भागवत पुराण – दशम स्कन्ध – अध्याय – 51


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कालयवनका भस्म होना, मुचुकुन्दकी कथा

श्रीशुकदेवजी कहते हैं – प्रिय परीक्षित्! जिस समय भगवान् श्रीकृष्ण मथुरा नगरके मुख्य द्वारसे निकले, उस समय ऐसा मालूम पड़ा मानो पूर्व दिशासे चन्द्रोदय हो रहा हो।

उनका श्यामल शरीर अत्यन्त ही दर्शनीय था, उसपर रेशमी पीताम्बरकी छटा निराली ही थी; वक्षःस्थलपर स्वर्णरेखाके रूपमें श्रीवत्सचिह्न शोभा पा रहा था और गलेमें कौस्तुभमणि जगमगा रही थी।

चार भुजाएँ थीं, जो लम्बी-लम्बी और कुछ मोटी-मोटी थीं।

हालके खिले हुए कमलके समान कोमल और रतनारे नेत्र थे।

मुखकमलपर राशि-राशि आनन्द खेल रहा था।

कपोलोंकी छटा निराली ही थी।

मन्द-मन्द मुसकान देखनेवालोंका मन चुराये लेती थी।

कानोंमें मकराकृत कुण्डल झिलमिल-झिलमिल झलक रहे थे।

उन्हें देखकर कालयवनने निश्चय किया कि ‘यही पुरुष वासुदेव है।

क्योंकि नारदजीने जो-जो लक्षण बतलाये थे – वक्षःस्थलपर श्रीवत्सका चिह्न, चार भुजाएँ, कमलके-से नेत्र, गलेमें वनमाला और सुन्दरताकी सीमा; वे सब इसमें मिल रहे हैं।

इसलिये यह कोई दूसरा नहीं हो सकता।

इस समय यह बिना किसी अस्त्र-शस्त्रके पैदल ही इस ओर चला आ रहा है, इसलिये मैं भी इसके साथ बिना अस्त्र-शस्त्रके ही लड़ूँगा’।।१-५।।

ऐसा निश्चय करके जब कालयवन भगवान् श्रीकृष्णकी ओर दौड़ा, तब वे दूसरी ओर मुँह करके रणभूमिसे भाग चले और उन योगिदुर्लभ प्रभुको पकड़नेके लिये कालयवन उनके पीछे-पीछे दौड़ने लगा।।६।।

रणछोड़ भगवान् लीला करते हुए भाग रहे थे; कालयवन पग-पगपर यही समझता था कि अब पकड़ा, तब पकड़ा।

इस प्रकार भगवान् उसे बहुत दूर एक पहाड़की गुफामें ले गये।।७।।

कालयवन पीछेसे बार-बार आक्षेप करता कि ‘अरे भाई! तुम परम यशस्वी यदुवंशमें पैदा हुए हो, तुम्हारा इस प्रकार युद्ध छोड़कर भागना उचित नहीं है।’ परन्तु अभी उसके अशुभ निःशेष नहीं हुए थे, इसलिये वह भगवान् को पानेमें समर्थ न हो सका।।८।।

उसके आक्षेप करते रहनेपर भी भगवान् उस पर्वतकी गुफामें घुस गये।

उनके पीछे कालयवन भी घुसा।

वहाँ उसने एक दूसरे ही मनुष्यको सोते हुए देखा।।९।।

उसे देखकर कालयवनने सोचा ‘देखो तो सही, यह मुझे इस प्रकार इतनी दूर ले आया और अब इस तरह – मानो इसे कुछ पता ही न हो – साधुबाबा बनकर सो रहा है।’ यह सोचकर उस मूढ़ने उसे कसकर एक लात मारी।।१०।।

वह पुरुष वहाँ बहुत दिनोंसे सोया हुआ था।

पैरकी ठोकर लगनेसे वह उठ पड़ा और धीरे-धीरे उसने अपनी आँखें खोलीं।

इधर-उधर देखनेपर पास ही कालयवन खड़ा हुआ दिखायी दिया।।११।।

परीक्षित्! वह पुरुष इस प्रकार ठोकर मारकर जगाये जानेसे कुछ रुष्ट हो गया था।

उसकी दृष्टि पड़ते ही कालयवनके शरीरमें आग पैदा हो गयी और वह क्षणभरमें जलकर राखका ढेर हो गया।।१२।।

