भागवत पुराण – द्वादश स्कन्ध – अध्याय – 12


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श्रीमद्भागवतकी संक्षिप्त विषय-सूची

योगधारणयोत्क्रान्तिः संवादो नारदाजयोः । अवतारानुगीतं च सर्गः प्राधानिकोऽग्रतः।।७

सूतजी कहते हैं – भगवद्भक्तिरूप महान् धर्मको नमस्कार है। विश्वविधाता भगवान् श्रीकृष्णको नमस्कार है। अब मैं ब्राह्मणोंको नमस्कार करके श्रीमद्भागवतोक्त सनातन धर्मोंका संक्षिप्त विवरण सुनाता हूँ।।१।।

शौनकादि ऋषियो! आपलोगोंने मुझसे जो प्रश्न किया था, उसके अनुसार मैंने भगवान् विष्णुका यह अद् भुत चरित्र सुनाया। यह सभी मनुष्योंके श्रवण करनेयोग्य है।।२।।

इस श्रीमद्भागवतपुराणमें सर्वपापापहारी स्वयं भगवान् श्रीहरिका ही संकीर्तन हुआ है। वे ही सबके हृदयमें विराजमान, सबकी इन्द्रियोंके स्वामी और प्रेमी भक्तोंके जीवनधन हैं।।३।।

इस श्रीमद्भागवतपुराणमें परम रहस्यमय – अत्यन्त गोपनीय ब्रह्मतत्त्वका वर्णन हुआ है। उस ब्रह्ममें ही इस जगत् की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलयकी प्रतीति होती है। इस पुराणमें उसी परमतत्त्वका अनुभवात्मक ज्ञान और उसकी प्राप्तिके साधनोंका स्पष्ट निर्देश है।।४।।

शौनकजी! इस महापुराणके प्रथम स्कन्धमें भक्तियोगका भलीभाँति निरूपण हुआ है और साथ ही भक्तियोगसे उत्पन्न एवं उसको स्थिर रखनेवाले वैराग्यका भी वर्णन किया गया है। परीक्षित् की कथा और व्यास-नारद-संवादके प्रसंगसे नारदचरित्र भी कहा गया है।।५।।

राजर्षि परीक्षित् ब्राह्मणका शाप हो जानेपर किस प्रकार गंगातटपर अनशन-व्रत लेकर बैठ गये और ऋषिप्रवर श्रीशुकदेवजीके साथ किस प्रकार उनका संवाद प्रारम्भ हुआ, यह कथा भी प्रथम स्कन्धमें ही है।।६।।

योगधारणाके द्वारा शरीरत्यागकी विधि, ब्रह्मा और नारदका संवाद, अवतारोंकी संक्षिप्त चर्चा तथा महत्तत्त्व आदिके क्रमसे प्राकृतिक सृष्टिकी उत्पत्ति आदि विषयोंका वर्णन द्वितीय स्कन्धमें हुआ है।।७।।

तीसरे स्कन्धमें पहले-पहल विदुरजी और उद्धवजीके, तदनन्तर विदुर तथा मैत्रेयजीके समागम और संवादका प्रसंग है। इसके पश्चात् पुराणसंहिताके विषयमें प्रश्न है और फिर प्रलयकालमें परमात्मा किस प्रकार स्थित रहते हैं, इसका निरूपण है।।८।।

गुणोंके क्षोभसे प्राकृतिक सृष्टि और महत्तत्त्व आदि सात प्रकृति-विकृतियोंके द्वारा कार्य-सृष्टिका वर्णन है। इसके बाद ब्रह्माण्डकी उत्पत्ति और उसमें विराट् पुरुषकी स्थितिका स्वरूप समझाया गया है।।९।।

