भागवत पुराण – दशम स्कन्ध – अध्याय – 45


<< भागवत पुराण – Index

<< भागवत पुराण – दशम स्कन्ध – अध्याय – 44

भागवत पुराण स्कंध लिंक - भागवत माहात्म्य | प्रथम (1) | द्वितीय (2) | तृतीय (3) | चतुर्थ (4) | पंचम (5) | षष्ठ (6) | सप्तम (7) | अष्टम (8) | नवम (9) | दशम (10) | एकादश (11) | द्वादश (12)


श्रीकृष्ण-बलरामका यज्ञोपवीत और गुरुकुलप्रवेश

श्रीशुकदेवजी कहते हैं – परीक्षित्! भगवान् श्रीकृष्णने देखा कि माता-पिताको मेरे ऐश्वर्यका, मेरे भगवद् भावका ज्ञान हो गया है, परंतु इन्हें ऐसा ज्ञान होना ठीक नहीं, (इससे तो ये पुत्र-स्नेहका सुख नहीं पा सकेंगे – ) ऐसा सोचकर उन्होंने उनपर अपनी वह योगमाया फैला दी, जो उनके स्वजनोंको मुग्ध रखकर उनकी लीलामें सहायक होती है।।१।।

यदुवंशशिरोमणि भगवान् श्रीकृष्ण बड़े भाई बलरामजीके साथ अपने माँ-बापके पास जाकर आदरपूर्वक और विनयसे झुककर ‘मेरी अम्मा! मेरे पिताजी!’ इन शब्दोंसे उन्हें प्रसन्न करते हुए कहने लगे – ।।२।।

‘पिताजी! माताजी! हम आपके पुत्र हैं और आप हमारे लिये सर्वदा उत्कण्ठित रहे हैं, फिर भी आप हमारे बाल्य, पौगण्ड और किशोर-अवस्थाका सुख हमसे नहीं पा सके।।३।।

दुर्दैववश हमलोगोंको आपके पास रहनेका सौभाग्य ही नहीं मिला।

इसीसे बालकोंको माता-पिताके घरमें रहकर जो लाड़-प्यारका सुख मिलता है, वह हमें भी नहीं मिल सका।।४।।

पिता और माता ही इस शरीरको जन्म देते हैं और इसका लालन-पालन करते हैं।

तब कहीं जाकर यह शरीर धर्म, अर्थ, काम अथवा मोक्षकी प्राप्तिका साधन बनता है।

यदि कोई मनुष्य सौ वर्षतक जीकर माता और पिताकी सेवा करता रहे, तब भी वह उनके उपकारसे उऋण नहीं हो सकता।।५।।

जो पुत्र सामर्थ्य रहते भी अपने माँ-बापकी शरीर और धनसे सेवा नहीं करता, उसके मरनेपर यमदूत उसे उसके अपने शरीरका मांस खिलाते हैं।।६।।

जो पुरुष समर्थ होकर भी बूढ़े माता-पिता, सती पत्नी, बालक, सन्तान, गुरु, ब्राह्मण और शरणागतका भरण-पोषण नहीं करता – वह जीता हुआ भी मुर्देके समान ही है!।।७।।

पिताजी! हमारे इतने दिन व्यर्थ ही बीत गये।

क्योंकि कंसके भयसे सदा उद्विग्नचित्त रहनेके कारण हम आपकी सेवा करनेमें असमर्थ रहे।।८।।

मेरी माँ और मेरे पिताजी! आप दोनों हमें क्षमा करें।

हाय! दुष्ट कंसने आपको इतने-इतने कष्ट दिये, परंतु हम परतन्त्र रहनेके कारण आपकी कोई सेवा-शुश्रूषा न कर सके’।।९।।

श्रीशुकदेवजी कहते हैं – परीक्षित्! अपनी लीलासे मनुष्य बने हुए विश्वात्मा श्रीहरिकी इस वाणीसे मोहित हो देवकी-वसुदेवने उन्हें गोदमें उठा लिया और हृदयसे चिपकाकर परमानन्द प्राप्त किया।।१०।।

राजन्! वे स्नेह-पाशसे बँधकर पूर्णतः मोहित हो गये और आँसुओंकी धारासे उनका अभिषेक करने लगे।

