञान बढ़ाने-वाली कैलाससंहिताका वर्णन कीजिये।

व्यासजीने कहा – पुत्रो! शिवतत्त्वका प्रतिपादन करनेवाली दिव्य कैलास-संहिताका वर्णन करता हूँ, तुम प्रेमपूर्वक सुनो।

तुम्हारे प्रति स्नेह होनेके कारण ही मैं तुम्हें यह प्रसंग सुना रहा हूँ।

इतना कहकर व्यासजीने काशीमें मुनियोंके तथा सूतजीके संवाद, व्यास-मुनि-संवाद, शिव-पार्वती-संवाद, शिवजीके द्वारा पार्वतीके प्रति संन्यास-पद्धति, संन्यासाचार, संन्यास-मण्डल, संन्यास-पद्धतिन्यास, वर्णपूजन, प्रणवार्थ-पद्धति आदि प्रसंगोंका वर्णन करके पुनः ऋषिगण तथा सूतजीके मिलन एवं संवादकी अवतारणा करते हुए सूतजीके प्रति ऋषियोंके प्रश्नका यों वर्णन किया।

ऋषि बोले – महाभाग सूतजी! आप हमारे श्रेष्ठ गुरु हैं।

अतः यदि आपका हमपर अनुग्रह हो तो हम आपसे एक प्रश्न पूछते हैं।

श्रद्धालु शिष्योंपर आप-जैसे गुरुजन सदा स्नेह रखते हैं, इस बातको आपने इस समय हमें प्रत्यक्ष दिखा दिया।

मुने! विरजाहोमके समय पहले आपने जो वामदेवका मत सूचित किया था, उसे हमने विस्तारपूर्वक नहीं सुना।

अब हम बड़े आदर और श्रद्धाके साथ उसे सुनना चाहते हैं।

कृपासिन्धो! आप प्रसन्नतापूर्वक उसका वर्णन करें।

ऋषियोंकी यह बात सुनकर सूतके शरीरमें रोमांच हो आया।

उन्होंने गुरुके भी परम उत्कृष्ट गुरु महादेवजीको, त्रिभुवन-जननी महादेवी उमाको तथा गुरु व्यासको भी भक्तिपूर्वक नमस्कार करके मुनियोंको आह्लादित करते हुए गम्भीर वाणीमें इस प्रकार कहा।

सूतजी बोले – मुनियो! तुम्हारा कल्याण हो, तुम सब लोग सदा सुखी रहो।

महाभाग महात्माओ! तुम भगवान् शिवके भक्त तथा दृढ़तापूर्वक व्रतका पालन करनेवाले हो, यह निश्चितरूपसे जानकर ही मैं तुम लोगोंके समक्ष इस विषयका प्रसन्नता-पूर्वक वर्णन करता हूँ।

ध्यान देकर सुनो।

पूर्वकालके रथन्तर कल्पमें महामुनि वामदेव माताके गर्भसे बाहर निकलते ही शिवतत्त्वके ज्ञाताओंमें सर्वश्रेष्ठ माने जाने लगे।

वे वेदों, आगमों, पुराणों तथा अन्य सब शास्त्रोंके भी तात्त्विक अर्थको जाननेवाले थे।

देवता, असुर तथा मनुष्य आदि जीवोंके जन्म-कर्मोंका उन्हें भलीभाँति ज्ञान था।

उनका सम्पूर्ण अंग भस्म लगानेसे उज्ज्वल दिखायी देता था।

उनके मस्तकपर जटाओंका समूह शोभा देता था।

वे किसीके आश्रित नहीं थे।

उनके मनमें किसी वस्तुकी इच्छा नहीं थी।

वे शीत-उष्ण आदि द्वन्द्वोंसे परे तथा अहंकारशून्य थे।

वे दिगम्बर महाज्ञानी महात्मा दूसरे महेश्वरके समान जान पड़ते थे।

उन्हींके-जैसे स्वभाववाले बड़े-बड़े मुनि शिष्य होकर उन्हें घेरे रहते थे।

वे अपने चरणोंके स्पर्शजनित पुण्यसे इस पृथ्वीको पवित्र करते हुए सब ओर विचरते और अपने चित्तको निरन्तर परमधामस्वरूप परब्रह्म परमात्मामें लगाये रहते थे।

