गणेश पुराण – अष्टम खण्ड – अध्याय – 2


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एकदन्त अवतार

सूतजी बोले-‘हे शौनक! अब भगवान् गणेश्वर का एकदन्ताववार का उपाख्यान तुम्हें सुनाता हूँ –

“एकदन्तावतारो वै देहिनां ब्रह्मधारकः।
मदासुरस्य हन्ता स आखुवाहनगः स्मृतः॥”

‘एकदन्त’ संज्ञक अवतार देही ब्रह्म को धारण करने वाला और मदासुर का संहारक है।

हे शौनक! उसका वाहन मूषक कहा जाता है।

एक बार महर्षि च्यवन के प्रमाद से मद नामक असुर की उत्पत्ति हो गई।

उस असुर ने अपने जन्मदाता महर्षि के चरणों में प्रणाम कर पूछा- ‘प्रभो! मैं कहाँ रहूँ? क्या करूँ?’

महर्षि बोले- ‘वत्स! तू पाताल लोक में शुक्राचार्य के पास जा।

वे दैत्यगुरु तेरी सम्पूर्ण व्यवस्था करेंगे।

उनसे कहना कि महर्षि च्यवन ने मुझे आपकी सेवा में भेजा है।’

मदासुर पाताल में पहुँचकर शुक्राचार्य की सेवा में उपस्थित हुआ और प्रणाम कर बोला- ‘प्रभो! मैं आपके भाई महर्षि च्यवन का पुत्र हूँ, इस कारण आपके भी पुत्र के समान हूँ।

उन्होंने मेरा नाम मदासुर रखा है और आपका शिष्य बनने के लिए मुझे भेजा है।

हे नाथ! मैं समस्त ब्रह्माण्ड के राज्य की कामना करता हूँ।

आप मेरा अभीष्ट प्राप्त कराने का कष्ट करें।’

शुक्राचार्य बोले- ‘वत्स! मैं तुम्हारा अभीष्ट पूर्ण कराऊँगा।

तुम इस एकाक्षरी शक्ति मन्त्र ‘ह्रीं’ का अनुष्ठान करो।

यह कह उन्होंने अनुष्ठान की विधि बताई और मदासुर उन्हें प्रणाम करके घोर अरण्य में तप करने के लिए चला गया।

मदासुर ने वहाँ शक्ति का ध्यान और जप करते हुए घोर तपस्या की तथा हजारों वर्षों पर्यन्त निराहार और निर्जल रहा।

इससे उसका शरीर अस्थियों का अवशेष मात्र और बल्मीक से आवृत हो गया।

यहाँ तक कि उसके शरीर के चारों ओर वृक्ष एवं लताएँ उत्पन्न हो गईं।

अन्त में सिंहवाहिनी भगवती ने प्रसन्न होकर उसे दर्शन दिया तथा वह माता के दर्शन करते ही प्रसन्न होता हुआ विह्वल हृदय से उनके चरण कमलों में गिर पड़ा।

तदुपरान्त उसने भाव-विभोर होकर माता की स्तुति की- ‘हे जगज्जननि! आप ही इस संसार की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय करने वाली हैं।

आप सर्वसमर्था को भक्तों के लिए कुछ भी अदेय नहीं है।

माता! आपके दर्शन करके मैं धन्य हो गया हूँ।

आप मुझपर कृपा कीजिए।’

भगवती ने वर प्रदान किया- ‘वत्स! तू ब्रह्माण्ड का स्थिर एवं निष्कंटक राज्य प्राप्त करेगा।

तुझे कभी रोग नहीं सतायेगा और समय-समय पर तेरी इच्छाएँ पूर्ण होती रहेंगी।’

वर देकर देवी अन्तर्धान हो गईं।

मदासुर भी प्रसन्न मन से अपने स्थान पर लौटा तथा वहाँ जो नगर था उसे अपने अधिकार में करके उसे अत्यन्त वैभवशाली बनाया।