तदनन्तर स्थूल और सूक्ष्म कालका स्वरूप, लोक-पद्मकी उत्पत्ति, प्रलय-समुद्रसे पृथ्वीका उद्धार करते समय वराहभगवान् के द्वारा हिरण्याक्षका वध; देवता, पशु, पक्षी और मनुष्योंकी सृष्टि एवं रुद्रोंकी उत्पत्तिका प्रसंग है। इसके पश्चात् उस अर्द्धनारी-नरके स्वरूपका विवेचन है, जिससे स्वायम्भुव मनु और स्त्रियोंकी अत्यन्त उत्तम आद्या प्रकृति शतरूपाका जन्म हुआ था। कर्दम प्रजापतिका चरित्र, उनसे मुनिपत्नियोंका जन्म, महात्मा भगवान् कपिलका अवतार और फिर कपिलदेव तथा उनकी माता देवहूतिके संवादका प्रसंग आता है।।१०-१३।।

चौथे स्कन्धमें मरीचि आदि नौ प्रजापतियोंकी उत्पत्ति, दक्षयज्ञका विध्वंस, राजर्षि ध्रुव एवं पृथुका चरित्र तथा प्राचीनबर्हि और नारदजीके संवादका वर्णन है। पाँचवें स्कन्धमें प्रियव्रतका उपाख्यान; नाभि, ऋषभ और भरतके चरित्र, द्वीप, वर्ष, समुद्र, पर्वत और नदियोंका वर्णन; ज्योतिश्चक्रके विस्तार एवं पाताल तथा नरकोंकी स्थितिका निरूपण हुआ है।।१४-१६।।

शौनकादि ऋषियो! छठे स्कन्धमें ये विषय आये हैं – प्रचेताओंसे दक्षकी उत्पत्ति; दक्ष-पुत्रियोंकी सन्तान देवता, असुर, मनुष्य, पशु, पर्वत और पक्षियोंका जन्म-कर्म; वृत्रासुरकी उत्पत्ति और उसकी परम गति। (अब सातवें स्कन्धके विषय बतलाये जाते हैं – ) इस स्कन्धमें मुख्यतः दैत्यराज हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्षके जन्म-कर्म एवं दैत्यशिरोमणि महात्मा प्रह्लादके उत्कृष्ट चरित्रका निरूपण है।।१७-१८।।

आठवें स्कन्धमें मन्वन्तरोंकी कथा, गजेन्द्रमोक्ष, विभिन्न मन्वन्तरोंमें होनेवाले जगदीश्वर भगवान् विष्णुके अवतार – कूर्म, मत्स्य, वामन, धन्वन्तरि, हयग्रीव आदि; अमृत-प्राप्तिके लिये देवताओं और दैत्योंका समुद्र-मन्थन और देवासुर-संग्राम आदि विषयोंका वर्णन है। नवें स्कन्धमें मुख्यतः राजवंशोंका वर्णन है। इक्ष्वाकुके जन्म-कर्म, वंशविस्तार, महात्मा सुद्युम्न, इला एवं ताराके उपाख्यान – इन सबका वर्णन किया गया है। सूर्यवंशका वृत्तान्त, शशाद और नृग आदि राजाओंका वर्णन, सुकन्याका चरित्र, शर्याति, खट्वांग, मान्धाता, सौभरि, सगर, बुद्धिमान् ककुत्स्थ और कोसलेन्द्र भगवान् रामके सर्वपापहारी चरित्रका वर्णन भी इसी स्कन्धमें है। तदनन्तर निमिका देह-त्याग और जनकोंकी उत्पत्तिका वर्णन है।।१९-२४।।

भृगुवंशशिरोमणि परशुरामजीका क्षत्रियसंहार, चन्द्रवंशी नरपति पुरूरवा, ययाति, नहुष, दुष्यन्त-नन्दन भरत, शन्तनु और उनके पुत्र भीष्म आदिकी संक्षिप्त कथाएँ भी नवम स्कन्धमें ही हैं। सबके अन्तमें ययातिके बड़े लड़के यदुका वंशविस्तार कहा गया है।।२५-२६।।

शौनकादि ऋषियो! इसी यदुवंशमें जगत्पति भगवान् श्रीकृष्णने अवतार ग्रहण किया था। उन्होंने अनेक असुरोंका संहार किया। उनकी लीलाएँ इतनी हैं कि कोई पार नहीं पा सकता। फिर भी दशम स्कन्धमें उनका कुछ कीर्तन किया गया है। वसुदेवकी पत्नी देवकीके गर्भसे उनका जन्म हुआ। गोकुलमें नन्दबाबाके घर जाकर बढ़े। पूतनाके प्राणोंको दूधके साथ पी लिया। बचपनमें ही छकड़ेको उलट दिया।।२७-२८।।