राजा परीक्षित् ने पूछा – भगवन्! जिसके दृष्टिपातमात्रसे कालयवन जलकर भस्म हो गया, वह पुरुष कौन था? किस वंशका था? उसमें कैसी शक्ति थी और वह किसका पुत्र था? आप कृपा करके यह भी बतलाइये कि वह पर्वतकी गुफामें जाकर क्यों सो रहा था?।।१३।।

श्रीशुकदेवजी कहते हैं – परीक्षित्! वे इक्ष्वाकुवंशी महाराजा मान्धाताके पुत्र राजा मुचुकुन्द थे।

वे ब्राह्मणोंके परम भक्त, सत्यप्रतिज्ञ, संग्रामविजयी और महापुरुष थे।।१४।।

एक बार इन्द्रादि देवता असुरोंसे अत्यन्त भयभीत हो गये थे।

उन्होंने अपनी रक्षाके लिये राजा मुचुकुन्दसे प्रार्थना की और उन्होंने बहुत दिनोंतक उनकी रक्षा की।।१५।।

जब बहुत दिनोंके बाद देवताओंको सेनापतिके रूपमें स्वामि-कार्तिकेय मिल गये, तब उन लोगोंने राजा मुचुकुन्दसे कहा – ‘राजन्! आपने हमलोगोंकी रक्षाके लिये बहुत श्रम और कष्ट उठाया है।

अब आप विश्राम कीजिये।।१६।।

वीरशिरोमणे! आपने हमारी रक्षाके लिये मनुष्यलोकका अपना अकण्टक राज्य छोड़ दिया और जीवनकी अभिलाषाएँ तथा भोगोंका भी परित्याग कर दिया।।१७।।

अब आपके पुत्र, रानियाँ, बन्धु-बान्धव और अमात्य-मन्त्री तथा आपके समयकी प्रजामेंसे कोई नहीं रहा है।

सब-के-सब कालके गालमें चले गये।।१८।।

काल समस्त बलवानोंसे भी बलवान् है।

वह स्वयं परम समर्थ अविनाशी और भगवत्स्वरूप है।

जैसे ग्वाले पशुओंको अपने वशमें रखते हैं, वैसे ही वह खेल-खेलमें सारी प्रजाको अपने अधीन रखता है।।१९।।

राजन्! आपका कल्याण हो।

आपकी जो इच्छा हो हमसे माँग लीजिये।

हम कैवल्य-मोक्षके अतिरिक्त आपको सब कुछ दे सकते हैं।

क्योंकि कैवल्य-मोक्ष देनेकी सामर्थ्य तो केवल अविनाशी भगवान् विष्णुमें ही है।।२०।।

परम यशस्वी राजा मुचुकुन्दने देवताओंके इस प्रकार कहनेपर उनकी वन्दना की और बहुत थके होनेके कारण निद्राका ही वर माँगा तथा उनसे वर पाकर वे नींदसे भरकर पर्वतकी गुफामें जा सोये।।२१।।

उस समय देवताओंने कह दिया था कि ‘राजन्! सोते समय यदि आपको कोई मूर्ख बीचमें ही जगा देगा तो वह आपकी दृष्टि पड़ते ही उसी क्षण भस्म हो जायगा’।।२२।।

परीक्षित्! जब कालयवन भस्म हो गया, तब यदुवंशशिरोमणि भगवान् श्रीकृष्णने परम बुद्धिमान् राजा मुचुकुन्दको अपना दर्शन दिया।

भगवान् श्रीकृष्णका श्रीविग्रह वर्षाकालीन मेघके समान साँवला था।

रेशमी पीताम्बर धारण किये हुए थे।

वक्षःस्थलपर श्रीवत्स और गलेमें कौस्तुभमणि अपनी दिव्य ज्योति बिखेर रहे थे।

चार भुजाएँ थीं।

वैजयन्तीमाला अलग ही घुटनोंतक लटक रही थी।

मुखकमल अत्यन्त सुन्दर और प्रसन्नतासे खिला हुआ था।

कानोंमें मकराकृति कुण्डल जगमगा रहे थे।

होठोंपर प्रेमभरी मुसकराहट थी और नेत्रोंकी चितवन अनुरागकी वर्षा कर रही थी।

अत्यन्त दर्शनीय तरुण-अवस्था और मतवाले सिंहके समान निर्भीक चाल! राजा मुचुकुन्द यद्यपि बड़े बुद्धिमान् और धीर पुरुष थे, फिर भी भगवान् की यह दिव्य ज्योतिर्मयी मूर्ति देखकर कुछ चकित हो गये – उनके तेजसे हतप्रतिभ हो सकपका गये।

