भागवत पुराण – दशम स्कन्ध – अध्याय – 49


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अक्रूरजीका हस्तिनापुर जाना

श्रीशुकदेवजी कहते हैं – परीक्षित्! भगवान् के आज्ञानुसार अक्रूरजी हस्तिनापुर गये।

वहाँकी एक-एक वस्तुपर पुरुवंशी नरपतियोंकी अमरकीर्तिकी छाप लग रही है।

वे वहाँ पहले धृतराष्ट्र, भीष्म, विदुर, कुन्ती, बाह्लीक और उनके पुत्र सोमदत्त, द्रोणाचार्य, कृपाचार्य, कर्ण, दुर्योधन, द्रोणपुत्र अश्वत्थामा, युधिष्ठिर आदि पाँचों पाण्डव तथा अन्यान्य इष्ट-मित्रोंसे मिले।।१-२।।

जब गान्दिनीनन्दन अक्रूरजी सब इष्ट-मित्रों और सम्बन्धियोंसे भलीभाँति मिल चुके, तब उनसे उन लोगोंने अपने मथुरावासी स्वजन-सम्बन्धियोंकी कुशल-क्षेम पूछी।

उनका उत्तर देकर अक्रूरजीने भी हस्तिनापुरवासियोंके कुशलमंगलके सम्बन्धमें पूछताछ की।।३।।

परीक्षित्! अक्रूरजी यह जाननेके लिये कि धृतराष्ट्र पाण्डवोंके साथ कैसा व्यवहार करते हैं, कुछ महीनोंतक वहीं रहे।

सच पूछो तो, धृतराष्ट्रमें अपने दुष्ट पुत्रोंकी इच्छाके विपरीत कुछ भी करनेका साहस न था।

वे शकुनि आदि दुष्टोंकी सलाहके अनुसार ही काम करते थे।।४।।

अक्रूरजीको कुन्ती और विदुरने यह बतलाया कि धृतराष्ट्रके लड़के दुर्योधन आदि पाण्डवोंके प्रभाव, शस्त्रकौशल, बल, वीरता तथा विनय आदि सद् गुण देख-देखकर उनसे जलते रहते हैं।

जब वे यह देखते हैं कि प्रजा पाण्डवोंसे ही विशेष प्रेम रखती है, तब तो वे और भी चिढ़ जाते हैं और पाण्डवोंका अनिष्ट करनेपर उतारू हो जाते हैं।

अबतक दुर्योधन आदि धृतराष्ट्रके पुत्रोंने पाण्डवोंपर कई बार विषदान आदि बहुत-से अत्याचार किये हैं और आगे भी बहुत कुछ करना चाहते हैं।।५-६।।

जब अक्रूरजी कुन्तीके घर आये, तब वह अपने भाईके पास जा बैठीं।

अक्रूरजीको देखकर कुन्तीके मनमें अपने मायकेकी स्मृति जग गयी और नेत्रोंमें आँसू भर आये।

उन्होंने कहा – ।।७।।

‘प्यारे भाई! क्या कभी मेरे माँ-बाप, भाई-बहिन, भतीजे, कुलकी स्त्रियाँ और सखी-सहेलियाँ मेरी याद करती हैं?।।८।।

मैंने सुना है कि हमारे भतीजे भगवान् श्रीकृष्ण और कमलनयन बलराम बड़े ही भक्त-वत्सल और शरणागत-रक्षक हैं।

क्या वे कभी अपने इन फुफेरे भाइयोंको भी याद करते हैं?।।९।।

मैं शत्रुओंके बीच घिरकर शोकाकुल हो रही हूँ।

मेरी वही दशा है, जैसे कोई हरिनी भेड़ियोंके बीचमें पड़ गयी हो।

मेरे बच्चे बिना बापके हो गये हैं।

क्या हमारे श्रीकृष्ण कभी यहाँ आकर मुझको और इन अनाथ बालकोंको सान्त्वना देंगे?।।१०।।

(श्रीकृष्णको अपने सामने समझकर कुन्ती कहने लगीं – ) ‘सच्चिदानन्दस्वरूप श्रीकृष्ण! तुम महायोगी हो, विश्वात्मा हो और तुम सारे विश्वके जीवनदाता हो।

