गणेश पुराण – पंचम खण्ड – अध्याय – 2


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देवान्तक-नरान्तक द्वारा त्रैलोक्य विजय-प्रस्थान

इस प्रकार कुछ दिन माता-पिता को प्रसन्न करते हुए दोनों भाई सुखपूर्वक रहे।

तदुपरान्त एक दिन नरान्तक की सहमति से देवान्तक ने भक्तिपूर्वक ब्राह्मणों को भोजन कराया और पुष्कल दक्षिणा से सन्तुष्ट किया।

जब वे पूजित हुए ब्राह्मण आशीर्वाद देकर चले गये, तब देवान्तक ने नरान्तक से कहा- ‘बन्धुवर! अब हमें तीनों लोकों को अपने अधीन कर लेना चाहिए।’नरान्तक बोला- ‘अवश्य, हमें भगवान् शंकर के वरदान का लाभ उठाना चाहिए, अन्यथा तपस्या में किया गया घोर कष्ट व्यर्थ हो जायेगा।’

देवान्तक ने कहा- ‘तो तुम मर्त्यलोक और पाताललोक परआक्रमण कर उन्हें अपने अधीन करो।

मैं स्वर्गलोक में जाकर सब देवताओं को अपने अधीन किये लेता हूँ।’


देवान्तक का स्वर्ग पर आधिपत्य

बात निश्चित हो गई।

देवान्तक ने शुभ दिन-मुहूर्तादि देखकर स्वर्ग पर चढ़ाई कर दी।

उसने वहाँ पहुँचते ही नन्दनकानन को उजाड़ना आरम्भ कर दिया।

यह देखकर रक्षकों ने उसे रोका तो उसने उनको मार भगाया।

नन्दनकानन को नष्ट हुआ जानकर देवराज इन्द्र की सुर-सेना उनके समक्ष आई, उसे भी पराजित होकर भागना पड़ा।

भगवान् शंकर के वरदान से प्रबल हुए देवान्तक के समक्ष सुरेन्द्र भी न टिक सके।

बहुत प्रयत्न-पूर्वक युद्ध करने पर भी जब उनको अपनी विजय न दिखाई दी तो अपना खण्डित वज्र लिये वे भी प्राण बचाकर भाग खड़े हुए।

सभी देवता स्वर्ग से भागकर सुमेरु पर्वत की गुफाओं में जा छिपे और कन्द-मूल के आहार पर सन्तोष करते हुए दुःखपूर्वक जीवन-यापन करने लगे।

देवान्तक की अमरावती पर विजय हुई सुनकर अनेकों असुर वहाँ जा पहुँचे।

जिन देवताओं ने अधीनता स्वीकार कर ली थी वे भी वहीं रह गए।

सभी ने देवान्तक से धन और अलंकार पाकर उसे स्वर्ग का राजा बना दिया।

अनेक तीर्थों से जल लाये गये और ऋषियों ने मन्त्रपाठ-पूर्वक स्वर्ग के राज्यपद पर उसका अभिषेक किया।

उस समय सुखद सुमधुर वाद्य बज रहे थे।


नरान्तक की विजय मर्त्यलोक और पाताल पर

इधर नरान्तक ने भी अपने भाई का अनुसरण किया।

उसने बहुत-सी असुर-सेना एकत्र कर मर्त्यलोक में विद्यमान राज्यों पर आक्रमण कर दिया।

उनके अधिपतियों ने उस भारी सेना को देखा तो कुछ ने विनाश से बचने के लिए सन्धि कर ली और कुछ ने सम्मुख आकर युद्ध किया।

परन्तु नरान्तक के सामने कोई नहीं ठहर सकता था।

वह शिव जी द्वारा प्राप्त वर से प्रबल हो रहा था, इसलिए बहुतों को उसने मार डाला और बहुतों को पराजित कर अधीन बना लिया।

बहुत से स्वाभिमानी राजा राज्य छोड़कर पहिले ही पलायन कर गये।

इस प्रकार नरान्तक ने समुद्र- पर्यन्त समस्त भूमण्डल पर विजय प्राप्त कर ली।

उसने यज्ञादि कर्म बन्द कर देने की घोषणा की, जिससे क्षुब्ध हुए अनेकों ऋषि-मुनियों ने अपने-अपने स्थान छोड़कर गिरि-गुहाओं में अपना स्थान बनाया।

