भागवत पुराण – दशम स्कन्ध – अध्याय – 59


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भौमासुरका उद्धार और सोलह हजार एक सौ राज-कन्याओंके साथ भगवान् का विवाह

राजा परीक्षित् ने पूछा – भगवन्! भगवान् श्रीकृष्णने भौमासुरको, जिसने उन स्त्रियोंको बंदीगृहमें डाल रखा था, क्यों और कैसे मारा? आप कृपा करके शाङ्गे-धनुषधारी भगवान् श्रीकृष्णका वह विचित्र चरित्र सुनाइये।।१।।

श्रीशुकदेवजीने कहा – परीक्षित्! भौमासुरने वरुणका छत्र, माता अदितिके कुण्डल और मेरु पर्वतपर स्थित देवताओंका मणिपर्वत नामक स्थान छीन लिया था।

इसपर सबके राजा इन्द्र द्वारकामें आये और उसकी एक-एक करतूत उन्होंने भगवान् श्रीकृष्णको सुनायी।

अब भगवान् श्रीकृष्ण अपनी प्रिय पत्नी सत्यभामाके साथ गरुड़पर सवार हुए और भौमासुरकी राजधानी प्राग् ज्योतिषपुरमें गये।।२।।

प्राग् ज्योतिषपुरमें प्रवेश करना बहुत कठिन था।

पहले तो उसके चारों ओर पहाड़ोंकी किलेबंदी थी, उसके बाद शस्त्रोंका घेरा लगाया हुआ था।

फिर जलसे भरी खाईं थी, उसके बाद आग या बिजलीकी चहारदीवारी थी और उसके भीतर वायु (गैस) बंद करके रखा गया था।

इससे भी भीतर मुर दैत्यने नगरके चारों ओर अपने दस हजार घोर एवं सुदृढ फंदे (जाल) बिछा रखे थे।।३।।

भगवान् श्रीकृष्णने अपनी गदाकी चोटसे पहाड़ोंको तोड़-फोड़ डाला और शस्त्रोंकी मोरचे-बंदीको बाणोंसे छिन्न-भिन्न कर दिया।

चक्रके द्वारा अग्नि, जल और वायुकी चहारदीवारियोंको तहस-नहस कर दिया और मुर दैत्यके फंदोंको तलवारसे काट-कूटकर अलग रख दिया।।४।।

जो बड़े-बड़े यन्त्र – मशीनें वहाँ लगी हुई थीं, उनको तथा वीरपुरुषोंके हृदयको शंखनादसे विदीर्ण कर दिया और नगरके परकोटेको गदाधर भगवान् ने अपनी भारी गदासे ध्वंस कर डाला।।५।।

तदापतद् वै त्रिशिखं गरुत्मते हरिः शराभ्यामभिनत्त्रिधौजसा ।

भगवान् के पांचजन्य शंखकी ध्वनि प्रलयकालीन बिजलीकी कड़कके समान महाभयंकर थी।

उसे सुनकर मुर दैत्यकी नींद टूटी और वह बाहर निकल आया।

उसके पाँच सिर थे और अबतक वह जलके भीतर सो रहा था।।६।।

वह दैत्य प्रलयकालीन सूर्य और अग्निके समान प्रचण्ड तेजस्वी था।

वह इतना भयंकर था कि उसकी ओर आँख उठाकर देखना भी आसान काम नहीं था।

उसने त्रिशूल उठाया और इस प्रकार भगवान् की ओर दौड़ा, जैसे साँप गरुड़जीपर टूट पड़े।

उस समय ऐसा मालूम होता था मानो वह अपने पाँचों मुखोंसे त्रिलोकीको निगल जायगा।।७।।

उसने अपने त्रिशूलको बड़े वेगसे घुमाकर गरुड़जीपर चलाया और फिर अपने पाँचों मुखोंसे घोर सिंहनाद करने लगा।

उसके सिंहनादका महान् शब्द पृथ्वी, आकाश, पाताल और दसों दिशाओंमें फैलकर सारे ब्रह्माण्डमें भर गया।।८।।

भगवान् श्रीकृष्णने देखा कि मुर दैत्यका त्रिशूल गरुड़की ओर बड़े वेगसे आ रहा है।

तब अपना हस्तकौशल दिखाकर फुर्तीसे उन्होंने दो बाण मारे, जिनसे वह त्रिशूल कटकर तीन टूक हो गया।

