गणेश पुराण – पंचम खण्ड – अध्याय – 6


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महोत्कट का काशी जाना

एक दिन महर्षि कश्यप सन्ध्या वन्दनादि से निवृत हुए ही थे कि उनके आश्रम पर काशीनरेश समागत हुए।

उन्होंने आश्रम में प्रवेश कर महर्षि को भक्तिभाव से प्रणाम किया।

उन्हें देखकर महर्षि भी स्नेहातिरेक के कारण उठ खड़े हुए और उन्होंने काशिराज को हृदय से लगा लिया।

तदुपरान्त राजा ने महर्षि की आज्ञा से आश्रम में ही भोजन किया और विश्राम करने लगे।

उसके बाद राजा पुनः महर्षि की सेवा में उपस्थित हुए और महर्षि से विनयपूर्वक बोले- ‘भगवन्! मैंने अपने पुत्र का सम्बन्ध निश्चित कर दिया और शीघ्र ही उसका विवाह करना चाहता हूँ।

इसलिए आप कृपया काशी चलकर युवराज का विवाह कार्य सम्पन्न कराने का कष्ट करें।’

महर्षि बोले- ‘राजन्! इस समय तो मैं एक अनुष्ठान कर रहा हूँ, इसलिए चलना सम्भव नहीं है।

यदि पहिले से कहा होता तो अनुष्ठान बाद में किया जा सकता था।’

राजा ने निवेदन किया- ‘यह मेरी भूल हुई है महर्षे! वस्तुतः मुझे आपकी सेवा में बहुत पहिले उपस्थित हो जाना चाहिए था।

परन्तु राजा-कार्य में इतना व्यस्त रहा कि चाहते हुए भी यहाँ न आ सका।

आप हमारे कुल-पुरोहित हैं, इसलिए आपके बिना विवाह की सम्पन्नता भी कैसे होगी?’

कश्यप जी ने पूछा, देर में विचार किया और तब बोले- ‘नरेश! यदि आप चाहें तो मेरे पुत्र महोत्कट को साथ ले जा सकते हैं।

यह समस्त शास्त्रों का मर्मज्ञ और कर्मकाण्ड में भी अद्वितीय विद्वान् है।

यद्यपि यह अभी बालक ही है, इसलिए माता और सब आश्रमवासी इसके चले जाने से खिन्न होंगे, क्योंकि सभी के लिए यह प्राणों से भी अधिक प्रिय है।इस प्रकार इसका आश्रम में अनुपस्थित रहना भी सभी के लिए कष्टकारी होगा, तो भी आप इसे ले जा सकते हैं।

मुझे विश्वास है कि यह युवराज के विवाह-संस्कार का सभी कार्य विधिपूर्वक सम्पन्न करा देगा।

कार्य पूर्ण होने पर आप इसे यहाँ भेज देना।’

राजा ने महर्षि का आदेश सहर्ष स्वीकार किया और तब महर्षि ने अपने पुत्र को पास बुलाकर कहा- ‘महोत्कट! यह काशीनरेश हमारे अत्यन्त प्रीति-पात्र हैं।

इनके यहाँ युवराज का विवाह होने को है।

इनके कुल-पुरोहित हमीं हैं, इसलिए इनके यहाँ के विभिन्न संस्कार विधिवत् सम्पन्न कराना हमारा कर्त्तव्य है।

यद्यपि तुम्हें यहाँ से भेजना हमारे लिए कष्टकर है तो भी इनका कार्य करना ही होगा।

अतएव तुम इनके साथ जाओ और युवराज का विवाह कार्य सम्पन्न कराकर शीघ्र यहाँ लौट आओ।’

महोत्कट ने पिता की आज्ञा शिरोधार्य की और राजा के साथ काशी जाने के लिए प्रस्तुत हुए।

फिर अपने माता-पिता को श्रद्धा-भक्तिपूर्वक प्रणाम कर राजा द्वारा उपस्थित रथ पर जा बैठे।

उस समय पुत्र के वियोग में माता अदिति और सभी आश्रमवासी आँसू बहाने लगे।

अदिति ने राजा से विनयपूर्वक कहा- ‘महाराज! यह बालक बहुत चंचल और अपरिपक्व बुद्धि है।

कुटिल राक्षसगण सदैव इसे मारने का अवसर खोजते रहते हैं।

यह कभी इस कुटी से बाहर नहीं गया है।

इसलिए इसकी रक्षा का पूरा भार आप पर है।

आप जिस प्रकार इसे अपने साथ लिये जा रहे हैं, वैसे ही कुशलपूर्वक यहाँ पहुँचा देने की शीघ्र कृपा करें।’

