गणेश पुराण – द्वितीय खण्ड – अध्याय – 4


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गणेश पुराण खण्ड लिंक - प्रथम (1) | द्वितीय (2) | तृतीय (3) | चतुर्थ (4) | पंचम (5) | षष्ठ (6) | सप्तम (7) | अष्टम (8)


पार्वती का क्रोध, महाशक्तियों का प्राकट्य

माता पार्वती को जब पता चला कि उन्हीं के प्राणनाथ ने गणेशजी का मस्तक काट डाला है और उसी उपलक्ष्य में देवगण और शिवगण विजयोत्सव मनाते हुए नृत्य-गान आदि करने लगे हैं, तो वे अत्यन्त व्याकुल और अधीर हो गयीं।

उन्होंने सोचा, ‘देखो, इन सबने मिलकर मेरे प्राणप्रिय पुत्र की हत्या कर दी! अब उस निरपराध बालक का वियोग मैं कैसे सह पाऊँगी? इनके इस अकर्म का फल तो मिलना चाहिए।

मैं भी ऐसी प्रलय मचा दूँगी कि यह सब देवता और शिवगण स्वयं मृत्युमुख में जाने लगेंगे।’उमा ने अत्यन्त कुपित होकर हजारों महाशक्तियों को उत्पन्न किया।

वे शक्तियाँ शक्तिमयी माता के समक्ष हाथ जोड़ती और प्रणाम करती हुई बोलीं- ‘मातेश्वरि! आज्ञा कीजिए कि हमें क्या करना है?

उमा ने ओजपूर्ण शब्दों और तीव्र स्वर में कहा- ‘मेरी शक्तियो! तुम तुरन्त ही संसार में प्रलयकाल उपस्थित कर दो।

देवता, दैत्य, राक्षस, यक्ष, गन्धर्व, ऋषि आदि जो भी मिलें उनका तुरन्त भक्षण करो।

स्वजन-परिजन का भेद भी न करो।’

आज्ञा मिलते ही विविध रूपवाली वे सहस्त्रों भयङ्कर शक्तियाँ ‘माता पार्वती की जय’ बोलती हुई वहाँ से चल पड़ीं।

उन्होंने जहाँ जिसे देखा, उसी को उठाकर मुख में रख लिया।

वे देवता, राक्षस, मनुष्य, शिवगण आदि किसी को भी नहीं छोड़ती थीं।

उनके तेज में ही ऐसा आकर्षण था जो निकट होता, वह स्वयं ही खिंचा चला आता।

इस आकस्मिक संकट के कारण सर्वत्र हाहाकार मच गया है, देवता, ऋषि आदि सभी ने समझा कि प्रलयकाल उपस्थित हो गया है, इसलिए सभी ने जीवन की आशा छोड़ दी थी।

अब तो संसारभर में भय व्याप्त हो गया।

देवता परस्पर मिल बैठकर सोचने लगे कि यह सब क्या हो रहा है? समस्त संसार धीरे-धीरे मृत्यु मुख में स्वतः ही पहुँचता जा रहा है।

इसका कारण क्या है? कुछ समझ में नहीं आता।

कुछ कहने लगे- ‘प्रलय काल उपस्थित है तो प्राणों का मोह छोड़ना ही होगा।

उसमें किसी का क्या वश चलेगा? ब्रह्माजी को भी तो कलेवर बदलना होता है प्रत्येक कल्पान्त में।’

तभी किसी ने कहा- ‘किन्तु कल्प का अन्त कहाँ है अभी इसलिए प्रलय भी नहीं हो सकती।

यह तो कोई अन्य कारण ही है, जिससे समस्त प्राणी मृत्युमुख की ओर बढ़े चले जा रहे हैं।

अच्छा हो कि ब्रह्माजी इसका कारण ज्ञात करने की कृपा करें।’

ब्रह्माजी ने समाधि लगायी और कारण जान लिया।

उनकी समाधि भंग होते ही देवगण उत्सुकता से उनकी ओर बैठ गये।

चतुरानन ने धीरे-धीरे कहना आरम्भ किया ‘देवगण! शक्तिमान कामारि की प्राणप्रिया एवं महाशक्ति उमा ने अपनी देह की मैल से गणेश नामक एक पुत्र उत्पन्न किया था, और उसकी नियुक्ति द्वार पर करके आज्ञा दी थी कि किसी को भी भीतर न आने देना।

वह द्वार पर खड़ा था तभी स्वयं उमानाथ आए और भीतर जाने लगे।

गणेश ने उन्हें रोका तो वे भीतर जाने की हठ करने लगे।

उन्हीं के आदेश से घोर युद्ध हुआ, जिसमें तुम सबको अपने-अपने प्राण बचाने दुर्लभ थे।

