गणेश पुराण – अष्टम खण्ड – अध्याय – 8


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गणेश पुराण खण्ड लिंक - प्रथम (1) | द्वितीय (2) | तृतीय (3) | चतुर्थ (4) | पंचम (5) | षष्ठ (6) | सप्तम (7) | अष्टम (8)


धूमवर्ण अवतार उपाख्यान

सूतजी बोले- ‘हे मुने! मैंने तुम्हें भगवान् विघ्नराज का श्रेष्ठ वृत्तान्त सुना दिया है।

अब तुम्हें उनके धूम्रवर्ण स्वरूप का उपाख्यान सुनाऊँगा।

तुम ध्यानपूर्वक सुनो-

“धूम्रवर्णावतारश्चाभिमानासुरनाशकः
आखुवाहनश्चासौ शिवात्मा तु स उच्यते॥”

‘हे शौनक! श्रीगणेशजी का ‘धूम्रवर्ण’ नामक जो अवतार हुआ, उसके द्वारा अभिमान नामक असुर का नाश हुआ था।

वे प्रभु शिव ब्रह्म स्वरूप एवं मूषकवाहन कहे जाते हैं।

इनका उपाख्यान इस प्रकार है कि प्राचीन काल में लोकपितामह चतुरानन ने भगवान् भास्कर को कर्मराज्य का अधीश्वर बना दिया था और उस अत्यन्त महिमायुक्त पद के प्राप्त होने पर सूर्यदेव ने सोचा कि संसार में मेरे समान महिमा वाला कोई नहीं है।

उन्होंने पुनः सोचा- ‘कर्म के प्रभाव से चतुरानन सृष्टि रचते, उसी से भगवान् श्रीहरि संसार का पालन करते तथा उसी से शिवजी संसार-कार्य में समर्थ होते हैं।

शक्ति भी शिव का पालन-पोषण कर्म के बल पर ही करती है।

इस प्रकार सभी अपने-अपने कर्म के अधीन हैं और मैं समस्त कर्मों का संचालन करने वाला देवता हूँ, इससे स्पष्ट है कि सभी मेरे अधीन हैं।


भास्कर के अहं से अहंतासुर की उत्पत्ति

इस प्रकार अहंकारपूर्वक विचार करते-करते सहसा उन्हें छींक आ गई, जिससे एक सुन्दर पुरुष की उत्पत्ति हुई।

वह महाकाय और महाबली था, उसके नेत्र भी बहुत विशाल थे।

वह पुरुष दैत्यगुरु शुक्राचार्य के पास गया और प्रणाम कर एक ओर खड़ा हो गया।

दैत्यगुरु ने उसे देखकर पूछा- ‘तू कौन है? यहाँ किस प्रयोजन से उपस्थित हुआ है? सभी बात विस्तारपूर्वक मुझे बता।’

वह पुरुष विनयपूर्वक बोला- ‘प्रभो! भगवान् भास्कर कुछ विचार कर रहे थे, तभी उन्हें छींक आ गई।

मैं उसी छींक से उत्पन्न हुआ हूँ।

इस प्रकार इस पृथ्वी पर तो अनाथ और आश्रयहीन ही हूँ।

आपकी कीर्ति सुनकर ही यहाँ आया हूँ और आपके अधीन रहता हुआ आपकी आज्ञा पालन करता रहूँ, ऐसा मेरा विचार है।’

शुक्राचार्य ने कुछ देर ध्यानावस्थित रहने के पश्चात् कहा, ‘तुम्हारी उत्पत्ति सूर्य के अहंकार से हुई है।

इस कारण तुम्हारा नाम अहं एवं अभिमान होगा।

तुम गणेश के षोड़शाक्षरी मन्त्र ‘ॐ गं गौं गणपतये विघ्नविनाशिने स्वाहा’ के जपानुष्ठानपूर्वक उन्हीं भगवान् गजानन को प्रसन्न करो।’

अभिमान ने उनकी आज्ञा सुनकर प्रणाम किया और अनुष्ठान की विधि सीखकर चला गया और वहाँ स्नानादि से निवृत्त होकर अनुष्ठान करने लगा।

उसने एक हजार दिव्य वर्ष तक श्रीगणराज का ध्यान करते हुए कठिन तपश्चर्या की।

मूषकवाहन गणाध्यक्ष प्रसन्न हो गए।

अभिमान ने देखा कि भगवान् प्रकट हो गए हैं।

उनका गजेन्द्र के समान मुख, एक दाँत, तीन नेत्र, शूर्प जैसे कान एवं विशाल उदर हैं।

वे चतुर्भुज स्वरूप प्रभु अपने कर-कमलों में पाशादि आयुध धारण किए हुए हैं।

उनके अद्भुत रूप के दर्शन करके अभिमान हर्ष-विभोर हो गया।

उसने तुरन्त ही उन मंगलों के भी मंगल वरदराज को भक्तिभाव से प्रणाम किया और फिर उनका पूजन कर स्तवन करने लगा।

