भागवत पुराण – दशम स्कन्ध – अध्याय – 39


<< भागवत पुराण – Index

<< भागवत पुराण – दशम स्कन्ध – अध्याय – 38

भागवत पुराण स्कंध लिंक - भागवत माहात्म्य | प्रथम (1) | द्वितीय (2) | तृतीय (3) | चतुर्थ (4) | पंचम (5) | षष्ठ (6) | सप्तम (7) | अष्टम (8) | नवम (9) | दशम (10) | एकादश (11) | द्वादश (12)


श्रीकृष्ण-बलरामका मथुरागमन

श्रीशुकदेवजी कहते हैं – भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामजीने अक्रूरजीका भलीभाँति सम्मान किया।

वे आरामसे पलँगपर बैठ गये।

उन्होंने मार्गमें जो-जो अभिलाषाएँ की थीं, वे सब पूरी हो गयीं।।१।।

परीक्षित्! लक्ष्मीके आश्रयस्थान भगवान् श्रीकृष्णके प्रसन्न होनेपर ऐसी कौन-सी वस्तु है, जो प्राप्त नहीं हो सकती? फिर भी भगवान् के परमप्रेमी भक्तजन किसी भी वस्तुकी कामना नहीं करते।।२।।

देवकीनन्दन भगवान् श्रीकृष्णने सायंकालका भोजन करनेके बाद अक्रूरजीके पास जाकर अपने स्वजन-सम्बन्धियोंके साथ कंसके व्यवहार और उसके अगले कार्यक्रमके सम्बन्धमें पूछा।।३।।

भगवान् श्रीकृष्णने कहा – चाचाजी! आपका हृदय बड़ा शुद्ध है।

आपको यात्रामें कोई कष्ट तो नहीं हुआ? स्वागत है।

मैं आपकी मंगलकामना करता हूँ।

मथुराके हमारे आत्मीय सुहृद्, कुटुम्बी तथा अन्य सम्बन्धी सब सकुशल और स्वस्थ हैं न?।।४।।

हमारा नाममात्रका मामा कंस तो हमारे कुलके लिये एक भयंकर व्याधि है।

जबतक उसकी बढ़ती हो रही है, तबतक हम अपने वंशवालों और उनके बाल-बच्चोंका कुशल-मंगल क्या पूछें।।५।।

चाचाजी! हमारे लिये यह बड़े खेदकी बात है कि मेरे ही कारण मेरे निरपराध और सदाचारी माता-पिताको अनेकों प्रकारकी यातनाएँ झेलनी पड़ीं – तरह-तरहके कष्ट उठाने पड़े।

और तो क्या कहूँ, मेरे ही कारण उन्हें हथकड़ी-बेड़ीसे जकड़कर जेलमें डाल दिया गया तथा मेरे ही कारण उनके बच्चे भी मार डाले गये।।६।।

मैं बहुत दिनोंसे चाहता था कि आप-लोगोंमेंसे किसी-न-किसीका दर्शन हो।

यह बड़े सौभाग्यकी बात है कि आज मेरी वह अभिलाषा पूरी हो गयी।

सौम्य-स्वभाव चाचाजी! अब आप कृपा करके यह बतलाइये कि आपका शुभागमन किस निमित्तसे हुआ?।।७।।

श्रीशुकदेवजी कहते हैं – परीक्षित्! जब भगवान् श्रीकृष्णने अक्रूरजीसे इस प्रकार प्रश्न किया, तब उन्होंने बतलाया कि ‘कंसने तो सभी यदुवंशियोंसे घोर वैर ठान रखा है।

वह वसुदेवजीको मार डालनेका भी उद्यम कर चुका है’।।८।।

अक्रूरजीने कंसका सन्देश और जिस उद्देश्यसे उसने स्वयं अक्रूरजीको दूत बनाकर भेजा था और नारदजीने जिस प्रकार वसुदेवजीके घर श्रीकृष्णके जन्म लेनेका वृत्तान्त उसको बता दिया था, सो सब कह सुनाया।।९।।

अक्रूरजीकी यह बात सुनकर विपक्षी शत्रुओंका दमन करनेवाले भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामजी हँसने लगे और इसके बाद उन्होंने अपने पिता नन्दजीको कंसकी आज्ञा सुना दी।।१०।।