इसके साथ ही मुर दैत्यके मुखोंमें भी भगवान् ने बहुत-से बाण मारे।

इससे वह दैत्य अत्यन्त क्रुद्ध हो उठा और उसने भगवान् पर अपनी गदा चलायी।।९।।

परन्तु भगवान् श्रीकृष्णने अपनी गदाके प्रहारसे मुर दैत्यकी गदाको अपने पास पहुँचनेके पहले ही चूर-चूर कर दिया।

अब वह अस्त्रहीन हो जानेके कारण अपनी भुजाएँ फैलाकर श्रीकृष्णकी ओर दौड़ा और उन्होंने खेल-खेलमें ही चक्रसे उसके पाँचों सिर उतार लिये।।१०।।

सिर कटते ही मुर दैत्यके प्राण-पखेरू उड़ गये और वह ठीक वैसे ही जलमें गिर पड़ा, जैसे इन्द्रके वज्रसे शिखर कट जानेपर कोई पर्वत समुद्रमें गिर पड़ा हो।

मुर दैत्यके सात पुत्र थे – ताम्र, अन्तरिक्ष, श्रवण, विभावसु, वसु, नभस्वान् और अरुण।

ये अपने पिताकी मृत्युसे अत्यन्त शोकाकुल हो उठे और फिर बदला लेनेके लिये क्रोधसे भरकर शस्त्रास्त्रसे सुसज्जित हो गये तथा पीठ नामक दैत्यको अपना सेनापति बनाकर भौमासुरके आदेशसे श्रीकृष्णपर चढ़ आये।।११-१२।।

वे वहाँ आकर बड़े क्रोधसे भगवान् श्रीकृष्णपर बाण, खड् ग, गदा, शक्ति, ऋष्टि और त्रिशूल आदि प्रचण्ड शस्त्रोंकी वर्षा करने लगे।

परीक्षित्! भगवान् की शक्ति अमोघ और अनन्त है।

उन्होंने अपने बाणोंसे उनके कोटि-कोटि शस्त्रास्त्र तिल-तिल करके काट गिराये।।१३।।

भगवान् के शस्त्रप्रहारसे सेनापति पीठ और उसके साथी दैत्योंके सिर, जाँघें, भुजा, पैर और कवच कट गये और उन सभीको भगवान् ने यमराजके घर पहुँचा दिया।

जब पृथ्वीके पुत्र नरकासुर (भौमासुर) ने देखा कि भगवान् श्रीकृष्णके चक्र और बाणोंसे हमारी सेना और सेनापतियोंका संहार हो गया, तब उसे असह्य क्रोध हुआ।

वह समुद्रतटपर पैदा हुए बहुत-से मदवाले हाथियोंकी सेना लेकर नगरसे बाहर निकला।

उसने देखा कि भगवान् श्रीकृष्ण अपनी पत्नीके साथ आकाशमें गरुड़पर स्थित हैं, जैसे सूर्यके ऊपर बिजलीके साथ वर्षाकालीन श्याममेघ शोभायमान हो।

भौमासुरने स्वयं भगवान् के ऊपर शतघ्नी नामकी शक्ति चलायी और उसके सब सैनिकोंने भी एक ही साथ उनपर अपने-अपने अस्त्र-शस्त्र छोड़े।।१४-१५।।

अब भगवान् श्रीकृष्ण भी चित्र-विचित्र पंखवाले तीखे-तीखे बाण चलाने लगे।

इससे उसी समय भौमासुरके सैनिकोंकी भुजाएँ, जाँघें, गर्दन और धड़ कट-कटकर गिरने लगे; हाथी और घोड़े भी मरने लगे।।१६।।

परीक्षित्! भौमासुरके सैनिकोंने भगवान् पर जो-जो अस्त्र-शस्त्र चलाये थे, उनमेंसे प्रत्येकको भगवान् ने तीन-तीन तीखे बाणोंसे काट गिराया।।१७।।

उस समय भगवान् श्रीकृष्ण गरुड़जीपर सवार थे और गरुड़जी अपने पंखोंसे हाथियोंको मार रहे थे।

