गणेश पुराण – प्रथम खण्ड – अध्याय – 10


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पति-परित्यक्ता रानी सुनीता का आख्यान

सूतजी बोले-
‘हे शौनक! एक दिन फल्गुन नदी के तट पर गणेश-पूजन किया जा रहा था।

पूजन करा रहे थे महाज्ञानी एवं वेदज्ञ भार्गव पण्डित।

उसी समय उन्होंने देखा कि एक स्त्री वहाँ आकर खड़ी हो गई है।

देखने में वह किसी बड़े घर की है, किन्तु मुख पर उदासी और चिन्ता के भाव थे तथा आँखें ऐसी हो रही हैं, जैसे रो चुकी हों।

ऋषि को उसकी दीनता देखकर दया आ गई और वे बोले-
‘महाभागे! तुम कौन हो और कहाँ से और क्यों आई हो? यदि कुछ अभीष्ट हो तो बताओ।

भगवान् विनायक उसे पूर्ण करने में समर्थ हैं।’

उस स्त्री ने रोते हुए कहा- ‘मुनीश्वर! मैं मालवदेश के महाराज चन्द्रसेन की पत्नी हूँ।

यद्यपि महाराज अत्यन्त धर्मज्ञ, नीतिज्ञ और परम बल- वैभव सम्पन्न हैं और मुझपर प्रेम भी बहुत करते थे, किन्तु मेरे कोई सन्तान न होने के कारण उन्होंने मेरी ही अनुमति से दूसरा विवाह कर लिया।

‘फिर तो वे उसी के प्रेम में आसक्त रहकर मेरा तिरस्कार करने लगे।

मेरी सौत ने तो मुझे दासी से भी बुरी अवस्था में डाल दिया।

फिर उसके एक सुन्दर पुत्र उत्पन्न हुआ, जिसका नाम पद्मसेन रखा गया।

उसके समस्त संस्कार विधिवत् हुए और विद्याध्ययन के पश्चात् मद्रदेश की राजकुमारी से उसका विवाह भी हो गया।

हे मुनिनाथ! फिर मेरे पति समस्त परिवार के सहित गयां में पिण्ड-दानार्थ आये और आज समस्त धर्म-कार्य सम्पन्न होने पर थके होने के कारण पलंग पर सो गये।

मैं उनकी सेवाशुश्रूषा में लगी थी तभी मेरी सौत वहाँ आई और उसने मुझे अनेक गालियाँ दीं तथा लात-घूसों से प्रहार किया।

तब मैं अपमान न सहन करने के कारण आत्महत्या के विचार से शिविर छोड़कर यहाँ चली आई और नर्मदा में कूदना चाहती थी कि कुछ मन्त्र-ध्वनि सुनकर और पूजनादि होते देखकर यहाँ चली आई।

अब आप मुझे यह बतायें कि आप किस देवता का पूजन कर रहे हैं? क्या इसे करने से मेरा भी दुःख दूर हो सकेगा?’

महर्षि ने उसकी बात सुनकर करुण दृष्टि से देखते हुए कहा-
‘रानी! भगवान् विघ्नेश का पूजन कर रहे हैं।

यह प्रभु समस्त विघ्नों को दूर कर सभी अभीष्टों के पूर्ण करने में समर्थ हैं।

तुम इन्हीं विघ्नराज का पूजन करोगी तो तुम्हारे कष्ट शीघ्र दूर हो जायेंगे।’यह कहकर मुनि ने उसे बैठने का संकेत किया और पूजन समाप्त होने पर प्रसाद दिया।

तब रानी गणेश-पूजन का संकल्प करके उन्हीं का स्मरण करती हुई अपने स्थान को लौट गई।


रानी सुनीता को सर्वसुख प्राप्ति का वृत्तान्त

शौनक बोले-
‘हे सूतजी! फिर उस रानी ने क्या किया?

शिविर में लौटने पर उसका पुनः अपमान तो नहीं हुआ?

उसने गणेश-पूजन किया या नहीं? यदि किया तो उसका क्या फल हुआ?

