भागवत पुराण – द्वादश स्कन्ध – अध्याय – 11


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भगवान् के अंग, उपांग और आयुधोंका रहस्य तथा विभिन्न सूर्यगणोंका वर्णन

शौनकजीने कहा – सूतजी! आप भगवान् के परमभक्त और बहुज्ञोंमें शिरोमणि हैं। हमलोग समस्त शास्त्रोंके सिद्धान्तके सम्बन्धमें आपसे एक विशेष प्रश्न पूछना चाहते हैं, क्योंकि आप उसके मर्मज्ञ हैं।।१।।

हमलोग क्रियायोगका यथावत् ज्ञान प्राप्त करना चाहते हैं; क्योंकि उसका कुशलतापूर्वक ठीक-ठीक आचरण करनेसे मरणधर्मा पुरुष अमरत्व प्राप्त कर लेता है। अतः आप हमें यह बतलाइये कि पांचरात्रादि तन्त्रोंकी विधि जाननेवाले लोग केवल श्रीलक्ष्मीपति भगवान् की आराधना करते समय किन-किन तत्त्वोंसे उनके चरणादि अंग, गरुडादि उपांग, सुदर्शनादि आयुध और कौस्तुभादि आभूषणोंकी कल्पना करते हैं? भगवान् आपका कल्याण करें।।२-३।।

सूतजीने कहा – शौनकजी! ब्रह्मादि आचार्योंने, वेदोंने और पांचरात्रादि तन्त्र-ग्रन्थोंने विष्णुभगवान् की जिन विभूतियोंका वर्णन किया है, मैं श्रीगुरुदेवके चरणोंमें नमस्कार करके आपलोगोंको वही सुनाता हूँ।।४।।

भगवान् के जिस चेतनाधिष्ठित विराट् रूपमें यह त्रिलोकी दिखायी देती है, वह प्रकृति, सूत्रात्मा, महत्तत्त्व, अहंकार और पंचतन्मात्रा – इन नौ तत्त्वोंके सहित ग्यारह इन्द्रिय तथा पंचभूत – इन सोलह विकारोंसे बना हुआ है।।५।।

यह भगवान् का ही पुरुषरूप है। पृथ्वी इसके चरण हैं, स्वर्ग मस्तक है, अन्तरिक्ष नाभि है, सूर्य नेत्र हैं, वायु नासिका है और दिशाएँ कान हैं।।६।।

प्रजापति लिंग है, मृत्यु गुदा है, लोकपालगण भुजाएँ हैं, चन्द्रमा मन है और यमराज भौंहें हैं।।७।।

लज्जा ऊपरका होठ है, लोभ नीचेका होठ है, चन्द्रमाकी चाँदनी दन्तावली है, भ्रम मुसकान है, वृक्ष रोम हैं और बादल ही विराट् पुरुषके सिरपर उगे हुए बाल हैं।।८।।

शौनकजी! जिस प्रकार यह व्यष्टि पुरुष अपने परिमाणसे सात बित्तेका है उसी प्रकार वह समष्टि पुरुष भी इस लोकसंस्थितिके साथ अपने सात बित्तेका है।।९।।

स्वयं भगवान् अजन्मा हैं। वे कौस्तुभमणिके बहाने जीव-चैतन्यरूप आत्मज्योतिको ही धारण करते हैं और उसकी सर्वव्यापिनी प्रभाको ही वक्षःस्थलपर श्रीवत्सरूपसे।।१०।।

वे अपनी सत्त्व, रज आदि गुणोंवाली मायाको वनमालाके रूपसे, छन्दको पीताम्बरके रूपसे तथा अ+उ+म् – इन तीन मात्रावाले प्रणवको यज्ञोपवीतके रूपमें धारण करते हैं।।११।।

देवाधिदेव भगवान् सांख्य और योगरूप मकराकृत कुण्डल तथा सब लोकोंको अभय करनेवाले ब्रह्मलोकको ही मुकुटके रूपमें धारण करते हैं।।१२।।

मूलप्रकृति ही उनकी शेषशय्या है, जिसपर वे विराजमान रहते हैं और धर्म-ज्ञानादियुक्त सत्त्वगुण ही उनके नाभि-कमलके रूपमें वर्णित हुआ है।।१३।।