उनकी चोंच, पंख और पंजोंकी मारसे हाथियोंको बड़ी पीड़ा हुई और वे सब-के-सब आर्त होकर युद्धभूमिसे भागकर नगरमें घुस गये।

अब वहाँ अकेला भौमासुर ही लड़ता रहा।

जब उसने देखा कि गरुड़जीकी मारसे पीड़ित होकर मेरी सेना भाग रही है, तब उसने उनपर वह शक्ति चलायी, जिसने वज्रको भी विफल कर दिया था।

परन्तु उसकी चोटसे पक्षिराज गरुड़ तनिक भी विचलित न हुए, मानो किसीने मतवाले गजराजपर फूलोंकी मालासे प्रहार किया हो।।१८-२०।।

अब भौमासुरने देखा कि मेरी एक भी चाल नहीं चलती, सारे उद्योग विफल होते जा रहे हैं, तब उसने श्रीकृष्णको मार डालनेके लिये एक त्रिशूल उठाया।

परन्तु उसे अभी वह छोड़ भी न पाया था कि भगवान् श्रीकृष्णने छुरेके समान तीखी धारवाले चक्रसे हाथीपर बैठे हुए भौमासुरका सिर काट डाला।।२१।।

उसका जगमगाता हुआ सिर कुण्डल और सुन्दर किरीटके सहित पृथ्वीपर गिर पड़ा।

उसे देखकर भौमासुरके सगे-सम्बन्धी हाय-हाय पुकार उठे, ऋषिलोग ‘साधु साधु’ कहने लगे और देवतालोग भगवान् पर पुष्पोंकी वर्षा करते हुए स्तुति करने लगे।।२२।।

अब पृथ्वी भगवान् के पास आयी।

उसने भगवान् श्रीकृष्णके गलेमें वैजयन्तीके साथ वनमाला पहना दी और अदिति माताके जगमगाते हुए कुण्डल, जो तपाये हुए सोनेके एवं रत्नजटित थे, भगवान् को दे दिये तथा वरुणका छत्र और साथ ही एक महामणि भी उनको दी।।२३।।

राजन्! इसके बाद पृथ्वीदेवी बड़े-बड़े देवताओंके द्वारा पूजित विश्वेश्वर भगवान् श्रीकृष्णको प्रणाम करके हाथ जोड़कर भक्तिभावभरे हृदयसे उनकी स्तुति करने लगीं।।२४।।

पृथ्वीदेवीने कहा – शंखचक्रगदाधारी देव-देवेश्वर! मैं आपको नमस्कार करती हूँ।

परमात्मन्! आप अपने भक्तोंकी इच्छा पूर्ण करनेके लिये उसीके अनुसार रूप प्रकट किया करते हैं।

आपको मैं नमस्कार करती हूँ।।२५।।

प्रभो! आपकी नाभिसे कमल प्रकट हुआ है।

आप कमलकी माला पहनते हैं।

आपके नेत्र कमलसे खिले हुए और शान्तिदायक हैं।

आपके चरण कमलके समान सुकुमार और भक्तोंके हृदयको शीतल करनेवाले हैं।

आपको मैं बार-बार नमस्कार करती हूँ।।२६।।

आप समग्र ऐश्वर्य, धर्म, यश, सम्पत्ति, ज्ञान और वैराग्यके आश्रय हैं।

आप सर्वव्यापक होनेपर भी स्वयं वसुदेवनन्दनके रूपमें प्रकट हैं।

मैं आपको नमस्कार करती हूँ।

आप ही पुरुष हैं और समस्त कारणोंके भी परम कारण हैं।

आप स्वयं पूर्ण ज्ञानस्वरूप हैं।

मैं आपको नमस्कार करती हूँ।।२७।।

आप स्वयं तो हैं जन्मरहित, परन्तु इस जगत् के जन्मदाता आप ही हैं।

आप ही अनन्त शक्तियोंके आश्रय ब्रह्म हैं।

जगत् का जो कुछ भी कार्य-कारणमय रूप है, जितने भी प्राणी या अप्राणी हैं – सब आपके ही स्वरूप हैं।

