भागवत पुराण – द्वादश स्कन्ध – अध्याय – 6


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परीक्षित् की परमगति, जनमेजयका सर्पसत्र और वेदोंके शाखाभेद

श्रीसूतजी कहते हैं – शौनकादि ऋषियो! व्यासनन्दन श्रीशुकदेव मुनि समस्त चराचर जगत् को अपनी आत्माके रूपमें अनुभव करते हैं और व्यवहारमें सबके प्रति समदृष्टि रखते हैं। भगवान् के शरणागत एवं उनके द्वारा सुरक्षित राजर्षि परीक्षित् ने उनका सम्पूर्ण उपदेश बड़े ध्यानसे श्रवण किया। अब वे सिर झुकाकर उनके चरणोंके तनिक और पास खिसक आये तथा अंजलि बाँधकर उनसे यह प्रार्थना करने लगे।।१।।

राजा परीक्षित् ने कहा – भगवन्! आप करुणाके मूर्तिमान् स्वरूप हैं। आपने मुझपर परम कृपा करके अनादि-अनन्त, एकरस, सत्य भगवान् श्रीहरिके स्वरूप और लीलाओंका वर्णन किया है। अब मैं आपकी कृपासे परम अनुगृहीत और कृतकृत्य हो गया हूँ।।२।।

संसारके प्राणी अपने स्वार्थ और परमार्थके ज्ञानसे शून्य हैं और विभिन्न प्रकारके दुःखोंके दावानलसे दग्ध हो रहे हैं। उनके ऊपर भगवन्मय महात्माओंका अनुग्रह होना कोई नयी घटना अथवा आश्चर्यकी बात नहीं है। यह तो उनके लिये स्वाभाविक ही है।।३।।

मैंने और मेरे साथ और बहुत-से लोगोंने आपके मुखारविन्दसे इस श्रीमद्भागवतमहापुराणका श्रवण किया है। इस पुराणमें पद-पदपर भगवान् श्रीहरिके उस स्वरूप और उन लीलाओंका वर्णन हुआ है, जिसके गानमें बड़े-बड़े आत्माराम पुरुष रमते रहते हैं।।४।।

भगवन्! आपने मुझे अभयपदका, ब्रह्म और आत्माकी एकताका साक्षात्कार करा दिया है। अब मैं परम शान्ति-स्वरूप ब्रह्ममें स्थित हूँ। अब मुझे तक्षक आदि किसी भी मृत्युके निमित्तसे अथवा दल-के-दल मृत्युओंसे भी भय नहीं है। मैं अभय हो गया हूँ।।५।।

ब्रह्मन्! अब आप मुझे आज्ञा दीजिये कि मैं अपनी वाणी बंद कर लूँ, मौन हो जाऊँ और साथ ही कामनाओंके संस्कारसे भी रहित चित्तको इन्द्रियातीत परमात्माके स्वरूपमें विलीन करके अपने प्राणोंका त्याग कर दूँ।।६।।

आपके द्वारा उपदेश किये हुए ज्ञान और विज्ञानमें परिनिष्ठित हो जानेसे मेरा अज्ञान सर्वदाके लिये नष्ट हो गया। आपने भगवान् के परम कल्याणमय स्वरूपका मुझे साक्षात्कार करा दिया है।।७।।

सूतजी कहते हैं – शौनकादि ऋषियो! राजा परीक्षित् ने भगवान् श्रीशुकदेवजीसे इस प्रकार कहकर बड़े प्रेमसे उनकी पूजा की। अब वे परीक्षित् से विदा लेकर समागत त्यागी महात्माओं, भिक्षुओंके साथ वहाँसे चले गये।।८।।

राजर्षि परीक्षित् ने भी बिना किसी बाह्य सहायताके स्वयं ही अपने अन्तरात्माको परमात्माके चिन्तनमें समाहित किया और ध्यानमग्न हो गये। उस समय उनका श्वास-प्रश्वास भी नहीं चलता था, ऐसा जान पड़ता था मानो कोई वृक्षका ठूँठ हो।।९।।