फिर उसने प्रमदासुर की अत्यन्त सुन्दरी ‘लालसा’ नाम की कन्या से विवाह किया।

उसकी वीरता और वैभव की बात सर्वत्र फैलने लगी।

दूर-दूर के बड़े-बड़े पराक्रमी असुर उससे मित्रता करने लगे।

बहुत से दैत्य तो वहाँ आकर ही बस गये।

फिर मदासुर दैत्यगुरु शुक्राचार्य को प्रार्थनापूर्वक वहाँ ले गया और उन्हें अपना राजपुरोहित बनाकर रखा।

शुक्राचार्य ने उसका दैत्यराज के पद पर अभिषेक कर दिया।


मदासुर द्वारा दिग्विजय करना

इस प्रकार मदासुर की शक्ति बढ़ने लगी।

उसके राज्य में दैत्यों की बहुलता थी, इसलिए धर्म-कर्म का अभाव हो गया।

उसके तीन पुत्र भी बड़े वीर प्रतापी हुए जिनके नाम विलासी, लोलुप और धनप्रिय थे।

अब उसने अपने राज्य का विस्तार आरम्भ किया सर्वप्रथम समस्त पृथ्वी को अधिकार में करने के लिए उसने राजाओं से युद्ध किया।

अनेक राजा उससे युद्ध कर मारे गए और अनेकों ने भयभीत होकर बिना युद्ध के ही उसकी अधीनता स्वीकार कर ली।

जो स्वाभिमानी थे, वे राज्य छोड़कर चले गए।

इस प्रकार पृथ्वी पर उसका पूर्ण साम्राज्य स्थापित हो गया।अब उसने स्वर्गलोक पर आक्रमण किया।

देवराज इन्द्र ने अपनी विशाल सेना के साथ उसे बाहर ही रोकने की चेष्टा की, किन्तु असुर भगवती के बल से प्रबल हो चुका था, इसलिए उसका तिरस्कार न किया जा सका।

फलस्वरूप देवताओं की पराजय हुई।

इन्द्र अपना राज्य छोड़कर भाग गये।

स्वर्ग पर मदासुर का पूर्ण अधिकार हो गया।

इसके पश्चात् उसने सोचा- ‘कैलास का वह परम योगी कहलाने वाला अद्भुत ही देवताओं का पक्षपाती है, इसलिए उसे भी वश में करना आवश्यक है।’

ऐसा निश्चय कर उसने अपनी विशाल वाहिनी के साथ आक्रमण कर दिया।

शिवगण उसका सामना करने में विफल रहे।

शूलपाणि त्रिलोचन का वश न चला तो वे भाग खड़े हुए।

अतएव कैलास को भी मदासुर ने शीघ्र ही अपने अधिकार में कर लिया।

इस प्रकार तीनों लोक तो उसके अधीन हो रहे थे।

यह विशिष्ट दिव्य लोक भी उसके शासनाधिकार में आ गये।

अब समूचे ब्रह्माण्ड पर मदासुर का शासन हो गया।

सर्वत्र अत्याचार, अनाचार का बोलबाला था।

धरती पर स्वाहा, स्वधा, वषट्‌कार आदि का लोप हो गया।

ईश्वर-पूजा निषिद्ध कर दी गई।

वेदोक्त धर्म का कहीं पता न था।

केवल मदासुर द्वारा निर्मित धर्म ही वैध एवं मान्य थे।

उनसे भिन्न धर्म का पालन करने वालों को अधिकतम दण्ड दिया जाता था।

उसके उत्पीड़न से घर त्यागकर भागे हुए देवगण वन-पर्वतों को मारे-मारे फिर रहे थे।

उन्हें उस विपत्ति से बचने का कोई उपाय समझ में नहीं आता था।

एक दिन वे महर्षि सनत्कुमार के पास पहुँचे और प्रणाम कर निवेदन किया- ‘प्रभो! मदासुर के अत्याचारों से संसार त्रस्त हो रहा है।