यहाँतक कि आँसुओंके कारण गला रुँध जानेसे वे कुछ बोल भी न सके।।११।।

देवकीनन्दन भगवान् श्रीकृष्णने इस प्रकार अपने माता-पिताको सान्त्वना देकर अपने नाना उग्रसेनको यदुवंशियोंका राजा बना दिया।।१२।।

और उनसे कहा – ‘महाराज! हम आपकी प्रजा हैं।

आप हमलोगोंपर शासन कीजिये।

राजा ययातिका शाप होनेके कारण यदुवंशी राजसिंहासनपर नहीं बैठ सकते; (परंतु मेरी ऐसी ही इच्छा है, इसलिये आपको कोई दोष न होगा।।१३।।

जब मैं सेवक बनकर आपकी सेवा करता रहूँगा, तब बड़े-बड़े देवता भी सिर झुकाकर आपको भेंट देंगे।’ दूसरे नरपतियोंके बारेमें तो कहना ही क्या है।।१४।।

परीक्षित्! भगवान् श्रीकृष्ण ही सारे विश्वके विधाता हैं।

उन्होंने, जो कंसके भयसे व्याकुल होकर इधर-उधर भाग गये थे, उन यदु, वृष्णि, अन्धक, मधु, दाशार्ह और कुकुर आदि वंशोंमें उत्पन्न समस्त सजातीय सम्बन्धियोंको ढूँढ़-ढूँढ़कर बुलवाया।

उन्हें घरसे बाहर रहनेमें बड़ा क्लेश उठाना पड़ा था।

भगवान् ने उनका सत्कार किया, सान्त्वना दी और उन्हें खूब धन-सम्पत्ति देकर तृप्त किया तथा अपने-अपने घरोंमें बसा दिया।।१५-१६।।

अब सारे-के-सारे यदुवंशी भगवान् श्रीकृष्ण तथा बलरामजीके बाहुबलसे सुरक्षित थे।

उनकी कृपासे उन्हें किसी प्रकारकी व्यथा नहीं थी, दुःख नहीं था।

उनके सारे मनोरथ सफल हो गये थे।

वे कृतार्थ हो गये थे।

अब वे अपने-अपने घरोंमें आनन्दसे विहार करने लगे।।१७।।

भगवान् श्रीकृष्णका वदन आनन्दका सदन है।

वह नित्य प्रफुल्लित, कभी न कुम्हलानेवाला कमल है।

उसका सौन्दर्य अपार है।

सदय हास और चितवन उसपर सदा नाचती रहती है।

यदुवंशी दिन-प्रतिदिन उसका दर्शन करके आनन्दमग्न रहते।।१८।।

मथुराके वृद्ध पुरुष भी युवकोंके समान अत्यन्त बलवान् और उत्साही हो गये थे; क्योंकि वे अपने नेत्रोंके दोनोंसे बारंबार भगवान् के मुखारविन्दका अमृतमय मकरन्द-रस पान करते रहते थे।।१९।।

प्रिय परीक्षित्! अब देवकीनन्दन भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामजी दोनों ही नन्दबाबाके पास आये और गले लगनेके बाद उनसे कहने लगे – ।।२०।।

‘पिताजी! आपने और माँ यशोदाने बड़े स्नेह और दुलारसे हमारा लालन-पालन किया है।

इसमें कोई सन्देह नहीं कि माता-पिता सन्तानपर अपने शरीरसे भी अधिक स्नेह करते हैं।।२१।।

जिन्हें पालन-पोषण न कर सकनेके कारण स्वजन-सम्बन्धियोंने त्याग दिया है, उन बालकोंको जो लोग अपने पुत्रके समान लाड़-प्यारसे पालते हैं, वे ही वास्तवमें उनके माँ-बाप हैं।।२२।।

पिताजी! अब आपलोग व्रजमें जाइये।

इसमें सन्देह नहीं कि हमारे बिना वात्सल्य-स्नेहके कारण आपलोगोंको बहुत दुःख होगा।

यहाँके सुहृद्-सम्बन्धियोंको सुखी करके हम आपलोगोंसे मिलनेके लिये आयेंगे’।।२३।।

भगवान् श्रीकृष्णने नन्दबाबा और दूसरे व्रजवासियोंको इस प्रकार समझा-बुझाकर बड़े आदरके साथ वस्त्र, आभूषण और अनेक धातुओंके बने बरतन आदि देकर उनका सत्कार किया।।२४।।