उन्होंने गंगाजीके तटपर कुशोंको इस प्रकार बिछा रखा था, जिसमें उनका अग्रभाग पूर्वकी ओर हो और उनपर स्वयं उत्तर मुँह होकर बैठे हुए थे। उनकी आसक्ति और संशय तो पहले ही मिट चुके थे। अब वे ब्रह्म और आत्माकी एकतारूप महायोगमें स्थित होकर ब्रह्मस्वरूप हो गये।।१०।।

शौनकादि ऋषियो! मुनिकुमार शृंगीने क्रोधित होकर परीक्षित् को शाप दे दिया था। अब उनका भेजा हुआ तक्षक सर्प राजा परीक्षित् को डसनेके लिये उनके पास चला। रास्तेमें उसने कश्यप नामके एक ब्राह्मणको देखा।।११।।

कश्यपब्राह्मण सर्पविषकी चिकित्सा करनेमें बड़े निपुण थे। तक्षकने बहुत-सा धन देकर कश्यपको वहींसे लौटा दिया, उन्हें राजाके पास न जाने दिया। और स्वयं ब्राह्मणके रूपमें छिपकर, क्योंकि वह इच्छानुसार रूप धारण कर सकता था, राजा परीक्षित् के पास गया और उन्हें डस लिया।।१२।।

राजर्षि परीक्षित् तक्षकके डसनेके पहले ही ब्रह्ममें स्थित हो चुके थे। अब तक्षकके विषकी आगसे उनका शरीर सबके सामने ही जलकर भस्म हो गया।।१३।।

पृथ्वी, आकाश और सब दिशाओंमें बड़े जोरसे ‘हाय-हाय’ की ध्वनि होने लगी। देवता, असुर, मनुष्य आदि सब-के-सब परीक्षित् की यह परम गति देखकर विस्मित हो गये।।१४।।

देवताओंकी दुन्दुभियाँ अपने-आप बज उठीं। गन्धर्व और अप्सराएँ गान करने लगीं। देवतालोग ‘साधु-साधु’ के नारे लगाकर पुष्पोंकी वर्षा करने लगे।।१५।।

जब जनमेजयने सुना कि तक्षकने मेरे पिताजीको डस लिया है, तो उसे बड़ा क्रोध हुआ। अब वह ब्राह्मणोंके साथ विधिपूर्वक सर्पोंका अग्निकुण्डमें हवन करने लगा।।१६।।

तक्षकने देखा कि जनमेजयके सर्प-सत्रकी प्रज्वलित अग्निमें बड़े-बड़े महासर्प भस्म होते जा रहे हैं, तब वह अत्यन्त भयभीत होकर देवराज इन्द्रकी शरणमें गया।।१७।।

बहुत सर्पोंके भस्म होनेपर भी तक्षक न आया, यह देखकर परीक्षित् नन्दन राजा जनमेजयने ब्राह्मणोंसे कहा कि ‘ब्राह्मणो! अबतक सर्पाधम तक्षक क्यों नहीं भस्म हो रहा है?’।।१८।।

ब्राह्मणोंने कहा – ‘राजेन्द्र! तक्षक इस समय इन्द्रकी शरणमें चला गया है और वे उसकी रक्षा कर रहे हैं। उन्होंने ही तक्षकको स्तम्भित कर दिया है, इसीसे वह अग्निकुण्डमें गिरकर भस्म नहीं हो रहा है’।।१९।।

परीक्षित् नन्दन जनमेजय बड़े ही बुद्धिमान् और वीर थे। उन्होंने ब्राह्मणोंकी बात सुनकर ऋत्विजोंसे कहा कि ‘ब्राह्मणो! आपलोग इन्द्रके साथ तक्षकको क्यों नहीं अग्निमें गिरा देते?’।।२०।।

जनमेजयकी बात सुनकर ब्राह्मणोंने उस यज्ञमें इन्द्रके साथ तक्षकका अग्निकुण्डमें आवाहन किया। उन्होंने कहा – ‘रे तक्षक! तू मरुद् गणके सहचर इन्द्रके साथ इस अग्निकुण्डमें शीघ्र आ पड़’।।२१।।

जब ब्राह्मणोंने इस प्रकार आकर्षणमन्त्रका पाठ किया, तब तो इन्द्र अपने स्थान – स्वर्गलोकसे विचलित हो गये। विमानपर बैठे हुए इन्द्र तक्षकके साथ ही बहुत घबड़ा गये और उनका विमान भी चक्कर काटने लगा।।२२।।