तृणावर्त, बकासुर एवं वत्सासुरको पीस डाला। सपरिवार धेनुकासुर और प्रलम्बासुरको मार डाला।।२९।।

दावानलसे घिरे गोपोंकी रक्षा की। कालिय नागका दमन किया। अजगरसे नन्दबाबाको छुड़ाया।।३०।।

इसके बाद गोपियोंने भगवान् को पतिरूपसे प्राप्त करनेके लिये व्रत किया और भगवान् श्रीकृष्णने प्रसन्न होकर उन्हें अभिमत वर दिया। भगवान् ने यज्ञपत्नियोंपर कृपा की। उनके पतियों – ब्राह्मणोंको बड़ा पश्चत्ताप हुआ।।३१।।

गोवर्द्धनधारणकी लीला करनेपर इन्द्र और कामधेनुने आकर भगवान् का यज्ञाभिषेक किया। शरद् ऋतुकी रात्रियोंमें व्रजसुन्दरियोंके साथ रास-क्रीडा की।।३२।।

दुष्ट शंखचूड, अरिष्ट, और केशीके वधकी लीला हुई। तदनन्तर अक्रूरजी मथुरासे वृन्दावन आये और उनके साथ भगवान् श्रीकृष्ण तथा बलरामजीने मथुराके लिये प्रस्थान किया।।३३।।

उस प्रसंगपर व्रजसुन्दरियोंने जो विलाप किया था, उसका वर्णन है। राम और श्यामने मथुरामें जाकर वहाँकी सजावट देखी और कुवलयापीड़ हाथी, मुष्टिक, चाणूर एवं कंस आदिका संहार किया।।३४।।

सान्दीपनि गुरुके यहाँ विद्याध्ययन करके उनके मृत पुत्रको लौटा लाये। शौनकादि ऋषियो! जिस समय भगवान् श्रीकृष्ण मथुरामें निवास कर रहे थे, उस समय उन्होंने उद्धव और बलरामजीके साथ यदुवंशियोंका सब प्रकारसे प्रिय और हित किया।।३५।।

जरासन्ध कई बार बड़ी-बड़ी सेनाएँ लेकर आया और भगवान् ने उनका उद्धार करके पृथ्वीका भार हलका किया। कालयवनको मुचुकुन्दसे भस्म करा दिया। द्वारकापुरी बसाकर रातों-रात सबको वहाँ पहुँचा दिया।।३६।।

स्वर्गसे कल्पवृक्ष एवं सुधर्मा सभा ले आये। भगवान् ने दल-के-दल शत्रुओंको युद्धमें पराजित करके रुक्मिणीका हरण किया।।३७।।

बाणासुरके साथ युद्धके प्रसंगमें महादेवजी-पर ऐसा बाण छोड़ा कि वे जँभाई लेने लगे और इधर बाणसुरकी भुजाएँ काट डालीं। प्राग्-ज्योतिषपुरके स्वामी भौमासुरको मारकर सोलह हजार कन्याएँ ग्रहण कीं।।३८।।

शिशुपाल, पौण्ड्रक, शाल्व, दुष्ट दन्तवक्त्र, शम्बरासुर, द्विविद, पीठ, मुर, पंचजन आदि दैत्योंके बल-पौरुषका वर्णन करके यह बात बतलायी गयी कि भगवान् ने उन्हें कैसे-कैसे मारा। भगवान् के चक्रने काशीको जला दिया और फिर उन्होंने भारतीय युद्धमें पाण्डवोंको निमित्त बनाकर पृथ्वीका बहुत बड़ा भार उतार दिया।।३९-४०।।

शौनकादि ऋषियो! ग्यारहवें स्कन्धमें इस बातका वर्णन हुआ है कि भगवान् ने ब्राह्मणोंके शापके बहाने किस प्रकार यदुवंशका संहार किया। इस स्कन्धमें भगवान् श्रीकृष्ण और उद्धवका संवाद बड़ा ही अद् भुत है।।४१।।