भगवान् अपने तेजसे दुर्द्धर्ष जान पड़ते थे; राजाने तनिक शंकित होकर पूछा।।२३-२७।।

राजा मुचुकुन्दने कहा – ‘आप कौन हैं? इस काँटोंसे भरे हुए घोर जंगलमें आप कमलके समान कोमल चरणोंसे क्यों विचर रहे हैं? और इस पर्वतकी गुफामें ही पधारनेका क्या प्रयोजन था?।।२८।।

क्या आप समस्त तेजस्वियोंके मूर्तिमान् तेज अथवा भगवान् अग्निदेव तो नहीं हैं? क्या आप सूर्य, चन्द्रमा, देवराज इन्द्र या कोई दूसरे लोकपाल हैं?।।२९।।

मैं तो ऐसा समझता हूँ कि आप देवताओंके आराध्यदेव ब्रह्मा, विष्णु तथा शंकर – इन तीनोंमेंसे पुरुषोत्तम भगवान् नारायण ही हैं।

क्योंकि जैसे श्रेष्ठ दीपक अँधेरेको दूर कर देता है, वैसे ही आप अपनी अंगकान्तिसे इस गुफाका अँधेरा भगा रहे हैं।।३०।।

पुरुषश्रेष्ठ! यदि आपको रुचे तो हमें अपना जन्म, कर्म और गोत्र बतलाइये; क्योंकि हम सच्चे हृदयसे उसे सुननेके इच्छुक हैं।।३१।।

और पुरुषोत्तम! यदि आप हमारे बारेमें पूछें तो हम इक्ष्वाकुवंशी क्षत्रिय हैं, मेरा नाम है मुचुकुन्द।

और प्रभु! मैं युवनाश्वनन्दन महाराज मान्धाताका पुत्र हूँ।।३२।।

बहुत दिनोंतक जागते रहनेके कारण मैं थक गया था।

निद्राने मेरी समस्त इन्द्रियोंकी शक्ति छीन ली थी, उन्हें बेकाम कर दिया था, इसीसे मैं इस निर्जन स्थानमें निर्द्वन्द्व सो रहा था।

अभी-अभी किसीने मुझे जगा दिया।।३३।।

अवश्य उसके पापोंने ही उसे जलाकर भस्म कर दिया है।

इसके बाद शत्रुओंके नाश करनेवाले परम सुन्दर आपने मुझे दर्शन दिया।।३४।।

महाभाग! आप समस्त प्राणियोंके माननीय हैं।

आपके परम दिव्य और असह्य तेजसे मेरी शक्ति खो गयी है।

मैं आपको बहुत देरतक देख भी नहीं सकता।।३५।।

जब राजा मुचुकुन्दने इस प्रकार कहा, तब समस्त प्राणियोंके जीवनदाता भगवान् श्रीकृष्णने हँसते हुए मेघध्वनिके समान गम्भीर वाणीसे कहा – ।।३६।।

भगवान् श्रीकृष्णने कहा – प्रिय मुचुकुन्द! मेरे हजारों जन्म, कर्म और नाम हैं।

वे अनन्त हैं, इसलिये मैं भी उनकी गिनती करके नहीं बतला सकता।।३७।।

यह सम्भव है कि कोई पुरुष अपने अनेक जन्मोंमें पृथ्वीके छोटे-छोटे धूल-कणोंकी गिनती कर डाले; परन्तु मेरे जन्म, गुण, कर्म और नामोंको कोई कभी किसी प्रकार नहीं गिन सकता।।३८।।

राजन्! सनक-सनन्दन आदि परमर्षिगण मेरे त्रिकालसिद्ध जन्म और कर्मोंका वर्णन करते रहते हैं, परन्तु कभी उनका पार नहीं पाते।।३९।।