भगवान् की बात सुनकर नन्द-बाबाने प्रेमसे अधीर होकर दोनों भाइयोंको गले लगा लिया और फिर नेत्रोंमें आँसू भरकर गोपोंके साथ व्रजके लिये प्रस्थान किया।।२५।।

हे राजन्! इसके बाद वसुदेवजीने अपने पुरोहित गर्गाचार्य तथा दूसरे ब्राह्मणोंसे दोनों पुत्रोंका विधिपूर्वक द्विजाति-समुचित यज्ञोरवीत संस्कार करवाया।।२६।।

उन्होंने विविध प्रकारके वस्त्र और आभूषणोंसे ब्राह्मणोंका सत्कार करके उन्हें बहुत-सी दक्षिणा तथा बछड़ोंवाली गौएँ दीं।

सभी गौएँ गलेमें सोनेकी माला पहने हुए थीं तथा और भी बहुतसे आभूषणों एवं रेशमी वस्त्रोंकी मालाओंसे विभूषित थीं।।२७।।

महामति वसुदेवजीने भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामजीके जन्म-नक्षत्रमें जितनी गौएँ मन-ही-मन संकल्प करके दी थीं, उन्हें पहले कंसने अन्यायसे छीन लिया था।

अब उनका स्मरण करके उन्होंने ब्राह्मणोंको वे फिरसे दीं।।२८।।

इस प्रकार यदुवंशके आचार्य गर्गजीसे संस्कार कराकर बलरामजी और भगवान् श्रीकृष्ण द्विजत्वको प्राप्त हुए।

उनका ब्रह्मचर्यव्रत अखण्ड तो था ही, अब उन्होंने गायत्रीपूर्वक अध्ययन करनेके लिये उसे नियमतः स्वीकार किया।।२९।।

श्रीकृष्ण और बलराम जगत् के एकमात्र स्वामी हैं।

सर्वज्ञ हैं।

सभी विद्याएँ उन्हींसे निकली हैं।

उनका निर्मल ज्ञान स्वतःसिद्ध है।

फिर भी उन्होंने मनुष्यकी-सी लीला करके उसे छिपा रखा था।।३०।।

अब वे दोनों गुरुकुलमें निवास करनेकी इच्छासे काश्यपगोत्री सान्दीपनि मुनिके पास गये, जो अवन्तीपुर (उज्जैन) में रहते थे।।३१।।

वे दोनों भाई विधिपूर्वक गुरुजीके पास रहने लगे।

उस समय वे बड़े ही सुसंयत, अपनी चेष्टाओंको सर्वथा नियमित रखे हुए थे।

गुरुजी तो उनका आदर करते ही थे, भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामजी भी गुरुकी उत्तम सेवा कैसे करनी चाहिये, इसका आदर्श लोगोंके सामने रखते हुए बड़ी भक्तिसे इष्टदेवके समान उनकी सेवा करने लगे।।३२।।

गुरुवर सान्दीपनिजी उनकी शुद्धभावसे युक्त सेवासे बहुत प्रसन्न हुए।

उन्होंने दोनों भाइयोंको छहों अंग और उपनिषदोंके सहित सम्पूर्ण वेदोंकी शिक्षा दी।।३३।।

इनके सिवा मन्त्र और देवताओंके ज्ञानके साथ धनुर्वेद, मनुस्मृति आदि धर्मशास्त्र, मीमांसा आदि, वेदोंका तात्पर्य बतलानेवाले शास्त्र, तर्कविद्या (न्यायशास्त्र) आदिकी भी शिक्षा दी।

साथ ही सन्धि, विग्रह, यान, आसन, द्वैध और आश्रय – इन छः भेदोंसे युक्त राजनीतिका भी अध्ययन कराया।।३४।।

परीक्षित्! भगवान् श्रीकृष्ण और बलराम सारी विद्याओंके प्रवर्तक हैं।

इस समय केवल श्रेष्ठ मनुष्यका-सा व्यवहार करते हुए ही वे अध्ययन कर रहे थे।

उन्होंने गुरुजीके केवल एक बार कहनेमात्रसे सारी विद्याएँ सीख लीं।।३५।।

केवल चौंसठ दिन-रातमें ही संयमीशिरोमणि दोनों भाइयोंने चौंसठों कलाओंका* ज्ञान प्राप्त कर लिया।