उसने स्वर्ग पर भी अधिकार कर लिया है।

हम सब उसके भय से वन-पार्वतों में छिपे-छिपे फिर रहे हैं, हे मुनिनाथ! हमपर दया करके वह उपाय बताइये जिससे राक्षसों का संहार हो सके।’

सनत्कुमार बोले- ‘देवताओ! यदि तुम भगवान् एकदन्त की उपासना करके उन्हें प्रसन्न कर लो तो निश्चय ही तुम्हारा मनोरथ पूर्ण हो सकता है।

वे भगवान् परम दयालु और सर्वशक्तिमान् हैं।’

देवताओं ने निवेदन किया- ‘प्रभो! उन भगवान् की प्रसन्नता का साधन क्या है? उनके रूप, मन्त्र, ध्यानादि के विषय में हमें पूर्ण रूप से बताने की कृपा कीजिए।’

महर्षि ने कहा-‘देवगण भगवान् एकदन्त परात्पर ब्रह्म गणेश्वर ही हैं, जो समस्त संसार के सर्ग, पालन और जय के एकमात्र कारण हैं।

उनका एकाक्षरी मन्त्र ‘गं’ है, जिसका जप करना चाहिए।

उनका एकदन्त नाम दो विशेषताओं से युक्त है, क्योंकि वह एक और दन्त दो पदों से बना है।

‘एक’ शब्द माया सूचक है।

वह माया देह रूपिणी और विलासवती है तथा ‘दन्त’ शब्द सत्तास्वरूप होने से परमात्मा का सूचक है।

वस्तुतः गणेशजी माया के धारक और स्वयं सत्तामात्र से स्थित रहते हैं।

इसलिए वेदवादी विद्वज्जन उन परमात्मा स्वरूप को ‘एकदन्त’ कहते हैं।

देवताओ! उन परात्पर ब्रह्म का ‘एकदन्त’ नाम का अर्थ हुआ अब उनके ध्यान का प्रकार सुनो-

“एकदन्तं चतुर्बाहुं गजवक्त्रं महोदरम्।
सिद्धि-बुद्धि-समायुक्तं मूषकारूढमेव व॥

नाभिशेषं पाशहस्तं परशुं कमलं शुभम्।
अभयं दधतं चैव प्रसन्नवदनाम्बुजम्।
भक्तेभ्यो वरदं नित्यमभक्तानां निषूदनम्॥”

उस गणेश्वर के एक दाँत, चार बाहुएँ हैं, मुख हाथी के समान और बड़ा है।

वे सदैव सिद्धि-बुद्धि से सम्पन्न और मूषक की स्वारी करने वाले हैं।

उनकी नाभि में शेषनाग और हाथों में पाश, परशु, सुन्दर कमल और अभय मुद्रा सुशोभित हैं।

उनका मुख-कमल सदैव प्रसन्नता से खिला हुआ रहता है।

वे भक्तों को सदा वर प्रदान करने वाले और अभक्तों का विनाश करने वाले हैं।’

इस प्रकार महर्षि देवताओं को उपदेश देकर मौन हो गये।

तब देवगण एकान्त वन-प्रान्त में जाकर भगवान् एकदन्त की उपासना करने लगे।

इस प्रकार तपस्या करते-करते उन्हें सौ दिव्य वर्ष व्यतीत हो गए।

भूखे-प्यासे रहने के कारण उनके शरीर सूखकर अस्थि-पंजर मात्र रह गये थे।

उनकी यह दशा एवं घोर तपश्चर्या देखकर भगवान् प्रसन्न हो गए।

उन्होंने दर्शन देकर कहा, ‘देवताओ! वर माँगो।’

भगवान् को अपने समक्ष साक्षात् प्रकट हुए देखकर अत्यन्त श्रद्धा-भक्तिपूर्वक प्रणाम किया और अनेक प्रकार से स्तुति करने लगे-‘हे सर्वेश्वर! हे प्रभो! मदासुर के अत्याचार बहुत बढ़ गये हैं।