तब नन्दबाबाने सब गोपोंको आज्ञा दी कि ‘सारा गोरस एकत्र करो।

भेंटकी सामग्री ले लो और छकड़े जोड़ो।।११।।

कल प्रातःकाल ही हम सब मथुराकी यात्रा करेंगे और वहाँ चलकर राजा कंसको गोरस देंगे।

वहाँ एक बहुत बड़ा उत्सव हो रहा है।

उसे देखनेके लिये देशकी सारी प्रजा इकट्ठी हो रही है।

हमलोग भी उसे देखेंगे।’ नन्दबाबाने गाँवके कोतवालके द्वारा यह घोषणा सारे व्रजमें करवा दी।।१२।।

परीक्षित्! जब गोपियोंने सुना कि हमारे मनमोहन श्यामसुन्दर और गौरसुन्दर बलरामजीको मथुरा ले जानेके लिये अक्रूरजी व्रजमें आये हैं तब उनके हृदयमें बड़ी व्यथा हुई।

वे व्याकुल हो गयीं।।१३।।

भगवान् श्रीकृष्णके मथुरा जानेकी बात सुनते ही बहुतोंके हृदयमें ऐसी जलन हुई कि गरम साँस चलने लगी, मुखकमल कुम्हला गया।

और बहुतोंकी ऐसी दशा हुई – वे इस प्रकार अचेत हो गयीं कि उन्हें खिसकी हुई ओढ़नी, गिरते हुए कंगन और ढीले हुए जूड़ोंतकका पता न रहा।।१४।।

भगवान् के स्वरूपका ध्यान आते ही बहुत-सी गोपियोंकी चित्तवृत्तियाँ सर्वथा निवृत्त हो गयीं, मानो वे समाधिस्थ – आत्मामें स्थित हो गयी हों, और उन्हें अपने शरीर और संसारका कुछ ध्यान ही न रहा।।१५।।

बहुत-सी गोपियोंके सामने भगवान् श्रीकृष्णका प्रेम, उनकी मन्द-मन्द मुसकान और हृदयको स्पर्श करनेवाली विचित्र पदोंसे युक्त मधुर वाणी नाचने लगी।

वे उसमें तल्लीन हो गयीं।

मोहित हो गयीं।।१६।।

गोपियाँ मन-ही-मन भगवान् की लटकीली चाल, भाव-भंगी, प्रेमभरी मुसकान, चितवन, सारे शोकोंको मिटा देनेवाली ठिठोलियाँ तथा उदारता-भरी लीलाओंका चिन्तन करने लगीं और उनके विरहके भयसे कातर हो गयीं।

उनका हृदय, उनका जीवन – सब कुछ भगवान् के प्रति समर्पित था।

उनकी आँखोंसे आँसू बह रहे थे।

वे झुंड-की-झुंड इकट्ठी होकर इस प्रकार कहने लगीं।।१७-१८।।

गोपियोंने कहा – धन्य हो विधाता! तुम सब कुछ विधान तो करते हो, परन्तु तुम्हारे हृदयमें दयाका लेश भी नहीं है।

पहले तो तुम सौहार्द और प्रेमसे जगत् के प्राणियोंको एक-दूसरेके साथ जोड़ देते हो, उन्हें आपसमें एक कर देते हो; मिला देते हो परन्तु अभी उनकी आशा-अभिलाषाएँ पूरी भी नहीं हो पातीं, वे तृप्त भी नहीं हो पाते कि तुम उन्हें व्यर्थ ही अलग-अलग कर देते हो! सच है, तुम्हारा यह खिलवाड़ बच्चोंके खेलकी तरह व्यर्थ ही है।।१९।।

यह कितने दुःखकी बात है! विधाता! तुमने पहले हमें प्रेमका वितरण करनेवाले श्यामसुन्दरका मुखकमल दिखलाया।

कितना सुन्दर है वह! काले-काले घुँघराले बाल कपोलोंपर झलक रहे हैं।

मरकतमणि-से चिकने सुस्निग्ध कपोल और तोतेकी चोंच-सी सुन्दर नासिका तथा अधरोंपर मन्द-मन्द मुसकानकी सुन्दर रेखा, जो सारे शोकोंको तत्क्षण भगा देती है।

विधाता! तुमने एक बार तो हमें वह परम सुन्दर मुखकमल दिखाया और अब उसे ही हमारी आँखोंसे ओझल कर रहे हो! सचमुच तुम्हारी यह करतूत बहुत ही अनुचित है।।२०।।

हम जानती हैं, इसमें अक्रूरका दोष नहीं है; यह तो साफ तुम्हारी क्रूरता है।

वास्तवमें तुम्हीं अक्रूरके नामसे यहाँ आये हो और अपनी ही दी हुई आँखें तुम हमसे मूर्खकी भाँति छीन रहे हो।