उसी युद्ध में उमानाथ ने ही उमापुत्र गणेश का मस्तक छिन्न कर दिया।

बस, तभी से भगवती उमा का भयंकर कोप आरम्भ हो गया।’

सभी एक-दूसरे का मुख देखने लगे।

कुपित हुई महाशक्ति को कौन रोके और कौन मनाए? तभी ब्रह्माजी ने कहा- गिरिराजकुमारी के प्रसन्न हुए बिना यह संसार रुक नहीं सकता, इसलिए भगवान् विष्णु के पास चलकर उनसे परामर्श करना चाहिए।’

सभी भगवान् विष्णु के पास गए।

उन्हें प्रलय के समान भीषण संहार की बात सुनाते हुए उसका कारण भगवती पार्वती का कोप बताया और पूछने लगे- ‘त्रिलोकीनाथ! उपस्थित संकट से आप ही उबार सकते हैं।

इसलिए शीघ्घ्र कोई उपाय कीजिए, अन्यथा समस्त, विश्व ही मृत्यु के गर्भ में जा छिपेगा।’

श्रीहरि बोले- ‘देवगण! इस विषय में तो हमें भगवान् उमानाथ के पास ही चलना चाहिए।

वे ही कालकूट-भक्षक शिव इस उपस्थित संकट से पार लगा सकेंगे।’


रुद्राणी के तेज से रुद्र का दुखित होना

सभी वहाँ से उठकर और विष्णु को साथ लेकर शिवजी के पास पहुँचे और हाथ जोड़कर निवेदन करने लगे गिरिजानाथ! आपने गिरिजासुत गणेश का मस्तक काट दिया उसी से कुपित हुई वे महाशक्ति विश्व में प्रलय करना चाहती हैं।

समस्त संसार भीषण विभीषिका से भयभीत है।

अब आप ही इस सङ्कट से रक्षा करने में समर्थ हैं।

शिव बोले- ‘देवगण! तुम सबका कहना यथार्थ है।

मेरा विचार है कि सभी लोग उस देवी को समझा-बुझाकर शांत करें तो कार्य बन सकता है।

चलो, मैं भी साथ चलता हूँ।’

देवगण आगे-आगे और शिवजी पीछे-पीछे चले।

भवानी के द्वार पर पहुँचते-पहुँचते न जाने कितने देवता शक्तियों द्वारा खींच खींचकर निगल लिये।

उस समूह में देवता, दैत्य, राक्षस, ऋषि, यक्ष, किन्नर, दिक्पालादि सभी थे।

वे सभी अपने-अपने प्राण बचाकर भाग खड़े हुए।

इस प्रकार देवतादि में से किसी का भी साहस अब और आगे बढ़ने का न हुआ।

ब्रह्मा, विष्णु की भी क्या, स्वयं रुद्र भी रुद्राणी के तेज से व्याकुल होकर पीछे की ओर भागे।

पुनः देवताओं ने एकत्र होकर विचार किया-अब क्या किया जाये? रुष्टा रुद्राणी के सम्मुख कौन पहुँचे? इस प्रकार कहते हुए वे किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुँच रहे थे।

जिसका नाम लिया जाता वही अपनी असमर्थता प्रकट कर देता।

तभी देवर्षि नारदजी का वहाँ आगमन हुआ।

देवताओं ने उनका बड़ा स्वागत सत्कार किया और फिर रुद्राणी के रुष्ट होने का सब प्रसंग सुनाकर बोले- ‘महर्षे! आप त्रिकालज्ञ और सभी उपायों के ज्ञाता हैं, जब तक भगवती गिरिजा प्रसन्न न होंगी, तब तक यह संहार रुकेगा नहीं, वरन् बढ़ता ही जायेगा।

इसलिए इसका कोई उपाय करने की कृपा कीजिए।

नारदजी हँसे, बोले- ‘महाशक्ति की महिमा शक्तिमान से भी सिमटने में नहीं आई? अब इसका उपाय एक ही है कि आप सब लोग रुद्राणी के समीप चलकर स्तुतियों से उन्हें प्रसन्न करें।’

नारदजी का परामर्श सभी को हितकर प्रतीत हुआ और तुरन्त ही देवर्षि को आगे करके पार्वती जी के भवन की ओर चल दिए।

यद्यपि रुद्राणी अत्यन्त कुपित थीं, तो भी नारदजी को सबसे आगे देखकर मौन हो गईं।

तभी देवताओं ने अत्यन्त श्रद्धाभावपूर्वक उनकी स्तुति आरम्भ की।

देवगण बोले- ‘हे जगज्जननि! हे शिवे! हे परमेश्वरि! आपको बारम्बार नमस्कार है।

हे कल्याणि! हे अम्बे! आप ही संसार की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय की कारणभूता हैं।