उसमें सम्पूर्ण आत्मज्ञान और धर्म-निर्णयका निरूपण हुआ है और अन्तमें यह बात बतायी गयी है कि भगवान् श्रीकृष्णने अपने आत्मयोगके प्रभावसे किस प्रकार मर्त्यलोकका परित्याग किया।।४२।।

बारहवें स्कन्धमें विभिन्न युगोंके लक्षण और उनमें रहनेवाले लोगोंके व्यवहारका वर्णन किया गया है तथा यह भी बतलाया गया है कि कलि-युगमें मनुष्योंकी गति विपरीत होती है। चार प्रकारके प्रलय और तीन प्रकारकी उत्पत्तिका वर्णन भी इसी स्कन्धमें है।।४३।।

इसके बाद परम ज्ञानी राजर्षि परीक्षित् के शरीरत्यागकी बात कही गयी है। तदनन्तर वेदोंके शाखा-विभाजनका प्रसंग आया है। मार्कण्डेयजीकी सुन्दर कथा, भगवान् के अंग-उपांगोंका स्वरूपकथन और सबके अन्तमें विश्वात्मा भगवान् सूर्यके गणोंका वर्णन है।।४४।।

शौनकादि ऋषियो! आपलोगोंने इस सत्संगके अवसरपर मुझसे जो कुछ पूछा था, उसका वर्णन मैंने कर दिया। इसमें सन्देह नहीं कि इस अवसरपर मैंने हर तरहसे भगवान् की लीला और उनके अवतार-चरित्रोंका ही कीर्तन किया है।।४५।।

जो मनुष्य गिरते-पड़ते, फिसलते, दुःख भोगते अथवा छींकते समय विवशतासे भी ऊँचे स्वरसे बोल उठता है – ‘हरये नमः’, वह सब पापोंसे मुक्त हो जाता है।।४६।।

यदि देश, काल एवं वस्तुसे अपरिच्छिन्न भगवान् श्रीकृष्णके नाम, लीला, गुण आदिका संकीर्तन किया जाय अथवा उनके प्रभाव, महिमा आदिका श्रवण किया जाय तो वे स्वयं ही हृदयमें आ विराजते हैं और श्रवण तथा कीर्तन करनेवाले पुरुषके सारे दुःख मिटा देते हैं – ठीक वैसे ही जैसे सूर्य अन्धकारको और आँधी बादलोंको तितर-बितर कर देती है।।४७।।

जिस वाणीके द्वारा घट-घटवासी अविनाशी भगवान् के नाम, लीला, गुण आदिका उच्चारण नहीं होता, वह वाणी भावपूर्ण होनेपर भी निरर्थक है – सारहीन है, सुन्दर होनेपर भी असुन्दर है और उत्तमोत्तम विषयोंका प्रतिपादन करनेवाली होनेपर भी असत्कथा है। जो वाणी और वचन भगवान् के गुणोंसे परिपूर्ण रहते हैं, वे ही परम पावन हैं, वे ही मंगलमय हैं और वे ही परम सत्य हैं।।४८।।

जिस वचनके द्वारा भगवान् के परम पवित्र यशका गान होता है, वही परम रमणीय, रुचिकर एवं प्रतिक्षण नया-नया जान पड़ता है। उससे अनन्त कालतक मनको परमानन्दकी अनुभूति होती रहती है। मनुष्योंका सारा शोक, चाहे वह समुद्रके समान लंबा और गहरा क्यों न हो, उस वचनके प्रभावसे सदाके लिये सूख जाता है।।४९।।

जिस वाणीसे – चाहे वह रस, भाव, अलंकार आदिसे युक्त ही क्यों न हो – जगत् को पवित्र करनेवाले भगवान् श्रीकृष्णके यशका कभी गान नहीं होता, वह तो कौओंके लिये उच्छिष्ट फेंकनेके स्थानके समान अत्यन्त अपवित्र है। मानससरोवर-निवासी हंस अथवा ब्रह्मधाममें विहार करनेवाले भगवच्चरणारविन्दाश्रित परमहंस भक्त उसका कभी सेवन नहीं करते। निर्मल हृदयवाले साधुजन तो वहीं निवास करते हैं, जहाँ भगवान् रहते हैं।।५०।।