इससे सन्तुष्ट हुए भगवान् गजानन ने कहा- ‘हे सुव्रत! मैं प्रसन्न हूँ, वर माँगो।’

अभिमान ने करबद्ध निवेदन किया ‘प्रभो! यदि आप प्रसन्न हैं तो मुझे अपनी भक्ति प्रदान कीजिए।

आपकी कृपा से मेरी सभी अभिलाषाएँ पूर्ण हो जायें तथा आरोग्य, विजय और समस्त विश्व का साम्राज्य प्रदान कीजिए।

हे नाथ! मैं माया से किसी भी प्रकार से मृत्यु को प्राप्त न होऊँ।’

‘ऐसा ही हो’ कहकर भगवान् वरदराज अन्तर्हित हो गए।

अभिमान भी प्रसन्न होता हुआ दैत्यगुरु के समीप पहुँचा और उन्हें प्रणाम कर वर-प्राप्ति का सम्वाद उन्हें सुनाया।

तब शुक्राचार्य ने अनेक मुख्य असुरों को बुलाकर उसके वरदराज के वर के प्रबल होने की बात बताई और उनकी सहमति से अभिमान को दैत्येश्वर के पद पर अभिषिक्त कर दिया।

अब अहमासुर प्रबल प्रतापी राजा बन गया था।

प्रमदासुर नामक एक दैत्यश्रेष्ठ ने उसके साथ अपनी कन्या का विवाह कर दिया, जिससे गर्व और श्रेष्ठ नामक दो पुत्र उत्पन्न हुए।

कुछ दिनों बाद उसने प्रमदासुर की प्रेरणा पर अपना विजय-अभिमान आरम्भ किया।

उसने शीघ्र ही पृथ्वी, पाताल और स्वर्ग पर विजय प्राप्त की।

अब वह समस्त ब्रह्माण्ड का अधीश्वर बनकर अपना निरंकुश शासन चलाने लगा।


अधर्मधारक असुर का परामर्श करना

एक दिन अधर्मधारक नामक असुर ने उसकी सभा में जाकर कहा- ‘असुरेश्वर! आपने समस्त विश्व को अपने वश में कर लिया और पूरे ब्रह्माण्ड पर एकछत्र राज्य करते हो, किन्तु गिरि-गुहाओं और भयंकर अरण्यों में छिपकर रहते हुए देवता असुरों के समूल उन्मूलन के लिए निरन्तर प्रयत्नशील हैं और वे हमारे छिद्र की ताक में रहते हैं।

यदि उन्हें अवसर मिला तो वे हमारा संहार करने में पीछे नहीं रहेंगे।

इसलिए जहाँ तक सम्भव हो, उनका अस्तित्व समाप्त कर देना चाहिए।

वे सब यज्ञादि कर्मों द्वारा पोषण प्राप्त करते हैं, इसलिए उन कर्मों की समाप्ति बहुत आवश्यक है।’

अहंतासुर ने उसकी बात मान ली और यज्ञादि कर्म नष्ट करने का आदेश दे दिया।

इस कारण असुरों ने उन समस्त कर्मों का खण्डन आरम्भ कर दिया तथा देवताओं की खोज के उद्देश्य से वनों और पर्वतों को भी नष्ट करने लगे तथा-

\”सर्वत्राहं प्रतिमाश्च स्थापिता भूमिमण्डले।

पूजका राक्षसास्तत्र कृतास्तेन सुपापिना॥\”

जहाँ-जहाँ गणेश जी की प्रतिमाएँ स्थापित थीं उन-उन देवालयों से वे प्रतिमाएँ फिकवा दी गईं और उनके स्थान पर उस अहंतासुर ने अपनी प्रतिमाएँ स्थापित करा दीं।

उनके पुजारी पद पर भी अहंतासुर के परम भक्त नियुक्त किए गए।

इस प्रकार ममतासुर की उपासना प्रचलित हो गई।इधर देवता बहुत दुःखी हो रहे थे।

वे विचार-विमर्श के लिए एकत्रित हुए।

उन्होंने निश्चय किया कि करुणामूर्ति गजानन को प्रसन्न करने के लिए एकाक्षरी मन्त्र का आश्रय लिया जाये।

तब वे सब विधिपूर्वक भगवान् गणेश्वर की उपासना करने लगे।

इससे सन्तुष्ट होकर उन्होंने दर्शन दिए।

देवताओं ने स्तवन आदि करने के पश्चात् निवेदन किया- ‘हे प्रभो! हम आपके परम भक्त इस समय अहंतासुर के भय से घोर संकट में पड़े हुए हैं, अतएव आप हमारी रक्षा करने की कृपा कीजिए।’