काशिनरेश ने वचन दिया- ‘माता! आप चिन्ता न करें।

मैं अपने प्राण देकर भी आपके पुत्र की रक्षा करूँगा और कार्य सम्पन्न होने पर सुरक्षित रूप से यहाँ पहुँचा दूँगा।’

तदुपरान्त काशिपति ने महर्षि और उनकी पत्नी के चरणों में प्रणाम किया और रथ पर जा बैठे।

तभी रथ के घोड़े वायु के समान वेग से दौड़ पड़े।

जब तक रथ की ध्वजा दिखाई दी, तब तक माता अदिति अश्रुपूर्ण नेत्रों से उधर ही देखती रहीं।

उसके बाद पुत्र-वियोग की पीड़ा लिये आश्रम में पड़ गईं।

उस समय उन्हें कुछ भी अच्छा न लगता था।


धूम्राक्ष-वध महोत्कट द्वारा

काशिराज अपने रथ एवं घुड़सवार दल के साथ आश्रम से चलकर एक भयंकर वन में पहुँचे।

उस वन में एक स्थान पर विप्रवर रुद्रदेव का छोटा भाई धूम्राक्ष घोर तप कर रहा था।

नरान्तक का चाचा धूम्राक्ष भगवान् भास्कर को प्रसन्न करना चाहता था।

उसकी अभिलाषा थी कि तीनों लोकों पर भय रहित शासन के लिए सभी को मारने में समर्थ बनाने वाला दुर्लभ दिव्य शस्त्रास्त्र प्राप्त हो जाय।

उसकी तपश्चर्या का ढंग अद्भुत था अपने दोनों पाँव एक वृक्ष की शाखा से बाँधे हुए वह अधोमुख लटका हुआ था।

आहार भी कुछ नः करता, पानी भी त्याग दिया, केवल धूम्रपान करता हुआ जीवनचर्या चला रहा था।

भगवान् भास्कर उसके दारुण तप से द्रवित हुए।

उन्होंने अत्यन्त प्रकाशपुञ्जमय एक ऐसा शस्त्र उसके पास भेजा जो अपनी प्रभा से समस्त विश्व को उद्दीप्त कर सकता था।

वह शस्त्र ज्योंही आकाश से उतरता हुआ धूम्राक्ष को प्राप्त होने वाला था, त्योंही महोत्कट ने ऊपर की ओर उछलकर उस शस्त्र को मार्ग में ही ग्रहण कर लिया।

महोत्कट ने उस शस्त्र को परीक्षणार्थ धूम्राक्ष की ओर वेग से फेंका।

उसी समय वज्रपात जैसा एक भीषण शब्द हुआ और उसी के साथ धूम्राक्ष के शरीर के दो खण्ड होकर दूर-दूर जा गिरे।

उन विशाल शरीर-खण्डों के गिरने से अनेकों वृक्ष टूटकर धरती पर गिर गए।

यह सब देखकर काशीनरेश को बड़ा आश्चर्य हुआ!


जघन और मनु नाम के दैत्यों का संहार

धूम्राक्ष के दो वीर पुत्र थे-जघन और मनु।

उसका पराक्रम और प्रभाव प्रसिद्ध था।

उन्होंने अपने पिता की मृत्यु का यह दृश्य देखा तो अत्यंत क्रोध में भर गए।

उनके नेत्र तपे हुए लौह के समान लाल हो रहे थे।

उन्होंने हाथों में शस्त्र ग्रहण किये और काशिराज के रथ को आकर घेर लिया तथा साथ के सैनिकों को बात ही बात में मार गिराया।

अब उन्होंने अत्यन्त गर्जन करते हुए कहा- ‘काशिराज! तूने षड्यन्त्र पूर्वक इस मुनिकुमार द्वारा हमारे पिता की हत्या करा डाली।

अरे कृतघ्न! तू उस बात को भूल गया जब हमारे पिता ने ही राक्षसराज नरान्तक के कोप से तेरी प्राणरक्षा की थी।

अब तक तू काशी का राजा उन्हीं की कृपा से बना हुआ था, परन्तु अब अपने ही रक्षक की हत्या कराने पर तू भी कैसे जीवित रहेगा?’

