भागवत पुराण – दशम स्कन्ध – अध्याय – 50


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जरासन्धसे युद्ध और द्वारकापुरीका निर्माण

श्रीशुकदेवजी कहते हैं – भरतवंशशिरोमणि परीक्षित्! कंसकी दो रानियाँ थीं – अस्ति और प्राप्ति।

पतिकी मृत्युसे उन्हें बड़ा दुःख हुआ और वे अपने पिताकी राजधानीमें चली गयीं।।१।।

उन दोनोंका पिता था मगधराज जरासन्ध।

उससे उन्होंने बड़े दुःखके साथ अपने विधवा होनेके कारणोंका वर्णन किया।।२।।

परीक्षित्! यह अप्रिय समाचार सुनकर पहले तो जरासन्धको बड़ा शोक हुआ, परन्तु पीछे वह क्रोधसे तिलमिला उठा।

उसने यह निश्चय करके कि मैं पृथ्वीपर एक भी यदुवंशी नहीं रहने दूँगा, युद्धकी बहुत बड़ी तैयारी की।।३।।

और तेईस अक्षौहिणी सेनाके साथ यदुवंशियोंकी राजधानी मथुराको चारों ओरसे घेर लिया।।४।।

भगवान् श्रीकृष्णने देखा – जरासन्धकी सेना क्या है, उमड़ता हुआ समुद्र है।

उन्होंने यह भी देखा कि उसने चारों ओरसे हमारी राजधानी घेर ली है और हमारे स्वजन तथा पुरवासी भयभीत हो रहे हैं।।५।।

भगवान् श्रीकृष्ण पृथ्वीका भार उतारनेके लिये ही मनुष्यका-सा वेष धारण किये हुए हैं।

अब उन्होंने विचार किया कि मेरे अवतारका क्या प्रयोजन है और इस समय इस स्थानपर मुझे क्या करना चाहिये।।६।।

उन्होंने सोचा यह बड़ा अच्छा हुआ कि मगध-राज जरासन्धने अपने अधीनस्थ नरपतियोंकी पैदल, घुड़सवार, रथी और हाथियोंसे युक्त कई अक्षौहिणी सेना इकट्ठी कर ली है।

यह सब तो पृथ्वीका भार ही जुटकर मेरे पास आ पहुँचा है।

मैं इसका नाश करूँगा।

परन्तु अभी मगधराज जरासन्धको नहीं मारना चाहिये।

क्योंकि वह जीवित रहेगा तो फिरसे असुरोंकी बहुत-सी सेना इकट्ठी कर लायेगा।।७-८।।

मेरे अवतारका यही प्रयोजन है कि मैं पृथ्वीका बोझ हलका कर दूँ, साधु-सज्जनोंकी रक्षा करूँ और दुष्ट-दुर्जनोंका संहार।।९।।

समय-समयपर धर्म-रक्षाके लिये और बढ़ते हुए अधर्मको रोकनेके लिये मैं और भी अनेकों शरीर ग्रहण करता हूँ।।१०।।

परीक्षित्! भगवान् श्रीकृष्ण इस प्रकार विचार कर ही रहे थे कि आकाशसे सूर्यके समान चमकते हुए दो रथ आ पहुँचे।

उनमें युद्धकी सारी सामग्रियाँ सुसज्जित थीं और दो सारथि उन्हें हाँक रहे थे।।११।।

इसी समय भगवान् के दिव्य और सनातन आयुध भी अपने-आप वहाँ आकर उपस्थित हो गये।

उन्हें देखकर भगवान् श्रीकृष्णने अपने बड़े भाई बलरामजीसे कहा – ।।१२।।

‘भाईजी! आप बड़े शक्तिशाली हैं।

इस समय जो यदुवंशी आपको ही अपना स्वामी और रक्षक मानते हैं, जो आपसे ही सनाथ हैं, उनपर बहुत बड़ी विपत्ति आ पड़ी है।

देखिये, यह आपका रथ है और आपके प्यारे आयुध हल-मूसल भी आ पहुँचे हैं।।१३।।

अब आप इस रथपर सवार होकर शत्रु-सेनाका संहार कीजिये और अपने स्वजनोंको इस विपत्तिसे बचाइये।

भगवन्! साधुओंका कल्याण करनेके लिये ही हम दोनोंने अवतार ग्रहण किया है।।१४।।

अतः अब आप यह तेईस अक्षौहिणी सेना, पृथ्वीका यह विपुल भार नष्ट कीजिये।’ भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामजीने यह सलाह करके कवच धारण किये और रथपर सवार होकर वे मथुरासे निकले।