प्रजावर्ग में भी धर्म-कर्म के निषेध से आतंक फैलने लगा, किन्तु भगवान् की इच्छा प्रबल जानकर सभी मौन थे।

पृथिवी-मण्डल पर विजय प्राप्त करने के बाद उसने पाताल-लोक को अधीन करने की योजना बनाई और असुरों की असंख्य सेनाएँ एकत्र कर वह नागलोक की ओर चल पड़ा।


नरान्तक द्वारा नागलोक की पराजय वर्णन

मायावी असुरों की कुछ सेनाएँ गरुड़ों का रूप धारण कर नागलोक के द्वार पर जा पहुँर्ची।

उनके प्रतिकारार्थ नागों के दल-के-दल नगर से बाहर निकलने लगे।

परन्तु धूर्त असुरों ने उन्हें युद्ध का अवसर दिये बिना ही मारना आरम्भ कर दिया।

इस प्रकार असंख्य नाग वीर मारे गये।

बाद में नागों ने भी एकत्र होकर सामना किया, किन्तु वे असुरों के समक्ष अधिक न ठहर सके।

न जाने कितने प्रमुख नागों को अपने प्राण गँवाने पड़े।

जो शेष रहे, उनके समक्ष भागने के अतिरिक्त अन्य कोई उपाय ही नहीं था।

इस प्रकार समस्त नागलोक संत्रस्त हो उठा, नाग-वनिताएँ करुण- लन्दन करने लगीं।

प्रमुख नागों में परस्पर मन्त्रणा आरम्भ हुई और अन्त में निश्चय हुआ कि असुरों से सन्धि कर ली जाये।

इस प्रकार विवश हुए नागों ने नरान्तक के समक्ष आत्म-समर्पण करके उसकी अधीनता स्वीकार कर ली।

नरान्तक ने फिर भी वहाँ का आधिपत्य नागों के पास ही रहने दिया।

उनके एक प्रबल असुर को वहाँ का शासना धिकारी एवं सर्वेसर्वा नियुक्त किया, जिसने कुटिलतापूर्वक नागलोक में यह घोषणा की कि – \”अब यहाँ असुरों का शासन है।

कोई भी नाग शान्ति भङ्ग न करे, अन्यथा समस्त नागजाति को दण्ड भोगना होगा।\” इस प्रकार पृथ्वी और पाताल दोनों लोक नरान्तक के अधीन हो गए।

यह समाचार देवान्तक ने सुना तो उसे बड़ी प्रसन्नता हुई।

भगवान् शङ्कर की कृपा से दोनों भाई तीनों लोकों के अधिपति बन गए।

अब उन्हें किसी भी प्रकार का भय नहीं था।

स्वर्ग से पृथ्वी की और पृथ्वी से स्वर्ग की विभिन्न दुर्लभ वस्तुओं का आयात-निर्यात होने लगा।

दोनों भाई परस्पर इस प्रकार विभिन्न वस्तुओं का आदान-प्रदान करने लगे।

धरती पर दिव्य वस्तुओं की और स्वर्ग में भौतिक वस्तुओं की कमी नहीं रही।

परन्तु उनका उपभोग उन दोनों भाइयों तक ही सीमित था।

इस प्रकार इन बन्धुद्वय का तीनों पर एकच्छत्र राज्य था।

इस कारण देवता, मनुष्य, ऋषि-मुनि आदि सभी बहुत कष्टपूर्वक जीवन व्यतीत करने लगे।

इसके फलस्वरूप सर्वत्र अशांति का साम्राज्य छाया हुआ था।


अदिति द्वारा घोर तपश्चर्या का प्रारम्भ

ब्रह्माजी के मानसपुत्र महात्मा कश्यप जी त्रिकालज्ञ, तपस्वी, ज्ञानी, पुण्यात्मा, सत्येन्द्रिय एवं अत्यन्त बुद्धिमान् थे।

समस्त निगमागम शास्त्र के ज्ञाता और मनोनिग्रही होने के कारण उनमें अद्वितीय सामर्थ्य विद्यमान थी।

