गणेश पुराण – पंचम खण्ड – अध्याय – 5


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महोत्कट का उपनयन संस्कार वर्णन

एक वर्ष और बीत गया।

बालक महोत्कट की आयु पाँच वर्ष की हुई।

महर्षि ने उनका उपनयन कराने का विचार किया, उस अवसर पर निगमागम शास्त्रों के पारंगत विप्रगण तो आये ही थे, सभी देवता, राक्षस यक्ष, नाग, ऋषि-मुनि, राजर्षि, व्यवसायी एवं चारों वर्णों का जन-समूह उपस्थित हुआ।

असुरगण प्रत्यक्ष रूप में तो वहाँ बड़ी श्रद्धा के साथ उपस्थित हुए थे, किन्तु मन में यही था कि ऐसा अवसर हाथ आये, जब महोत्कट का वध किया जा सके।

जो असुर महर्षि के प्रति श्रद्धाभाव रखते थे और जिन्हें इस अवसर पर पहुँचने का निमन्त्रण था वे प्रत्यक्ष रूप में और जिन्हें निमन्त्रण नहीं था, वे अप्रत्यक्ष रूप में, छिपकर वहाँ पहुँचे थे।

उनमें विघात, पिंगाक्ष, विशाल, पिंगल और चपल नामक पाँच महाबली असुर भी थे, जिन्होंने माथे पर त्रिपुण्ड्र और गले में रुद्राक्ष माला धारण कर विप्र वेश बना रखा था। ब्राह्मण के छद्मवेश को धारण किये हुए वे असुर हाथों में कमण्डलु लिये हुए थे, जिनमें छोटे-छोटे शस्त्रास्त्र छुपाये हुए थे।

उन्होंने अपने बैठने के लिए ऐसा स्थान चुना, जो अन्य कर्मकाण्डी ब्राह्मणों के मध्य में था और जहाँ से महोत्कट पर अचूक प्रहार किया जा सकता था।

उत्सव आरम्भ हो रहा था।

सभी प्रियजन, परिचित जन एवं विशिष्ट जन आकर अपना-अपना स्थान ग्रहण करते जा रहे थे।

अनेक प्रकार के सुखद बाजे बज रहे थे।

तभी मण्डप में गणेश-पूजन और उसके पश्चात् स्वस्तिवाचन हुआ और फिर व्रतबन्ध की विधियों का आरम्भ हुआ।

हवन के पश्चात् यमराज द्वारा ब्राह्मणों का पूजन किया गया।

जिस समय अग्नि-स्थापन के पश्चात् सौभाग्यवती नारियों और ब्राह्मणगण द्वारा आशीर्वाद पाठ के साथ महोत्कट पर अक्षत छोड़े जा रहे थे, तभी उन विप्रवेशधारी असुरों ने उपयुक्त अवसर जानकर कमण्डलु से अस्त्र निकालकर प्रहार करना उचित समझा।

जैसे वे सभी अस्त्र प्रहार के लिए उद्यत हुए, वैसे ही उनका मन्तव्य समझकर महोत्कट ने उनपर कुछ अभिमन्त्रित अक्षत फेंके और इसके साथ ही वे असुर निष्प्राण होकर धरती पर गिर गए और उनका वास्तविक रूप प्रकट हो गया।

पाँच भयङ्कर असुरों के निष्प्राण शरीर देखकर सभी उपस्थित अत्यन्त आश्चर्यपूर्वक कहने लगे- ‘इस बालक के द्वारा थोड़े से चावल फेंके जाने पर ही इन भयङ्कर राक्षसों का मर जाना, अवश्य ही सामान्य बात नहीं है।

तब यह बालक किसी विशिष्ट शक्ति से सम्पन्न तो है ही।’

देवगण, ऋषि-मुनि आदि ने उन्हें परात्पर परमेश्वर का अवतार मानते हुए उनपर पुष्प वर्षा की और सभी उनके जन्म-कर्म का गुणगान करने लगे।

उसके बाद महोत्कट भगवान् को यज्ञोपवीत दिया गया।

महर्षि कश्यप ने स्वयं ही उन्हें गुरु-मन्त्र रूप में गायत्री मन्त्र दिया।

देवमाता अदिति ने सबसे पहिले अपने पुत्र को भिक्षा दी।

तदुपरान्त यहाँ उपस्थित अन्य स्त्री-पुरुषों ने अपने-अपने पदानुसार क्रमशः भिक्षा दी और साथ ही सदाचार का उपदेश दिया।

महोत्कट की प्राण-रक्षा होने के उपलक्ष्य में महर्षि ने पुनः ब्राह्मणों का पूजन किया तथा अनेक प्रकार के स्वर्णालङ्कार, वस्त्र, अन्न एवं गौओं आदि का दान किया।