इस तरह घूमते हुए वामदेवजीने मेरुके दक्षिण शिखर – कुमारशृंगमें प्रसन्नतापूर्वक प्रवेश किया, जहाँ मयूरवाहन शिवकुमार, ज्ञानमय शक्ति धारण करनेवाले, समस्त असुरोंके नाशक और सर्वदेव-वन्दित भगवान् स्कन्द रहते थे।

उनके साथ उनकी शक्तिभूता ‘गजावल्ली’ भी थीं।

वहीं स्कन्दसरके नामसे प्रसिद्ध एक सरोवर था, जो समुद्रके समान अगाध एवं विशाल दिखायी देता था।

उसका जल ठंडा और स्वादिष्ठथा।

वह सरोवर स्वच्छ, अगाध एवं बहुत जलराशिसे पूर्ण था।

उसमें सम्पूर्ण आश्चर्यजनक गुण विद्यमान थे।

वह जलाशय स्कन्दस्वामीके समीप ही था।

महामुनि वामदेवने शिष्योंके साथ उसमें स्नान करके शिखरपर बैठे हुए मुनिवृन्द-सेवित कुमारका दर्शन किया।

वे उगते हुए सूर्यके समान तेजस्वी थे।

मोर उनका श्रेष्ठ वाहन था।

उनके चार भुजाएँ थीं।

सभी अंगोंसे उदारता सूचित होती थी।

मुकुट आदि उनकी शोभा बढ़ा रहे थे।

रत्नभूत दो शक्तियाँ उनकी उपासना करती थीं।

उन्होंने अपने चार हाथोंमें क्रमशः शक्ति, कुक्कुट, वर और अभय धारण कर रखे थे।

स्कन्दका दर्शन और पूजन करके उन मुनीश्वरने बड़ी भक्तिसे उनका स्तवन आरम्भ किया।

वामदेव बोले – जो प्रणवके वाच्यार्थ, प्रणवार्थके प्रतिपादक, प्रणवाक्षररूप बीजसे युक्त तथा प्रणवरूप हैं, उन आप स्वामी कार्तिकेयको बारंबार नमस्कार है।

वेदान्तके अर्थभूत ब्रह्म ही जिनका स्वरूप है, जो वेदान्तका अर्थ करते हैं, वेदान्तके अर्थको जानते हैं और नित्य विदित हैं, उन स्कन्दस्वामीको बारंबार नमस्कार है।

समस्त प्राणियोंकी हृदयगुफामें प्रतिष्ठित गुहको नमस्कार है।

जो स्वयं गुह्य हैं, जिनका रूप गुह्य है तथा जो गुह्य शास्त्रोंके ज्ञाता हैं, उन स्वामी कार्तिकेयको नमस्कार है।

प्रभो! आप अणुसे भी अत्यन्त अणु और महान् से भी परम महान् हैं, कारण और कार्य अथवा भूत और भविष्यके भी ज्ञाता हैं।

आप परमात्मस्वरूपको नमस्कार है।

आप स्कन्द (माताके गर्भसे च्युत) हैं।

स्कन्दन (गर्भसे स्खलन) ही आपका रूप है।

आप सूर्य और अरुणके समान तेजस्वी हैं।

पारिजातकी मालासे सुशोभित, मुकुट आदि धारण करनेवाले आप स्कन्दस्वामीको सदा नमस्कार है।

आप शिवके शिष्य और पुत्र हैं, शिव (कल्याण) देनेवाले हैं, शिवको प्रिय हैं तथा शिवा और शिवके लिये आनन्दकी निधि हैं।

आपको नमस्कार है।

आप गंगाजीके बालक, कृत्तिकाओंके कुमार, भगवती उमाके पुत्र तथा सरकंडोंके वनमें शयन करनेवाले हैं।

आप महाबुद्धिमान् देवताको नमस्कार है।

षडक्षरमन्त्र आपका शरीर है।

आप छः प्रकारके अर्थका विधान करनेवाले हैं।

आपका रूप छः मार्गोंसे परे है।

आप षडाननको बारंबार नमस्कार है।

द्वादशात्मन्! आपके बारह विशाल नेत्र और बारह उठी हुई भुजाएँ हैं।

उन भुजाओंमें आप बारह आयुध धारण करते हैं।

आपको नमस्कार है।

आप चतुर्भुजरूपधारी, शान्त तथा चारों भुजाओंमें क्रमशः शक्ति, कुक्कुट, वर और अभय धारण करते हैं।