गोविन्द! मैं अपने बच्चोंके साथ दुःख-पर-दुःख भोग रही हूँ।

तुम्हारी शरणमें आयी हूँ।

मेरी रक्षा करो।

मेरे बच्चोंको बचाओ।।११।।

मेरे श्रीकृष्ण! यह संसार मृत्युमय है और तुम्हारे चरण मोक्ष देनेवाले हैं।

मैं देखती हूँ कि जो लोग इस संसारसे डरे हुए हैं, उनके लिये तुम्हारे चरणकमलोंके अतिरिक्त और कोई शरण, और कोई सहारा नहीं है।।१२।।

श्रीकृष्ण! तुम मायाके लेशसे रहित परम शुद्ध हो।

तुम स्वयं परब्रह्म परमात्मा हो।

समस्त साधनों, योगों और उपायोंके स्वामी हो तथा स्वयं योग भी हो।

श्रीकृष्ण! मैं तुम्हारी शरणमें आयी हूँ।

तुम मेरी रक्षा करो’।।१३।।

श्रीशुकदेवजी कहते हैं – परीक्षित्! तुम्हारी परदादी कुन्ती इस प्रकार अपने सगे-सम्बन्धियों और अन्तमें जगदीश्वर भगवान् श्रीकृष्णको स्मरण करके अत्यन्त दुःखित हो गयीं और फफक-फफककर रोने लगीं।।१४।।

अक्रूरजी और विदुरजी दोनों ही सुख और दुःखको समान दृष्टिसे देखते थे।

दोनों यशस्वी महात्माओंने कुन्तीको उसके पुत्रोंके जन्मदाता धर्म, वायु आदि देवताओंकी याद दिलायी और यह कहकर कि, तुम्हारे पुत्र अधर्मका नाश करनेके लिये ही पैदा हुए हैं, बहुत कुछ समझाया-बुझाया और सान्त्वना दी।।१५।।

अक्रूरजी जब मथुरा जाने लगे, तब राजा धृतराष्ट्रके पास आये।

अबतक यह स्पष्ट हो गया था कि राजा अपने पुत्रोंका पक्षपात करते हैं और भतीजोंके साथ अपने पुत्रोंका-सा बर्ताव नहीं करते।

अब अक्रूरजीने कौरवोंकी भरी सभामें श्रीकृष्ण और बलरामजी आदिका हितैषितासे भरा सन्देश कह सुनाया।।१६।।

अक्रूरजीने कहा – महाराज धृतराष्ट्रजी! आप कुरुवंशियोंकी उज्ज्वल कीर्तिको और भी बढ़ाइये।

आपको यह काम विशेषरूपसे इसलिये भी करना चाहिये कि अपने भाई पाण्डुके परलोक सिधार जानेपर अब आप राज्यसिंहासनके अधिकारी हुए हैं।।१७।।

आप धर्मसे पृथ्वीका पालन कीजिये।

अपने सद्व्यवहारसे प्रजाको प्रसन्न रखिये और अपने स्वजनोंके साथ समान बर्ताव कीजिये।

ऐसा करनेसे ही आपको लोकमें यश और परलोकमें सद् गति प्राप्त होगी।।१८।।

यदि आप इसके विपरीत आचरण करेंगे तो इस लोकमें आपकी निन्दा होगी और मरनेके बाद आपको नरकमें जाना पड़ेगा।

इसलिये अपने पुत्रों और पाण्डवोंके साथ समानताका बर्ताव कीजिये।।१९।।

आप जानते ही हैं कि इस संसारमें कभी कहीं कोई किसीके साथ सदा नहीं रह सकता।

जिनसे जुड़े हुए हैं, उनसे एक दिन बिछुड़ना पड़ेगा ही।

राजन्! यह बात अपने शरीरके लिये भी सोलहों आने सत्य है।

फिर स्त्री, पुत्र, धन आदिको छोड़कर जाना पड़ेगा, इसके विषयमें तो कहना ही क्या है।।२०।।

जीव अकेला ही पैदा होता है और अकेला ही मरकर जाता है।

अपनी करनी-धरनीका, पाप-पुण्यका फल भी अकेला ही भुगतता है।।२१।।

जिन स्त्री-पुत्रोंको हम अपना समझते हैं, वे तो ‘हम तुम्हारे अपने हैं, हमारा भरण-पोषण करना तुम्हारा धर्म है’ – इस प्रकारकी बातें बनाकर मूर्ख प्राणीके अधर्मसे इकट्ठे किये हुए धनको लूट लेते हैं, जैसे जलमें रहनेवाले जन्तुओंके सर्वस्व जलको उन्हींके सम्बन्धी चाट जाते हैं।।२२।।

