भागवत पुराण – दशम स्कन्ध – अध्याय – 58


<< भागवत पुराण – Index

<< भागवत पुराण – दशम स्कन्ध – अध्याय – 57

भागवत पुराण स्कंध लिंक - भागवत माहात्म्य | प्रथम (1) | द्वितीय (2) | तृतीय (3) | चतुर्थ (4) | पंचम (5) | षष्ठ (6) | सप्तम (7) | अष्टम (8) | नवम (9) | दशम (10) | एकादश (11) | द्वादश (12)


भगवान् श्रीकृष्णके अन्यान्य विवाहोंकी कथा

श्रीशुकदेवजी कहते हैं – परीक्षित्! अब पाण्डवोंका पता चल गया था कि वे लाक्षाभवनमें जले नहीं हैं।

एक बार भगवान् श्रीकृष्ण उनसे मिलनेके लिये इन्द्रप्रस्थ पधारे।

उनके साथ सात्यकि आदि बहुत-से यदुवंशी भी थे।।१।।

जब वीर पाण्डवोंने देखा कि सर्वेश्वर भगवान् श्रीकृष्ण पधारे हैं तो जैसे प्राणका संचार होनेपर सभी इन्द्रियाँ सचेत हो जाती हैं, वैसे ही वे सब-के-सब एक साथ उठ खड़े हुए।।२।।

वीर पाण्डवोंने भगवान् श्रीकृष्णका आलिंगन किया, उनके अंग-संगसे इनके सारे पाप-ताप धुल गये।

भगवान् की प्रेमभरी मुसकराहटसे सुशोभित मुख-सुषमा देखकर वे आनन्दमें मग्न हो गये।।३।।

भगवान् श्रीकृष्णने युधिष्ठिर और भीमसेनके चरणोंमें प्रणाम किया और अर्जुनको हृदयसे लगाया।

नकुल और सहदेवने भगवान् के चरणोंकी वन्दना की।।४।।

जब भगवान् श्रीकृष्ण श्रेष्ठ सिंहासनपर विराजमान हो गये; तब परमसुन्दरी श्यामवर्णा द्रौपदी, जो नवविवाहिता होनेके कारण तनिक लजा रही थी, धीरे-धीरे भगवान् श्रीकृष्णके पास आयी और उन्हें प्रणाम किया।।५।।

पाण्डवोंने भगवान् श्रीकृष्णके समान ही वीर सात्यकिका भी स्वागत-सत्कार और अभिनन्दन-वन्दन किया।

वे एक आसनपर बैठ गये।

दूसरे यदुवंशियोंका भी यथायोग्य सत्कार किया गया तथा वे भी श्रीकृष्णके चारों ओर आसनोंपर बैठ गये।।६।।

इसके बाद भगवान् श्रीकृष्ण अपनी फूआ कुन्तीके पास गये और उनके चरणोंमें प्रणाम किया।

कुन्तीजीने अत्यन्त स्नेहवश उन्हें अपने हृदयसे लगा लिया।

उस समय उनके नेत्रोंमें प्रेमके आँसू छलक आये।

कुन्तीजीने श्रीकृष्णसे अपने भाई-बन्धुओंकी कुशल-क्षेम पूछी और भगवान् ने भी उनका यथोचित उत्तर देकर उनसे उनकी पुत्रवधू द्रौपदी और स्वयं उनका कुशल-मंगल पूछा।।७।।

उस समय प्रेमकी विह्वलतासे कुन्तीजीका गला रुँध गया था, नेत्रोंसे आँसू बह रहे थे।

भगवान् के पूछनेपर उन्हें अपने पहलेके क्लेश-पर-क्लेश याद आने लगे और वे अपनेको बहुत सँभालकर, जिनका दर्शन समस्त क्लेशोंका अन्त करनेके लिये ही हुआ करता है, उन भगवान् श्रीकृष्णसे कहने लगीं – ।।८।।

‘श्रीकृष्ण! जिस समय तुमने हमलोगोंको अपना कुटुम्बी, सम्बन्धी समझकर स्मरण किया और हमारा कुशल-मंगल जाननेके लिये भाई अक्रूरको भेजा, उसी समय हमारा कल्याण हो गया, हम अनाथोंको तुमने सनाथ कर दिया।।९।।