आप असुरविदारण देवको नमस्कार है।

आपका वक्षःस्थल गजावल्लीके कुचोंमें लगे हुए कुंकुमसे अंकित है।

अपने छोटे भाई गणेशजीकी आनन्दमयी महिमा सुनकर आप मन-ही-मन आनन्दित होते हैं।

आपको नमस्कार है।

ब्रह्मा आदि देवता, मुनि और किंनरगणोंसे गायी जानेवाली गाथाविशेषके द्वारा जिनके पवित्र कीर्तिधामका चिन्तन किया जाता है, उन आप स्कन्दको नमस्कार है।

देवताओंके निर्मल किरीटको विभूषित करनेवाली पुष्प-मालाओंसे आपके मनोहर चरणारविन्दोंकी पूजा की जाती है।

आपको नमस्कार है।

जो वामदेवद्वारा वर्णित इस दिव्य स्कन्दस्तोत्रका पाठ या श्रवण करता है, वह परमगतिको प्राप्त होता है।

यह स्तोत्र बुद्धिको बढ़ानेवाला, शिवभक्तिकी वृद्धि करनेवाला, आयु, आरोग्य तथा धनकी प्राप्ति करानेवाला और सदा सम्पूर्ण अभीष्टको देनेवाला है।* वामदेवने इस प्रकार देवसेनापति भगवान् स्कन्दकी स्तुति करके तीन बार उनकी परिक्रमा की और पृथ्वीपर दण्डकी भाँति गिरकर नतमस्तक हो बारंबार साष्टांग प्रणाम और परिक्रमा करनेके अनन्तर वे विनीतभावसे उनके पास खड़े हो गये।

वामदेवजीके द्वारा किये गये इस परमार्थपूर्ण स्तोत्रको सुनकर महेश्वरपुत्र भगवान् स्कन्द बड़े प्रसन्न हुए।

उस समय वे महासेन वामदेवजीसे बोले – ‘मुने! मैं तुम्हारी की हुई पूजा, स्तुति और भक्तिसे तुमपर बहुत प्रसन्न हूँ।

तुम्हारा कल्याण हो।

आज मैं तुम्हारा कौन-सा प्रिय कार्य सिद्ध करूँ? तुम योगियोंमें प्रधान, सर्वथा परिपूर्ण और निःस्पृह हो।

इस जगत् में कोई ऐसी वस्तु नहीं है, जिसके लिये तुम-जैसे वीतराग महर्षि याचना करें; तथापि धर्मकी रक्षा और सम्पूर्ण जगत् पर अनुग्रह करनेके लिये तुम-जैसे साधु-संत भूतलपर विचरते रहते हैं।

ब्रह्मन्! यदि इस समय मुझसे कुछ सुनना हो तो कहो; मैं लोकपर अनुग्रह करनेके लिये उस विषयका वर्णन करूँगा।’ स्कन्दकी वह बात सुनकर महामुनि वामदेवने विनयावनत हो मेघके समान गम्भीर वाणीमें कहा।

वामदेव बोले – भगवन्! आप परमेश्वर हैं।

अलौकिक और लौकिक – सब प्रकारकी विभूतियोंके दाता हैं।

सर्वज्ञ, सर्वकर्ता, सम्पूर्ण शक्तियोंको धारण करनेवाले और सबके स्वामी हैं।

हम साधारण जीव हैं।

आप परमेश्वरके समीप बोलनेकी शक्ति या बात करनेकी योग्यता हममें नहीं है; तथापि यह आपका अनुग्रह है कि आप मुझसे बात करते हैं।

महाप्राज्ञ! मैं कृतार्थ हूँ।

कणमात्र विज्ञानसे प्रेरित हो आपके समक्ष अपना प्रश्न रख रहा हूँ।

मेरे इस अपराधको आप क्षमा करेंगे! प्रणव सबसे उत्तम मन्त्र है।

वह साक्षात् परमेश्वरका वाचक है।

पशुओं (जीवों)-के पाश (बन्धन)-को छुड़ानेवाले भगवान् पशुपति ही उसके वाच्यार्थ हैं।

‘ओमितीदं सर्वम्’ (तै० उ० १।८।१) – ओंकार ही यह प्रत्यक्ष दीखनेवाला समस्त जगत् है, यह सनातन श्रुतिका कथन है।

