गणेश पुराण – चतुर्थ खण्ड – अध्याय – 2


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राजा द्वारा बलपूर्वक कपिला गाय लाने का सेना को आदेश

महर्षि के वचन उसके हृदय में तीर जैसे लगे और वह अत्यन्त क्रोधित होकर से चल दिया तथा अपनी सेना के मध्य आकर सचिव से बोला- ‘हे सचिव! मैं मुनि की कपिला गाय की इच्छा करता हूँ, किन्तु मुनि उसे देना नहीं चाहते।

अब क्या किया जाय, जिससे कि वह गाय हमें प्राप्त हो सके?’

सचिव ने कहा- ‘महाराज! उपाय तो बहुत सरल है।

अपनी भेजकर गाय को बलपूर्वक साथ ले चलिए।

इसमें बेचारे वनवासी मुनि और उनके शिष्य क्या कर सकते हैं? परन्तु राजन्! यह सोच लीजिए कि कहीं वे मुनि रुष्ट होकर शाप तो न दे देंगे?’

राजा ने कहा-‘अरे, क्या होता है शाप से? तुम तुरन्त ही सेना को वहाँ भेजो और कपिला गाय को बलपूर्वक यहाँ मँगवा लो।’

यह सुनकर सचिव ने कुछ प्रमुख वीर वहाँ भेज दिए, जिन्होंने जाकर कहा- ‘मुनीश्वर! महाराज की आज्ञा है कि कपिला गौ हमारे पास लाई जाये।

अतएव आप उस गौ को हमें सौंप दीजिए।’

मुनि कुछ बोले नहीं और तुरन्त ही धेनु के समक्ष जाकर रोने लगे।

उन्होंने कहा- ‘सुरभे! तुम्हें वह दुष्ट राजा बलपूर्वक ले जाना चाहता है।

मैंने तो उसे भूखा-प्यासा देखकर भोजन प्राप्त कराया और यह मुझे ही सन्तप्त कर रहा है।

समझ में नहीं आता कि उससे छुटकारा कैसे हो?’

महर्षि को रुदन करते देखकर कामधेनु ने कहा- ‘मुनीश्वर! आप क्यों रुदन करते हैं? इन्द्र हो अथवा हल जोतने वाला किसान, शासक हो अथवा शासित, सभी कोई अपनी वस्तु का दान स्वेच्छा से कर सकते हैं।

संसार में दान की यह प्रथा युगों-युगों से इसी प्रकार चली आई है।

हे तपोधन! यदि आप राजा को स्वेच्छापूर्वक मेरा दान करना चाहते हैं तो अवश्य कर दें,

मैं आपकी आज्ञा मानकर बिना किसी विरोध के उनके साथ चली जाऊँगी।

परन्तु यदि आप स्वेच्छापूर्वक मेरा दान नहीं करना चाहते तो फिर मुझे बलपूर्वक कोई भी नहीं ले जा सकता।

मैं तुम्हें ऐसी सेना दूँगी जो राजा को यहाँ से भगा देगी।’

‘हे तपोधन! आप माया से मोह को प्राप्त न होओ।

हे मुने! रोओ मत।

यह संयोग-वियोग तो होता ही रहता है, जो कि काल से साध्य है।

देखो महर्षि! मैं तुम्हारी कौन हूँ अथवा तुम ही मेरे कौन हो? यह सम्बन्ध केवल काल द्वारा ही योजित हुआ है।

जब तक संयोग दृढ़ है, तभी तक आप मेरे और मैं तुम्हारी हूँ।

यह मन जिस पदार्थ को अपना मागता है, उसके विच्छेद से दुःख होना स्वाभाविक है।

क्योंकि उस पदार्थ में प्राणी अपना स्वत्व, अपना अधिकार मानता है।

अतएव हे मुनीन्द्र! आपकी जो आज्ञा हो वैसा ही करने को मैं प्रस्तुत हूँ।’

महर्षि ने कहा- ‘कामधेनु! मैं स्वेच्छा से तो तुम्हें कभी भी नहीं छोड़ सकता।

किन्तु यदि आततायी बलपूर्वक ले जाय तो मेरा वश भी क्या चलेगा?’