मैं जानती हूँ कि तुम सम्पूर्ण जगत् के परम हितैषी सुहृद् और आत्मा हो।

यह अपना है और यह पराया, इस प्रकारकी भ्रान्ति तुम्हारे अंदर नहीं है।

ऐसा होनेपर भी, श्रीकृष्ण! जो सदा तुम्हें स्मरण करते हैं, उनके हृदयमें आकर तुम बैठ जाते हो और उनकी क्लेश-परम्पराको सदाके लिये मिटा देते हो’।।१०।।

युधिष्ठिरजीने कहा – ‘सर्वेश्वर श्रीकृष्ण! हमें इस बातका पता नहीं है कि हमने अपने पूर्वजन्मोंमें या इस जन्ममें कौन-सा कल्याण-साधन किया है? आपका दर्शन बड़े-बड़े योगेश्वर भी बड़ी कठिनतासे प्राप्त कर पाते हैं और हम कुबुद्धियोंको घर बैठे ही आपके दर्शन हो रहे हैं’।।११।।

राजा युधिष्ठिरने इस प्रकार भगवान् का खूब सम्मान किया और कुछ दिन वहीं रहनेकी प्रार्थना की।

इसपर भगवान् श्रीकृष्ण इन्द्रप्रस्थके नर-नारियोंको अपनी रूपमाधुरीसे नयनानन्दका दान करते हुए बरसातके चार महीनोंतक सुखपूर्वक वहीं रहे।।१२।।

परीक्षित्! एक बार वीरशिरोमणि अर्जुनने गाण्डीव धनुष और अक्षय बाणवाले दो तरकस लिये तथा भगवान् श्रीकृष्णके साथ कवच पहनकर अपने उस रथपर सवार हुए, जिसपर वानर-चिह्नसे चिह्नित ध्वजा लगी हुई थी।

इसके बाद विपक्षी वीरोंका नाश करनेवाले अर्जुन उस गहन वनमें शिकार खेलने गये, जो बहुत-से सिंह, बाघ आदि भयंकर जानवरोंसे भरा हुआ था।।१३-१४।।

वहाँ उन्होंने बहुत-से बाघ, सूअर, भैंसे, काले हरिन, शरभ, गवय (नीलापन लिये हुए भूरे रंगका एक बड़ा हिरन), गैंडे, हरिन, खरगोश और शल्लक (साही) आदि पशुओंपर अपने बाणोंका निशाना लगाया।।१५।।

उनमेंसे जो यज्ञके योग्य थे, उन्हें सेवकगण पर्वका समय जानकर राजा युधिष्ठिरके पास ले गये।

अर्जुन शिकार खेलते-खेलते थक गये थे।

अब वे प्यास लगनेपर यमुनाजीके किनारे गये।।१६।।

भगवान् श्रीकृष्ण और अर्जुन दोनों महारथियोंने यमुनाजीमें हाथ-पैर धोकर उनका निर्मल जल पिया और देखा कि एक परमसुन्दरी कन्या वहाँ तपस्या कर रही है।।१७।।

उस श्रेष्ठ सुन्दरीकी जंघा, दाँत और मुख अत्यन्त सुन्दर थे।

अपने प्रिय मित्र श्रीकृष्णके भेजनेपर अर्जुनने उसके पास जाकर पूछा – ।।१८।।

‘सुन्दरी! तुम कौन हो? किसकी पुत्री हो? कहाँसे आयी हो? और क्या करना चाहती हो? मैं ऐसा समझता हूँ कि तुम अपने योग्य पति चाह रही हो।

हे कल्याणि! तुम अपनी सारी बात बतलाओ’।।१९।।

कालिन्दीने कहा – ‘मैं भगवान् सूर्यदेवकी पुत्री हूँ।

मैं सर्वश्रेष्ठ वरदानी भगवान् विष्णुको पतिके रूपमें प्राप्त करना चाहती हूँ और इसीलिये यह कठोर तपस्या कर रही हूँ।।२०।।

वीर अर्जुन! मैं लक्ष्मीके परम आश्रय भगवान् को छोड़कर और किसीको अपना पति नहीं बना सकती।

अनाथोंके एकमात्र सहारे, प्रेम वितरण करनेवाले भगवान् श्रीकृष्ण मुझपर प्रसन्न हों।।२१।।

