भागवत पुराण – दशम स्कन्ध – अध्याय – 43


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कुवलयापीडका उद्धार और अखाड़ेमें प्रवेश

श्रीशुकदेवजी कहते हैं – काम-क्रोधादि शत्रुओंको पराजित करनेवाले परीक्षित्! अब श्रीकृष्ण और बलराम भी स्नानादि नित्यकर्मसे निवृत्त हो दंगलके अनुरूप नगाड़ेकी ध्वनि सुनकर रंगभूमि देखनेके लिये चल पड़े।।१।।

भगवान् श्रीकृष्णने रंग-भूमिके दरवाजेपर पहुँचकर देखा कि वहाँ महावतकी प्रेरणासे कुवलयापीड नामका हाथी खड़ा है।।२।।

तब भगवान् श्रीकृष्णने अपनी कमर कस ली और घुँघराली अलकें समेट लीं तथा मेघके समान गम्भीर वाणीसे महावतको ललकारकर कहा।।३।।

‘महावत, ओ महावत! हम दोनोंको रास्ता दे दे।

हमारे मार्गसे हट जा।

अरे, सुनता नहीं? देर मत कर।

नहीं तो मैं हाथीके साथ अभी तुझे यमराजके घर पहुँचाता हूँ’।।४।।

भगवान् श्रीकृष्णने महावतको जब इस प्रकार धमकाया, तब वह क्रोधसे तिलमिला उठा और उसने काल, मृत्यु तथा यमराजके समान अत्यन्त भयंकर कुवलयापीडको अंकुशकी मारसे क्रुद्ध करके श्रीकृष्णकी ओर बढ़ाया।।५।।

कुवलयापीडने भगवान् की ओर झपटकर उन्हें बड़ी तेजीसे सूँड़में लपेट लिया; परन्तु भगवान् सूँड़से बाहर सरक आये और उसे एक घूँसा जमाकर उसके पैरोंके बीचमें जा छिपे।।६।।

उन्हें अपने सामने न देखकर कुवलयापीडको बड़ा क्रोध हुआ।

उसने सूँघकर भगवान् को अपनी सूँड़से टटोल लिया और पकड़ा भी; परन्तु उन्होंने बलपूर्वक अपनेको उससे छुड़ा लिया।।७।।

इसके बाद भगवान् उस बलवान् हाथीकी पूँछ पकड़कर खेल-खेलमें ही उसे सौ हाथतक पीछे घसीट लाये; जैसे गरुड़ साँपको घसीट लाते हैं।।८।।

जिस प्रकार घूमते हुए बछड़ेके साथ बालक घूमता है अथवा स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण जिस प्रकार बछड़ोंसे खेलते थे, वैसे ही वे उसकी पूँछ पकड़कर उसे घुमाने और खेलने लगे।

जब वह दायेंसे घूमकर उनको पकड़ना चाहता, तब वे बायें आ जाते और जब वह बायेंकी ओर घूमता, तब वे दायें घूम जाते।।९।।

इसके बाद हाथीके सामने आकर उन्होंने उसे एक घूँसा जमाया और वे उसे गिरानेके लिये इस प्रकार उसके सामनेसे भागने लगे, मानो वह अब छू लेता है, तब छू लेता है।।१०।।

भगवान् श्रीकृष्णने दौड़ते-दौड़ते एक बार खेल-खेलमें ही पृथ्वीपर गिरनेका अभिनय किया और झट वहाँसे उठकर भाग खड़े हुए।

उस समय वह हाथी क्रोधसे जल-भुन रहा था।

उसने समझा कि वे गिर पड़े और बड़े जोरसे अपने दोनों दाँत धरतीपर मारे।।११।।

जब कुवलयापीडका यह आक्रमण व्यर्थ हो गया, तब वह और भी चिढ़ गया।

महावतोंकी प्रेरणासे वह क्रुद्ध होकर भगवान् श्रीकृष्णपर टूट पड़ा।।१२।।

भगवान् मधुसूदनने जब उसे अपनी ओर झपटते देखा, तब उसके पास चले गये और अपने एक ही हाथसे उसकी सूँड़ पकड़कर उसे धरतीपर पटक दिया।।१३।।

उसके गिर जानेपर भगवान् ने सिंहके समान खेल-ही-खेलमें उसे पैरोंसे दबाकर उसके दाँत उखाड़ लिये और उन्हींसे हाथी और महावतोंका काम तमाम कर दिया।।१४।।