काशीनरेश काँप उठे।

उन्हें क्या पता था कि क्षणभर में ही ऐसी दुर्घटना घट जायेगी।

वे सोचने लगे कि इस बालक की माता ने सही कहा था कि बहुत चंचल है।

यदि मैं इसे न लाता तो ठीक ही था।

अब ज्योंही नरान्तक को धूम्राक्ष के मरने का संवाद मिलेगा, त्योंही वह आधे क्षण में ही मेरे राज्य को धूल में मिला देगा।’ऐसा विचार कर उन्होंने धूम्राक्ष के महाबली पुत्रों को शान्त करने की चेष्टा की- ‘वीरो! मेरा इसमें कुछ भी दोष नहीं है।

मैं तो इस मुनि-बालक को अपने पुत्र का विवाह कार्य सम्पन्न कराने के लिए ही लाया हूँ।

भला मैं ऐसा षड्यन्त्र क्यों करता?’वे बोले- ‘कुछ भी सही, तुम इस हत्या के अपराध से बच नहीं सकते।

हम तुम्हें और तुम्हारे राज्य को नष्ट करके ही रहेंगे।’

भयाक्रान्त राजा गिड़गिड़ाया ‘असुरयोद्धाओ! इस कार्य में मेरा किंचित् भी भाग नहीं था।

मुझे पता भी नहीं था कि मेरा यह पुरोहित-पुत्र क्या करने जा रहा है।

आप मुझपर कृपा कीजिए और अपने पुत्र के विवाहार्थ मुझे जाने दीजिए।

अपने पिता की हत्या करने वाले इस पुरोहित-पुत्र को आप ले जा सकते हैं।’

महोत्कट को काशिराज के वचन भंग पर आश्चर्य हुआ।

वे बोले- ‘राजन्! आपने मेरी माता को जो वचन दिया था, उसे भंग करके और इस वन में लाकर मुझ अल्पवयस्क बालक को शत्रुओं के हाथ में दे रहे हैं, क्या क्षत्रियों का यही धर्म है? जब मेरे पिता आपकी इस करतूत को सुनेंगे तो क्या वे आपको शाप देकर राज्य सहित भस्म नहीं कर देंगे?’

राजा को उनकी बात का कोई उत्तर नहीं सूझा, तभी धूम्राक्ष-पुत्रों ने प्रहार आरम्भ कर दिए।

यह देखकर महोत्कट अत्यन्त कुपित होकर जोर-जोर से श्वास छोड़ने लगे, जिससे अन्तरिक्ष में हलचल मच गई और पृथ्वी पर भयंकर झंझावत उठ पड़ा।

उसके योग से धरती हिल उठी और भीषण चक्रवात ने उन असुरों को घेर लिया।

वे चक्कर खाते हुए धरती से उठे और अन्तरिक्ष में चक्रवत् घूमते हुए अन्त में नरान्तक के नगर में जा गिरे।

उस समय ऐसा लगता था जैसे पर्वत-खण्ड टूटकर आ रहे हों।

उनके गिरने से कुछ भवन ढह गए और जहाँ गिरे वहाँ की धरती धँसक गई।


नरान्तक का अत्यन्त क्रोधित होना

धूम्राक्ष-पुत्र जघन और मनु दोनों के शरीर क्षत-विक्षत हो चुके थे।

उस घटना से नरान्तक की राजधानी में कोलाहल मच गया।

समस्त असुरगण भयभीत हुए सोच रहे थे, ‘यह कैसे हुआ?’

नरान्तक भी व्याकुल हुआ अपने मन्त्रियों से परामर्श कर रहा था।

तभी वहाँ हाँफता-काँपता हुआ एक दूत आ पहुँचा।

वह भय के कारण कुछ बोल नहीं पा रहा था।

नरान्तक ने उसे सान्त्वना दी और कुछ देर शान्त बैठने को कहा।

उसके बाद वह बोला- ‘महाराज! काशिराज के साथ एक मुनि कुमार बैठा था, जिसका नाम महोत्कट हे।

वह महर्षि कश्यप का पुत्र बताया जाता है।

काशिराज उसे अपने पुत्र का विवाह-कार्य सम्पन्न कराने के उद्देश्य से काशी लिये जा रहे थे।

उसी मुनि-कुमार ने धूम्राक्ष को मारा और जघन एवं मनु की ऐसी दुर्दशा की है।’

नरान्तक इस समाचार को सुनकर अत्यन्त कुपित हो उठा।

उसने कठोर स्वर में अपने असुर-सैनिकों को आदेश दिया- ‘वीरो! उस मुनिकुमार और काशिराज दोनों को ही पकड़ लाओ।

