गणेश पुराण – अष्टम खण्ड – अध्याय – 4


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गजानन अवतार

सूतजी बोले- ‘हे शौनक! अब मैं भगवान् गणेश्वर के ‘गजाननावतार’ की कथा कहता हूँ।

तुम ध्यान से श्रवण करो-

“गजाननः स विज्ञेयः सांख्येभ्यः सिद्धिदायकः।
लोभासुरप्रहर्ता वै आखुगश्च प्रकीर्तितः॥”

‘हे शौनक! गणेशजी का जो अवतार ‘गजानन’ से जाना जाता है, वह सांख्य योगियों के लिए सिद्धि का देने वाला है।

क्योंकि वह सांख्य- ब्रह्म का धारक है।

उस अवतार में उन्होंने लोभासुर का विशेष रूप से संहार किया है।

उस अवतार को भी विद्वज्जन मूषकवाहन ही कहते हैं।

इस अवतार की कथा इस प्रकार है कि एक बार भगवान् शंकर के दर्शन की अभिलाषा से धनेश्वर कुबेर कैलास पर्वत पर गये थे।

उस समय जगद्वन्द्य शिवजी के पास ही जगज्जननी शिवा भी विराजमान थीं।

उनके उस रूप को धनपति कुबेर लुब्ध दृष्टि से देखने लगे।

यह देखकर शिवा को क्रोध आ गया और उन्होंने कुबेर को आग्नेय दृष्टि से देखा।

इससे अत्यन्त भय को प्राप्त हुए कुबेर से लोभ नामक एक भयंकर असुर की उत्पत्ति हुई, जो कि जन्म से अत्यन्त पराक्रमी और क्रूर था।

उसने कुबेर से पूछा- ‘मैं कहाँ जाकर रहूँ?’

कुबेर बोले- ‘तुम शुक्राचार्य के पास जाओ, वे ही तुम्हारी व्यवस्था करेंगे।

लोभासुर दैत्यगुरु शुक्राचार्य के पास जाकर उन्हें प्रणाम करता हुआ बोला- ‘ब्रह्मन्! मुझे धनेश्वर ने आपकी सेवा में आने को कहा है, मैं उनका पुत्र लोभ हूँ।

आप मुझपर कृपा कीजिए।’

आचार्य ने कहा- ‘वत्स! तुम भगवान् शंकर को प्रसन्न करने में पूर्ण समर्थ हो।

उन्हीं के द्वारा तुम्हारा भी कल्याण होगा।’

लोभासुर उन्हें प्रणाम करके निर्जन वन में गया और स्वच्छ जल में स्नान कर, शुद्ध वस्त्र पहिनकर शुक्राचार्य की बताई विधि से भस्म धारण की और भगवान् त्रिपुरारि के ध्यानपूर्वक पंचाक्षरी मन्त्र का जाप करने लगा।

इस प्रकार वह दीर्घकाल तक निराहार रहकर तपस्या करता रहा जिससे उसका शरीर बल्मीक हो गया।

जब उसकी घोर तपस्या पूर्ण हुई तो भगवान् शंकर ने साक्षात् प्रकट होकर कहा- ‘वत्स! वर माँगो।’

लोभासुर ने अत्यन्त भक्तिपूर्वक उन्हें प्रणाम किया और गद्गद कण्ठ से स्तुति करने के बाद बोला- ‘प्रभो! मुझे त्रिलोक जय में समर्थ और निर्भय बना दीजिए।’

शिवजी इच्छित वर देकर अन्तर्धान हो गए।

लोभासुर ने प्रसन्न मन से अपने अभ्युदय के प्रयत्न आरम्भ किए।

प्रमुख असुरों से मिलकर उन्हें अपने पक्ष में खड़ा किया और फिर दैत्यसेना एकत्र कर पृथ्वी जय के लिए चल पड़ा।

एक-एक करके उसने सभी राजाओं को परास्त कर धरती पर अपना साम्राज्य स्थापित कर लिया।


लोभासुर द्वारा राज्य-विस्तार वर्णन

इस बीच लोभासुर ने असुरों की विशाल सेना एकत्र कर ली थी।

अपनी अत्यन्त बढ़ी हुई शक्ति देखकर उसने देवलोक पर आक्रमण कर दिया।

भीषण युद्ध हुआ और स्वर्ग पर भी असुर की विजय हुई।

उसने स्वर्ग पर अधिकार कर वहाँ अपना एक अधिकारी नियुक्त कर दिया।

इन्द्र भागकर बैकुण्ठ पहुँचे।

उन्होंने लोभासुर की विजय और अपनी पराजय का समाचार सुनकर रमानाथ से उसे मारने की प्रार्थना की तो रमानाथ देवसेना के साथ असुर से युद्ध करने चल पड़े।

घोर युद्ध हुआ, किन्तु दैत्यराज को वर प्राप्त होने के कारण भगवान् श्रीहरि को भी उसके सामने से हटना पड़ा।अब तो असुर का साहस और भी बढ़ा।