उस समय दोनों भाई अपने-अपने आयुध लिये हुए थे और छोटी-सी सेना उनके साथ-साथ चल रही थी।

श्रीकृष्णका रथ हाँक रहा था दारुक।

पुरीसे बाहर निकलकर उन्होंने अपना पांचजन्य शंख बजाया।।१५-१६।।

उनके शंखकी भयंकर ध्वनि सुनकर शत्रुपक्षकी सेनाके वीरोंका हृदय डरके मारे थर्रा उठा।

उन्हें देखकर मगधराज जरासन्धने कहा – ‘पुरुषाधम कृष्ण! तू तो अभी निरा बच्चा है।

अकेले तेरे साथ लड़नेमें मुझे लाज लग रही है।

इतने दिनोंतक तू न जाने कहाँ-कहाँ छिपा फिरता था।

मन्द! तू तो अपने मामाका हत्यारा है।

इसलिये मैं तेरे साथ नहीं लड़ सकता।

जा, मेरे सामनेसे भाग जा।।१७-१८।।

बलराम! यदि तेरे चित्तमें यह श्रद्धा हो कि युद्धमें मरनेपर स्वर्ग मिलता है तो तू आ, हिम्मत बाँधकर मुझसे लड़।

मेरे बाणोंसे छिन्न-भिन्न हुए शरीरको यहाँ छोड़कर स्वर्गमें जा अथवा यदि तुझमें शक्ति हो तो मुझे ही मार डाल’।।१९।।

भगवान् श्रीकृष्णने कहा – मगधराज! जो शूरवीर होते हैं, वे तुम्हारी तरह डींग नहीं हाँकते, वे तो अपना बल-पौरुष ही दिखलाते हैं।

देखो, अब तुम्हारी मृत्यु तुम्हारे सिरपर नाच रही है।

तुम वैसे ही अकबक कर रहे हो, जैसे मरनेके समय कोई सन्निपातका रोगी करे।

बक लो, मैं तुम्हारी बातपर ध्यान नहीं देता।।२०।।

श्रीशुकदेवजी कहते हैं – परीक्षित्! जैसे वायु बादलोंसे सूर्यको और धूएँसे आगको ढक लेती है, किन्तु वास्तवमें वे ढकते नहीं, उनका प्रकाश फिर फैलता ही है; वैसे ही मगधराज जरासन्धने भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामके सामने आकर अपनी बहुत बड़ी बलवान् और अपार सेनाके द्वारा उन्हें चारों ओरसे घेर लिया – यहाँतक कि उनकी सेना, रथ, ध्वजा, घोड़ों और सारथियोंका दीखना भी बंद हो गया।।२१।।

मथुरापुरीकी स्त्रियाँ अपने महलोंकी अटारियों, छज्जों और फाटकोंपर चढ़कर युद्धका कौतुक देख रही थीं।

जब उन्होंने देखा कि युद्धभूमिमें भगवान् श्रीकृष्णकी गरुड़चिह्नसे चिह्नित और बलरामजीकी तालचिह्नसे चिह्नित ध्वजावाले रथ नहीं दीख रहे हैं, तब वे शोकके आवेगसे मूर्च्छित हो गयीं।।२२।।

जब भगवान् श्रीकृष्णने देखा कि शत्रु-सेनाके वीर हमारी सेनापर इस प्रकार बाणोंकी वर्षा कर रहे हैं, मानो बादल पानीकी अनगिनत बूँदें बरसा रहे हों और हमारी सेना उससे अत्यन्त पीड़ित, व्यथित हो रही है; तब उन्होंने अपने देवता और असुर – दोनोंसे सम्मानित शार्ङ्गधनुषका टंकार किया।।२३।।

इसके बाद वे तरकसमेंसे बाण निकालने, उन्हें धनुषपर चढ़ाने और धनुषकी डोरी खींचकर झुंड-के-झुंड बाण छोड़ने लगे।

उस समय उनका वह धनुष इतनी फुर्तीसे घूम रहा था, मानो कोई बड़े वेगसे अलातचक्र (लुकारी) घुमा रहा हो।

इस प्रकार भगवान् श्रीकृष्ण जरासन्धकी चतुरंगिणी – हाथी, घोड़े, रथ और पैदल सेनाका संहार करने लगे।।२४।।