यह सब वृत्तान्त मेरे प्रति कहने की कृपा कीजिए।’

सूतजी ने कहा-
‘शौनक! रानी सुनीता का अगला वृत्तान्त पार्वती के पूछने पर शिवजी ने इस प्रकार बताया कि रानी अपने शिविर में जाकर सो गई।

उसके आत्मघात के लिए जाने आदि का बात का किसी को भी पता न चला।

महाराज चन्द्रसेन जब अपने राज्य में लौट आये, तब उनके विचार ने पलटा खाया और उन्होंने सोचा कि बड़ी रानी को सन्तान नहीं हुई तो इसमें उसका क्या दोष है? वह तो अब तक अपने पातिव्रत-धर्म का निर्वाह करती चली आ रही है।

इसलिए उसके प्रति छोटी रानी का व्यवहार अनुचित और अन्यायपूर्ण है।’

ऐसा सोचकर वह रानी सुनीता का आदर करने लगे।

भगवान् गणेश्वर के व्रत-विषयक संकल्प का ऐसा प्रभाव देखकर सुनीता उनका पूजन करने के लिए तत्पर हुई और व्रत रखकर विधिपूर्वक राजगुरु भारद्वाज के द्वारा पूजन कार्य सम्पन्न कराया।

उसने पूजन के लिए महाराज को बुलाया तो उन्होंने छोटी रानी मदनावती को भी सुनीता के भवन में चलने को कहा।

किन्तु मदनावती ईर्ष्या के कारण महाराज के साथ न गई और वे अकेले ही वहाँ पहुँचे।

हे शौनक! रानी सुनीता ने अपने पति को आये देखा तो बड़ी प्रसन्न हुई।

उसने इसे गणेशजी की ही कृपा माना।

फिर उसने पति के साथ बैठकर भगवान् विघ्नराज का भक्तिभाव से पूजन किया और स्तुति, आरती, प्रदक्षिणादि के पश्चात् महर्षि भारद्वाज और अन्य ब्राह्मणों को भोजन और दक्षिणा से सन्तुष्ट किया।

रानी सुनीता के यहाँ व्रतोत्सव मनाये जाने और पतिदेव के उसमें भाग लेने के कारण रानी मदनावती रुष्ट हो गई और महाराज का भी तिरस्कार कर बैठी।

तब तो महाराज उसका साथ छोड़कर रानी सुनीता के भवन में ही रहने लगे।

कालान्तर में गणपति की कृपा से रानी गर्भवती हो गई।

अब तो महाराज ने स्वयं ही प्रसन्नता के कारण सुनीता के भवन से श्रीविघ्नेश्वर के पूजन का आयोजन किया और उसमें रानी मदनावती को भी बुलाया, किन्तु वह रुष्ट रहने के कारण नहीं आई।

पूजन के पश्चात् महाराज स्वयं ही प्रसाद देने के लिए रानी मदनावती के महल में गये, किन्तु रानी ने प्रसाद नहीं लिया।

राजा अपमानित होकर बड़ी रानी के भवन में लौट आया।

उधर मदनावती कुष्ठिन हो गई, इस कारण राजा ने उसका परित्याग कर दिया।

इधर रानी सुनीता को पुत्ररत्न की प्राप्ति हुई।

उसका जन्मोत्सव बड़ी ही धूमधाम से मनाया गया तथा उसके जातकर्म आदि सभी संस्कार समय-समय पर कराये जाते रहे और उस प्रसन्नता के कारण पुरोहित, ब्राह्मण, अतिथि आदि को पर्याप्त दान-दक्षिणाएँ दी गईं।

बालक का नाम लक्षपद रखा गया।

अब मदनावती अत्यन्त दुःखित थी।

जब उसे अन्य कोई उपाय न सूझा तो रानी सुनीता के पास जाकर बोली- ‘बहिन! मुझ पीड़ित पर कृपा करो, मैं तुम्हारी शरण हूँ।’

सुनीता को उसपर दया आ गई और उसने कहा- ‘बहिन! तुमने भगवान् विघ्नेश्वर का अपमान किया और उनका प्रसाद तक ठुकरा दिया था, इसी कारण तुम्हें इस घोर दुःख की प्राप्ति हुई है।

अब तुम उन्हीं भगवान् का व्रत और पूजन करो।’

यह सुनकर उसने संकल्पपूर्वक भगवान् विनायक देव का व्रत और पूजन किया, जिसके प्रभाव से वह रोगमुक्त हो गई और पूर्व सम्मान को प्राप्त कर सकी।

अब दोनों रानियाँ बड़े प्रेम से रहने लगीं तथा राजा के साथ गणपति पूजन करती हुई सुखपूर्वक जीवन बिताने लगीं।

उस व्रत के प्रभाव से राजा सहित उन्हें गणराज के धाम की प्राप्ति हुई।


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