मेरा नाम है कालिन्दी।

यमुनाजलमें मेरे पिता सूर्यने मेरे लिये एक भवन भी बनवा दिया है।

उसीमें मैं रहती हूँ।

जबतक भगवान् का दर्शन न होगा, मैं यहीं रहूँगी’।।२२।।

अर्जुनने जाकर भगवान् श्रीकृष्णसे सारी बातें कहीं।

वे तो पहलेसे ही यह सब कुछ जानते थे, अब उन्होंने कालिन्दीको अपने रथपर बैठा लिया और धर्मराज युधिष्ठिरके पास ले आये।।२३।।

इसके बाद पाण्डवोंकी प्रार्थनासे भगवान् श्रीकृष्णने पाण्डवोंके रहनेके लिये एक अत्यन्त अद् भुत और विचित्र नगर विश्वकर्माके द्वारा बनवा दिया।।२४।।

भगवान् इस बार पाण्डवोंको आनन्द देने और उनका हित करनेके लिये वहाँ बहुत दिनोंतक रहे।

इसी बीच अग्निदेवको खाण्डव-वन दिलानेके लिये वे अर्जुनके सारथि भी बने।।२५।।

खाण्डव-वनका भोजन मिल जानेसे अग्निदेव बहुत प्रसन्न हुए।

उन्होंने अर्जुनको गाण्डीव धनुष, चार श्वेत घोड़े, एक रथ, दो अटूट बाणोंवाले तरकस और एक ऐसा कवच दिया, जिसे कोई अस्त्र-शस्त्रधारी भेद न सके।।२६।।

खाण्डव-दाहके समय अर्जुनने मय दानवको जलनेसे बचा लिया था।

इसलिये उसने अर्जुनसे मित्रता करके उनके लिये एक परम अद् भुत सभा बना दी।

उसी सभामें दुर्योधनको जलमें स्थल और स्थलमें जलका भ्रम हो गया था।।२७।।

कुछ दिनोंके बाद भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुनकी अनुमति एवं अन्य सम्बन्धियोंका अनुमोदन प्राप्त करके सात्यकि आदिके साथ द्वारका लौट आये।।२८।।

वहाँ आकर उन्होंने विवाहके योग्य ऋतु और ज्यौतिष-शास्त्रके अनुसार प्रशंसित पवित्र लग्नमें कालिन्दीजीका पाणिग्रहण किया।

इससे उनके स्वजन-सम्बन्धियोंको परम मंगल और परमानन्दकी प्राप्ति हुई।।२९।।

अवन्ती (उज्जैन) देशके राजा थे विन्द और अनुविन्द।

वे दुर्योधनके वशवर्ती तथा अनुयायी थे।

उनकी बहिन मित्रविन्दाने स्वयंवरमें भगवान् श्रीकृष्णको ही अपना पति बनाना चाहा।

परन्तु विन्द और अनुविन्दने अपनी बहिनको रोक दिया।।३०।।

परीक्षित्! मित्रविन्दा श्रीकृष्णकी फूआ राजाधिदेवीकी कन्या थी।

भगवान् श्रीकृष्ण राजाओंकी भरी सभामें उसे बलपूर्वक हर ले गये, सब लोग अपना-सा मुँह लिये देखते ही रह गये।।३१।।

परीक्षित्! कोसलदेशके राजा थे नग्नजित्।

वे अत्यन्त धार्मिक थे।

उनकी परमसुन्दरी कन्याका नाम था सत्या; नग्नजित् की पुत्री होनेसे वह नाग्नजिती भी कहलाती थी।

परीक्षित्! राजाकी प्रतिज्ञाके अनुसार सात दुर्दान्त बैलोंपर विजय प्राप्त न कर सकनेके कारण कोई राजा उस कन्यासे विवाह न कर सके।

क्योंकि उनके सींग बड़े तीखे थे और वे बैल किसी वीर पुरुषकी गन्ध भी नहीं सह सकते थे।।३२-३३।।

जब यदुवंशशिरोमणि भगवान् श्रीकृष्णने यह समाचार सुना कि जो पुरुष उन बैलोंको जीत लेगा, उसे ही सत्या प्राप्त होगी; तब वे बहुत बड़ी सेना लेकर कोसलपुरी (अयोध्या) पहुँचे।।३४।।

कोसलनरेश महाराज नग्नजित् ने बड़ी प्रसन्नतासे उनकी अगवानी की और आसन आदि देकर बहुत बड़ी पूजा-सामग्रीसे उनका सत्कार किया।