इससे बहुत-से हाथियोंके सिर फट गये और वे मर-मरकर गिरने लगे।

बाणोंकी बौछारसे अनेकों घोड़ोंके सिर धड़से अलग हो गये।

घोड़े, ध्वजा, सारथि और रथियोंके नष्ट हो जानेसे बहुत-से रथ बेकाम हो गये।

पैदल सेनाकी बाँहें, जाँघ और सिर आदि अंग-प्रत्यंग कट-कटकर गिर पड़े।।२५।।

उस युद्धमें अपार तेजस्वी भगवान् बलरामजीने अपने मूसलकी चोटसे बहुत-से मतवाले शत्रुओंको मार-मारकर उनके अंग-प्रत्यंगसे निकले हुए खूनकी सैकड़ों नदियाँ बहा दीं।

कहीं मनुष्य कट रहे हैं तो कहीं हाथी और घोड़े छटपटा रहे हैं।

उन नदियोंमें मनुष्योंकी भुजाएँ साँपके समान जान पड़तीं और सिर इस प्रकार मालूम पड़ते, मानो कछुओंकी भीड़ लग गयी हो।

मरे हुए हाथी दीप-जैसे और घोड़े ग्राहोंके समान जान पड़ते।

हाथ और जाँघें मछलियोंकी तरह, मनुष्योंके केश सेवारके समान, धनुष तरंगोंकी भाँति और अस्त्र-शस्त्र लता एवं तिनकोंके समान जान पड़ते।

ढालें ऐसी मालूम पड़तीं, मानो भयानक भँवर हों।

बहुमूल्य मणियाँ और आभूषण पत्थरके रोड़ों तथा कंकड़ोंके समान बहे जा रहे थे।

उन नदियोंको देखकर कायर पुरुष डर रहे थे और वीरोंका आपसमें खूब उत्साह बढ़ रहा था।।२६-२८।।

परीक्षित्! जरासन्धकी वह सेना समुद्रके समान दुर्गम, भयावह और बड़ी कठिनाईसे जीतनेयोग्य थी।

परन्तु भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामजीने थोड़े ही समयमें उसे नष्ट कर डाला।

वे सारे जगत् के स्वामी हैं।

उनके लिये एक सेनाका नाश कर देना केवल खिलवाड़ ही तो है।।२९।।

परीक्षित्! भगवान् के गुण अनन्त हैं।

वे खेल-खेलमें ही तीनों लोकोंकी उत्पत्ति, स्थिति और संहार करते हैं।

उनके लिये यह कोई बड़ी बात नहीं है कि वे शत्रुओंकी सेनाका इस प्रकार बात-की-बातमें सत्यानाश कर दें।

तथापि जब वे मनुष्यका-सा वेष धारण करके मनुष्यकी-सी लीला करते हैं, तब उसका भी वर्णन किया ही जाता है।।३०।।

इस प्रकार जरासन्धकी सारी सेना मारी गयी।

रथ भी टूट गया।

शरीरमें केवल प्राण बाकी रहे।

तब भगवान् श्रीबलरामजीने जैसे एक सिंह दूसरे सिंहको पकड़ लेता है, वैसे ही बलपूर्वक महाबली जरासन्धको पकड़ लिया।।३१।।

जरासन्धने पहले बहुत-से विपक्षी नरपतियोंका वध किया था, परन्तु आज उसे बलरामजी वरुणकी फाँसी और मनुष्योंके फंदेसे बाँध रहे थे।

भगवान् श्रीकृष्णने यह सोचकर कि यह छोड़ दिया जायगा तो और भी सेना इकट्ठी करके लायेगा तथा हम सहज ही पृथ्वीका भार उतार सकेंगे, बलरामजीको रोक दिया।।३२।।

बड़े-बड़े शूरवीर जरासन्धका सम्मान करते थे।

इसलिये उसे इस बातपर बड़ी लज्जा मालूम हुई कि मुझे श्रीकृष्ण और बलरामने दया करके दीनकी भाँति छोड़ दिया है।

अब उसने तपस्या करनेका निश्चय किया।

परन्तु रास्तेमें उसके साथी नरपतियोंने बहुत समझाया कि ‘राजन्! यदुवंशियोंमें क्या रखा है? वे आपको बिलकुल ही पराजित नहीं कर सकते थे।

आपको प्रारब्धवश ही नीचा देखना पड़ा है।’ उन लोगोंने भगवान् की इच्छा, फिर विजय प्राप्त करनेकी आशा आदि बतलाकर तथा लौकिक दृष्टान्त एवं युक्तियाँ दे-देकर यह बात समझा दी कि आपको तपस्या नहीं करनी चाहिये।।३३-३४।।