उनके शासन में देवताओं के स्थान छीन लिये गए और मुनियों एवं ब्राह्मणों को समस्त कर्मकाण्ड से वंचित कर दिया गया है।

उसकी क्रूरता के कारण समस्त प्राणी त्रस्त हैं।

इसलिए आप कृपया सभी विघ्नों को दूर करने की कृपा करें।’

एकदन्त ने वर प्रदान किया- ‘देवताओ! तुम जो कहते हो वही होगा।

अब तुम निश्चित हो जाओ।’

यह सुनकर हर्षित हुए देवताओं ने उन्हें प्रणाम किया और सुरक्षित स्थान में एकत्र होने लगे।

उधर एक दिन देवर्षि नारद मदासुर के पास पहुँचे।

मदासुर ने उन्हें सम्मानपूर्वक आसन दिया और हाथ जोड़कर बोला- ‘कहिए देवर्षे! संसार में कोई नवीन बात हुई हो तो बताइए।’

नारदजी ने कहा- ‘राजन्! कोई विशेष बात तो नहीं है, केवल इतना ही कि देवताओं और ब्राह्मणों ने कठोर तपश्चर्या करके भगवान् एकदन्त को प्रसन्न कर लिया है, जिसके फलस्वरूप उन्हें तुमपर विजय प्राप्त करने का वर मिल गया है।

इससे प्रबल हुए वे देवता तुम्हास वध करने के लिए तत्पर हो रहे हैं।’

सुनते ही मदासुर तिलमिला उठा।

उसने नारदजी से पूछा- ‘मुनिवर! यह ‘एकदन्त’ कौन है? कहाँ रहता है? उसका कैसा स्वरूप है? यह सब बातें मुझे स्पष्ट रूप से बताइए।’

ऋषि वोले- ‘दैत्यराज! वे अत्यन्त बलवान् देवता हैं, उनका निवास त्रैलोक्य में सर्वत्र है।

वे चाहें जब, चाहे जहाँ प्रकट हो सकते हैं।

उनके एक दाँत, हाथी जैसा मुख एवं चार भुजाएँ हैं तथा वे मूषक पर सवार रहते हैं।’

नारदजी चले गए।

मदासुर ने अपने सेनाध्यक्ष को बुलाकर कहा- ‘विशाल सेना को सुसज्जित करो।

हमें शीघ्र ही उस ‘एकदन्त’ नामक जन्तु से युद्ध करने चलना है।’

असुरों की विशाल वाहिनी तैयार हुई।

उसमें हाथी, घोड़े, रथ, ऊँट आदि पर सवार दैत्यवीर एवं विकट पदाति थे।

आगे-आगे अनेक प्रकार के रण-वाद्य बज रहे थे।

सेना के चलने से ऐसी धूल उड़ रही थी कि दिशाएँ दिखाई ही नहीं दे रही थीं।

मार्ग चलते समय असुरों ने अनेक प्रकार के अपशकुन देखे, जिससे वे भयभीत होने लगे।

दैत्यसेना ‘एकदन्त’ की खोज में बिना निर्दिष्ट स्थान के इधर-उधर घूम रही थी।

तभी सहसा सबने देखा कि सामने एक महाकाय नर-कुंजर मूषक पर सवार चला आ रहा है।

उसके मुख में एक दाँत और चार भुजाओं में परशु, पाश आदि आयुध विद्यमान हैं।

उस विकट रूप को देखकर भयभीत असुर पुकार उठे-यह महाकाय एवं अत्यन्त भयानक नर-कुंजर कौन है, जिसका वाहन मूषक है? ऐसा तो कभी न देखा न सुना।

मदासुर को ध्यान आया- ‘नारदजी ने ऐसा ही रूप तो बताया था।

फिर भी पता करना चाहिए कि यह कौन है?’