परीक्षित्! मरे हुए हाथीको छोड़कर भगवान् श्रीकृष्णने हाथमें उसके दाँत लिये-लिये ही रंगभूमिमें प्रवेश किया।

उस समय उनकी शोभा देखने ही योग्य थी।

उनके कंधेपर हाथीका दाँत रखा हुआ था, शरीर रक्त और मदकी बूँदोंसे सुशोभित था और मुखकमलपर पसीनेकी बूँदें झलक रही थीं।।१५।।

परीक्षित्! भगवान् श्रीकृष्ण और बलराम दोनोंके ही हाथोंमें कुवलयापीडके बड़े-बड़े दाँत शस्त्रके रूपमें सुशोभित हो रहे थे और कुछ ग्वालबाल उनके साथ-साथ चल रहे थे।

इस प्रकार उन्होंने रंगभूमिमें प्रवेश किया।।१६।।

जिस समय भगवान् श्रीकृष्ण बलरामजीके साथ रंगभूमिमें पधारे, उस समय वे पहलवानोंको वज्रकठोर शरीर, साधारण मनुष्योंको नर-रत्न, स्त्रियोंको मूर्तिमान् कामदेव, गोपोंको स्वजन, दुष्ट राजाओंको दण्ड देनेवाले शासक, माता-पिताके समान बड़े-बूढ़ोंको शिशु, कंसको मृत्यु, अज्ञानियोंको विराट्, योगियोंको परम तत्त्व और भक्तशिरोमणि वृष्णिवंशियोंको अपने इष्टदेव जान पड़े (सबने अपने-अपने भावानुरूप क्रमशः रौद्र, अद् भुत, शृंगार, हास्य, वीर, वात्सल्य, भयानक, बीभत्स, शान्त और प्रेमभक्तिरसका अनुभव किया)।।१७।।

राजन्! वैसे तो कंस बड़ा धीर-वीर था; फिर भी जब उसने देखा कि इन दोनोंने कुवलयापीडको मार डाला, तब उसकी समझमें यह बात आयी कि इनको जीतना तो बहुत कठिन है।

उस समय वह बहुत घबड़ा गया।।१८।।

श्रीकृष्ण और बलरामकी बाँहें बड़ी लम्बी-लम्बी थीं।

पुष्पोंके हार, वस्त्र और आभूषण आदिसे उनका वेष विचित्र हो रहा था; ऐसा जान पड़ता था, मानो उत्तम वेष धारण करके दो नट अभिनय करनेके लिये आये हों।

जिनके नेत्र एक बार उनपर पड़ जाते, बस, लग ही जाते।

यही नहीं, वे अपनी कान्तिसे उसका मन भी चुरा लेते।

इस प्रकार दोनों रंगभूमिमें शोभायमान हुए।।१९।।

परीक्षित्! मंचोंपर जितने लोग बैठे थे – वे मथुराके नागरिक और राष्ट्रके जन-समुदाय पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामजीको देखकर इतने प्रसन्न हुए कि उनके नेत्र और मुखकमल खिल उठे।

उत्कण्ठासे भर गये।

वे नेत्रोंके द्वारा उनकी मुखमाधुरीका पान करते-करते तृप्त ही नहीं होते थे।।२०।।

मानो वे उन्हें नेत्रोंसे पी रहे हों, जिह्वासे चाट रहे हों, नासिकासे सूँघ रहे हों और भुजाओंसे पकड़कर हृदयसे सटा रहे हों।।२१।।

उनके सौन्दर्य, गुण, माधुर्य और निर्भयताने मानो दर्शकोंको उनकी लीलाओंका स्मरण करा दिया और वे लोग आपसमें उनके सम्बन्धकी देखी-सुनी बातें कहने-सुनने लगे।।२२।।

‘ये दोनों साक्षात् भगवान् नारायणके अंश हैं।

इस पृथ्वीपर वसुदेवजीके घरमें अवतीर्ण हुए हैं।।२३।।

(अँगुलीसे दिखलाकर) ये साँवले-सलोने कुमार देवकीके गर्भसे उत्पन्न हुए थे।

जन्मते ही वसुदेवजीने इन्हें गोकुल पहुँचा दिया था।

इतने दिनोंतक ये वहाँ छिपकर रहे और नन्दजीके घरमें ही पलकर इतने बड़े हुए।।२४।।

इन्होंने ही पूतना, तृणावर्त, शंखचूड़, केशी और धेनुक आदिका तथा और भी दुष्ट दैत्योंका वध तथा यमलार्जुनका उद्धार किया है।।२५।।