कामधेनु द्वारा करोड़ों सैनिक उत्पन्न करना

कामधेनु बोली- ‘तो महर्षे! मुझे बलपूर्वक कोई भी नहीं ले जा सकता।’

यह कहकर सूर्य के समान अत्यन्त तेज वाले तीन करोड़ शस्त्रधारी अपने मुख से उत्पन्न कर दिए।

तदुपरान्त उसी गौ की नासिका से पाँच करोड़ शूलधारी दिव्य सैनिक और उत्पन्न हो गए।

फिर नेत्रों से भी सौ करोड़ धनुर्धारी सैनिक निकल पड़े।

कपाल से तीन करोड़ दण्डधारी, वक्षःस्थल से तीन करोड़ शक्तिधारी और पृष्ठ भाग से सौ करोड़ गदाधारी उत्पन्न हुए।

चरणतल से सहस्त्रों वाद्य भाण्ड, जंघा से तीन करोड़ राजपुत्र और गुह्य भाग से तीन करोड़ म्लेच्छ वीर उत्पन्न हुए।

इस प्रकार कामधेनु ने देखते-देखते एक विशाल सेना प्रकट कर दी और फिर मुनि से बोले- ‘मुनीश्वर! राजा और उनकी सेना को परास्त करने के लिए यह सेना पर्याप्त और पूर्ण समर्थ है।

यही उससे युद्ध करेगी।

आप उससे युद्ध करने को न जायें।’

उस विशाल सेना को देखकर महर्षि जमदग्नि बहुत प्रसन्न हुए और राजा द्वारा भेजे हुए सैनिकों से बोले- ‘हे राजसेवको! अपने राजा से कहना कि मुनि ने गाय देना स्वीकार नहीं किया है।

वह चाहे तो युद्ध करके अपनी शक्ति देख ले अथवा चुपचाप अपने घर को लौट जाये।’

राजा के सैनिक लौट गये।

उन्होंने राजा को सभी समाचार यथावत् सुना दिया, जिससे राजा को अत्यन्त आश्चर्य हुआ, फिर भी उसने सुरभि की सेना से युद्ध किया और हारकर अपनी राजधानी को लौट आया।

ऐसा निश्चय कर राजा कार्त्तवीर्य अपनी राजधानी को लौट गया जहाँ उसने भगवान् श्रीहरि की उपासना-पूजा की और फिर आवश्यक संख्या में सेना एकत्रकर मुनि के आश्रम की ओर चल पड़ा।

मार्ग में पड़ाव डालता और वहाँ के मनुष्यों, पशुओं आदि को पीड़ित करता हुआ शीघ्र ही जमदग्नि आश्रम पर पहुँचा और चारों ओर सेना लगाकर आश्रम को घेर लिया।इस समय उसकी सेना में असंख्य हाथी, घोड़े, रथ, पैदल आदि थे।

राजा स्वयं युद्ध-वेश में सेना के साथ था।

उसके सैनिकादि के शब्दों, पदध्वनियों, वाद्यों एवं शंखों के घोष से आश्रम के चारों ओर की दिशाएँ गूँज उठीं।

आश्रम के निवासी मुनिकुमार उस सेना को देखकर भय-विह्नल हो गये।


कार्तवीर्य-जमदग्नि-संग्राम

तभी राजा ने सेना सहित मुनि के आश्रम में प्रवेश किया और बलपूर्वक कामधेनु को ग्रहण कर लिया।

अब उसने गौ को लेकर घर जाने का विचार किया।

उस समय मुनि के पास कोई सेना नहीं थी।

इस लिए वे स्वयं ही युद्ध करने के विचार से आगे बढ़े।

सर्वप्रथम उन्होंने कामधेनु को नमस्कार किया और फिर हरि का स्मरण करते हुए रणांगण में आ उपस्थित हुए।