उसकी आज्ञा सुनकर एक चतुर असुर दूत रूप में एकदन्त के पास जाकर बोला- ‘आप कौन हैं? कहाँ से आये हैं? इस प्रकार भ्रमण करने का आपका क्या प्रयोजन है?’

एकदन्त ने उपेक्षापूर्वक असुर-दूत की ओर देखा और बोले- ‘तुम कौन हो? कहाँ से आये और मुझसे क्या चाहते हो?’

यह कहते हुए उन्होंने सहज रूप से अपने परशु को कुछ सँभाला।

दूत इस भय से कि कहीं प्रहार न कर दें, कुछ पीछे हटा और हाथ जोड़कर प्रणाम करता हुआ बोला- ‘प्रभो! मैं तो दूत हूँ, इसलिए अवध्य भी।

हे नाथ! मुझे त्रिलोकीनाथ मदासुर ने आपकी सेवा में भेजा है।

वे आपके अद्भुत एवं अपूर्व रूप को देखकर विस्मित हो रहे हैं।

उक्त बातें वे जानना चाहते हैं, इसलिए कृपा कर उनकी शङ्का का निवारण कीजिए।’

भगवान् एकदन्त उसे भयभीत देखकर हँसे और आश्वस्त-सा करते हुए बोले- ‘असुर-दूत! मैं अपने ही आनन्द में निवास करता हूँ।

देवताओं और ऋषि-मुनियों की प्रार्थना पर स्वानंद से यहाँ इसीलिए चला आया हूँ कि मुझे मदासुर का ससैन्य वध करके देवताओं और ऋषियों आदि को सुखी करना है।

तुम उसके दूत हो, इसलिए तुम उससे जाकर कहो कि यदि वह जीवित रहने की कामना करता है तो देवताओं, ऋषि-मुनियों एवं ब्राह्मणों आदि से द्वेष छोड़कर धर्म-नीति पर चले और मेरी शरण में आ जाय, अन्यथा मैं उसे मार डालूँगा।’

यह सुनकर असुर-दूत उन्हें प्रणाम कर लौट गया और उसने मदासुर को समस्त संवाद सुनाया।

दैत्यराज समझ गया कि यह वही है, जिसके

द्वारा देवता आदि को वर प्राप्त होने की बात नारद जी ने कही थी।

उसने सोचा कि ‘यह कैसा भी महाकाय और वीर क्यों न हो, मैं इसका वध करने में समर्थ हूँ।’


मदासुर का गर्व-भंजन

ऐसा विचार कर उसने अपनी सेना को युद्ध का आदेश दिया और स्वयं ‘एकदन्त’ के समक्ष पहुँचकर बोला- ‘अरे महाकाय जन्तु! तू मेरे पराक्रम को नहीं जानता! मैं अभी तुझे धराशायी किए देता हूँ।

देख, मेरा रण कौशल।’

यह कहकर उसने एक तीक्ष्ण बाण लेकर धनुष पर चढ़ाया।

यह क्या? वह बाण छूटने से पूर्व ही एकदन्त की ओर खिंचा चला गया और उनके चरणों में जा पड़ा।

मदासुर ने आश्चर्यपूर्वक बाण लिया।

किन्तु उसके चलने से पहिले ही उसके वक्षःस्थल में तीव्र परशु प्रविष्ट हो गया।

वहाँ से रक्त की धार बह चली और असुर धरती पर गिरकर मूच्छित हो गया।

किन्तु, वह मरा नहीं, कुछ देर में ही उसे होश आ गया।

उसने अपने वक्ष पर प्रहार करने वाले परशु को हाथ में उठाकर देखा, किन्तु तभी वह उसके हाथ से छूटकर भगवान् एकदन्त के कर कमल में जा पहुँचा।

इससे उसे बहुत ही आश्चर्य हुआ।

मदासुर सोचने लगा- ‘ऐसा क्यों हुआ? क्या इसमें किसी अद्भुत शक्ति का चमत्कार है? क्या यह एकदन्त ही सर्वेश्वर सर्वात्मा एवं सर्व समर्थ परात्पर ब्रह्म हैं? वस्तुतः यही सम्भव है।