यदि वे युद्ध के लिए तत्पर हों तो फिर वहीं मार डालना।’

असुरराज का आदेश मिलते ही असुरसेना तुरन्त दौड़ गई।

काशिनरेश ने असुरों के दल आते देखे तो भयभीत होकर काँपने लगे।

उनकी समझ में नहीं आ रहा था कि किस प्रकार प्राण-रक्षा की जाय? तभी असुरसेना को बढ़ती हुई देखकर महोत्कट ने घोर गर्जन किया।

वज्रपात के समान उस भयंकर गर्जना ने अनेकों को मृत्युमुख में डाल दिया।

तभी महोत्कट ने शर सन्धान किया।

अब तो एक ही शर सहस्रों होकर असुरों को मार-काट कर गिराने लगे।

इस प्रकार नरान्तक की विकट असुर-सेना बात की बात में नष्ट-भ्रष्ट हो गई।

कुछ असुर उस घोर संहार को देखकर प्राण बचाते हुए भाग निकले।

उन्होंने नरान्तक के पास जाकर सब समाचार दिया।

नरान्तक को बड़ा आश्चर्य हुआ।

उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि एक छोटे से मुनि-बालक ने हमारी वीर-सेना का संहार कैसे कर डाला? उसने सोचा-इस भारी हत्याकाण्ड का उत्तरदायित्व काशीनरेश पर ही है।

इसलिए उसे दण्डित करना ही होगा।’

ऐसा निश्चय कर नरान्तक ने अपने एक ही सेनापति को बुलाकर कड़ा आदेश दिया- ‘सेनापति! तुम भारी असुर वाहिनी को साथ ले जाओ और उन दोनों को जीवित या मृत किसी भी रूप में लाकर उपस्थित करो।’

आदेश पाकर असुरों की सेना काशी की ओर चल पड़ी।

इधर काशिराज का रथ महोत्कट के सहित काशीनगरी में प्रविष्ट हुआ।

महोत्कट की कृपा से ही काशिराज सकुशल अपने घर लौट सके हैं, यह जानकर नगर-द्वार पर ही उनका भारी स्वागत किया गया।

विविध भाँति से नगर सजाया गया और अनेक प्रकार की पूजन-सामग्री से उनकी पूजा. की गई।

घर-घर मङ्गल गीत गाये जाने लगे।


विघण्टादि दैत्यों की मृत्यु

महोत्कट के काशी आगमन से सभी को प्रसन्नता हुई।

चारों वर्णों का प्रजावर्ग भी हर्षोल्लास से भर उठा।

विप्रों ने उन्हें अपना ईश्वर, क्षत्रियों ने युद्ध-कुशल, महावीर, वैश्यों ने सर्वसंहारक रुद्र तथा शूद्रों ने उन्हें प्रभु-रूप में देखा।

इस प्रकार जिसकी जैसी भावना थी, उनके उसी रूप में दर्शन हुए।

नगर के मध्य में रथ पहुँचा, यहाँ विघण्ट और दन्तुर नामक दो असुर

अपनी घात लगाये बैठे थे।

वे बालक का सुन्दर वेश बनाकर रथ के समीप आये और उन्होंने महोत्कट को खेलने का निमन्त्रण दिया।

महोत्कट ने उनकी चेष्टाओं से ही समझ लिया कि ये दोनों असुर हैं।

इस लिए तुरन्त रथ से उतरकर उनका इतने जोर से आलिंगन किया कि वे उनका दबाव न सह सके।

निर्जीव होकर दूर जा गिरे।

उस समय उनका असुर रूप भी स्वतः ही प्रकट हो गया।

असुरों का इस प्रकार मरण हुआ देखकर काशि राज और उनकी समस्त प्रजा आश्चर्य चकित हो गई।

सब ओर से विनायक भगवान् की जय का सुमधुर घोष उठा और आकाश से पुष्पों की वर्षा होने लगी।

रथ यहाँ से कुछ ही आगे बढ़ा होगा कि पतंग और विधुल नामक दो राक्षस झंझावात का रूप धारण कर अपने वेग से वृक्षों तथा अट्टालिकाओं को खंडित करने लगे।