यह मूर्ख जीव जिन्हें अपना समझकर अधर्म करके भी पालता-पोसता है, वे ही प्राण, धन और पुत्र आदि इस जीवको असन्तुष्ट छोड़कर ही चले जाते हैं।।२३।।

जो अपने धर्मसे विमुख है – सच पूछिये, तो वह अपना लौकिक स्वार्थ भी नहीं जानता।

जिनके लिये वह अधर्म करता है, वे तो उसे छोड़ ही देंगे; उसे कभी सन्तोषका अनुभव न होगा और वह अपने पापोंकी गठरी सिरपर लादकर स्वयं घोर नरकमें जायगा।।२४।।

इसलिये महाराज! यह बात समझ लीजिये कि यह दुनिया चार दिनकी चाँदनी है, सपनेका खिलवाड़ है, जादूका तमाशा है और है मनोराज्यमात्र! आप अपने प्रयत्नसे, अपनी शक्तिसे चित्तको रोकिये; ममतावश पक्षपात न कीजिये।

आप समर्थ हैं, समत्वमें स्थित हो जाइये और इस संसारकी ओरसे उपराम – शान्त हो जाइये।।२५।।

राजा धृतराष्ट्रने कहा – दानपते अक्रूरजी! आप मेरे कल्याणकी, भलेकी बात कह रहे हैं, जैसे मरनेवालेको अमृत मिल जाय तो वह उससे तृप्त नहीं हो सकता, वैसे ही मैं भी आपकी इन बातोंसे तृप्त नहीं हो रहा हूँ।।२६।।

फिर भी हमारे हितैषी अक्रूरजी! मेरे चंचल चित्तमें आपकी यह प्रिय शिक्षा तनिक भी नहीं ठहर रही है; क्योंकि मेरा हृदय पुत्रोंकी ममताके कारण अत्यन्त विषम हो गया है।

जैसे स्फटिक पर्वतके शिखरपर एक बार बिजली कौंधती है और दूसरे ही क्षण अन्तर्धान हो जाती है, वही दशा आपके उपदेशोंकी है।।२७।।

अक्रूरजी! सुना है कि सर्वशक्तिमान् भगवान् पृथ्वीका भार उतारनेके लिये यदुकुलमें अवतीर्ण हुए हैं।

ऐसा कौन पुरुष है, जो उनके विधानमें उलट-फेर कर सके।

उनकी जैसी इच्छा होगी, वही होगा।।२८।।

भगवान् की मायाका मार्ग अचिन्त्य है।

उसी मायाके द्वारा इस संसारकी सृष्टि करके वे इसमें प्रवेश करते हैं और कर्म तथा कर्मफलोंका विभाजन कर देते हैं।

इस संसार-चक्रकी बेरोक-टोक चालमें उनकी अचिन्त्य लीला-शक्तिके अतिरिक्त और कोई कारण नहीं है।

मैं उन्हीं परमैश्वर्यशक्तिशाली प्रभुको नमस्कार करता हूँ।।२९।।

श्रीशुकदेवजी कहते हैं – इस प्रकार अक्रूरजी महाराज धृतराष्ट्रका अभिप्राय जानकर और कुरुवंशी स्वजन-सम्बन्धियोंसे प्रेमपूर्वक अनुमति लेकर मथुरा लौट आये।।३०।।

परीक्षित्! उन्होंने वहाँ भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामजीके सामने धृतराष्ट्रका वह सारा व्यवहार-बर्ताव, जो वे पाण्डवोंके साथ करते थे, कह सुनाया, क्योंकि उनको हस्तिनापुर भेजनेका वास्तवमें उद्देश्य भी यही था।।३१।।

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे वैयासिक्यामष्टादशसाहस्र‍यां पारमहंस्यां संहितायां
दशमस्कन्धे पूर्वार्धे एकोनपञ्चाशत्तमोऽध्यायः।।४९।।

समाप्तमिदं दशमस्कन्धस्य पूर्वार्द्धम् श्रीकृष्णार्पणमस्तु

नमो भगवते वासुदेवाय ।।

श्रीमद्भागवतमहापुराणम् दशमः स्कन्धः (उत्तरार्धः)


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