इस प्रकार अध्ययन समाप्त होनेपर उन्होंने सान्दीपनि मुनिसे प्रार्थना की कि ‘आपकी जो इच्छा हो, गुरू-दक्षिणा माँग लें’।।३६।।

महाराज! सान्दीपनि मुनिने उनकी अद् भुत महिमा और अलौकिक बुद्धिका अनुभव कर लिया था।

इसलिये उन्होंने अपनी पत्नीसे सलाह करके यह गुरुदक्षिणा माँगी कि ‘प्रभासक्षेत्रमें हमारा बालक समुद्रमें डूबकर मर गया था, उसे तुमलोग ला दो’।।३७।।

बलरामजी और श्रीकृष्णका पराक्रम अनन्त था।

दोनों ही महारथी थे।

उन्होंने ‘बहुत अच्छा’ कहकर गुरुजीकी आज्ञा स्वीकार की और रथपर सवार होकर प्रभासक्षेत्रमें गये।

वे समुद्रतटपर जाकर क्षणभर बैठे रहे।

उस समय यह जानकर कि ये साक्षात् परमेश्वर हैं, अनेक प्रकारकी पूजा-सामग्री लेकर समुद्र उनके सामने उपस्थित हुआ।।३८।।

भगवान् ने समुद्रसे कहा – ‘समुद्र! तुम यहाँ अपनी बड़ी-बड़ी तरंगोंसे हमारे जिस गुरुपुत्रको बहा ले गये थे, उसे लाकर शीघ्र हमें दो’।।३९।।

मनुष्यवेषधारी समुद्रने कहा – ‘देवाधिदेव श्रीकृष्ण! मैंने उस बालकको नहीं लिया है।

मेरे जलमें पंचजन नामका एक बड़ा भारी दैत्य जातिका असुर शंखके रूपमें रहता है।

अवश्य ही उसीने वह बालक चुरा लिया होगा’।।४०।।

समुद्रकी बात सुनकर भगवान् तुरंत ही जलमें जा घुसे और शंखासुरको मार डाला।

परन्तु वह बालक उसके पेटमें नहीं मिला।।४१।।

– ४४।।

श्रीभगवान् ने कहा – ‘यमराज! यहाँ अपने कर्मबन्धनके अनुसार मेरा गुरुपुत्र लाया गया है।

तुम मेरी आज्ञा स्वीकार करो और उसके कर्मपर ध्यान न देकर उसे मेरे पास ले आओ।।४५।।

यमराजने ‘जो आज्ञा’ कहकर भगवान् का आदेश स्वीकार किया और उनका गुरुपुत्र ला दिया।

तब यदुवंशशिरोमणि भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामजी उस बालकको लेकर उज्जैन लौट आये और उसे अपने गुरुदेवको सौंपकर कहा कि ‘आप और जो कुछ चाहें, माँग लें’।।४६।।

गुरुजीने कहा – ‘बेटा! तुम दोनोंने भलीभाँति गुरुदक्षिणा दी।

अब और क्या चाहिये? जो तुम्हारे जैसे पुरुषोत्तमोंका गुरु है, उसका कौन-सा मनोरथ अपूर्ण रह सकता है?।।४७।।

वीरो! अब तुम दोनों अपने घर जाओ।

तुम्हें लोकोंको पवित्र करनेवाली कीर्ति प्राप्त हो।

तुम्हारी पढ़ी हुई विद्या इस लोक और परलोकमें सदा नवीन बनी रहे, कभी विस्मृत न हो’।।४८।।

बेटा परीक्षित्! फिर गुरुजीसे आज्ञा लेकर वायुके समान वेग और मेघके समान शब्दवाले रथपर सवार होकर दोनों भाई मथुरा लौट आये।।४९।।

मथुराकी प्रजा बहुत दिनोंतक श्रीकृष्ण और बलरामको न देखनेसे अत्यन्त दुःखी हो रही थी।