अंगिरानन्दन बृहस्पतिजीने देखा कि आकाशसे देवराज इन्द्र विमान और तक्षकके साथ ही अग्निकुण्डमें गिर रहे हैं; तब उन्होंने राजा जनमेजयसे कहा – ।।२३।।

‘नरेन्द्र! सर्पराज तक्षकको मार डालना आपके योग्य काम नहीं है। यह अमृत पी चुका है। इसलिये यह अजर और अमर है।।२४।।

राजन्! जगत् के प्राणी अपने-अपने कर्मके अनुसार ही जीवन, मरण और मरणोत्तर गति प्राप्त करते हैं। कर्मके अतिरिक्त और कोई भी किसीको सुख-दुःख नहीं दे सकता।।२५।।

जनमेजय! यों तो बहुत-से लोगोंकी मृत्यु साँप, चोर, आग, बिजली आदिसे तथा भूख-प्यास, रोग आदि निमित्तोंसे होती है; परन्तु यह तो कहनेकी बात है। वास्तवमें तो सभी प्राणी अपने प्रारब्ध-कर्मका ही उपभोग करते हैं।।२६।।

राजन्! तुमने बहुत-से निरपराध सर्पोंको जला दिया है। इस अभिचार-यज्ञका फल केवल प्राणियोंकी हिंसा ही है। इसलिये इसे बन्द कर देना चाहिये। क्योंकि जगत् के सभी प्राणी अपने-अपने प्रारब्धकर्मका ही भोग कर रहे हैं।।२७।।

सूतजी कहते हैं – शौनकादि ऋषियो! महर्षि बृहस्पतिजीकी बातका सम्मान करके जनमेजयने कहा कि ‘आपकी आज्ञा शिरोधार्य है।’ उन्होंने सर्प-सत्र बंद कर दिया और देवगुरु बृहस्पतिजीकी विधिपूर्वक पूजा की।।२८।।

ऋषिगण! (जिससे विद्वान् ब्राह्मणको भी क्रोध आया, राजाको शाप हुआ, मृत्यु हुई, फिर जनमेजयको क्रोध आया, सर्प मारे गये) यह वही भगवान् विष्णुकी महामाया है। यह अनिर्वचनीय है, इसीसे भगवान् के स्वरूपभूत जीव क्रोधादि गुण-वृत्तियोंके द्वारा शरीरोंमें मोहित हो जाते हैं, एक-दूसरेको दुःख देते और भोगते हैं और अपने प्रयत्नसे इसको निवृत्त नहीं कर सकते।।२९।।

(विष्णुभगवान् के स्वरूपका निश्चय करके उनका भजन करनेसे ही मायासे निवृत्ति होती है; इसलिये उनके स्वरूपका निरूपण सुनो – ) यह दम्भी है, कपटी है – इत्याकारक बुद्धिमें बार-बार जो दम्भ-कपटका स्फुरण होता है, वही माया है। जब आत्मवादी पुरुष आत्मचर्चा करने लगते हैं, तब वह परमात्माके स्वरूपमें निर्भयरूपसे प्रकाशित नहीं होती; किन्तु भयभीत होकर अपना मोह आदि कार्य न करती हुई ही किसी प्रकार रहती है। इस रूपमें उसका प्रतिपादन किया गया है। मायाके आश्रित नाना प्रकारके विवाद, मतवाद भी परमात्माके स्वरूपमें नहीं हैं; क्योंकि वे विशेषविषयक हैं और परमात्मा निर्विशेष है। केवल वाद-विवादकी तो बात ही क्या, लोक-परलोकके विषयोंके सम्बन्धमें संकल्प-विकल्प करनेवाला मन भी शान्त हो जाता है।।३०।।

कर्म, उसके सम्पादनकी सामग्री और उनके द्वारा साध्यकर्म – इन तीनोंसे अन्वित अहंकारात्मक जीव – यह सब जिसमें नहीं हैं, वह आत्म-स्वरूप परमात्मा न तो कभी किसीके द्वारा बाधित होता है और न तो किसीका विरोधी ही है। जो पुरुष उस परमपदके स्वरूपका विचार करता है, वह मनकी मायामयी लहरों, अहंकार आदिका बाध करके स्वयं अपने आत्मस्वरूपमें विहार करने लगता है।।३१।।