उसने सोचा- ‘युद्धकाल में रुद्र अधिकतर चतुर हैं, इसलिए अपने इस उत्कर्ष काल में उन्हें भी वश में कर लेना चाहिए।’

ऐसा निश्चय कर उसने असुरों की विशाल वाहिनी के साथ कैलास पर आक्रमण कर दिया।

शिवजी को ध्यान आया कि ‘यह वही लोभासुर है जिसने मुझसे त्रैलोक्य-विजय का वर प्राप्त किया था।

इसलिए इससे युद्ध करने से कोई लाभ नहीं होगा।’

इतने में उनके पास असुर का एक दूत आया, उन्हें प्रणाम कर कहा- ‘उमानाथ! लोभासुर ने सन्देश दिया है कि आप कैलास छोड़कर कहीं अन्यत्र चले जायें, अथवा युद्ध करें।’

यह सुनकर उन्होंने कैलास छोड़ देना स्वीकार कर लिया और वे तुरन्त सुदूर वन-प्रान्त में चले गए।

अब लोभासुर पूर्ण रूप से स्वच्छन्द और निरंकुश था।

उसे किसी का किंचित् भय नहीं था।

उसने तीनों लोकों में यह आदेश प्रसारित करा दिया कि कोई जप, तप, यज्ञ, दान, पुण्य आदि कर्म न करे, अन्यथा दण्डित होगा।’

फलस्वरूप सर्वत्र छल-कपट, चोरी, अपहरण आदि की घटनाएँ होने लगी।

देव या ऋषि-मुनि और विप्रगण सभी बहुत दुःखित थे।

उन्होंने परस्पर में विचार किया कि असुर का वध किस प्रकार हो? तभी रैम्य मुनि ने कहा- ‘असुर को मारने के लिए भगवान् गजानन की कृपा प्राप्त होना बहुत आवश्यक है।

वे प्रभु उसे इच्छा मात्र से ही परास्त करने में समर्थ हैं।’


गजमुख का देवताओं को आश्वासन

सभी को उनका परामर्श बहुत हितकर प्रतीत हुआ और तब वे अत्यन्त भक्तिपूर्वक गजमुख की उपासना करने लगे।

उस समय उन्होंने विधिपूर्वक उनका षोड़शोपचार पूजन किया और मन्त्र जप पूर्वक तपश्चर्या में रत हो गये।

उनकी भक्ति देखकर भगंवान् गजानन ने कृपापूर्वक उन्हें अपना दर्शन दिया।

देवता आदि ने भगवान् को अपने समक्ष देखा तो सभी ने धरती में अपने-अपने मस्तक टेककर उन्हें प्रणाम किया और स्तवन के पश्चात् लोभासुर के अत्याचारों की बात सुनकर उनसे दया की प्रार्थना करने लगे।

भगवान् गजानन ने उन्हें आश्वासन दिया- ‘देवगण! मुनिगण! एवं ब्राह्मणो! घबराओ मत, मैं लोभासुर को हराकर तुम सबको सुख प्रदान करूँगा।’फिर उन्होंने शिवजी से कहा- ‘कामारि! आप लोभासुर के पास जाकर कह दीजिए कि देवता आदि के छीने राज्यों को लौटा दे तथा अधर्म का त्याग कर दे, अन्यथा संग्रामभूमि में मैं उसका वध कर डालूँगा।’

शिवजी लोभासुर के पास पहुँचे और उन्होंने उसे भगवान् गजानन का सन्देश यथावत् सुना दिया और परामर्श दिया कि उनकी आज्ञा पालन में ही उसकी भलाई है।

इसलिए तुरन्त उनकी शरण में चला जाय।

उस समय दैत्यगुरु शुक्राचार्य भी वहाँ उपस्थित थे।

उन्होंने भी भगवान् शंकर के परामर्श का अनुमोदन किया और उसे समझाया- ‘राजन्! श्रीगजानन समस्त लोकों के स्वामी, सभी प्राणियों के ईश्वर एवं समर्थ परात्पर ब्रह्म हैं।

वही परमेश्वर ब्रह्मा, विष्णु, महेश्वर के भी उत्पन्न कर्त्ता हैं, अथवा यह तीनों महान् देव उन्हीं के तीन रूप हैं, जिनका कार्य सर्ग, पालन और लय करना है।

इसलिए तुरन्त ही उनकी शरण में जाकर अपने जीवन को धन्य बना लो।’

‘लोभासुर समझ गया कि परम प्रभु गजानन भगवान् की शरण लेने में ही हमारा कल्याण है।’

इसलिए वह तुरन्त ही शिवजी के साथ उनकी शरण में गया और उनके चरणों में पड़कर अपने कुकृत्यों की क्षमा माँगने लगा।

यह देखकर भगवान् ने उन्हें क्षमा कर दिया।

समस्त देवता, ऋषि-मुनि एवं ब्राह्मणों के समाज उसके सुमार्ग पर आने से बहुत प्रसन्न हुए।

सर्वत्र भगवान् गजानन का जयजयकार गूंज उठा और संसार में सुख-शान्ति छा गयी।


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