इन्होंने ही गौ और ग्वालोंको दावानलकी ज्वालासे बचाया था।

कालियनागका दमन और इन्द्रका मान-मर्दन भी इन्होंने ही किया था।।२६।।

इन्होंने सात दिनोंतक एक ही हाथपर गिरिराज गोवर्धनको उठाये रखा और उसके द्वारा आँधी-पानी तथा वज्रपातसे गोकुलको बचा लिया।।२७।।

गोपियाँ इनकी मन्द-मन्द मुसकान, मधुर चितवन और सर्वदा एकरस प्रसन्न रहनेवाले मुखारविन्दके दर्शनसे आनन्दित रहती थीं और अनायास ही सब प्रकारके तापोंसे मुक्त हो जाती थीं।।२८।।

कहते हैं कि ये यदुवंशकी रक्षा करेंगे।

यह विख्यात वंश इनके द्वारा महान् समृद्धि, यश और गौरव प्राप्त करेगा।।२९।।

ये दूसरे इन्हीं श्यामसुन्दरके बड़े भाई कमलनयन श्रीबलरामजी हैं।

हमने किसी-किसीके मुँहसे ऐसा सुना है कि इन्होंने ही प्रलम्बासुर, वत्सासुर और बकासुर आदिको मारा है’।।३०।।

जिस समय दर्शकोंमें यह चर्चा हो रही थी और अखाड़ेमें तुरही आदि बाजे बज रहे थे, उस समय चाणूरने भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामको सम्बोधन करके यह बात कही – ।।३१।।

‘नन्दनन्दन श्रीकृष्ण और बलरामजी! तुम दोनों वीरोंके आदरणीय हो।

हमारे महाराजने यह सुनकर कि तुमलोग कुश्ती लड़नेमें बड़े निपुण हो, तुम्हारा कौशल देखनेके लिये तुम्हें यहाँ बुलवाया है।।३२।।

देखो भाई! जो प्रजा मन, वचन और कर्मसे राजाका प्रिय कार्य करती है, उसका भला होता है और जो राजाकी इच्छाके विपरीत काम करती है, उसे हानि उठानी पड़ती है।।३३।।

यह सभी जानते हैं कि गाय और बछड़े चरानेवाले ग्वालिये प्रतिदिन आनन्दसे जंगलोंमें कुश्ती लड़-लड़कर खेलते रहते हैं और गायें चराते रहते हैं।।३४।।

इसलिये आओ, हम और तुम मिलकर महाराजको प्रसन्न करनेके लिये कुश्ती लड़ें।

ऐसा करनेसे हमपर सभी प्राणी प्रसन्न होंगे, क्योंकि राजा सारी प्रजाका प्रतीक है’।।३५।।

परीक्षित्! भगवान् श्रीकृष्ण तो चाहते ही थे कि इनसे दो-दो हाथ करें।

इसलिये उन्होंने चाणूरकी बात सुनकर उसका अनुमोदन किया और देश-कालके अनुसार यह बात कही – ।।३६।।

‘चाणूर! हम भी इन भोजराज कंसकी वनवासी प्रजा हैं।

हमें इनको प्रसन्न करनेका प्रयत्न अवश्य करना चाहिये।

इसीमें हमारा कल्याण है।।३७।।

किन्तु चाणूर! हमलोग अभी बालक हैं।

इसलिये हम अपने समान बलवाले बालकोंके साथ ही कुश्ती लड़नेका खेल करेंगे।

कुश्ती समान बलवालोंके साथ ही होनी चाहिये, जिससे देखनेवाले सभासदोंको अन्यायके समर्थक होनेका पाप न लगे’।।३८।।

चाणूरने कहा – अजी! तुम और बलराम न बालक हो और न तो किशोर।

तुम दोनों बलवानोंमें श्रेष्ठ हो, तुमने अभी-अभी हजार हाथियोंका बल रखनेवाले कुवलयापीडको खेल-ही-खेलमें मार डाला।।३९।।

इसलिये तुम दोनोंको हम-जैसे बलवानोंके साथ ही लड़ना चाहिये।

इसमें अन्यायकी कोई बात नहीं है।

इसलिये श्रीकृष्ण! तुम मुझपर अपना जोर आजमाओ और बलरामके साथ मुष्टिक लड़ेगा।।४०।।

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
दशमस्कन्धे पूर्वार्धे कुवलयापीडवधो नाम त्रिचत्वारिंशोऽध्यायः।।४३।।


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