जो मुमुक्षु एवं विचारशील पुरुष परमपदके अतिरिक्त वस्तुका परित्याग करते हुए ‘नेति-नेति’ के द्वारा उसका निषेध करके ऐसी वस्तु प्राप्त करते हैं, जिसका कभी निषेध नहीं हो सकता और न तो कभी त्याग ही, वही विष्णुभगवान् का परमपद है; यह बात सभी महात्मा और श्रुतियाँ एक मतसे स्वीकार करती हैं। अपने चित्तको एकाग्र करनेवाले पुरुष अन्तःकरणकी अशुद्धियोंको, अनात्म-भावनाओंको सदा-सर्वदाके लिये मिटाकर अनन्य प्रेमभावसे परिपूर्ण हृदयके द्वारा उसी परमपदका आलिंगन करते हैं और उसीमें समा जाते हैं।।३२।।

विष्णुभगवान् का यही वास्तविक स्वरूप है, यही उनका परमपद है। इसकी प्राप्ति उन्हीं लोगोंको होती है, जिनके अन्तःकरणमें शरीरके प्रति अहंभाव नहीं है और न तो इसके सम्बन्धी गृह आदि पदार्थोंमें ममता ही। सचमुच जगत् की वस्तुओंमें मैंपन और मेरेपनका आरोप बहुत बड़ी दुर्जनता है।।३३।।

शौनकजी! जिसे इस परमपदकी प्राप्ति अभीष्ट है, उसे चाहिये कि वह दूसरोंकी कटु वाणी सहन कर ले और बदलेमें किसीका अपमान न करे। इस क्षणभंगुर शरीरमें अहंता-ममता करके किसी भी प्राणीसे कभी वैर न करे।।३४।।

भगवान् श्रीकृष्णका ज्ञान अनन्त है। उन्हींके चरणकमलोंके ध्यानसे मैंने इस श्रीमद्भागवत-महापुराणका अध्ययन किया है। मैं अब उन्हींको नमस्कार करके यह पुराण समाप्त करता हूँ।।३५।।

शौनकजीने पूछा – साधुशिरोमणि सूतजी! वेदव्यासजीके शिष्य पैल आदि महर्षि बड़े महात्मा और वेदोंके आचार्य थे। उन लोगोंने कितने प्रकारसे वेदोंका विभाजन किया, यह बात आप कृपा करके हमें सुनाइये।।३६।।

सूतजीने कहा – ब्रह्मन्! जिस समय परमेष्ठी ब्रह्माजी पूर्वसृष्टिका ज्ञान सम्पादन करनेके लिये एकाग्रचित्त हुए, उस समय उनके हृदयाकाशसे कण्ठ-तालु आदि स्थानोंके संघर्षसे रहित एक अत्यन्त विलक्षण अनाहत नाद प्रकट हुआ। जब जीव अपनी मनोवृत्तियोंको रोक लेता है, तब उसे भी उस अनाहत नादका अनुभव होता है।।३७।।

शौनकजी! बड़े-बड़े योगी उसी अनाहत नादकी उपासना करते हैं और उसके प्रभावसे अन्तःकरणके द्रव्य (अधिभूत), क्रिया (अध्यात्म) और कारक (अधिदैव) रूप मलको नष्ट करके वह परमगतिरूप मोक्ष प्राप्त करते हैं, जिसमें जन्म-मृत्युरूप संसारचक्र नहीं है।।३८।।

उसी अनाहत नादसे ‘अ’ कार, ‘उ’ कार और ‘म’ काररूप तीन मात्राओंसे युक्त ॐकार प्रकट हुआ। इस ॐकारकी शक्तिसे ही प्रकृति अव्यक्तसे व्यक्तरूपमें परिणत हो जाती है। ॐकार स्वयं भी अव्यक्त एवं अनादि है और परमात्म-स्वरूप होनेके कारण स्वयंप्रकाश भी है। जिस परम वस्तुको भगवान् ब्रह्म अथवा परमात्माके नामसे कहा जाता है, उसके स्वरूपका बोध भी ॐकारके द्वारा ही होता है।।३९।।