निश्चय ही यह जगत् के परम कारण परमात्मा ही हैं।’

ऐसा ज्ञान होते ही वह तुरन्त उनके चरणों में जा पड़ा।

फिर उठकर उसने हाथ जोड़ते हुए स्तुति की- ‘प्रभो! मैं आपको जान नहीं सका था, आज आपके दुर्लभ दर्शन करके मैं धन्य हो गया हूँ।

हे नाथ! मैं आपकी शरण में उपस्थित हूँ।

मुझे क्षमा करिये, क्षमा करिये।’

एकदन्त ने प्रसन्न होकर कहा- ‘मैं सन्तुष्ट हूँ, वर माँग लो।’

यह सुनकर मदासुर ने निवेदन किया- ‘मुझे अपनी सुदृढ़ भक्ति प्रदान कीजिए प्रभो! और आज्ञा कीजिए कि मैं क्या करूँ?’

भगवान् ने कहा- ‘असुरराज! तुझे मेरी सहज भक्ति प्राप्त होगी।

अब तुम स्वर्गादि स्थानों को छोड़ दो और जहाँ देवी-सम्पदा से पूर्ण पूजन, आराधना किया जाता हो, वहाँ प्रवेश नहीं करना तथा आसुरी भाव के कर्मफल-भक्षण की तुम्हें छूट है।

अब तुम पाताल में जाकर आनन्द पूर्वक रहो।’

भगवान् एकदन्त की आज्ञानुसार मदासुर ने स्वर्ग, पृथ्वी आदि पुण्य स्थानों का त्याग कर दिया और वह पाताल में जाकर रहने लगा।

देवताओं को अपने लोक की प्राप्ति हुई तथा ऋषि-मुनि आदि निर्भय होकर यज्ञ तप आदि कर्म करने लगे।

शौनकजी बोले- ‘हे सूतजी! आपने भगवान् एकदन्त की यह परम सुखदायिनी कथा सुनाई।

इससे मैं अत्यन्त हर्ष को प्राप्त हो रहा हूँ।

हे प्रभो! इन भगवान् के जो अन्य चरित्र हों तो भी बताने की कृपा करें।

क्योंकि ऐसी कथाएँ कहने में आप ही समर्थ हैं।’

सूतजी ने कहा- ‘शौनक! भगवान् एकदन्त की बहुत-सी कथाएँ हैं।

एक बार बैकुण्ठनाथ श्रीहरि ने उनकी उपासना की थी तो एकदन्त ने प्रसन्न होकर उन्हें दर्शन दिए और अभिलषित मणिरत्न चिन्तामणि प्रदान की।

भगवान् विष्णु ने उस मणि को एक बार देवराज इन्द्र को दे दिया तथा इन्द्र ने विष्णु के अंशावतार महर्षि कपिल को वह मणि दे दी।’उस मणि की महिमा और आकर्षण से आकर्षित हुए गणासुर नामक राक्षस ने उसे महर्षि कपिल से बलपूर्वक छीन लिया।

तब महर्षि ने भगवान् गणेश्वर से गणासुर को पराजित करने की प्रार्थना की।

भगवान् गणपति ने गणासुर को मार कर वह मणि पुनः महर्षि को प्राप्त करा दी।

तब महर्षि कपिल ने वह चिन्तामणि आदर सहित भगवान् एकदन्त के कण्ठ में पहिना दी।

इस प्रकार हे शौनक! मैंने भगवान् एकदन्त का यह चरित्र संक्षेप में तुम्हें सुना दिया है।

शौनक बोले- ‘हे प्रभो! हे सूतजी! अब भगवान् गणेश्वर के अन्य आविर्भाव का उपाख्यान कहने की कृपा करें।

वस्तुतः इन कथाओं में मेरा मन बहुत लग रहा है।’


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