उसकी पत्नी अदिति परम सुशील होने के कारण पति की अत्यन्त प्रियतमा थीं।

उनपर महर्षि की बहुत कृपा रहती थी।

देवराज इन्द्र एवं अन्य देवगण उन्हीं की कोख से उत्पन्न हुए थे।

इसलिए देवान्तक द्वारा पराभूत हुए देवताओं की उन्हें बड़ी चिन्ता थी।

उन्हें कुछ उपाय नहीं सूझता था कि उसका निराकरण किस प्रकार किया जाये।जब उन्हें कोई उपाय दिखाई न दिया तो वे सोचने लगीं कि क्यों न पतिदेव से ही इस सम्बन्ध में कुछ निवेदन किया जाये? यदि किसी प्रकार मैं भगवान् श्रीहरि को पुत्र रूप में प्राप्त कर सकूँ तो समस्त संकट का निवारण सहज में ही सम्भव है।

अदिति महर्षि के पास जाकर उनके चरणों में बैठ गईं।

उस समय तक महर्षि अग्निहोत्र-कार्य सम्पन्न कर चुके थे।

यज्ञ का सुगन्धित धुआँ वातावरण में फैलता हुआ आकाश तक जा पहुँचा था।

महर्षि ने अदिति को देखा तो स्नेहपूर्वक बोले- ‘प्रियतमे! क्या कामना लेकर आई हो?’

अदिति बोलीं- ‘स्वामिन्! साध्वी नारियों की गति तो पति ही है।

मैं कुछ प्रार्थना करने के लिए ही इस समय सेवा में उपस्थित हुई हूँ।’

महर्षि बोले- ‘कल्याणि! तुम क्या चाहती हो, वह संकोच छोड़कर स्पष्ट कहो।’

अदिति ने कहा- ‘प्राणनाथ! इन्द्रादि प्रतापी देवताओं को तो मैं पुत्र रूप में प्राप्त कर चुकी हूँ, किन्तु मेरे मन में सच्चिदानन्द परात्पर प्रभु को अपने पुत्र रूप में प्राप्त करने की अभिलाषा हो रही है।

जिस प्रकार उन्हें पुत्र रूप में पाकर मैं उनकी सेवा कर सकूँ, वह उपाय बताकर मुझे अनुगृहीत कीजिए।’

महर्षि कश्यप ने कुछ विचार कर कहा- ‘प्रियतमे! वे परब्रह्म प्रभु तो ब्रह्मादि देवताओं एवं श्रुतियों के लिए भी अगम्य हैं।

वे माया से परे एवं माया का विस्तार करने वाले निर्गुण एवं निराकार परमात्मा बिना कठिन तपस्या के साकार-विग्रह रूप में कदापि प्राप्त नहीं हो सकते।’

महर्षि की बात सुनकर अदिति के मन में आशा का संचार हुआ।

उन्होंने उल्लासपूर्वक पूछा- ‘नाथ! मुझे वह पवित्रतम अनुष्ठान की विधि का निर्देश कीजिए।

उसमें किसका ध्यान और कौन से मन्त्र का जप करना होगा?’

पत्नी की अत्यन्त जिज्ञासा देखकर महर्षि ने उन्हें भगवान् विनायक का ध्यान, मन्त्र एवं न्यास सहित पुरश्चरण की पूर्ण विधि का निर्देश दिया और कहा- ‘साध्वि! एकाग्रचित्त से भगवान् विनायक की उपासना करने पर तुम्हारा अभीष्ट सिद्ध हो सकता है।’

पति का निर्देश सुनकर अदिति ने प्रसन्न मन से उनका पूजन किया और फिर उनकी आज्ञा लेकर कठोर तपश्चर्या करने के लिए एकान्त वन-प्रदेश में जा पहुँचीं।

वहाँ एक जलाशय में स्नान करके उन्होंने पवित्र वस्त्र पहने तथा शुद्ध सुखद आसन पर बैठकर विधि पूर्वक न्यासादि के

सहित पूजन कर मन और इन्द्रियों को वशीभूत कर लिया तथा भगवान् विनायक के मन्त्र का जप और ध्यान करने लगीं।

इस प्रकार देवमाता अदिति घोर तपश्चर्यारत थीं।

उन्होंने आहार त्याग दिया, केवल पानी पर ही निर्भर रहीं।

फिर पानी भी त्याग कर वायु के सहारे ही जीवन धारण किए हुए भगवान् विनायक का ध्यान और जप करती रहीं।

इस प्रकार तप करते हुए दिव्य सौ वर्ष व्यतीत हो गए।

उनके उस घोर तप से उनके पुत्रगण देवता भी भयभीत हो गए।

उनकी समझ में न आता था कि माता अदि ति किस कामना से ऐसा कर रही हैं?