भगवान् रुद्र की आदिशक्ति रुद्राणी आप ही हैं।

हे मातः! आपके कोप से त्रैलोक्य व्याकुल है, न जाने कितने जीव आपकी शक्तियों के मुख में जा पहुँचे हैं।

बड़ा भीषण संहार हो रहा है देवेशि! अब आप क्रोध को छोड़कर प्रसन्न हो जाइए।

हे गिरिजानन्दिनि! हम सभी आपके चरणों में प्रणाम करते हैं।’

इस प्रकार बारम्बार प्रणाम करने और अनेक प्रकार से स्तवन करने पर भी जगदम्बा का क्रोध शान्त न हुआ।

वरन् वे मौन रहती हुई भी उन सबको क्रोधपूर्ण नेत्रों से देखने लगीं।

उन नेत्रों से चिंगारियाँ निकल रही थीं।

देवगण भय के कारण नेत्र झुकाकर पीछे हट गये।


नारदजी द्वारा शिवा का स्तवन करना

यह देखकर नारदजी के साथ समस्त ऋषिगण आगे हुए और उन्होंने भगवती के चरणों में प्रणाम कर स्तवन आरम्भ किया ‘देवि! सभी प्राणियों का संहार समुपस्थित है।

दोषी देवताओं के अतिरिक्त निर्दोष ऋषिमुनि भी काल-कवलित होते जा रहे हैं।

इसलिए इस व्याकुल हुए विश्व की ओर देखिए।

जगदम्बे! आपके प्राणनाथ शिवजी भी ब्रह्मा, विष्णु, इन्द्रादि देवताओं एवं समस्त प्रजाओं के सहित यहाँ आपके सामने उपस्थित हैं।

परमेश्वरि! यह सभी आपके ही उपासक हैं।

देवेशि! कृपया हम सभी का अपराध क्षमा कर दीजिए।

आपकी सेवा में आने पर तो बड़े-बड़े भी कृपा प्राप्त कर लेते हैं।

हे शिवे! अब क्रोध को शान्त कीजिए और सभी को कृपापूर्ण नेत्रों से देखिए।

आपको नमस्कार है, नमस्कार है।’

इस प्रकार स्तवन करते हुए ऋषि-मुनियों ने बारम्बार माता पार्वतीजी के चरणों में प्रणाम किया।

उनकी इस प्रकार की प्रार्थना से धीरे-धीरे उनका क्रोध दूर होने लगा तथा वे द्रवीभूत होती हुई उन ऋषियों से कहने लगीं-

मत्पुत्रो यदि जीवेत तदा संहरणं नहि।
यथा हि भवतां मध्ये पूज्योऽयं च भविष्यति॥
सर्वाध्यक्षो भवेदद्य यूयं कुरुत तद्यदि।
तदा शान्तिर्भवेल्लोके नान्यथा सुखमाप्स्यथ॥”

‘हे ऋषिगण! मैं तुम्हारे कष्टों को समझ रही हूँ।

किन्तु मेरे अकेले पुत्र को मारकर उसके साथ अन्याय किया गया है।

यदि मेरा वह पुत्र जीवित हो जाय और तुम सब उसे अपना पूज्य मान लो तो यह संकट दूर हो सकता है।

यदि उसे ‘सर्वाध्यक्ष’ का पद दिया जाय तभी लोक में शान्ति होगी, अन्यथा कहीं कोई भी सुखी नहीं हो सकता।

ऋषियों ने जगदम्बा को पुनः प्रणाम किया और बोले- ‘दयामयि! आपने लोकरक्षा के लिए सरल उपाय बता दिया है।

आपका कथन उचित ही है।

इसे हम देवताओं को बताये देते हैं।’

ऐसा निवेदन कर ऋषिगण देवताओं के पास पहुँचे और माता की इच्छा उन्हें बता दी।

वे सभी उन ऋषियों को साथ लेकर भगवान् शंकर के पास पहुँचे।

उन्होंने उन्हें प्रणाम कर माता का सन्देश सुनाया, ‘प्रभो! जगदम्बा का कथन है कि यदि संसार को सुखी देखना है तो मेरे पुत्र को जीवित कर उसे सर्वाध्यक्ष का पद देना होगा, अन्यथा शान्ति सम्भव नहीं है।’

शिवजी बोले-‘देवगण! हमें उमा का कथन स्वीकार करना ही होगा।

उसकी बात मानने से ही संसार का तथा हम सभी का कल्याण निहित है।

इसलिए वह करना उचित है।’

देवताओं ने कहा- ‘प्रभो! पार्वती-पुत्र जीवित कैसे हो? उसका तो मुख भी क्षत-विक्षत हो गया है।

इसलिए अब आप ही इस विषय में कुछ उचित उपाय कीजिए।


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