प्रिय मुचुकुन्द! ऐसा होनेपर भी मैं अपने वर्तमान जन्म, कर्म और नामोंका वर्णन करता हूँ, सुनो।

पहले ब्रह्माजीने मुझसे धर्मकी रक्षा और पृथ्वीके भार बने हुए असुरोंका संहार करनेके लिये प्रार्थना की थी।।४०।।

उन्हींकी प्रार्थनासे मैंने यदुवंशमें वसुदेवजीके यहाँ अवतार ग्रहण किया है।

अब मैं वसुदेवजीका पुत्र हूँ, इसलिये लोग मुझे ‘वासुदेव’ कहते हैं।।४१।।

अबतक मैं कालनेमि असुरका, जो कंसके रूपमें पैदा हुआ था, तथा प्रलम्ब आदि अनेकों साधुद्रोही असुरोंका संहार कर चुका हूँ।

राजन्! यह कालयवन था, जो मेरी ही प्रेरणासे तुम्हारी तीक्ष्ण दृष्टि पड़ते ही भस्म हो गया।।४२।।

वही मैं तुमपर कृपा करनेके लिये ही इस गुफामें आया हूँ।

तुमने पहले मेरी बहुत आराधना की है और मैं हूँ भक्तवत्सल।।४३।।

इसलिये राजर्षे! तुम्हारी जो अभिलाषा हो, मुझसे माँग लो।

मैं तुम्हारी सारी लालसा, अभिलाषाएँ पूर्ण कर दूँगा।

जो पुरुष मेरी शरणमें आ जाता है उसके लिये फिर ऐसी कोई वस्तु नहीं रह जाती, जिसके लिये वह शोक करे।।४४।।

श्रीशुकदेवजी कहते हैं – जब भगवान् श्रीकृष्णने इस प्रकार कहा, तब राजा मुचुकुन्दको वृद्ध गर्गका यह कथन याद आ गया कि यदुवंशमें भगवान् अवतीर्ण होनेवाले हैं।

वे जान गये कि ये स्वयं भगवान् नारायण हैं।

आनन्दसे भरकर उन्होंने भगवान् के चरणोंमें प्रणाम किया और इस प्रकार स्तुति की।।४५।।

मुचुकुन्दने कहा – ‘प्रभो! जगत् के सभी प्राणी आपकी मायासे अत्यन्त मोहित हो रहे हैं।

वे आपसे विमुख होकर अनर्थमें ही फँसे रहते हैं और आपका भजन नहीं करते।

वे सुखके लिये घर-गृहस्थीके उन झंझटोंमें फँस जाते हैं, जो सारे दुःखोंके मूल स्रोत हैं।

इस तरह स्त्री और पुरुष सभी ठगे जा रहे हैं।।४६।।

इस पापरूप संसारसे सर्वथा रहित प्रभो! यह भूमि अत्यन्त पवित्र कर्मभूमि है, इसमें मनुष्यका जन्म होना अत्यन्त दुर्लभ है।

मनुष्य-जीवन इतना पूर्ण है कि उसमें भजनके लिये कोई भी असुविधा नहीं है।

अपने परम सौभाग्य और भगवान् की अहैतुक कृपासे उसे अनायास ही प्राप्त करके भी जो अपनी मति, गति असत् संसारमें ही लगा देते हैं और तुच्छ विषयसुखके लिये ही सारा प्रयत्न करते हुए घर-गृहस्थीके अँधेरे कूएँमें पड़े रहते हैं – भगवान् के चरणकमलोंकी उपासना नहीं करते, भजन नहीं करते, वे तो ठीक उस पशुके समान हैं, जो तुच्छ तृणके लोभसे अँधेरे कूएँमें गिर जाता है।।४७।।

भगवन्! मैं राजा था, राज्यलक्ष्मीके मदसे मैं मतवाला हो रहा था।

इस मरनेवाले शरीरको ही तो मैं आत्मा – अपना स्वरूप समझ रहा था और राजकुमार, रानी, खजाना तथा पृथ्वीके लोभ-मोहमें ही फँसा हुआ था।