जब श्रवणेन्द्रियकी शक्ति लुप्त हो जाती है, तब भी इस ॐकारको – समस्त अर्थोंको प्रकाशित करनेवाले स्फोट तत्त्वको जो सुनता है और सुषुप्ति एवं समाधि-अवस्थाओंमें सबके अभावको भी जानता है, वही परमात्माका विशुद्ध स्वरूप है। वही ॐकार परमात्मासे हृदयाकाशमें प्रकट होकर वेदरूपा वाणीको अभिव्यक्त करता है।।४०।।

ॐकार अपने आश्रय परमात्मा परब्रह्मका साक्षात् वाचक है और ॐकार ही सम्पूर्ण मन्त्र, उपनिषद् और वेदोंका सनातन बीज है।।४१।।

शौनकजी! ॐकारके तीन वर्ण हैं – ‘अ’, ‘उ’, और ‘म’। ये ही तीनों वर्ण सत्त्व, रज, तम – इन तीन गुणों; ऋक्, यजुः, साम – इन तीन नामों; भूः, भुवः, स्वः – इन तीन अर्थों और जाग्रत्, स्वप्न, सुषुप्ति – इन तीन वृत्तियोंके रूपमें तीन-तीनकी संख्यावाले भावोंको धारण करते हैं।।४२।।

इसके बाद सर्वशक्तिमान् ब्रह्माजीने ॐकारसे ही अन्तःस्थ (य, र, ल, व), ऊष्म (श, ष, स, ह), स्वर (‘अ’ से ‘औ’ तक), स्पर्श (‘क’ से ‘म’ तक) तथा ह्रस्व और दीर्घ आदि लक्षणोंसे युक्त अक्षर-समाम्नाय अर्थात् वर्णमालाकी रचना की।।४३।।

उसी वर्णमालाद्वारा उन्होंने अपने चार मुखोंसे होता, अध्वर्यु, उद् गाता और ब्रह्मा – इन चार ऋत्विजोंके कर्म बतलानेके लिये ॐकार और व्याहृतियोंके सहित चार वेद प्रकट किये और अपने पुत्र ब्रह्मर्षि मरीचि आदिको वेदाध्ययनमें कुशल देखकर उन्हें वेदोंकी शिक्षा दी। वे सभी जब धर्मका उपदेश करनेमें निपुण हो गये, तब उन्होंने अपने पुत्रोंको उनका अध्ययन कराया।।४४-४५।।

तदनन्तर, उन्हीं लोगोंके नैष्ठिक ब्रह्मचारी शिष्य-प्रशिष्योंके द्वारा चारों युगोंमें सम्प्रदायके रूपमें वेदोंकी रक्षा होती रही। द्वापरके अन्तमें महर्षियोंने उनका विभाजन भी किया।।४६।।

जब ब्रह्मवेत्ता ऋषियोंने देखा कि समयके फेरसे लोगोंकी आयु, शक्ति और बुद्धि क्षीण हो गयी है, तब उन्होंने अपने हृदय-देशमें विराजमान परमात्माकी प्रेरणासे वेदोंके अनेकों विभाग कर दिये।।४७।।

शौनकजी! इस वैवस्वत मन्वन्तरमें भी ब्रह्मा-शंकर आदि लोकपालोंकी प्रार्थनासे अखिल विश्वके जीवनदाता भगवान् ने धर्मकी रक्षाके लिये महर्षि पराशरद्वारा सत्यवतीके गर्भसे अपने अंशांश-कलास्वरूप व्यासके रूपमें अवतार ग्रहण किया है। परम भाग्यवान् शौनकजी! उन्होंने ही वर्तमान युगमें वेदके चार विभाग किये हैं।।४८-४९।।

जैसे मणियोंके समूहमेंसे विभिन्न जातिकी मणियाँ छाँटकर अलग-अलग कर दी जाती हैं, वैसे ही महामति भगवान् व्यासदेवने मन्त्र-समुदायमेंसे भिन्न-भिन्न प्रकरणोंके अनुसार मन्त्रोंका संग्रह करके उनसे ऋग्, यजुः, साम और अथर्व – ये चार संहिताएँ बनायीं और अपने चार शिष्योंको बुलाकर प्रत्येकको एक-एक संहिताकी शिक्षा दी।।५०-५१।।