भगवान् श्रीकृष्णने भी उनका बहुत-बहुत अभिनन्दन किया।।३५।।

राजा नग्नजित् की कन्या सत्याने देखा कि मेरे चिर-अभिलषित रमारमण भगवान् श्रीकृष्ण यहाँ पधारे हैं; तब उसने मन-ही-मन यह अभिलाषा की कि ‘यदि मैंने व्रत-नियम आदिका पालन करके इन्हींका चिन्तन किया है तो ये ही मेरे पति हों और मेरी विशुद्ध लालसाको पूर्ण करें’।।३६।।

नाग्नजिती सत्या मन-ही मन सोचने लगी – ‘भगवती लक्ष्मी, ब्रह्मा, शंकर और बड़े-बड़े लोकपाल जिनके पदपंकजका पराग अपने सिरपर धारण करते हैं और जिन प्रभुने अपनी बनायी हुई मर्यादाका पालन करनेके लिये ही समय-समयपर अनेकों लीलावतार ग्रहण किये हैं, वे प्रभु मेरे किस धर्म, व्रत अथवा नियमसे प्रसन्न होंगे? वे तो केवल अपनी कृपासे ही प्रसन्न हो सकते हैं’।।३७।।

परीक्षित्! राजा नग्नजित् ने भगवान् श्रीकृष्णकी विधि-पूर्वक अर्चा-पूजा करके यह प्रार्थना की – ‘जगत् के एकमात्र स्वामी नारायण! आप अपने स्वरूपभूत आनन्दसे ही परिपूर्ण हैं और मैं हूँ एक तुच्छ मनुष्य! मैं आपकी क्या सेवा करूँ?’।।३८।।

श्रीशुकदेवजी कहते हैं – परीक्षित्! राजा नग्नजित् का दिया हुआ आसन, पूजा आदि स्वीकार करके भगवान् श्रीकृष्ण बहुत सन्तुष्ट हुए।

उन्होंने मुसकराते हुए मेघके समान गम्भीर वाणीसे कहा।।३९।।

भगवान् श्रीकृष्णने कहा – राजन्! जो क्षत्रिय अपने धर्ममें स्थित है, उसका कुछ भी माँगना उचित नहीं।

धर्मज्ञ विद्वानोंने उसके इस कर्मकी निन्दा की है।

फिर भी मैं आपसे सौहार्दका – प्रेमका सम्बन्ध स्थापित करनेके लिये आपकी कन्या चाहता हूँ।

हमारे यहाँ इसके बदलेमें कुछ शुल्क देनेकी प्रथा नहीं है।।४०।।

राजा नग्नजित् ने कहा – ‘प्रभो! आप समस्त गुणोंके धाम हैं, एकमात्र आश्रय हैं।

आपके वक्षःस्थलपर भगवती लक्ष्मी नित्य-निरन्तर निवास करती हैं।

आपसे बढ़कर कन्याके लिये अभीष्ट वर भला और कौन हो सकता है?।।४१।।

परन्तु यदुवंशशिरोमणे! हमने पहले ही इस विषयमें एक प्रण कर लिया है।

कन्याके लिये कौन-सा वर उपयुक्त है, उसका बल-पौरुष कैसा है – इत्यादि बातें जाननेके लिये ही ऐसा किया गया है।।४२।।

वीरश्रेष्ठ श्रीकृष्ण! हमारे ये सातों बैल किसीके वशमें न आनेवाले और बिना सधाये हुए हैं।

इन्होंने बहुत-से राजकुमारोंके अंगोंको खण्डित करके उनका उत्साह तोड़ दिया है।।४३।।

श्रीकृष्ण! यदि इन्हें आप ही नाथ लें, अपने वशमें कर लें, तो लक्ष्मीपते! आप ही हमारी कन्याके लिये अभीष्ट वर होंगे’।।४४।।

भगवान् श्रीकृष्णने राजा नग्नजित् का ऐसा प्रण सुनकर कमरमें फेंट कस ली और अपने सात रूप बनाकर खेल-खेलमें ही उन बैलोंको नाथ लिया।।४५।।

इससे बैलोंका घमंड चूर हो गया और उनका बल-पौरुष भी जाता रहा।

अब भगवान् श्रीकृष्ण उन्हें रस्सीसे बाँधकर इस प्रकार खींचने लगे, जैसे खेलते समय नन्हा-सा बालक काठके बैलोंको घसीटता है।।४६।।