परमात्मन्! आपके चरणोंमें मेरे बार-बार नमस्कार।।२८।।

प्रभो! जब आप जगत् की रचना करना चाहते हैं, तब उत्कट रजोगुणको, और जब इसका प्रलय करना चाहते हैं तब तमोगुणको, तथा जब इसका पालन करना चाहते हैं तब सत्त्वगुणको स्वीकार करते हैं।

परन्तु यह सब करनेपर भी आप इन गुणोंसे ढकते नहीं, लिप्त नहीं होते।

जगत्पते! आप स्वयं ही प्रकृति, पुरुष और दोनोंके संयोग-वियोगके हेतु काल हैं तथा उन तीनोंसे परे भी हैं।।२९।।

भगवन्! मैं (पृथ्वी), जल, अग्नि, वायु, आकाश, पंचतन्मात्राएँ, मन, इन्द्रिय और इनके अधिष्ठातृ-देवता, अहंकार और महत्तत्त्व – कहाँतक कहूँ, यह सम्पूर्ण चराचर जगत् आपके अद्वितीय स्व-रूपमें भ्रमके कारण ही पृथक् प्रतीत हो रहा है।।३०।।

शरणागत-भय-भंजन प्रभो! मेरे पुत्र भौमासुरका यह पुत्र भगदत्त अत्यन्त भयभीत हो रहा है।

मैं इसे आपके चरणकमलोंकी शरणमें ले आयी हूँ।

प्रभो! आप इसकी रक्षा कीजिये और इसके सिरपर अपना वह करकमल रखिये जो सारे जगत् के समस्त पाप-तापोंको नष्ट करनेवाला है।।३१।।

श्रीशुकदेवजी कहते हैं – परीक्षित्! जब पृथ्वीने भक्तिभावसे विनम्र होकर इस प्रकार भगवान् श्रीकृष्णकी स्तुति-प्रार्थना की, तब उन्होंने भगदत्तको अभयदान दिया और भौमासुरके समस्त सम्पत्तियोंसे सम्पन्न महलमें प्रवेश किया।।३२।।

वहाँ जाकर भगवान् ने देखा कि भौमासुरने बलपूर्वक राजाओंसे सोलह हजार राजकुमारियाँ छीनकर अपने यहाँ रख छोड़ी थीं।।३३।।

जब उन राजकुमारियोंने अन्तःपुरमें पधारे हुए नरश्रेष्ठ भगवान् श्रीकृष्णको देखा, तब वे मोहित हो गयीं और उन्होंने उनकी अहैतुकी कृपा तथा अपना सौभाग्य समझकर मन-ही-मन भगवान् को अपने परम प्रियतम पतिके रूपमें वरण कर लिया।।३४।।

उन राजकुमारियोंमेंसे प्रत्येकने अलग-अलग अपने मनमें यही निश्चय किया कि ‘ये श्रीकृष्ण ही मेरे पति हों और विधाता मेरी इस अभिलाषाको पूर्ण करें।’ इस प्रकार उन्होंने प्रेम-भावसे अपना हृदय भगवान् के प्रति निछावर कर दिया।।३५।।

तब भगवान् श्रीकृष्णने उन राजकुमारियोंको सुन्दर-सुन्दर निर्मल वस्त्राभूषण पहनाकर पालकियोंसे द्वारका भेज दिया और उनके साथ ही बहुत-से खजाने, रथ, घोड़े तथा अतुल सम्पत्ति भी भेजी।।३६।।

ऐरावतके वंशमें उत्पन्न हुए अत्यन्त वेगवान् चार-चार दाँतोंवाले सफेद रंगके चौंसठ हाथी भी भगवान् ने वहाँसे द्वारका भेजे।।३७।।

इसके बाद भगवान् श्रीकृष्ण अमरावतीमें स्थित देवराज इन्द्रके महलोंमें गये।

वहाँ देवराज इन्द्रने अपनी पत्नी इन्द्राणीके साथ सत्यभामाजी और भगवान् श्रीकृष्णकी पूजा की, तब भगवान् ने अदितिके कुण्डल उन्हें दे दिये।।३८।।

वहाँसे लौटते समय सत्यभामाजीकी प्रेरणासे भगवान् श्रीकृष्णने कल्पवृक्ष उखाड़कर गरुड़पर रख लिया और देवराज इन्द्र तथा समस्त देवताओंको जीतकर उसे द्वारकामें ले आये।।३९।।