इसके विपरीत जिसमें सुन्दर रचना भी नहीं है और जो व्याकरण आदिकी दृष्टिसे दूषित शब्दोंसे युक्त भी है, परन्तु जिसके प्रत्येक श्लोकमें भगवान् के सुयशसूचक नाम जड़े हुए हैं, वह वाणी लोगोंके सारे पापोंका नाश कर देती है; क्योंकि सत्पुरुष ऐसी ही वाणीका श्रवण, गान और कीर्तन किया करते हैं।।५१।।

वह निर्मल ज्ञान भी, जो मोक्षकी प्राप्तिका साक्षात् साधन है, यदि भगवान् की भक्तिसे रहित हो तो उसकी उतनी शोभा नहीं होती। फिर जो कर्म भगवान् को अर्पण नहीं किया गया है – वह चाहे कितना ही ऊँचा क्यों न हो – सर्वदा अमंगलरूप, दुःख देनेवाला ही है; वह तो शोभन – वरणीय हो ही कैसे सकता है?।।५२।।

वर्णाश्रमके अनुकूल आचरण, तपस्या और अध्ययन आदिके लिये जो बहुत बड़ा परिश्रम किया जाता है, उसका फल है – केवल यश अथवा लक्ष्मीकी प्राप्ति। परन्तु भगवान् के गुण, लीला, नाम आदिका श्रवण, कीर्तन आदि तो उनके श्रीचरणकमलोंकी अविचल स्मृति प्रदान करता है।।५३।।

भगवान् श्रीकृष्णके चरणकमलोंकी अविचल स्मृति सारे पाप-ताप और अमंगलोंको नष्ट कर देती और परम शान्तिका विस्तार करती है। उसीके द्वारा अन्तःकरण शुद्ध हो जाता है, भगवान् की भक्ति प्राप्त होती है एवं परवैराग्यसे युक्त भगवान् के स्वरूपका ज्ञान तथा अनुभव प्राप्त होता है।।५४।।

शौनकादि ऋषियो! आपलोग बड़े भाग्यवान् हैं। धन्य हैं, धन्य हैं! क्योंकि आपलोग बड़े प्रेमसे निरन्तर अपने हृदयमें सर्वान्तर्यामी, सर्वात्मा, सर्व-शक्तिमान् आदिदेव सबके आराध्यदेव एवं स्वयं दूसरे आराध्यदेवसे रहित नारायण भगवान् को स्थापित करके भजन करते रहते हैं।।५५।।

जिस समय राजर्षि परीक्षित् अनशन करके बड़े-बड़े ऋषियोंकी भरी सभामें सबके सामने श्रीशुकदेवजी महाराजसे श्रीमद्भागवतकी कथा सुन रहे थे, उस समय वहीं बैठकर मैंने भी उन्हीं परमर्षिके मुखसे इस आत्मतत्त्वका श्रवण किया था। आपलोगोंने उसका स्मरण कराकर मुझपर बड़ा अनुग्रह किया। मैं इसके लिये आपलोगोंका बड़ा ऋणी हूँ।।५६।।

शौनकादि ऋषियो! भगवान् वासुदेवकी एक-एक लीला सर्वदा श्रवण-कीर्तन करनेयोग्य है। मैंने इस प्रसंगमें उन्हींकी महिमाका वर्णन किया है; जो सारे अशुभ संस्कारोंको धो बहाती है।।५७।।

जो मनुष्य एकाग्रचित्तसे एक पहर अथवा एक क्षण ही प्रतिदिन इसका कीर्तन करता है और जो श्रद्धाके साथ इसका श्रवण करता है, वह अवश्य ही शरीरसहित अपने अन्तःकरणको पवित्र बना लेता है।।५८।।

जो पुरुष द्वादशी अथवा एकादशीके दिन इसका श्रवण करता है, वह दीर्घायु हो जाता है और जो संयमपूर्वक निराहार रहकर पाठ करता है, उसके पहलेके पाप तो नष्ट हो ही जाते हैं, पापकी प्रवृत्ति भी नष्ट हो जाती है।।५९।।