वे मन, इन्द्रिय और शरीरसम्बन्धी शक्तियोंसे युक्त प्राण-तत्त्वरूप कौमोदकी गदा, जलतत्त्वरूप पांचजन्य शंख और तेजस्तत्त्वरूप सुदर्शनचक्रको धारण करते हैं।।१४।।

आकाशके समान निर्मल आकाशस्वरूप खड्ग, तमोमय अज्ञानरूप ढाल, कालरूप शार्ङ्गधनुष और कर्मका ही तरकस धारण किये हुए हैं।।१५।।

इन्द्रियोंको ही भगवान् के बाणोंके रूपमें कहा गया है। क्रियाशक्तियुक्त मन ही रथ है। तन्मात्राएँ रथके बाहरी भाग हैं और वर-अभय आदिकी मुद्राओंसे उनकी वरदान, अभयदान आदिके रूपमें क्रियाशीलता प्रकट होती है।।१६।।

सूर्यमण्डल अथवा अग्निमण्डल ही भगवान् की पूजाका स्थान है, अन्तःकरणकी शुद्धि ही मन्त्रदीक्षा है और अपने समस्त पापोंको नष्ट कर देना ही भगवान् की पूजा है।।१७।।

ब्राह्मणो! समग्र ऐश्वर्य, धर्म, यश, लक्ष्मी, ज्ञान और वैराग्य – इन छः पदार्थोंका नाम ही लीला-कमल है, जिसे भगवान् अपने करकमलमें धारण करते हैं। धर्म और यशको क्रमशः चँवर एवं व्यजन (पंखे) के रूपसे तथा अपने निर्भय धाम वैकुण्ठको छत्ररूपसे धारण किये हुए हैं। तीनों वेदोंका ही नाम गरुड है। वे ही अन्तर्यामी परमात्माका वहन करते हैं।।१८-१९।।

आत्मस्वरूप भगवान् की उनसे कभी न बिछुड़नेवाली आत्मशक्तिका ही नाम लक्ष्मी है। भगवान् के पार्षदोंके नायक विश्वविश्रुत विष्वक्सेन पांचरात्रादि आगमरूप हैं। भगवान् के स्वाभाविक गुण अणिमा, महिमा आदि अष्टसिद्धियोंको ही नन्द-सुनन्दादि आठ द्वारपाल कहते हैं।।२०।।

शौनकजी! स्वयं भगवान् ही वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न और अनिरुद्ध – इन चार मूर्तियोंके रूपमें अवस्थित हैं; इसलिये उन्हींको चतुर्व्यूहके रूपमें कहा जाता है।।२१।।

वे ही जाग्रत्-अवस्थाके अभिमानी ‘विश्व’ बनकर शब्द, स्पर्श आदि बाह्य विषयोंको ग्रहण करते और वे ही स्वप्नावस्थाके अभिमानी ‘तैजस’ बनकर बाह्य विषयोंके बिना ही मन-ही-मन अनेक विषयोंको देखते और ग्रहण करते हैं। वे ही सुषुप्ति-अवस्थाके अभिमानी ‘प्राज्ञ’ बनकर विषय और मनके संस्कारोंसे युक्त अज्ञानसे ढक जाते हैं और वही सबके साक्षी ‘तुरीय’ रहकर समस्त ज्ञानोंके अधिष्ठान रहते हैं।।२२।।

इस प्रकार अंग, उपांग, आयुध और आभूषणोंसे युक्त तथा वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न एवं अनिरुद्ध – इन चार मूर्तियोंके रूपमें प्रकट सर्वशक्तिमान् भगवान् श्रीहरि ही क्रमशः विश्व, तैजस, प्राज्ञ एवं तुरीयरूपसे प्रकाशित होते हैं।।२३।।

शौनकजी! वही सर्वस्वरूप भगवान् वेदोंके मूल कारण हैं, वे स्वयंप्रकाश एवं अपनी महिमासे परिपूर्ण हैं। वे अपनी मायासे ब्रह्मा आदि रूपों एवं नामोंसे इस विश्वकी सृष्टि, स्थिति और संहार सम्पन्न करते हैं। इन सब कर्मों और नामोंसे उनका ज्ञान कभी आवृत नहीं होता। यद्यपि शास्त्रोंमें भिन्नके समान उनका वर्णन हुआ है अवश्य, परन्तु वे अपने भक्तोंको आत्मस्वरूपसे ही प्राप्त होते हैं।।२४।।