भगवान् ने उसे सत्यभामाके महलके बगीचेमें लगा दिया।

इससे उस बगीचेकी शोभा अत्यन्त बढ़ गयी।

कल्पवृक्षके साथ उसके गन्ध और मकरन्दके लोभी भौंरे स्वर्गसे द्वारकामें चले आये थे।।४०।।

परीक्षित्! देखो तो सही, जब इन्द्रको अपना काम बनाना था, तब तो उन्होंने अपना सिर झुकाकर मुकुटकी नोकसे भगवान् श्रीकृष्णके चरणोंका स्पर्श करके उनसे सहायताकी भिक्षा माँगी थी, परन्तु जब काम बन गया, तब उन्होंने उन्हीं भगवान् श्रीकृष्णसे लड़ाई ठान ली।

सचमुच ये देवता भी बड़े तमोगुणी हैं और सबसे बड़ा दोष तो उनमें धनाढ्यताका है।

धिक्कार है ऐसी धनाढ्यताको।।४१।।

तदनन्तर भगवान् श्रीकृष्णने एक ही मुहूर्तमें अलग-अलग भवनोंमें अलग-अलग रूप धारण करके एक ही साथ सब राजकुमारियोंका शास्त्रोक्त विधिसे पाणिग्रहण किया।

सर्वशक्तिमान् अविनाशी भगवान् के लिये इसमें आश्चर्यकी कौन-सी बात है।।४२।।

परीक्षित्! भगवान् की पत्नियोंके अलग-अलग महलोंमें ऐसी दिव्य सामग्रियाँ भरी हुई थीं, जिनके बराबर जगत् में कहीं भी और कोई भी सामग्री नहीं है; फिर अधिककी तो बात ही क्या है।

उन महलोंमें रहकर मति-गतिके परेकी लीला करनेवाले अविनाशी भगवान् श्रीकृष्ण अपने आत्मानन्दमें मग्न रहते हुए लक्ष्मीजीकी अंशस्वरूपा उन पत्नियोंके साथ ठीक वैसे ही विहार करते थे, जैसे कोई साधारण मनुष्य घर-गृहस्थीमें रहकर गृहस्थ-धर्मके अनुसार आचरण करता हो।।४३।।

परीक्षित्! ब्रह्मा आदि बड़े-बड़े देवता भी भगवान् के वास्तविक स्वरूपको और उनकी प्राप्तिके मार्गको नहीं जानते।

उन्हीं रमारमण भगवान् श्रीकृष्णको उन स्त्रियोंने पतिके रूपमें प्राप्त किया था।

अब नित्य-निरन्तर उनके प्रेम और आनन्दकी अभिवृद्धि होती रहती थी और वे प्रेमभरी मुसकराहट, मधुर चितवन, नवसमागम, प्रेमालाप तथा भाव बढ़ानेवाली लज्जासे युक्त होकर सब प्रकारसे भगवान् की सेवा करती रहती थीं।।४४।।

उनमेंसे सभी पत्नियोंके साथ सेवा करनेके लिये सैकड़ों दासियाँ रहतीं, फिर भी जब उनके महलमें भगवान् पधारते तब वे स्वयं आगे जाकर आदरपूर्वक उन्हें लिवा लातीं, श्रेष्ठ आसनपर बैठातीं, उत्तम सामग्रियोंसे पूजा करतीं, चरणकमल पखारतीं, पान लगाकर खिलातीं, पाँव दबाकर थकावट दूर करतीं, पंखा झलतीं, इत्र-फुलेल, चन्दन आदि लगातीं, फूलोंके हार पहनातीं, केश सँवारतीं, सुलातीं, स्नान करातीं और अनेक प्रकारके भोजन कराकर अपने ही हाथों भगवान् की सेवा करतीं।।४५।।

प्रत्युद् गमासनवरार्हणपादशौच- ताम्बूलविश्रमणवीजनगन्धमाल्यैः ।

केशप्रसारशयनस्नपनोपहार्यै- र्दासीशता अपि विभोर्विदधुः स्म दास्यम्।।

४५ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
दशमस्कन्धे उत्तरार्धे पारिजातहरणनरकवधो नाम एकोनषष्टितमोऽध्यायः।।५९।।


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