राजा नग्नजित् को बड़ा विस्मय हुआ।

उन्होंने प्रसन्न होकर भगवान् श्रीकृष्णको अपनी कन्याका दान कर दिया और सर्वशक्तिमान् भगवान् श्रीकृष्णने भी अपने अनुरूप पत्नी सत्याका विधिपूर्वक पाणिग्रहण किया।।४७।।

रानियोंने देखा कि हमारी कन्याको उसके अत्यन्त प्यारे भगवान् श्रीकृष्ण ही पतिके रूपमें प्राप्त हो गये हैं।

उन्हें बड़ा आनन्द हुआ और चारों ओर बड़ा भारी उत्सव मनाया जाने लगा।।४८।।

शंख, ढोल, नगारे बजने लगे।

सब ओर गाना-बजाना होने लगा।

ब्राह्मण आशीर्वाद देने लगे।

सुन्दर वस्त्र, पुष्पोंके हार और गहनोंसे सज-धजकर नगरके नर-नारी आनन्द मनाने लगे।।४९।।

राजा नग्नजित् ने दस हजार गौएँ और तीन हजार ऐसी नवयुवती दासियाँ जो सुन्दर वस्त्र तथा गलेमें स्वर्णहार पहने हुए थीं, दहेजमें दीं।

इनके साथ ही नौ हजार हाथी, नौ लाख रथ, नौ करोड़ घोड़े और नौ अरब सेवक भी दहेजमें दिये।।५०-५१।।

कोसलनरेश राजा नग्नजित् ने कन्या और दामादको रथपर चढ़ाकर एक बड़ी सेनाके साथ विदा किया।

उस समय उनका हृदय वात्सल्य-स्नेहके उद्रेकसे द्रवित हो रहा था।।५२।।

परीक्षित्! यदुवंशियोंने और राजा नग्नजित् के बैलोंने पहले बहुत-से राजाओंका बल-पौरुष धूलमें मिला दिया था।

जब उन राजाओंने यह समाचार सुना, तब उनसे भगवान् श्रीकृष्णकी यह विजय सहन न हुई।

उन लोगोंने नाग्नजिती सत्याको लेकर जाते समय मार्गमें भगवान् श्रीकृष्णको घेर लिया।।५३।।

और वे बड़े वेगसे उनपर बाणोंकी वर्षा करने लगे।

उस समय पाण्डववीर अर्जुनने अपने मित्र भगवान् श्रीकृष्णका प्रिय करनेके लिये गाण्डीव धनुष धारण करके – जैसे सिंह छोटे-मोटे पशुओंको खदेड़ दे, वैसे ही उन नरपतियोंको मार-पीटकर भगा दिया।।५४।।

तदनन्तर यदुवंशशिरोमणि देवकीनन्दन भगवान् श्रीकृष्ण उस दहेज और सत्याके साथ द्वारकामें आये और वहाँ रहकर गृहस्थोचित विहार करने लगे।।५५।।

परीक्षित्! भगवान् श्रीकृष्णकी फूआ श्रुतकीर्ति केकय-देशमें ब्याही गयी थीं।

उनकी कन्याका नाम था भद्रा।

उसके भाई सन्तर्दन आदिने उसे स्वयं ही भगवान् श्रीकृष्णको दे दिया और उन्होंने उसका पाणिग्रहण किया।।५६।।

मद्रप्रदेशके राजाकी एक कन्या थी लक्ष्मणा।

वह अत्यन्त सुलक्षणा थी।

जैसे गरुड़ने स्वर्गसे अमृतका हरण किया था, वैसे ही भगवान् श्रीकृष्णने स्वयंवरमें अकेले ही उसे हर लिया।।५७।।

परीक्षित्! इसी प्रकार भगवान् श्रीकृष्णकी और भी सहस्रों स्त्रियाँ थीं।

उन परम सुन्दरियोंको वे भौमासुरको मारकर उसके बंदीगृहसे छुड़ा लाये थे।।५८।।

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
दशमस्कन्धे उत्तरार्धे अष्टमहिष्युद्वाहो नामाष्टपञ्चाशत्तमोऽध्यायः।।५८।।


Next.. (आगे पढें…..) >> भागवत पुराण – दशम स्कन्ध – अध्याय – 59

भागवत पुराण – दशम स्कन्ध – अध्याय का अगला पेज पढ़ने के लिए क्लिक करें >>

भागवत पुराण – दशम स्कन्ध – अध्याय – 59


Krishna Bhajan, Aarti, Chalisa

Krishna Bhajan