देवताओं द्वारा अनेक प्रकार की वस्तुएँ प्रदान करना

तदुपरान्त महर्षि कश्यप ने सभी का आभार माना।

महर्षि वशिष्ठ ने बालक का हाथ स्नेहपूर्वक पकड़ा और आशीर्वाद दिलाने के लिए चतुरानन की सेवा में ले गए।

ब्रह्माजी ने इस प्रकार उपनीत बालक को आया देखा तो तुरन्त अपने कमण्डलु के जल से तीर्थ ग्रहण कर एक ऐसा कमल पुष्प प्रदान किया, जो सदैव खिला रहता था।

उस समय ब्रह्माजी ने बालक को ‘ब्रह्मणस्पति’ नाम दिया।

तदुपरान्त देवगुरु बृहस्पति जी ने बालक का पूजन कर उसका नाम, ‘भारभूति’ बताया।

अब कुबेर ने पूजन करके ‘सुरानन्द’ नाम रखा और अपनी गलमाल उतारकर पहनाई।

वरुण ने ‘सर्वप्रिय’ नाम देकर अपना पाश प्रदान किया।

तदुपरान्त भगवान् शङ्कर ने उसे ‘विरूपाक्ष’ कहकर त्रिशूल और डमरू दिया तथा ‘भालचन्द्र’ कहकर चन्द्रकला प्रदान की।

महर्षि परशुराम की माता रेणुका देवमाता अदिति की सखी थीं।

उन्होंने परशु देकर ‘परशुहस्त’ नाम दिया, फिर पूजन करके एक सिंह पर बैठाया और ‘सिंहवाहन’ नाम से सम्बोधित किया।

इसके पश्चात् रेणुकादेवी ने उपदेश दिया- ‘विनायक! तुम शीघ्र ही असुरों का मर्दन करो।’

उस उत्सव में समुद्र भी ब्राह्मण के वेश में आया था।

उसने बालक को मुक्तामाला देकर ‘मालाधर’ नाम प्रदान किया।

सभी नागों के अधिपति शेषनाग ने बालक के आसनार्थ अपनी देह अर्पित करते हुए, ‘फणिराजासन’ नाम से सम्बोधन किया।


इन्द्र का अहंकार-भंजन

अग्निदेव ने महोत्कट को अपनी दाहिका शक्ति देते हुए ‘धनञ्जय’ नाम दिया।

वासुदेव ने ‘प्रभञ्जन’ नाम से सम्बोधन कर अपनी प्रवाहिनी शक्ति प्रदान की।

इस प्रकार सभी ने अपनी-अपनी सामर्थ्यानुसार बालक को श्रेष्ठ से श्रेष्ठ वस्तुएँ भेंट कीं और उपयुक्त नाम दिया।

किन्तु इन्द्र ने सोचा कि ‘मैं तो समस्त देवताओं का अधीश्वर हूँ, मेरे समक्ष तो सभी मस्तक झुकाते हैं, इसलिए इस छोटे से बालक के समक्ष मुझे मस्तक क्यों झुकाना चाहिए?’

ऐसा तर्क कर इन्द्र ने बालरूप भगवान् को प्रणाम नहीं किया।

महर्षि कश्यप ने इन्द्र की बात जानी तो वे बोले- ‘पुत्र! इस बालक के रूप में कोई अवतारी पुरुष ही प्रकट हुए हैं, इसलिए ऐसी विभूति को छोटा मानकर असम्मान नहीं करना चाहिए।

देखो, इस छोटे से बालक ने अब तक अनेक अद्भुत कर्म किये।

विरजा नाम की राक्षसी और शुक्र रूप असुरद्वय को इसने खेल-खेल में ही मार डाला।

सरोवर में भृगु शाप से मगर बना हुआ चित्र नामक गन्धर्व भी इसी का स्पर्श पाकर पुनः अपने लोक को गया।

हाहा, हूहू और तुम्बुरू नामक प्रसिद्ध गन्धर्वों ने इसी के शरीर में पञ्चदेवों के दर्शन किए थे और अब भी पाँच असुरों को इसने अक्षत फेंककर ही मार डाला।

इसलिए तुम्हें भी इसका सम्मान अवश्य करना चाहिए।’

परन्तु पुरन्दर तो राज्यहीन होकर भी अपने अहङ्कार को नहीं छोड़ सके।

उन्होंने ने कहा- ‘पिताजी! यद्यपि आपका कथन सत्य ही होगा, फिर भी मैंने स्वयं ऐसा कुछ भी प्रत्यक्ष नहीं देखा-जिससे मैं इसे सम्मान के योग्य मान सकूँ।’