इनके द्वारा हम श्यामसुन्दरके एक-एक अंगमें तुम्हारी सृष्टिका सम्पूर्ण सौन्दर्य निहारती रहती थीं।

विधाता! तुम्हें ऐसा नहीं चाहिये।।२१।।

अहो! नन्दनन्दन श्यामसुन्दरको भी नये-नये लोगोंसे नेह लगानेकी चाट पड़ गयी है।

देखो तो सही – इनका सौहार्द, इनका प्रेम एक क्षणमें ही कहाँ चला गया? हम तो अपने घर-द्वार, स्वजन-सम्बन्धी, पति-पुत्र आदिको छोड़कर इनकी दासी बनीं और इन्हींके लिये आज हमारा हृदय शोकातुर हो रहा है, परन्तु ये ऐसे हैं कि हमारी ओर देखतेतक नहीं।।२२।।

आजकी रातका प्रातःकाल मथुराकी स्त्रियोंके लिये निश्चय ही बड़ा मंगलमय होगा।

आज उनकी बहुत दिनोंकी अभिलाषाएँ अवश्य ही पूरी हो जायँगी।

जब हमारे व्रजराज श्यामसुन्दर अपनी तिरछी चितवन और मन्द-मन्द मुसकानसे युक्त मुखारविन्दका मादक मधु वितरण करते हुए मथुरापुरीमें प्रवेश करेंगे, तब वे उसका पान करके धन्य-धन्य हो जायँगी।।२३।।

यद्यपि हमारे श्यामसुन्दर धैर्यवान् होनेके साथ ही नन्दबाबा आदि गुरुजनोंकी आज्ञामें रहते हैं, तथापि मथुराकी युवतियाँ अपने मधुके समान मधुर वचनोंसे इनका चित्त बरबस अपनी ओर खींच लेंगी और ये उनकी सलज्ज मुसकान तथा विलासपूर्ण भाव-भंगीसे वहीं रम जायँगे।

फिर हम गँवार ग्वालिनोंके पास ये लौटकर क्यों आने लगे।।२४।।

धन्य है आज हमारे श्यामसुन्दरका दर्शन करके मथुराके दाशार्ह, भोज, अन्धक और वृष्णिवंशी यादवोंके नेत्र अवश्य ही परमानन्दका साक्षात्कार करेंगे।

आज उनके यहाँ महान् उत्सव होगा।

साथ ही जो लोग यहाँसे मथुरा जाते हुए रमारमण गुणसागर नटनागर देवकीनन्दन श्यामसुन्दरका मार्गमें दर्शन करेंगे, वे भी निहाल हो जायँगे।।२५।।

देखो सखी! यह अक्रूर कितना निठुर, कितना हृदयहीन है।

इधर तो हम गोपियाँ इतनी दुःखित हो रही हैं और यह हमारे परम प्रियतम नन्ददुलारे श्यामसुन्दरको हमारी आँखोंसे ओझल करके बहुत दूर ले जाना चाहता है और दो बात कहकर हमें धीरज भी नहीं बँधाता, आश्वासन भी नहीं देता।

सचमुच ऐसे अत्यन्त क्रूर पुरुषका ‘अक्रूर’ नाम नहीं होना चाहिये था।।२६।।

सखी! हमारे ये श्यामसुन्दर भी तो कम निठुर नहीं हैं।

देखो-देखो, वे भी रथपर बैठ गये।

और मतवाले गोपगण छकड़ोंद्वारा उनके साथ जानेके लिये कितनी जल्दी मचा रहे हैं।

सचमुच ये मूर्ख हैं।

और हमारे बड़े-बूढ़े! उन्होंने तो इन लोगोंकी जल्दबाजी देखकर उपेक्षा कर दी है कि ‘जाओ जो मनमें आवे, करो!’ अब हम क्या करें? आज विधाता सर्वथा हमारे प्रतिकूल चेष्टा कर रहा है।।२७।।

चलो, हम स्वयं ही चलकर अपने प्राणप्यारे श्यामसुन्दरको रोकेंगी; कुलके बड़े-बूढ़े और बन्धुजन हमारा क्या कर लेंगे? अरी सखी! हम आधे क्षणके लिये भी प्राणवल्लभ नन्दनन्दनका संग छोड़नेमें असमर्थ थीं।

आज हमारे दुर्भाग्यने हमारे सामने उनका वियोग उपस्थित करके हमारे चित्तको विनष्ट एवं व्याकुल कर दिया है।।२८।।