भगवान् धूम्रवर्ण ने उन्हें आश्वासन दिया- ‘हे देवताओ! मैं तुम्हारे समस्त संकट शीघ्र ही दूर करूँगा।’

ऐसा कहकर अन्तर्धान हो गए।

तब प्रसन्न हुए देवगण उन्हीं का ध्यान एवं यश-गानादि करते हुए समय की प्रतीक्षा करने लगे।

रात्रि में भगवान् गणेश्वर ने अपनी क्रोधपूर्ण मुद्रा में अहंतासुर को दर्शन दिया, जिससे दैत्यराज काँप उठा।

उसने प्रातःकाल अपनी सभा में आकर असुरों से कहा- ‘मैंने स्वप्न में गणेश्वर को देखा था।

वे बड़े क्रोधित हो रहे थे।

उन्होंने हमारा नगर भस्म कर दिया और हमें पराजित भी कर दिया था।

मैंने देखा कि देवगण पुनः स्वच्छन्द विचरण कर रहे हैं।

यह स्वप्न कितना अशुभ और भयंकर है।’

दैत्यों ने उसे समझाया- ‘असुरेश्वर! आप तो प्रत्यक्ष वर के प्रभाव से भय रहित हैं।

स्वप्न तो मिथ्या होते हैं, उनमें प्राप्त किया हुआ धन मिलता नहीं और दिया हुआ धन जाता नहीं इसलिए स्वप्न के शुभाशुभ पर विचार व्यर्थ ही है।’

दैत्यराज मौन हो गया।

इधर देवर्षि नारद का आगमन हुआ तो उसने उनका बड़ा सत्कार किया।

उन्होंने उसे भगवान् धूम्रवर्ण का सन्देश दिया कि ‘तुम मेरे ही वर से प्रबल हुए हो, इसलिए मेरे प्रकोप से नष्ट भी हो जाओगे।

अतः शीघ्र ही समस्त अधर्म कार्यों का त्याग कर मेरी शरण में आ जाओ अन्यथा रणक्षेत्र में मैं तुम्हें जीवित नहीं छोडूंगा।’


अहंतासुर तथा धूम्रवर्ण का युद्ध

अहंतासुर उस संदेश को सुनकर क्रोधपूर्वक बोला- ‘मुनिवर! आप धूम्रवर्ण से कह दें कि हम किसी प्रकार से अशक्त नहीं हैं और इतना पराक्रम रखते हैं कि तुम्हारा भी वध कर डालें।’

नारदजी चले गए।

इधर अहंतासुर ने क्रोधपूर्वक देवताओं को खोज-खोजकर मारना आरम्भ कर दिया।

नारदजी ने भी भगवान् धूम्रवर्ण गणेश्वर को असुर की गर्वोक्ति सुना दी।

इससे देवताओं में और व्याकुलता फैल गई।

वे कातर स्वर में गणराज की प्रार्थना करने लगे।

भगवान् ने उन्हें आश्वासन दिया- ‘देवताओ! तुम चिन्ता न करो, मैं लीलापूर्वक ही उसका गर्व खण्डन किये देता हूँ।

तुम यहाँ बैठे रहकर मेरे कार्य का अवलोकन करो।’

यह सुनकर उन्होंने अपने अत्युग्र पाश का क्षेपण किया।

वह पाश तीव्रतापूर्वक असुरों की ओर दौड़ पड़ा।

उसे जहाँ जो कोई भी असुर मिला, उसी को उसने मार डाला।

वह पाश नगर, ग्राम, घर, तहखाने आदि में भी उसे रोकने में समर्थ नहीं था।

इससे असुरों की बस्तियाँ उजड़ गईं और समस्त दैत्य-राक्षस हाय-हाय करने लगे।

अहंतासुर उससे बहुत चिन्तित और व्याकुल हुआ।

उसके पुत्रों ने उसे सान्त्वना दी, ‘पिताजी! हमारे होते हुए आप क्यों चिन्ता कर रहे हैं? वह मायामय धूम्रवर्ण हमारा कुछ भी नहीं बिगाड़ सकता।

हम उसकी माया को आसुरी माया से शीघ्र ही नष्ट कर डालेंगे।

आप हमारा पराक्रम तो देखिए।’

इधर दैत्यराज उनके आश्वासन से शान्त हुआ और उधर उसके पुत्र विशाल असुरसेना के साथ गणेश्वर से युद्ध करने की इच्छा से नगर के बाहर निकले।