‘ओमिति ब्रह्म’ (तै० उ० १।८।१) अर्थात् ‘ॐ यह ब्रह्म है’ तथा ‘सर्वं ह्येतद् ब्रह्म’ (माण्डू० २) – ‘यह सब-का-सब ब्रह्म ही है।’ इत्यादि बातें भी श्रुतियोंद्वारा कही गयी हैं।

इस प्रकार मैंने समष्टि तथा व्यष्टिभावसे प्रणवार्थका श्रवण किया है।

तात्पर्य यह है कि समष्टि और व्यष्टि – सभी पदार्थ प्रणवके ही अर्थ हैं, प्रणवके द्वारा सबका प्रतिपादन होता है – यह बात मैंने सुन रखी है।

महासेन! मुझे कभी आप-जैसा गुरु नहीं मिला है, अतः कृपा करके आप प्रणवके अर्थका प्रतिपादन कीजिये।

उपदेश-की विधिसे तथा सदाचारपरम्पराको ध्यानमें रखकर आप हमें प्रणवार्थका उपदेश दें।

मुनिके इस प्रकार पूछनेपर स्कन्दने प्रणवस्वरूप, अड़तीस श्रेष्ठ कलाओंद्वारा लक्षित तथा सदा पार्श्वभागमें उमाको साथ रखनेवाले और मुनिवरोंसे घिरे हुए भगवान् सदाशिवको प्रणाम करके उस श्रेयका वर्णन आरम्भ किया, जिसे श्रुतियोंने भी छिपा रखा है।

(अध्याय १ – ११) * वामदेव उवाच – ॐ नमः प्रणवार्थाय प्रणवार्थविधायिने।

प्रणवाक्षरबीजाय प्रणवाय नमो नमः।।

वेदान्तार्थस्वरूपाय वेदान्तार्थविधायिने।

वेदान्तार्थविदे नित्यं विदिताय नमो नमः।।

नमो गुहाय भूतानां गुहासु निहिताय च।

गुह्याय गुह्यरूपाय गुह्यागमविदे नमः।।

अणोरणीयसे तुभ्यं महतोऽपि महीयसे।

नमः परावरज्ञाय परमात्मस्वरूपिणे।।

स्कन्दाय स्कन्दरूपाय मिहिरारुणतेजसे।

नमो मन्दारमालोद्यन्मुकुटादिभृते सदा।।

शिवशिष्याय पुत्राय शिवस्य शिवदायिने।

शिवप्रियाय शिवयोरानन्दनिधये नमः।।

गाङ्गेयाय नमस्तुभ्यं कार्तिकेयाय धीमते।

उमापुत्राय महते शरकाननशायिने।।

षडक्षरशरीराय षड् विधार्थविधायिने।

षडध्वातीतरूपाय षण्मुखाय नमो नमः।।

द्वादशायतनेत्राय द्वादशोद्यतबाहवे।

द्वादशायुधधाराय द्वादशात्मन् नमोऽस्तु ते।।

चतुर्भुजाय शान्ताय शक्तिकुक्कुटधारिणे।

वरदाभयहस्ताय नमोऽसुरविदारिणे।।

गजावल्लीकुचालिप्तकुङ् कुमाङ्कितवक्षसे।

नमो गजाननानन्दमहिमानन्दितात्मने।।

ब्रह्मादिदेवमुनिकिंनरगीयमानगाथाविशेषशुचिचिन्तितकीर्तिधाम्ने।

वृन्दारकामलकिरीटविभूषणस्रक् पूज्याभिरामपदपङ्कज ते नमोऽस्तु।।

इति स्कन्दस्तवं दिव्यं वामदेवेन भाषितम्।

यः पठेच्छृणुयाद्वापि स याति परमां गतिम्।।

महाप्रज्ञाकरं ह्येतच्छिवभक्तिविवर्धनम्।

आयुरारोग्यधनकृत्सर्वकामप्रदं सदा।।

(शि० पु० कै० सं० ११।२२ – ३५)


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