माता अदिति को विनायक के दर्शन

इधर भगवान् विनायक माता अदिति की घोर तपश्चर्या देखकर द्रवित हो गए।

वे तुरन्त ही उनके समक्ष प्रकट हो गए।

उस समय उनका अद्भुत रूप था-

तेजोराशिः वपुस्तस्य सूर्यकोटिसमप्रभः।
गजाननो दशभुजः कुण्डलाभ्यां विराजितः॥१॥

कामातिसुन्दरतनुः सिद्धिबुद्धि-समायुतः।
मुक्तामालां च परशुं विभ्रद्यो मेघपुष्पजम्॥२॥

काञ्चनं कटिसूत्रं च तिलकं मृगनाभिजम्।
उरगं नाभिदेशे तु दिव्याम्बरविराजितम्॥३॥

करोड़ों सूर्यों की प्रभा के समान अत्यन्त तेजस्वी, कामदेव से भी अधिक सुन्दर शरीर, दश भुजाओं और कानों में विशिष्ट प्रकार के कुण्डलों से सुशोभित, अपनी दोनों पत्नियों-सिद्धि और ऋद्धि के सहित, कण्ठ में मोतियों की माला, हाथों में कमल और परशु लिये हुए, कमर में सोने का कटिसूत्र, मस्तक पर कस्तूरीयुक्त तिलक और नाभिदेश में सर्प धारण किए हुए तथा दिव्याम्बर से सुशोभित थे।

परन्तु भगवान् विनायक का परशुयुक्त दशभुजी रूप देखकर माता अदिति भयभीत हो गईं।

उनके नेत्र बन्द हो गए, शरीर कम्पायमान हुआ तथा वे मूच्छित होकर गिर गयीं।

विनायकदेव ने अदिति की यह दशा देखी तो मधुर स्वरों में आश्वस्त करने लगे- ‘तपस्विनी! मैं वही हूँ, जिसका ध्यान तुम दिन-रात्रि करती रहती हो।

उठो! उठो! मैं तुम्हारी कठोर तपश्चर्या से प्रसन्न होकर वर देने के लिए आया हूँ।’

अदिति को कुछ सान्त्वना मिली, तो उनकी मूर्च्छा दूर हो गई।

तभी उनके कानों में यह अमृतवाणी निनादित हुई- ‘उठो देवमाता! अपना अभीष्ट वर माँग लो मुझसे।

मैं साक्षात् रूप में तुम्हारे समक्ष खड़ा हूँ।’


देवमाता अदिति को वर-प्राप्ति वर्णन

अदिति तुरन्त उठ पड़ीं।

उन्होंने चरणों में प्रणाम करते हुए निवेदन किया- ‘प्रभो! आप जगत् के रचयिता, पालन कर्ता और संहारक हैं।

नित्य, निरंजन, निर्गुण, निरंकार, ज्योतिस्वरूप, नाना प्रकार के रूप धारण करने में समर्थ, सर्वप्रदाता एवं सर्वेश्वर हैं।

हे देवेश! यदि आप सन्तुष्ट हैं और मेरी कामना पूर्ण करना चाहते हैं तो मेरे पुत्र रूप में प्रकट होने की कृपा कीजिए।

हे प्रभो! मेरी कामना है कि आप मुझे इस प्रकार कृतार्थ करके दुष्टों का संहार और साधुजनों का परित्राण करें, जिससे सभी जन-साधारण को कृतकृत्यता की प्राप्ति हो सके।’

भगवान् विनायक ने अदिति को तुरन्त ही वर दिया- ‘तुम्हारी कामना पूर्ण होगी।

मैं तुम्हारे पुत्र रूप से प्रकट होकर साधुजनों की रक्षा और दुष्टों का विनाश करूँगा।

इस प्रकार तुम्हारी इच्छा पूर्ण हो जायेगी।’

माता अदिति धन्य हो गईं।

उनको प्रणाम करते-करते भगवान् विनायकदेव अन्तर्धान हो गए।

अदिति भी अपने पतिदेव की सेवा में उपस्थित हुईं।

उन्होंने महर्षि के चरणारविन्द में प्रणाम करके भगवान् विनायकदेव के दर्शन और उनसे वर-प्राप्ति का वृत्तान्त कहा, जिसे सुनकर महर्षि आनन्द-विभोर हो गये।


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