जो मनुष्य इन्द्रियों और अन्तःकरणको अपने वशमें करके उपवासपूर्वक पुष्कर, मथुरा अथवा द्वारकामें इस पुराणसंहिताका पाठ करता है, वह सारे भयोंसे मुक्त हो जाता है।।६०।।

जो मनुष्य इसका श्रवण या उच्चारण करता है, उसके कीर्तनसे देवता, मुनि, सिद्ध, पितर, मनु और नरपति सन्तुष्ट होते हैं और उसकी अभिलाषाएँ पूर्ण करते हैं।।६१।।

ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेदके पाठसे ब्राह्मणको मधुकुल्या, घृतकुल्या और पयःकुल्या (मधु, घी एवं दूधकी नदियाँ अर्थात् सब प्रकारकी सुख-समृद्धि) की प्राप्ति होती है। वही फल श्रीमद्भागवतके पाठसे भी मिलता है।।६२।।

जो द्विज संयमपूर्वक इस पुराणसंहिताका अध्ययन करता है, उसे उसी परमपदकी प्राप्ति होती है, जिसका वर्णन स्वयं भगवान् ने किया है।।६३।।

इसके अध्ययनसे ब्राह्मणको ऋतम्भरा प्रज्ञा (तत्त्वज्ञानको प्राप्त करानेवाली बुद्धि) की प्राप्ति होती है और क्षत्रियको समुद्रपर्यन्त भूमण्डलका राज्य प्राप्त होता है। वैश्य कुबेरका पद प्राप्त करता है और शूद्र सारे पापोंसे छुटकारा पा जाता है।।६४।।

भगवान् ही सबके स्वामी हैं और समूह-के-समूह कलिमलोंको ध्वंस करनेवाले हैं। यों तो उनका वर्णन करनेके लिये बहुत-से पुराण हैं, परन्तु उनमें सर्वत्र और निरन्तर भगवान् का वर्णन नहीं मिलता। श्रीमद्भागवत-महापुराणमें तो प्रत्येक कथा-प्रसंगमें पद-पदपर सर्वस्वरूप भगवान् का ही वर्णन हुआ है।।६५।।

वे जन्म-मृत्यु आदि विकारोंसे रहित, देशकाला-दिकृत परिच्छेदोंसे मुक्त एवं स्वयं आत्मतत्त्व ही हैं। जगत् की उत्पत्ति-स्थिति-प्रलय करनेवाली शक्तियाँ भी उनकी स्वरूपभूत ही हैं, भिन्न नहीं। ब्रह्मा, शंकर, इन्द्र आदि लोकपाल भी उनकी स्तुति करना लेशमात्र भी नहीं जानते। उन्हीं एकरस सच्चिदानन्दस्वरूप परमात्माको मैं नमस्कार करता हूँ।।६६।।

जिन्होंने अपने स्वरूपमें ही प्रकृति आदि नौ शक्तियोंका संकल्प करके इस चराचर जगत् की सृष्टि की है और जो इसके अधिष्ठानरूपसे स्थित हैं तथा जिनका परम पद केवल अनुभूतिस्वरूप है, उन्हीं देवताओंके आराध्यदेव सनातन भगवान् के चरणोंमें मैं नमस्कार करता हूँ।।६७।।

श्रीशुकदेवजी महाराज अपने आत्मानन्दमें ही निमग्न थे। इस अखण्ड अद्वैत स्थितिसे उनकी भेददृष्टि सर्वथा निवृत्त हो चुकी थी। फिर भी मुरलीमनोहर श्यामसुन्दरकी मधुमयी, मंगलमयी, मनोहारिणी लीलाओंने उनकी वृत्तियोंको अपनी ओर आकर्षित कर लिया और उन्होंने जगत् के प्राणियोंपर कृपा करके भगवत्तत्त्वको प्रकाशित करनेवाले इस महापुराणका विस्तार किया। मैं उन्हीं सर्वपापहारी व्यासनन्दन भगवान् श्रीशुकदेवजीके चरणोंमें नमस्कार करता हूँ।।६८।।

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां
संहितायां द्वादशस्कन्धे द्वादशस्कन्धार्थनिरूपणं नाम द्वादशोऽध्यायः।।१२।।


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