अब उन्हें आया हुआ देख सब-के-सब परमानन्दमें मग्न हो गये, मानो खोया हुआ धन मिल गया हो।।५०।।

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
दशमस्कन्धे पूर्वार्धे गुरुपुत्रानयनं नाम पञ्चचत्वारिंशोऽध्यायः।।४५।।

* चौंसठ कलाएँ ये हैं – १ गानविद्या, २ वाद्य – भाँति-भाँतिके बाजे बजाना, ३ नृत्य, ४ नाट्य, ५ चित्रकारी, ६ बेल-बूटे बनाना, ७ चावल और पुष्पादिसे पूजाके उपहारकी रचना करना, ८ फूलोंकी सेज बनाना, ९ दाँत, वस्त्र और अंगोंको रँगना, १० मणियोंकी फर्श बनाना, ११ शय्या-रचना, १२ जलको बाँध देना, १३ विचित्र सिद्धियाँ दिखलाना, १४ हार-माला आदि बनाना, १५ कान और चोटीके फूलोंके गहने बनाना, १६ कपड़े और गहने बनाना, १७ फूलोंके आभूषणोंसे शृंगार करना, १८ कानोंके पत्तोंकी रचना करना, १९ सुगन्धित वस्तुएँ – इत्र, तैल आदि बनाना, २० इन्द्रजाल – जादूगरी, २१ चाहे जैसा वेष धारण कर लेना, २२ हाथकी फुर्तीके काम, २३ तरह-तरहकी खानेकी वस्तुएँ बनाना, २४ तरह-तरहके पीनेके पदार्थ बनाना, २५ सूईका काम, २६ कठपुतली बनाना, नचाना, २७ पहेली, २८ प्रतिमा आदि बनाना, २९ कूटनीति, ३० ग्रन्थोंके पढ़ानेकी चातुरी, ३१ नाटक, आख्यायिका आदिकी रचना करना, ३२ समस्यापूर्ति करना, ३३ पट्टी, बेंत, बाण आदि बनाना, ३४ गलीचे, दरी आदि बनाना, ३५ बढ़र्इकी कारीगरी, ३६ गृह आदि बनानेकी कारीगरी, ३७ सोने, चाँदी आदि धातु तथा हीरे-पन्ने आदि रत्नोंकी परीक्षा, ३८ सोना-चाँदी आदि बना लेना, ३९ मणियोंके रंगको पहचानना, ४० खानोंकी पहचान, ४१ वृक्षोंकी चिकित्सा, ४२ भेड़ा, मुर्गा, बटेर आदिको लड़ानेकी रीति, ४३ तोता-मैना आदिकी बोलियाँ बोलना, ४४ उच्चाटनकी विधि, ४५ केशोंकी सफाईका कौशल, ४६ मुट्ठीकी चीज या मनकी बात बता देना, ४७ म्लेच्छ-काव्योंका समझ लेना, ४८ विभिन्न देशोंकी भाषाका ज्ञान, ४९ शकुन-अपशकुन जानना, प्रश्नोंके उत्तरमें शुभाशुभ बतलाना, ५० नाना प्रकारके मातृकायन्त्र बनाना, ५१ रत्नोंको नाना प्रकारके आकारोंमें काटना, ५२ सांकेतिक भाषा बनाना, ५३ मनमें कटकरचना करना, ५४ नयी-नयी बातें निकालना, ५५ छलसे काम निकालना, ५६ समस्त कोशोंका ज्ञान, ५७ समस्त छन्दोंका ज्ञान, ५८ वस्त्रोंको छिपाने या बदलनेकी विद्या, ५९ द्यूत क्रीड़ा, ६० दूरके मनुष्य या वस्तुओंका आकर्षण कर लेना, ६१ बालकोंके खेल, ६२ मन्त्रविद्या, ६३ विजय प्राप्त करानेवाली विद्या, ६४ वेताल आदिको वशमें रखनेकी विद्या।


Next.. (आगे पढें…..) >> भागवत पुराण – दशम स्कन्ध – अध्याय – 46

भागवत पुराण – दशम स्कन्ध – अध्याय का अगला पेज पढ़ने के लिए क्लिक करें >>

भागवत पुराण – दशम स्कन्ध – अध्याय – 46


Krishna Bhajan, Aarti, Chalisa

Krishna Bhajan