उन्होंने ‘बह्वृच’ नामकी पहली ऋक्संहिता पैलको, ‘निगद’ नामकी दूसरी यजुःसंहिता वैशम्पायनको, सामश्रुतियोंकी ‘छन्दोग-संहिता’ जैमिनिको और अपने शिष्य सुमन्तुको ‘अथर्वांगिरससंहिता’ का अध्ययन कराया।।५२-५३।।

शौनकजी! पैल मुनिने अपनी संहिताके दो विभाग करके एकका अध्ययन इन्द्रप्रमितिको और दूसरेका बाष्कलको कराया। बाष्कलने भी अपनी शाखाके चार विभाग करके उन्हें अलग-अलग अपने शिष्य बोध, याज्ञवल्क्य, पराशर और अग्निमित्रको पढ़ाया। परमसंयमी इन्द्र-प्रमितिने प्रतिभाशाली माण्डूकेय ऋषिको अपनी संहिताका अध्ययन कराया। माण्डूकेयके शिष्य थे – देवमित्र। उन्होंने सौभरि आदि ऋषियोंको वेदोंका अध्ययन कराया।।५४-५६।।

माण्डूकेयके पुत्रका नाम था शाकल्य। उन्होंने अपनी संहिताके पाँच विभाग करके उन्हें वात्स्य, मुद् गल, शालीय, गोखल्य और शिशिर नामक शिष्योंको पढ़ाया।।५७।।

शाकल्यके एक और शिष्य थे – जातूकर्ण्यमुनि। उन्होंने अपनी संहिताके तीन विभाग करके तत्सम्बन्धी निरुक्तके साथ अपने शिष्य बलाक, पैज, वैताल और विरजको पढ़ाया।।५८।।

बाष्कलके पुत्र बाष्कलिने सब शाखाओंसे एक ‘वालखिल्य’ नामकी शाखा रची। उसे बालायनि, भज्य एवं कासारने ग्रहण किया।।५९।।

इन ब्रह्मर्षियोंने पूर्वोक्त सम्प्रदायके अनुसार ऋग्वेदसम्बन्धी बह्वृच शाखाओंको धारण किया। जो मनुष्य यह वेदोंके विभाजनका इतिहास श्रवण करता है, वह सब पापोंसे छूट जाता है।।६०।।

शौनकजी! वैशम्पायनके कुछ शिष्योंका नाम था चरकाध्वर्यु। इन लोगोंने अपने गुरुदेवके ब्रह्महत्या-जनित पापका प्रायश्चित्त करनेके लिये एक व्रतका अनुष्ठान किया। इसीलिये इनका नाम ‘चरकाध्वर्यु’ पड़ा।।६१।।

वैशम्पायनके एक शिष्य याज्ञवल्क्यमुनि भी थे। उन्होंने अपने गुरुदेवसे कहा – ‘अहो भगवन्! ये चरकाध्वर्यु ब्राह्मण तो बहुत ही थोड़ी शक्ति रखते हैं। इनके व्रतपालनसे लाभ ही कितना है? मैं आपके प्रायश्चित्तके लिये बहुत ही कठिन तपस्या करूँगा’।।६२।।

याज्ञवल्क्यमुनिकी यह बात सुनकर वैशम्पायनमुनिको क्रोध आ गया। उन्होंने कहा – ‘बस-बस’, चुप रहो। तुम्हारे-जैसे ब्राह्मणोंका अपमान करनेवाले शिष्यकी मुझे कोई आवश्यकता नहीं है। देखो, अबतक तुमने मुझसे जो कुछ अध्ययन किया है उसका शीघ्र-से-शीघ्र त्याग कर दो और यहाँसे चले जाओ।।६३।।

याज्ञवल्क्यजी देवरातके पुत्र थे। उन्होंने गुरुजीकी आज्ञा पाते ही उनके पढ़ाये हुए यजुर्वेदका वमन कर दिया और वे वहाँसे चले गये। जब मुनियोंने देखा कि याज्ञवल्क्यने तो यजुर्वेदका वमन कर दिया, तब उनके चित्तमें इस बातके लिये बड़ा लालच हुआ कि हमलोग किसी प्रकार इसको ग्रहण कर लें। परन्तु ब्राह्मण होकर उगले हुए मन्त्रोंको ग्रहण करना अनुचित है, ऐसा सोचकर वे तीतर बन गये और उस संहिताको चुग लिया। इसीसे यजुर्वेदकी वह परम रमणीय शाखा ‘तैत्तिरीय’ के नामसे प्रसिद्ध हुई।।६४-६५।।