इन्द्र इतना कह चुके थे कि तभी महोत्कट के इङ्गित पर प्रलय काल के समान प्रचण्ड झंझावात चल पड़ा।

बड़े-बड़े वृक्ष और गिरि-खण्ड टूट-टूटकर गिरने लगे।

धरती कम्पित होकर डोलने लगी।

भयङ्कर विनाश उपस्थित था, सर्वत्र त्राहि-त्राहि की पुकार हो रही थी।

इन्द्र ने घबराकर महोत्कट की ओर दृष्टि उठाई तो इनके नेत्रों से अग्नि की लपटें

निकलती दिखाई दीं।

उस समय उनका शरीर बहुत विस्तृत हो गया था।

हजारों से अधिक मस्तक, नेत्र, नाक, कान, हाथ और चरण थे।

प्रमुख नेत्रों का स्थान सूर्य और चन्द्रमा ने ले रखा था तथा रोम-रोम में अनन्त ब्रह्माण्ड समाये हुए थे।

इन्द्र ने महोत्कट के शरीर में विराट् रूप के दर्शन किये।

अब वे भय से व्याकुल होकर उनकी स्तुति करने और अपने अपराध की क्षमा माँगने लगे।

तब वह भयङ्कर रूप छिप गया और शान्त बालक के रूप में महोत्कट के दर्शन हुए।

सभी उपस्थित जन उनका जय घोष करने लगे।

इन्द्र ने अपना अंकुर और कल्पवृक्ष भेंट कर ‘विनायक’ नाम से उन्हें भक्तिपूर्वक सम्बोधन किया।

तदुपरान्त सभी लोग अपने-अपने स्थानों को प्रस्थित हुए।


विद्या का अध्ययन तथा शूरता

अब महोत्कट कां विद्याध्ययन आरम्भ हुआ।

वस्तुतः वे स्वयं ही सभी विद्याओं के आश्रय-स्थान थे, इसलिए कोई भी विद्या उनसे भिन्न हो, यह सम्भव नहीं, तो भी लोकाचार की दृष्टि से उन्होंने शिक्षा ग्रहण में रुचि ली तथा थोड़े ही समय में समस्त वेद-वेदांग, व्याकरण, गणित, ज्योतिष एवं धनुर्विद्या आदि में निष्णात हो गये।

कोई भी विद्या ऐसी नहीं थी, जो उन्होंने प्राप्त न की हो।

महोत्कट की शास्त्रीय सिद्धान्तों पर जो बुद्धि थी, उसपर सभी विद्वानों को आश्चर्य होता था।

उनके द्वारा की गई व्याख्या को सुनकर सभी आश्चर्यचकित रह जाते।

इससे सभी को यह विश्वास हो रहा था कि साक्षात् भगवान् के बिना इतनी अल्प आयु में अन्य कौन ऐसा धुरन्धर हो सकता है?

अभी बालक ने सातवें वर्ष में ही प्रवेश किया था कि सभी विद्याओं में पूर्ण पारंगत होकर पिता के कार्यों में सहायक होते थे।

कभी-कभी भुजाओं में अंकुश, परशु और पद्म धारण कर सिंह पर सवार हो जाते।

उस समय उनका रूप बहुत शोभायमान, किन्तु भयानक भी लगता।

जब वे सिर पर मुकुट, कानों में कुण्डल, ललाट में कस्तूरी का तिलक और चन्द्रकला, गले में मोतियों की माला एवं नाभि पर शेषनाग को धारण करके घूमते थे, तब उनकी शोभा की तुलना अन्य किसी से भी नहीं की जा सकती थी।

जब अपने वीरवेश में सजकर और सिंह पर सवार होकर घोर गर्जन करते, तब धरती-आकाश भी काँप उठते।

किसी बली से बली राक्षस का भी साहस नहीं होता था कि उनके सामने आ सके।

इस कारण आश्रम के चारों ओर पूर्ण शान्ति का वातावरण बन गया और आश्रम में तो सदैव हर्षोल्लास का ही साम्राज्य छाया रहता।

उनकी इस प्रकार की सुचारु रक्षा-व्यवस्था देखकर महर्षि और उनकी पत्नी अदिति बहुत ही सुखी हुईं।

उन्होंने अपने को धन्य मानते हुए पूर्वजों की भी प्रशस्ति की, जिनके पुण्य फल से उन्हें ऐसे सर्वगुण सम्पन्न एवं सर्व समर्थ पुत्र की प्राप्ति हुई।

इस प्रकार सभी के लिए महोत्कट अत्यन्त आनन्द के देने वाले बने हुए थे।


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