उन वस्तुओंकी चिन्ता दिन-रात मेरे गले लगी रहती थी।

इस प्रकार मेरे जीवनका यह अमूल्य समय बिलकुल निष्फल – व्यर्थ चला गया।।४८।।

जो शरीर प्रत्यक्ष ही घड़े और भीतके समान मिट्टीका है और दृश्य होनेके कारण उन्हींके समान अपनेसे अलग भी है, उसीको मैंने अपना स्वरूप मान लिया था और फिर अपनेको मान बैठा था ‘नरदेव’! इस प्रकार मैंने मदान्ध होकर आपको तो कुछ समझा ही नहीं।

रथ, हाथी, घोड़े और पैदलकी चतुरंगिणी सेना तथा सेनापतियोंसे घिरकर मैं पृथ्वीमें इधर-उधर घूमता रहता।।४९।।

मुझे यह करना चाहिये और यह नहीं करना चाहिये, इस प्रकार विविध कर्तव्य और अकर्तव्योंकी चिन्तामें पड़कर मनुष्य अपने एकमात्र कर्तव्य भगवत्प्राप्तिसे विमुख होकर प्रमत्त हो जाता है, असावधान हो जाता है।

संसारमें बाँध रखनेवाले विषयोंके लिये उसकी लालसा दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ती ही जाती है।

परन्तु जैसे भूखके कारण जीभ लपलपाता हुआ साँप असावधान चूहेको दबोच लेता है, वैसे ही कालरूपसे सदा-सर्वदा सावधान रहनेवाले आप एकाएक उस प्रमादग्रस्त प्राणीपर टूट पड़ते हैं और उसे ले बीतते हैं।।५०।।

जो पहले सोनेके रथोंपर अथवा बड़े-बड़े गजराजोंपर चढ़कर चलता था और नरदेव कहलाता था, वही शरीर आपके अबाध कालका ग्रास बनकर बाहर फेंक देनेपर पक्षियोंकी विष्ठा, धरतीमें गाड़ देनेपर सड़कर कीड़ा और आगमें जला देनेपर राखका ढेर बन जाता है।।५१।।

प्रभो! जिसने सारी दिशाओंपर विजय प्राप्त कर ली है और जिससे लड़नेवाला संसारमें कोई रह नहीं गया है, जो श्रेष्ठ सिंहासनपर बैठता है और बड़े-बड़े नरपति, जो पहले उसके समान थे, अब जिसके चरणोंमें सिर झुकाते हैं, वही पुरुष जब विषय-सुख भोगनेके लिये, जो घर-गृहस्थीकी एक विशेष वस्तु है, स्त्रियोंके पास जाता है, तब उनके हाथका खिलौना, उनका पालतू पशु बन जाता है।।५२।।

बहुत-से लोग विषय-भोग छोड़कर पुनः राज्यादि भोग मिलनेकी इच्छासे ही दान-पुण्य करते हैं और ‘मैं फिर जन्म लेकर सबसे बड़ा परम स्वतन्त्र सम्राट् होऊँ।’ ऐसी कामना रखकर तपस्यामें भलीभाँति स्थित हो शुभकर्म करते हैं।

इस प्रकार जिसकी तृष्णा बढ़ी हुई है, वह कदापि सुखी नहीं हो सकता।।५३।।

अपने स्वरूपमें एकरस स्थित रहनेवाले भगवन्! जीव अनादिकालसे जन्म-मृत्युरूप संसारके चक्करमें भटक रहा है।

जब उस चक्करसे छूटनेका समय आता है, तब उसे सत्संग प्राप्त होता है।

यह निश्चय है कि जिस क्षण सत्संग प्राप्त होता है, उसी क्षण संतोंके आश्रय, कार्य-कारणरूप जगत् के एकमात्र स्वामी आपमें जीवकी बुद्धि अत्यन्त दृढ़तासे लग जाती है।।५४।।

भगवन्! मैं तो ऐसा समझता हूँ कि आपने मेरे ऊपर परम अनुग्रहकी वर्षा की, क्योंकि बिना किसी परिश्रमके – अनायास ही मेरे राज्यका बन्धन टूट गया।

साधु-स्वभावके चक्रवर्ती राजा भी जब अपना राज्य छोड़कर एकान्तमें भजन-साधन करनेके उद्देश्यसे वनमें जाना चाहते हैं, तब उसके ममता-बन्धनसे मुक्त होनेके लिये बड़े प्रेमसे आपसे प्रार्थना किया करते हैं।।५५।।