सच्चिदानन्दस्वरूप श्रीकृष्ण! आप अर्जुनके सखा हैं। आपने यदुवंशशिरोमणिके रूपमें अवतार ग्रहण करके पृथ्वीके द्रोही भूपालोंको भस्म कर दिया है। आपका पराक्रम सदा एकरस रहता है। व्रजकी गोपबालाएँ और आपके नारदादि प्रेमी निरन्तर आपके पवित्र यशका गान करते रहते हैं। गोविन्द! आपके नाम, गुण और लीलादिका श्रवण करनेसे ही जीवका मंगल हो जाता है। हम सब आपके सेवक हैं। आप कृपा करके हमारी रक्षा कीजिये।।२५।।

पुरुषोत्तमभगवान् के चिह्नभूत अंग, उपांग और आयुध आदिके इस वर्णनका जो मनुष्य भगवान् में ही चित्त लगाकर पवित्र होकर प्रातःकाल पाठ करेगा, उसे सबके हृदयमें रहनेवाले ब्रह्मस्वरूप परमात्माका ज्ञान हो जायगा।।२६।।

शौनकजीने कहा – सूतजी! भगवान् श्रीशुकदेवजीने श्रीमद्भागवत-कथा सुनाते समय राजर्षि परीक्षित् से (पंचम स्कन्धमें) कहा था कि ऋषि, गन्धर्व, नाग, अप्सरा, यक्ष, राक्षस और देवताओंका एक सौरगण होता है और ये सातों प्रत्येक महीनेमें बदलते रहते हैं। ये बारह गण अपने स्वामी द्वादश आदित्योंके साथ रहकर क्या काम करते हैं और उनके अन्तर्गत व्यक्तियोंके नाम क्या हैं? सूर्यके रूपमें भी स्वयं भगवान् ही हैं; इसलिये उनके विभागको हम बड़ी श्रद्धाके साथ सुनना चाहते हैं, आप कृपा करके कहिये।।२७-२८।।

सूतजीने कहा – समस्त प्राणियोंके आत्मा भगवान् विष्णु ही हैं। अनादि अविद्यासे अर्थात् उनके वास्तविक स्वरूपके अज्ञानसे ही समस्त लोकोंके व्यवहार-प्रवर्तक प्राकृत सूर्यमण्डलका निर्माण हुआ है। वही लोकोंमें भ्रमण किया करता है।।२९।।

असलमें समस्त लोकोंके आत्मा एवं आदिकर्ता एकमात्र श्रीहरि ही अन्तर्यामीरूपसे सूर्य बने हुए हैं। वे यद्यपि एक ही हैं, तथापि ऋषियोंने उनका बहुत रूपोंमें वर्णन किया है, वे ही समस्त वैदिक क्रियाओंके मूल हैं।।३०।।

शौनकजी! एक भगवान् ही मायाके द्वारा काल, देश, यज्ञादि क्रिया, कर्ता, स्रुवा आदि करण, यागादि कर्म, वेदमन्त्र, शाकल्य आदि द्रव्य और फलरूपसे नौ प्रकारके कहे जाते हैं।।३१।।

कालरूपधारी भगवान् सूर्य लोगोंका व्यवहार ठीक-ठीक चलानेके लिये चैत्रादि बारह महीनोंमें अपने भिन्न-भिन्न बारह गणोंके साथ चक्कर लगाया करते हैं।।३२।।

शौनकजी! धाता नामक सूर्य, कृतस्थली अप्सरा, हेति राक्षस, वासुकि सर्प, रथकृत् यक्ष, पुलस्त्य ऋषि और तुम्बुरु गन्धर्व – ये चैत्र मासमें अपना-अपना कार्य सम्पन्न करते हैं।।३३।।

अर्यमा सूर्य, पुलह ऋषि, अथौजा यक्ष, प्रहेति राक्षस, पुंजिकस्थली अप्सरा, नारद गन्धर्व और कच्छनीर सर्प – ये वैशाख मासके कार्य-निर्वाहक हैं।।३४।।

मित्र सूर्य, अत्रि ऋषि, पौरुषेय राक्षस, तक्षक सर्प, मेनका अप्सरा, हाहा गन्धर्व और रथस्वन यक्ष – ये ज्येष्ठ मासके कार्यनिर्वाहक हैं।।३५।।