शौनकजी! अब याज्ञवल्क्यने सोचा कि मैं ऐसी श्रुतियाँ प्राप्त करूँ, जो मेरे गुरुजीके पास भी न हों। इसके लिये वे सूर्यभगवान् का उपस्थान करने लगे।।६६।।

याज्ञवल्क्य उवाच ॐ नमो भगवते आदित्यायाखिलजगता-मात्मस्वरूपेण कालस्वरूपेण चतुर्विधभूतनि-कायानां ब्रह्मादिस्तम्बपर्यन्तानामन्तर्हृदयेषु बहिरपि चाकाश इवोपाधिनाव्यवधीयमानो भवानेक एव क्षणलवनिमेषावयवोपचितसंवत्सरगणेनापा-मादानविसर्गाभ्यामिमां लोकयात्रामनुवहति।।

६७।।

यदु ह वाव विबुधर्षभ सवितरदस्तपत्यनुसवन-महरहराम्नायविधिनोपतिष्ठमानानामखिलदुरित-वृजिनबीजावभर्जन भगवतः समभिधीमहि तपनमण्डलम्।।

६८।।

य इह वाव स्थिरचर-निकराणां निजनिकेतनानां मनइन्द्रियासुगणा-ननात्मनः स्वयमात्मान्तर्यामी प्रचोदयति।।

६९।।

य एवेमं लोकमतिकरालवदनान्धकारसंज्ञाजगर-ग्रहगिलितं मृतकमिव विचेतनमवलोक्यानु-कम्पया परमकारुणिक ईक्षयैवोत्थाप्याहरह-रनुसवनं श्रेयसि स्वधर्माख्यात्मावस्थाने प्रवर्तय-त्यवनिपतिरिवासाधूनां भयमुदीरयन्नटति।।

७०।।

परित आशापालैस्तत्र तत्र कमलकोशाञ्जलिभि-रुपहृतार्हणः।।

७१।।

अथ ह भगवंस्तव चरण-नलिनयुगलं त्रिभुवनगुरुभिर्वन्दितमहमयातयाम-यजुःकाम उपसरामीति।।

७२।।

याज्ञवल्क्यजी इस प्रकार उपस्थान करते हैं – मैं ॐकारस्वरूप भगवान् सूर्यको नमस्कार करता हूँ। आप सम्पूर्ण जगत् के आत्मा और कालस्वरूप हैं। ब्रह्मासे लेकर तृणपर्यन्त जितने भी जरायुज, अण्डज, स्वेदज और उद्भिज्ज – चार प्रकारके प्राणी हैं, उन सबके हृदयदेशमें और बाहर आकाशके समान व्याप्त रहकर भी आप उपाधिके धर्मोंसे असंग रहनेवाले अद्वितीय भगवान् ही हैं। आप ही क्षण, लव, निमेष आदि अवयवोंसे संघटित संवत्सरोंके द्वारा एवं जलके आकर्षण-विकर्षण – आदान-प्रदानके द्वारा समस्त लोकोंकी जीवनयात्रा चलाते हैं।।६७।।

प्रभो! आप समस्त देवताओंमें श्रेष्ठ हैं। जो लोग प्रतिदिन तीनों समय वेद-विधिसे आपकी उपासना करते हैं, उनके सारे पाप और दुःखोंके बीजोंको आप भस्म कर देते हैं। सूर्यदेव! आप सारी सृष्टिके मूल कारण एवं समस्त ऐश्वर्योंके स्वामी हैं। इसलिये हम आपके इस तेजोमय मण्डलका पूरी एकाग्रताके साथ ध्यान करते हैं।।६८।।

आप सबके आत्मा और अन्तर्यामी हैं। जगत् में जितने चराचर प्राणी हैं, सब आपके ही आश्रित हैं। आप ही उनके अचेतन मन, इन्द्रिय और प्राणोंके प्रेरक हैं*।।६९।।