तभी उस तेजस्वी पाश ने वहाँ आकर सभी असुरों को भस्म कर दिया।

अहंतासुर के दोनों पुत्र भी उस पाश के तेज से दग्ध होकर परलोक चले गये।

अहंतासुर ने सुना तो वह समस्त दैत्यसेना के सहित रणक्षेत्र में आ गया।

पाश तो अब भी सक्रिय था ही।

वह उसकी सेना को रुई के ढेर के समान भस्म करने लगा।

इस प्रकार कुछ ही समय में उसकी समस्त दैत्य-वाहिनी नष्ट हो गई।

तब पाश अहंतासुर की ओर बढ़ने लगा, यह देखकर उसने शीघ्रतापूर्वक दूर भागकर अपने प्राण बचाये।


अहंतासुर का धूम्रवर्ण की शरण में जाना

फिर वह काँपता हुआ दैत्यगुरु की सेवा में जा पहुँचा और उन्हें प्रणाम कर बोला- ‘प्रभो! धूम्रवर्ण के मायापाश के समक्ष मेरी एक भी नहीं चली।

समस्त दैत्यसेना मारी गई और मैं बड़ी कठिनाई से ही बचकर यहाँ तक आ सका हूँ।

हे गुरुदेव! मुझे वह वरदान प्राप्त जो अमोघास्त्र थे, उनके निष्फल होने का क्या कारण है?’

शुक्राचार्य बोले- ‘मूर्ख! उन गणाध्यक्ष को तू भूल गया, जिन्होंने वर प्रदान कर प्रबल और अजेय बनाया था।

उन मायातीत प्रभु की इच्छा ही इतनी प्रबल है कि तीनों लोकों की समस्त क्रियाएँ उसी से चलती हैं।

देख, स्वर्ग के देवताओं, पृथ्वी के मनुष्यों और पाताल में असुरों और नागों आदि के निर्विघ्न जीवन-यापन की व्यवस्था भी उन्हीं की इच्छा से होती है।

तूने उनसे वर प्राप्त करके उन्हीं की व्यवस्था और इच्छा के कार्यों में व्यवधान उपस्थित कर दिया तथा देवताओं और मुनिगणों को बड़ा कष्ट पहुँचाया।

तेरे अत्याचार से समस्त प्राणी उत्पीड़ित हो रहे हैं।

अब तू तुरन्त ही उन्हीं परम प्रभु की शरण में जा, अन्यथा वे तेरा सर्वनाश कर डालेंगे।’

असुरेश्वर ने कहा- ‘प्रभो! उन्होंने अभी क्या छोड़ा है? बड़ा भीषण संहार कर डाला है उनके पाश ने।’

शुक्राचार्य उसे समझाते हुए बोले- ‘जो शेष बचा है, उसकी तो रक्षा हो जाएगी।

अन्यथा कुछ भी शेष न रहेगा।’

अंहतासुर शुक्राचार्य को प्रणाम कर धूम्रवर्ण की सेवा में उपस्थित हुआ और उनके चरणों में पड़कर रोने लगा।

उसकी दुर्दशा देखकर करुणामय प्रभु ने क्षमा कर दी।

उनकी इच्छा मात्र से पाश लौटकर उनके पास आ गया।

फिर उनकी स्तुति की।उसके स्तवन से सन्तुष्ट होकर भगवान् ने कहा- ‘महासुर! अब तू देवताओं के स्थान, धर्म-स्थान, यज्ञशाला, तीर्थ, मन्दिर आदि को तुरन्त छोड़ दे और जहाँ मेरे भक्त नहीं हैं, तथा जहाँ मेरी पूजा-उपासना नहीं होती वहाँ जाकर निवास कर।

मेरे भक्तों, देवताओं, ऋषि-मुनियों आदि की रक्षा करने का भार भी तुझे ग्रहण करना होगा।’

अहंतासुर ने उनके आदेश पालन का वचन दिया और पुनः उनकी स्तुति करने लगा।

फिर उनकी भक्ति प्राप्त करके तुरन्त चला गया।

यह देखकर सभी देवता अत्यन्त विस्मय करते हुए मंगलमय गणेशजी का पूजन और स्तवन करने लगे।

फिर गणेशजी को प्रणाम कर देवताओं ने उनका जयघोष किया और जब वे प्रभु अन्तर्धान हो गए तब हर्ष-विभोर होकर अपने-अपने स्थानों को गये।

सूतजी बोले- ‘हे शौनक! मंगलमय भगवान् गणेश्वर के धूम्रवर्ण अवतार का यह सुखदायक एवं पुण्यवर्द्धक उपाख्यान पूर्ण हुआ।

इसे जो भक्त परम भक्तिभावपूर्वक श्रवण करता है, वह सदैव ऐश्वर्य से सम्पन्न होता है।

इनके द्वारा भोग और मोक्ष की प्राप्ति होती है-

“भविष्यति च सौख्यस्य पठते शृण्वते पदम्।
भुक्तिमुक्तिप्रदं चैव पुत्रपौत्रादिकं तथा॥”


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