मुनि को युद्ध में आये देखकर राजा कुछ असमंजस में हो गया।

सोचा-तपस्वी ब्राह्मण पर शस्त्र उठाने से लोक में मेरी निन्दा होगी।

इतने में ही मुनीश्वर ने वहाँ मन्त्रपूत शरों का एक जाल-सा खड़ा कर दिया! उसी प्रकार जैसे कोई वीर पुरुष अपने वक्षःस्थल पर कवच धारण कर वीरवेश में सामने आवे।

उस शर-जाल ने आश्रम को आच्छादित कर दिया, जिससे कि शत्रु का भीतर प्रवेश न हो सके।

तदु परान्त एक अन्य शरजाल के द्वारा उन्होंने राजा की समस्त सेना को इस प्रकार ढक दिया कि उस के सामने क्या है, यह दृश्य दिखाई न पड़े।

इस प्रकार मुनि ने समस्त राजसेना को आच्छादित कर दिया।

राजा ने अपने समक्ष महर्षि को देखा तो रथ से उतरकर उनके चरणों में प्रणाम किया और आशीर्वाद प्राप्त कर पुनः अपने रथ पर आ गया।

तदुपरान्त उसने महर्षि पर प्रहार आरम्भ किए, किन्तु महर्षि ने उन प्रहारों को लीलापूर्वक व्यर्थ कर दिया।

तब मुनीश्वर ने क्रोधपूर्वक दिव्यास्त्र का क्षेपण किया, जिसे राजा ने काट डाला।

इधर राजा ने जिस शूल का क्षेपण किया उसे मुनि ने नष्ट कर दिया।

फिर राजा ने ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किया, जोकि मुनि के ब्रह्मास्त्र ने काट डाला।

उस समय सभी देवगण आकाश में उपस्थित होकर उस भयंकर युद्ध को देख रहे थे।


राजा द्वारा शक्ति प्रहार से जमदग्नि की मृत्यु

परस्पर दोनों ओर से भयंकर प्रहार हो रहे थे, किन्तु कोई भी प्रहार सफल नहीं हो रहा था।

यह देखकर राजा ने भगवान् श्रीदत्तात्रेय जी का स्मरण कर उन्हें प्रणाम किया और फिर भगवान् नारायण, ब्रह्मा और शिवजी के तेज का आवाहन कर उससे भी दिशाओं को ज्योतित कर दिया।

सभी देवताओं ने देखा कि त्रिदेवों के तेज से समन्वित हुई वह ज्योतिष्मान् महाशक्ति मुनि की ओर बढ़ रही है, तो वे हाहाकार कर उठे।

तभी शक्ति मुनि के वक्षःस्थल में प्रविष्ट हो गई और उससे वह अंग विदीर्ण हो गया।

फिर वह शक्ति निकलकर भगवान् श्रीहरि के सान्निध्य में पहुँचकर उपरामता को प्राप्त हुई।

यह शक्ति पूर्वकाल में भगवान् श्रीहरि ने दत्तात्रेय जी को और दत्तात्रेय ने राजा कार्त्तवीर्य को प्रदान कर दी थी।

मुनि उस शक्ति के लगते ही मूच्छित हो गये।

जब कामधेनु ने देखा कि मुनि के प्राण-पखेरू उड़ गये हैं तो वह विलाप करने लगी।

उनके मुख से केवल हे तात! शब्द ही निकल रहा था।

फिर वहाँ से गोलोक में जा पहुँची, जहाँ गोप-गोपियों से आवृत हुए भगवान् श्रीकृष्ण एक भव्य सिंहासन पर विराजमान थे।

कामधेनु ने भगवान् को प्रणाम किया और कामधेनुओं के समुदाय में जाकर बैठ गई।

उसके नेत्रों से जो आँसू गिरे थे, वे मनुष्य-लोक में रत्नों के ढेर रूप हो गए।

उधर राजा ने कामधेनु की खोज की, किन्तु उसका कहीं पता न लगा तो वह निराश हो गया और पश्चात्ताप करने लगा कि मुनि की व्यर्थ ही हत्या हो गई।