आषाढ़में वरुण नामक सूर्यके साथ वसिष्ठ ऋषि, रम्भा अप्सरा, सहजन्य यक्ष, हूहू गन्धर्व, शुक्र नाग और चित्रस्वन राक्षस अपने-अपने कार्यका निर्वाह करते हैं।।३६।।

श्रावण मास इन्द्र नामक सूर्यका कार्यकाल है। उनके साथ विश्वावसु गन्धर्व, श्रोता यक्ष, एलापत्र नाग, अंगिरा ऋषि, प्रम्लोचा अप्सरा एवं वर्य नामक राक्षस अपने कार्यका सम्पादन करते हैं।।३७।।

भाद्रपदके सूर्यका नाम है विवस्वान्। उनके साथ उग्रसेन गन्धर्व, व्याघ्र राक्षस, आसारण यक्ष, भृगु ऋषि, अनुम्लोचा अप्सरा और शंखपाल नाग रहते हैं।।३८।।

शौनकजी! माघ मासमें पूषा नामके सूर्य रहते हैं। उनके साथ धनंजय नाग, वात राक्षस, सुषेण गन्धर्व, सुरुचि यक्ष, घृताची अप्सरा और गौतम ऋषि रहते हैं।।३९।।

फाल्गुन मासका कार्यकाल पर्जन्य नामक सूर्यका है। उनके साथ क्रतु यक्ष, वर्चा राक्षस, भरद्वाज ऋषि, सेनजित् अप्सरा, विश्व गन्धर्व और ऐरावत सर्प रहते हैं।।४०।।

मार्गशीर्ष मासमें सूर्यका नाम होता है अंशु। उनके साथ कश्यप ऋषि, तार्क्ष्य यक्ष, ऋतसेन गन्धर्व, उर्वशी अप्सरा, विद्युच्छत्रु राक्षस और महाशंख नाग रहते हैं।।४१।।

पौष मासमें भग नामक सूर्यके साथ स्फूर्ज राक्षस, अरिष्टनेमि गन्धर्व, ऊर्ण यक्ष, आयु ऋषि, पूर्वचित्ति अप्सरा और कर्कोटक नाग रहते हैं।।४२।।

आश्विन मासमें त्वष्टा सूर्य, जमदग्नि ऋषि, कम्बल नाग, तिलोत्तमा अप्सरा, ब्रह्मापेत राक्षस, शतजित् यक्ष और धृतराष्ट्र गन्धर्वका कार्यकाल है।।४३।।

तथा कार्तिकमें विष्णु नामक सूर्यके साथ अश्वतर नाग, रम्भा अप्सरा, सूर्यवर्चा गन्धर्व, सत्यजित् यक्ष, विश्वामित्र ऋषि और मखापेत राक्षस अपना-अपना कार्य सम्पन्न करते हैं।।४४।।

शौनकजी! ये सब सूर्यरूप भगवान् की विभूतियाँ हैं। जो लोग इनका प्रतिदिन प्रातःकाल और सायंकाल स्मरण करते हैं, उनके सारे पाप नष्ट हो जाते हैं।।४५।।

ये सूर्यदेव अपने छः गणोंके साथ बारहों महीने सर्वत्र विचरते रहते हैं और इस लोक तथा परलोकमें विवेक-बुद्धिका विस्तार करते हैं।।४६।।

सूर्यभगवान् के गणोंमें ऋषिलोग तो सूर्यसम्बन्धी ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेदके मन्त्रोंद्वारा उनकी स्तुति करते हैं और गंधर्व उनके सुयशका गान करते रहते हैं। अप्सराएँ आगे-आगे नृत्य करती चलती हैं।।४७।।

नागगण रस्सीकी तरह उनके रथको कसे रहते हैं। यक्षगण रथका साज सजाते हैं और बलवान् राक्षस उसे पीछेसे ढकेलते हैं।।४८।।

इनके सिवा वालखिल्य नामके साठ हजार निर्मलस्वभाव ब्रह्मर्षि सूर्यकी ओर मुँह करके उनके आगे-आगे स्तुतिपाठ करते चलते हैं।।४९।।

इस प्रकार अनादि, अनन्त, अजन्मा भगवान् श्रीहरि ही कल्प-कल्पमें अपने स्वरूपका विभाग करके लोकोंका पालन-पोषण करते-रहते हैं।।५०।।

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां
संहितायां द्वादशस्कन्धे आदित्यव्यूहविवरणं नामैकादशोऽध्यायः।।११।।


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