यह लोक प्रतिदिन अन्धकाररूप अजगरके विकराल मुँहमें पड़कर अचेत और मुर्दा-सा हो जाता है। आप परम करुणास्वरूप हैं, इसलिये कृपा करके अपनी दृष्टिमात्रसे ही इसे सचेत कर देते हैं और परम कल्याणके साधन समय-समयके धर्मानुष्ठानोंमें लगाकर आत्माभिमुख करते हैं। जैसे राजा दुष्टोंको भयभीत करता हुआ अपने राज्यमें विचरण करता है, वैसे ही आप चोर-जार आदि दुष्टोंको भयभीत करते हुए विचरते रहते हैं।।७०।।

चारों ओर सभी दिक्पाल स्थान-स्थानपर अपनी कमलकी कलीके समान अंजलियोंसे आपको उपहार समर्पित करते हैं।।७१।।

भगवन्! आपके दोनों चरणकमल तीनों लोकोंके गुरु-सदृश महानुभावोंसे भी वन्दित हैं। मैंने आपके युगल चरणकमलोंकी इसलिये शरण ली है कि मुझे ऐसे यजुर्वेदकी प्राप्ति हो, जो अबतक किसीको न मिला हो।।७२।।

सूतजी कहते हैं – शौकनादि ऋषियो! जब याज्ञवल्क्यमुनिने भगवान् सूर्यकी इस प्रकार स्तुति की, तब वे प्रसन्न होकर उनके सामने अश्वरूपसे प्रकट हुए और उन्हें यजुर्वेदके उन मन्त्रोंका उपदेश किया, जो अबतक किसीको प्राप्त न हुए थे।।७३।।

इसके बाद याज्ञवल्क्यमुनिने यजुर्वेदके असंख्य मन्त्रोंसे उसकी पंद्रह शाखाओंकी रचना की। वही वाजसनेय शाखाके नामसे प्रसिद्ध हैं। उन्हें कण्व, माध्यन्दिन आदि ऋषियोंने ग्रहण किया।।७४।।

यह बात मैं पहले ही कह चूका हूँ कि महर्षि श्रीकृष्ण-द्वैपायनने जैमिनिमुनिको सामसंहिताका अध्ययन कराया। उनके पुत्र थे सुमन्तुमुनि और पौत्र थे सुन्वान्। जैमिनिमुनिने अपने पुत्र और पौत्रको एक-एक संहिता पढ़ायी।।७५।।

जैमिनिमुनिके एक शिष्यका नाम था सुकर्मा। वह एक महान् पुरुष था। जैसे एक वृक्षमें बहुत-सी डालियाँ होती हैं, वैसे ही सुकर्माने सामवेदकी एक हजार संहिताएँ बना दीं।।७६।।

सुकर्माके शिष्य कोसलदेशनिवासी हिरण्यनाभ, पौष्यंजि और ब्रह्मवेत्ताओंमें श्रेष्ठ आवन्त्यने उन शाखाओंको ग्रहण किया।।७७।।

पौष्यंजि और आवन्त्यके पाँच सौ शिष्य थे। वे उत्तर दिशाके निवासी होनेके कारण औदीच्य सामवेदी कहलाते थे। उन्हींको प्राच्य सामवेदी भी कहते हैं। उन्होंने एक-एक संहिताका अध्ययन किया।।७८।।

पौष्यंजिके और भी शिष्य थे – लौगाक्षि, मांगलि, कुल्य, कुसीद और कुक्षि। इसमेंसे प्रत्येकने सौ-सौ संहिताओंका अध्ययन किया।।७९।।

हिरण्यनाभका शिष्य था – कृत। उसने अपने शिष्योंको चौबीस संहिताएँ पढ़ायीं। शेष संहिताएँ परम संयमी आवन्त्यने अपने शिष्योंको दीं। इस प्रकार सामवेदका विस्तार हुआ।।८०।।

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां
संहितायां द्वादशस्कन्धे वेदशाखाप्रणयनं नाम षष्ठोऽध्यायः।।६।।

* ६७, ६८, ६९ – इन तीनों वाक्योंद्वारा क्रमशः गायत्रीमन्त्रके ‘तत्सवितुर्वरेण्यम्,’ ‘भर्गो देवस्य धीमहि’ और ‘धियो यो नः प्रचोदयात्’ – इन तीन चरणोंकी व्याख्या करते हुए भगवान् सूर्यकी स्तुति की गयी है।


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