उसने वहीं प्रायश्चित्त करके अपनी सेना को राजधानी के लिए लौटने का आदेश दिया और स्वयं भी निर्बाध रूप से अपने घर चला गया।

मुनिपत्नी रेणुका ने अपने पति की मृत्यु हुई सुनी तो शीघ्रतापूर्वक वहाँ आई और शव को देखकर अत्यन्त व्याकुल होकर रोने लगी।

वह इतनी शोकाकुल हो उठी कि उसे मूर्च्छा-सी आ गई।

फिर जब उसकी चेतना लौटी तो परशुराम को पुकारने लगी।

उसने कहा- ‘राम! तुम कहाँ हो? इस विपत्ति में तुम ही उबार सकते हो।

यहाँ आकर अपने पिता की दशा तो देखो पुत्र! एक नृशंस हत्यारे राजा ने इस निरपराध एवं राग-द्वेष से रहित मुनि का वध कर डाला है।’


आश्रम में परशुराम का आगमन

इधर माता विलाप कर रही थी उधर परशुराम जी को समाधि में बाधा पड़ी।

उन्हें लगा कि माता पुकार रही है तो तुरन्त ही वहाँ से चल दिए।

वे मन के समान वेग से पहुँचने में समर्थ थे।

उन्होंने शीघ्र ही भक्तिभावपूर्वक माता के चरणों में प्रणाम किया और फिर पिता के शव पर उनकी दृष्टि गई तो वे क्रोध से काँपने लगे।

उन्होंने कहा- ‘मेरे पिता परम तपस्वी और सर्वसमर्थ थे।

उनकी मृत्यु सहज रूप में सम्भव नहीं थी।

उन्हें किस पापी ने इस दशा में पहुँचाया है, यह बात मुझे स्पष्ट रूप से बताओ।’

आश्रमवासियों ने सब समाचार आदि से अन्त तक सुना दिया।

फिर यह भी बताया कि मुनि के प्राण जाने के पश्चात् कपिला धेनु भी यहाँ से चली गई।

पिता के शव को देखकर परशुराम जी विलाप करने लगे।

यह देखकर माता बोली- ‘हे पुत्र! हे राम! तू रुदन न कर।

मन को स्थित करके पिता का लौकिक कर्म कर! मुझे भी उनके साथ जाना होगा।

परन्तु तुझ प्राणों से भी अधिक प्रिय पुत्र को अकेला छोड़कर कैसे जाऊँ?’

परन्तु पुत्र! संसार में जो आता है, उसे कभी-न-कभी जाना ही होगा।

इसलिए तू धैर्य रखकर अपने माता-पिता की समस्त क्रियाओं को कर।’

माता की बात सुनकर परशुरामजी को बड़ा दुःख हुआ, बहुत चाहते हुए भी मन को धैर्य नहीं होता था।

उनके रुदन से सभी आश्रमवासी मनुष्य तो दुःखित थे ही, पशु-पक्षी और वृक्षादि तक शोक से पीड़ित हो रहे थे।

पृथ्वी भी कुछ कम्पित-सी प्रतीत होने लगी थी, मानो वह भी शोक-विह्वल हुई सुबक रही है।

माता ने पुनः कहा- ‘पुत्र! धैर्य रखने से ही कार्य चलेगा।

विधि का विधान अमिट है।

फिर भी मैं तुझे सीख देती हूँ कि राजा से युद्ध मत ठान बैठना।

क्योंकि वह बड़ा बलवान् और प्रतापी है।

कहाँ हम दुर्बल ब्राह्मण और कहाँ वह अत्यन्त शक्ति-सम्पन्न क्षत्रिय राजा! कहीं भी तो हमारी उसकी समता प्रतीत नहीं होती।

इसलिए उससे युद्ध करने से हमारी विजय सम्भव नहीं है।

ब्राहाण का कार्य तप करना है, तुम उसी में चित्त लगाये रखना पुत्र!’


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