परीक्षित्! उस समय मगधराज जरासन्धकी सारी सेना मर चुकी थी।

भगवान् बलरामजीने उपेक्षापूर्वक उसे छोड़ दिया था, इससे वह बहुत उदास होकर अपने देश मगधको चला गया।।३५।।

परीक्षित्! भगवान् श्रीकृष्णकी सेनामें किसीका बाल भी बाँका न हुआ और उन्होंने जरासन्धकी तेईस अक्षौहिणी सेनापर, जो समुद्रके समान थी, सहज ही विजय प्राप्त कर ली।

उस समय बड़े-बड़े देवता उनपर नन्दनवनके पुष्पोंकी वर्षा और उनके इस महान् कार्यका अनुमोदन – प्रशंसा कर रहे थे।।३६।।

जरासन्धकी सेनाके पराजयसे मथुरा-वासी भयरहित हो गये थे और भगवान् श्रीकृष्णकी विजयसे उनका हृदय आनन्दसे भर रहा था।

भगवान् श्रीकृष्ण आकर उनमें मिल गये।

सूत, मागध और वन्दीजन उनकी विजयके गीत गा रहे थे।।३७।।

जिस समय भगवान् श्रीकृष्णने नगरमें प्रवेश किया, उस समय वहाँ शंख, नगारे, भेरी, तुरही, वीणा, बाँसुरी और मृदंग आदि बाजे बजने लगे थे।।३८।।

मथुराकी एक-एक सड़क और गलीमें छिड़काव कर दिया गया था।

चारों ओर हँसते-खेलते नागरिकोंकी चहल-पहल थी।

सारा नगर छोटी-छोटी झंडियों और बड़ी-बड़ी विजय-पताकाओंसे सजा दिया गया था।

ब्राह्मणोंकी वेदध्वनि गूँज रही थी और सब ओर आनन्दोत्सवके सूचक बंदनवार बाँध दिये गये थे।।३९।।

जिस समय श्रीकृष्ण नगरमें प्रवेश कर रहे थे, उस समय नगरकी नारियाँ प्रेम और उत्कण्ठासे भरे हुए नेत्रोंसे उन्हें स्नेहपूर्वक निहार रही थीं और फूलोंके हार, दही, अक्षत और जौ आदिके अंकुरोंकी उनके ऊपर वर्षा कर रही थीं।।४०।।

भगवान् श्रीकृष्ण रणभूमिसे अपार धन और वीरोंके आभूषण ले आये थे।

वह सब उन्होंने यदुवंशियोंके राजा उग्रसेनके पास भेज दिया।।४१।।

परीक्षित्! इस प्रकार सत्रह बार तेईस-तेईस अक्षौहिणी सेना इकट्ठी करके मगधराज जरासन्धने भगवान् श्रीकृष्णके द्वारा सुरक्षित यदुवंशियोंसे युद्ध किया।।४२।।

किन्तु यादवोंने भगवान् श्रीकृष्णकी शक्तिसे हर बार उसकी सारी सेना नष्ट कर दी।

जब सारी सेना नष्ट हो जाती, तब यदुवंशियोंके उपेक्षापूर्वक छोड़ देनेपर जरासन्ध अपनी राजधानीमें लौट जाता।।४३।।

जिस समय अठारहवाँ संग्राम छिड़नेहीवाला था, उसी समय नारदजीका भेजा हुआ वीर कालयवन दिखायी पड़ा।।४४।।

युद्धमें कालयवनके सामने खड़ा होनेवाला वीर संसारमें दूसरा कोई न था।

उसने जब यह सुना कि यदुवंशी हमारे ही-जैसे बलवान् हैं और हमारा सामना कर सकते हैं, तब तीन करोड़ म्लेच्छोंकी सेना लेकर उसने मथुराको घेर लिया।।४५।।

कालयवनकी यह असमय चढ़ाई देखकर भगवान् श्रीकृष्णने बलरामजीके साथ मिलकर विचार किया – ‘अहो! इस समय तो यदुवंशियोंपर जरासन्ध और कालयवन – ये दो-दो विपत्तियाँ एक साथ ही मँडरा रही हैं।।४६।।

आज इस परम बलशाली यवनने हमें आकर घेर लिया है और जरासन्ध भी आज, कल या परसोंमें आ ही जायेगा।।४७।।