न जाने कितने बहुमूल्य वस्त्र उड़ गए।

अन्धड़ के कारण अँधेरा छा गया, जिससे सभी नागरिक व्याकुल हो उठे।

यह देखकर महोत्कट कुछ हँसे और तभी उनका रथ कुछ ऊपर की ओर उठा।

तब उन्होंने जैसे ही स्तम्भन प्रयोग किया, वैसे ही एक असुर धरती पर जा गिरा।

तभी महोत्कट ने उसे मुष्टिक मारकर आहत किया और घुमाकर पृथ्वी पर दे मारा।

यही दशा दूसरे असुर की हुई।

यह सब देखकर उपस्थित जन अत्यन्त विस्मित हो रहे थे।

काशिराज तो आश्चर्य देखते ही आ रहे थे, उन्होंने महोत्कट को प्रणाम कर रथ आगे बढ़ाने की आज्ञा दी।

रथ के थोड़ा आगे बढ़ने पर एक पाषाण रूप असुर दिखाई दिया।

महोत्कट उसे देखते ही रथ से कूद पड़े और अपने तीक्ष्ण परशु से ऐसा प्रहार किया कि असुर की पाषाण देह के सैकड़ों टुकड़े हो गये।

तभी उस पाषाण से भयंकर रूप वाला एक असुर निकल पड़ा जिसका नाम कूट था।

उसका विकराल मुख और भयंकर शरीर देखकर सभी नागरिक इधर-उधर भागने लगे।

तभी महोत्कट ने उसे पकड़कर मुष्टि प्रहार किया, जिससे निर्जीव हुआ असुर चक्कर खाकर गिर गया।

यह देखकर सभी को पूर्ण विश्वास हो गया कि यह मुनिकुमार सब राक्षसों का संहार करने में समर्थ है।


राजभवन में महोत्कट का पूजन और स्वागत

रथ राजद्वार पर जा पहुँचा।

काशिराज रथ से उतरकर कश्यपकुमार को अपने साथ राजभवन में ले गये।

वहाँ उन्होंने विधिपूर्वक उनका षोड़शोपचारों सहित पूजन और स्तुति की, फिर बहुमूल्य वस्त्रालंकार भेंट कर विविध सुस्वादु व्यञ्जनों का भोजन परोसा।

तदुपरान्त एक सुन्दर सुसज्जित सुखद कक्ष में उनके विश्राम की व्यवस्था की।

इस प्रकार रात्रि सुखपूर्वक व्यतीत हुई।

दूसरे दिन महोत्कट प्रातःकाल शय्या त्याग कर स्नान, ध्यान एवं यजनादि से निवृत हुए, तभी धर्मदत्त नामक एक सद्विप्र उनके पास आकर बोले- ‘प्रभो! मेरा घर भी पवित्र कीजिए।’

महोत्कट ने उनकी प्रार्थना स्वीकार कर ली और राजा से अनुमति लेकर उनके साथ चल दिए।

रास्ते में उन्होंने देखा कि दो गधे परस्पर लड़ रहे हैं।

महोत्कट उनसे बचकर चलने को ही थे कि वे दोनों उन्हीं के ऊपर आ गिरे।

विनायक समझ गये कि यह दोनों असुर हैं, इसलिए उन्होंने मुष्टि-प्रहार से ही उन दोनों को मार डाला।

वस्तुतः वे नरान्तक द्वारा भेजी गई आसुरी सेना के ही काम और क्रोध नामक दो वीर थे।

आगे बढ़ने पर उन्होंने एक मदोन्मत्त हाथी देखा।

वह जिसे भी देखता उसी को मारने के लिए बढ़ता।

इससे नागरिकों में बड़ा आतंक छा गया।

बहुत से स्त्री-पुरुष भाग-भाग कर जहाँ रक्षा का स्थान मिलता वहीं छिप जाते।

परन्तु हाथी तो नगर को ही ध्वस्त करने पर तुला था।

उसके भय के कारण रास्ते जन-शून्य हो गए।

महोत्कट ने यह स्थिति देखी तो हाथी की ओर झपटे।

उन्होंने विद्युत वेग से उसकी सूँड़ काट डाली और गण्डस्थल पर इतना तीव्र आघात किया कि चिंघारता हुआ धरती पर गिर पड़ा और उसके प्राण-पखेरू उड़ गये।

मरते समय वह अपने वास्तविक असुर रूप में आ गया, जिससे स्पष्ट हो गया कि वह भी नरान्तक का भेजा हुआ कुण्ड नामक अत्यन्त क्रूर राक्षस था।

उसके मरने पर सभी ने चैन की साँस ली और भगवान् गजाननदेव की जय बोलने लगे।

इस प्रकार महोत्कट इस समय काशी- नगर के रक्षक भी बन गये थे।


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