सखियो! जिनकी प्रेमभरी मनोहर मुसकान, रहस्यकी मीठी-मीठी बातें, विलासपूर्ण चितवन और प्रेमालिंगनसे हमने रासलीलाकी वे रात्रियाँ – जो बहुत विशाल थीं – एक क्षणके समान बिता दी थीं।

अब भला, उनके बिना हम उन्हींकी दी हुई अपार विरहव्यथाका पार कैसे पावेंगी।।२९।।

एक दिनकी नहीं, प्रतिदिनकी बात है, सायंकालमें प्रतिदिन वे ग्वालबालोंसे घिरे हुए बलरामजीके साथ वनसे गौएँ चराकर लौटते हैं।

उनकी काली-काली घुँघराली अलकें और गलेके पुष्पहार गौओंके खुरकी रजसे ढके रहते हैं।

वे बाँसुरी बजाते हुए अपनी मन्द-मन्द मुसकान और तिरछी चितवनसे देख-देखकर हमारे हृदयको बेध डालते हैं।

उनके बिना भला, हम कैसे जी सकेंगी?।।३०।।

श्रीशुकदेवजी कहते हैं – परीक्षित्! गोपियाँ वाणीसे तो इस प्रकार कह रही थीं; परन्तु उनका एक-एक मनोभाव भगवान् श्रीकृष्णका स्पर्श, उनका आलिंगन कर रहा था।

वे विरहकी सम्भावनासे अत्यन्त व्याकुल हो गयीं और लाज छोड़कर ‘हे गोविन्द! हे दामोदर! हे माधव!’ – इस प्रकार ऊँची आवाजसे पुकार-पुकारकर सुललित स्वरसे रोने लगीं।।३१।।

गोपियाँ इस प्रकार रो रही थीं! रोते-रोते सारी रात बीत गयी, सूर्योदय हुआ।

अक्रूरजी सन्ध्या-वन्दन आदि नित्य कर्मोंसे निवृत्त होकर रथपर सवार हुए और उसे हाँक ले चले।।३२।।

नन्दबाबा आदि गोपोंने भी दूध, दही, मक्खन, घी आदिसे भरे मटके और भेंटकी बहुत-सी सामग्रियाँ ले लीं तथा वे छकड़ोंपर चढ़कर उनके पीछे-पीछे चले।।३३।।

इसी समय अनुरागके रंगमें रँगी हुई गोपियाँ अपने प्राणप्यारे श्रीकृष्णके पास गयीं और उनकी चितवन, मुसकान आदि निरखकर कुछ-कुछ सुखी हुईं।

अब वे अपने प्रियतम श्यामसुन्दरसे कुछ सन्देश पानेकी आकांक्षासे वहीं खड़ी हो गयीं।।३४।।

यदुवंशशिरोमणि भगवान् श्रीकृष्णने देखा कि मेरे मथुरा जानेसे गोपियोंके हृदयमें बड़ी जलन हो रही है, वे सन्तप्त हो रही हैं, तब उन्होंने दूतके द्वारा ‘मैं आऊँगा’ यह प्रेम-सन्देश भेजकर उन्हें धीरज बँधाया।।३५।।

गोपियोंको जबतक रथकी ध्वजा और पहियोंसे उड़ती हुई धूल दीखती रही तबतक उनके शरीर चित्रलिखित-से वहीं ज्यों-के-त्यों खड़े रहे।

परन्तु उन्होंने अपना चित्त तो मनमोहन प्राणवल्लभ श्रीकृष्णके साथ ही भेज दिया था।।३६।।

अभी उनके मनमें आशा थी कि शायद श्रीकृष्ण कुछ दूर जाकर लौट आयें! परन्तु जब नहीं लौटे, तब वे निराश हो गयीं और अपने-अपने घर चली आयीं।

परीक्षित्! वे रात-दिन अपने प्यारे श्यामसुन्दरकी लीलाओंका गान करती रहतीं और इस प्रकार अपने शोकसन्तापको हलका करतीं।।३७।।

परीक्षित्! इधर भगवान् श्रीकृष्ण भी बलरामजी और अक्रूरजीके साथ वायुके समान वेगवाले रथपर सवार होकर पापनाशिनी यमुनाजीके किनारे जा पहुँचे।।३८।।

वहाँ उन लोगोंने हाथ-मुँह धोकर यमुनाजीका मरकत-मणिके समान नीला और अमृतके समान मीठा जल पिया।