अन्तर्यामी प्रभो! आपसे क्या छिपा है? मैं आपके चरणोंकी सेवाके अतिरिक्त और कोई भी वर नहीं चाहता; क्योंकि जिनके पास किसी प्रकारका संग्रह-परिग्रह नहीं है अथवा जो उसके अभिमानसे रहित हैं, वे लोग भी केवल उसीके लिये प्रार्थना करते रहते हैं।

भगवन्! भला, बतलाइये तो सही – मोक्ष देनेवाले आपकी आराधना करके ऐसा कौन श्रेष्ठ पुरुष होगा, जो अपनेको बाँधनेवाले सांसारिक विषयोंका वर माँगे।।५६।।

चिरमिह वृजिनार्तस्तप्यमानोऽनुतापै- रवितृषषडमित्रोऽलब्धशान्तिः कथंचित् ।

इसलिये प्रभो! मैं सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुणसे सम्बन्ध रखनेवाली समस्त कामनाओंको छोड़कर केवल मायाके लेशमात्र सम्बन्धसे रहित, गुणातीत, एक – अद्वितीय, चित्स्वरूप परमपुरुष आपकी शरण ग्रहण करता हूँ।।५७।।

भगवन्! मैं अनादिकालसे अपने कर्मफलोंको भोगते-भोगते अत्यन्त आर्त हो रहा था, उनकी दुःखद ज्वाला रात-दिन मुझे जलाती रहती थी।

मेरे छः शत्रु (पाँच इन्द्रिय और एक मन) कभी शान्त न होते थे, उनकी विषयोंकी प्यास बढ़ती ही जा रही थी।

कभी किसी प्रकार एक क्षणके लिये भी मुझे शान्ति न मिली।

शरणदाता! अब मैं आपके भय, मृत्यु और शोकसे रहित चरणकमलोंकी शरणमें आया हूँ।

सारे जगत् के एकमात्र स्वामी! परमात्मन्! आप मुझ शरणागतकी रक्षा कीजिये।।५८।।

भगवान् श्रीकृष्णने कहा – ‘सार्वभौम महाराज! तुम्हारी मति, तुम्हारा निश्चय बड़ा ही पवित्र और ऊँची कोटिका है।

यद्यपि मैंने तुम्हें बार-बार वर देनेका प्रलोभन दिया, फिर भी तुम्हारी बुद्धि कामनाओंके अधीन न हुई।।५९।।

मैंने तुम्हें जो वर देनेका प्रलोभन दिया, वह केवल तुम्हारी सावधानीकी परीक्षाके लिये।

मेरे जो अनन्य भक्त होते हैं, उनकी बुद्धि कभी कामनाओंसे इधर-उधर नहीं भटकती।।६०।।

जो लोग मेरे भक्त नहीं होते, वे चाहे प्राणायाम आदिके द्वारा अपने मनको वशमें करनेका कितना ही प्रयत्न क्यों न करें, उनकी वासनाएँ क्षीण नहीं होतीं और राजन्! उनका मन फिरसे विषयोंके लिये मचल पड़ता है।।६१।।

तुम अपने मन और सारे मनोभावोंको मुझे समर्पित कर दो, मुझमें लगा दो और फिर स्वच्छन्दरूपसे पृथ्वीपर विचरण करो।

मुझमें तुम्हारी विषय-वासनाशून्य निर्मल भक्ति सदा बनी रहेगी।।६२।।

तुमने क्षत्रियधर्मका आचरण करते समय शिकार आदिके अवसरोंपर बहुत-से पशुओंका वध किया है।

अब एकाग्रचित्तसे मेरी उपासना करते हुए तपस्याके द्वारा उस पापको धो डालो।।६३।।

राजन्! अगले जन्ममें तुम ब्राह्मण बनोगे और समस्त प्राणियोंके सच्चे हितैषी, परम सुहृद् होओगे तथा फिर मुझ विशुद्ध विज्ञानघन परमात्माको प्राप्त करोगे’।।६४।।

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
दशमस्कन्धे उत्तरार्धे मुचुकुन्दस्तुतिर्नामैकपञ्चाशत्तमोऽध्यायः।।५१।।


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