यदि हम दोनों भाई इसके साथ लड़नेमें लग गये और उसी समय जरासन्ध भी आ पहुँचा, तो वह हमारे बन्धुओंको मार डालेगा या तो कैद करके अपने नगरमें ले जायगा; क्योंकि वह बहुत बलवान् है।।४८।।

इसलिये आज हमलोग एक ऐसा दुर्ग – ऐसा किला बनायेंगे, जिसमें किसी भी मनुष्यका प्रवेश करना अत्यन्त कठिन होगा।

अपने स्वजन-सम्बन्धियोंको उसी किलेमें पहुँचाकर फिर इस यवनका वध करायेंगे’।।४९।।

बलरामजीसे इस प्रकार सलाह करके भगवान् श्रीकृष्णने समुद्रके भीतर एक ऐसा दुर्गम नगर बनवाया, जिसमें सभी वस्तुएँ अद् भुत थीं और उस नगरकी लम्बाई-चौड़ाई अड़तालीस कोसकी थी।।५०।।

उस नगरकी एक-एक वस्तुमें विश्वकर्माका विज्ञान (वास्तु-विज्ञान) और शिल्पकलाकी निपुणता प्रकट होती थी।

उसमें वास्तुशास्त्रके अनुसार बड़ी-बड़ी सड़कों, चौराहों और गलियोंका यथास्थान ठीक-ठीक विभाजन किया गया था।।५१।।

वह नगर ऐसे सुन्दर-सुन्दर उद्यानों और विचित्र-विचित्र उपवनोंसे युक्त था, जिनमें देवताओंके वृक्ष और लताएँ लहलहाती रहती थीं।

सोनेके इतने ऊँचे-ऊँचे शिखर थे, जो आकाशसे बातें करते थे।

स्फटिकमणिकी अटारियाँ और ऊँचे-ऊँचे दरवाजे बड़े ही सुन्दर लगते थे।।५२।।

अन्न रखनेके लिये चाँदी और पीतलके बहुत-से कोठे बने हुए थे।

वहाँके महल सोनेके बने हुए थे और उनपर कामदार सोनेके कलश सजे हुए थे।

उनके शिखर रत्नोंके थे तथा गच पन्नेकी बनी हुई बहुत भली मालूम होती थी।।५३।।

इसके अतिरिक्त उस नगरमें वास्तुदेवताके मन्दिर और छज्जे भी बहुत सुन्दर-सुन्दर बने हुए थे।

उसमें चारों वर्णके लोग निवास करते थे।

और सबके बीचमें यदुवंशियोंके प्रधान उग्रसेनजी, वसुदेवजी, बलरामजी तथा भगवान् श्रीकृष्णके महल जगमगा रहे थे।।५४।।

परीक्षित्! उस समय देवराज इन्द्रने भगवान् श्रीकृष्णके लिये पारिजातवृक्ष और सुधर्मा-सभाको भेज दिया।

वह सभा ऐसी दिव्य थी कि उसमें बैठे हुए मनुष्यको भूख-प्यास आदि मर्त्यलोकके धर्म नहीं छू पाते थे।।५५।।

वरुणजीने ऐसे बहुत-से श्वेत घोड़े भेज दिये, जिनका एक-एक कान श्यामवर्णका था और जिनकी चाल मनके समान तेज थी।

धनपति कुबेरजीने अपनी आठों निधियाँ भेज दीं और दूसरे लोकपालोंने भी अपनी-अपनी विभूतियाँ भगवान् के पास भेज दीं।।५६।।

परीक्षित्! सभी लोकपालोंको भगवान् श्रीकृष्णने ही उनके अधिकारके निर्वाहके लिये शक्तियाँ और सिद्धियाँ दी हैं।

जब भगवान् श्रीकृष्ण पृथ्वीपर अवतीर्ण होकर लीला करने लगे, तब सभी सिद्धियाँ उन्होंने भगवान् के चरणोंमें समर्पित कर दीं।।५७।।

भगवान् श्रीकृष्णने अपने समस्त स्वजन-सम्बन्धियोंको अपनी अचिन्त्य महाशक्ति योगमायाके द्वारा द्वारकामें पहुँचा दिया।

शेष प्रजाकी रक्षाके लिये बलरामजीको मथुरापुरीमें रख दिया और उनसे सलाह लेकर गलेमें कमलोंकी माला पहने, बिना कोई अस्त्र-शस्त्र लिये स्वयं नगरके बड़े दरवाजेसे बाहर निकल आये।।५८।।

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
दशमस्कन्धे उत्तरार्धे दुर्गनिवेशनं नाम पञ्चाशत्तमोऽध्यायः।।५०।।


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