इसके बाद बलरामजीके साथ भगवान् वृक्षोंके झुरमुटमें खड़े रथपर सवार हो गये।।३९।।

अक्रूरजीने दोनों भाइयोंको रथपर बैठाकर उनसे आज्ञा ली और यमुनाजीके कुण्ड (अनन्त – तीर्थ या ब्रह्मह्रद) पर आकर वे विधिपूर्वक स्नान करने लगे।।४०।।

उस कुण्डमें स्नान करनेके बाद वे जलमें डुबकी लगाकर गायत्रीका जप करने लगे।

उसी समय जलके भीतर अक्रूरजीने देखा कि श्रीकृष्ण और बलराम दोनों भाई एक साथ ही बैठे हुए हैं।।४१।।

अब उनके मनमें यह शंका हुई कि ‘वसुदेवजीके पुत्रोंको तो मैं रथपर बैठा आया हूँ, अब वे यहाँ जलमें कैसे आ गये? जब यहाँ हैं तो शायद रथपर नहीं होंगे।’ ऐसा सोचकर उन्होंने सिर बाहर निकालकर देखा।।४२।।

वे उस रथपर भी पूर्ववत् बैठे हुए थे।

उन्होंने यह सोचकर कि मैंने उन्हें जो जलमें देखा था, वह भ्रम ही रहा होगा, फिर डुबकी लगायी।।४३।।

परन्तु फिर उन्होंने वहाँ भी देखा कि साक्षात् अनन्तदेव श्रीशेषजी विराजमान हैं और सिद्ध, चारण, गन्धर्व एवं असुर अपने-अपने सिर झुकाकर उनकी स्तुति कर रहे हैं।।४४।।

शेषजीके हजार सिर हैं और प्रत्येक फणपर मुकुट सुशोभित है।

कमलनालके समान उज्ज्वल शरीरपर नीलाम्बर धारण किये हुए हैं और उनकी ऐसी शोभा हो रही है, मानो सहस्र शिखरोंसे युक्त श्वेतगिरि कैलास शोभायमान हो।।४५।।

अक्रूरजीने देखा कि शेषजीकी गोदमें श्याम मेघके समान घनश्याम विराजमान हो रहे हैं।

वे रेशमी पीताम्बर पहने हुए हैं।

बड़ी ही शान्त चतुर्भुज मूर्ति है और कमलके रक्तदलके समान रतनारे नेत्र हैं।।४६।।

उनका वदन बड़ा ही मनोहर और प्रसन्नताका सदन है।

उनका मधुर हास्य और चारु चितवन चित्तको चुराये लेती है।

भौंहें सुन्दर और नासिका तनिक ऊँची तथा बड़ी ही सुघड़ है।

सुन्दर कान, कपोल और लाल-लाल अधरोंकी छटा निराली ही है।।४७।।

बाँहें घुटनोंतक लंबी और हृष्ट-पुष्ट हैं।

कंधे ऊँचे और वक्षःस्थल लक्ष्मीजीका आश्रय-स्थान है।

शंखके समान उतार-चढ़ाववाला सुडौल गला, गहरी नाभि और त्रिवलीयुक्त उदर पीपलके पत्तेके समान शोभायमान है।।४८।।

स्थूल कटिप्रदेश और नितम्ब, हाथीकी सूँडके समान जाँघें, सुन्दर घुटने एवं पिंडलियाँ हैं।

एड़ीके ऊपरकी गाँठें उभरी हुई हैं और लाल-लाल नखोंसे दिव्य ज्योतिर्मय किरणें फैल रही हैं।

चरणकमलकी अंगुलियाँ और अंगूठे नयी और कोमल पँखुड़ियोंके समान सुशोभित हैं।।४९-५०।।

अत्यन्त बहुमूल्य मणियोंसे जड़ा हुआ मुकुट, कड़े, बाजूबंद, करधनी, हार, नूपुर और कुण्डलोंसे तथा यज्ञोपवीतसे वह दिव्य मूर्ति अलंकृत हो रही है।

एक हाथमें पद्म शोभा पा रहा है और शेष तीन हाथोंमें शंख, चक्र और गदा, वक्षःस्थलपर श्रीवत्सका चिह्न, गलेमें कौस्तुभमणि और वनमाला लटक रही है।।५१-५२।।

नन्द-सुनन्द आदि पार्षद अपने ‘स्वामी’, सनकादि परमर्षि ‘परब्रह्म’, ब्रह्मा, महादेव आदि देवता ‘सर्वेश्वर’, मरीचि आदि नौ ब्राह्मण ‘प्रजापति’ और प्रह्लाद-नारद आदि भगवान् के परम प्रेमी भक्त तथा आठों वसु अपने परम प्रियतम ‘भगवान्’ समझकर भिन्न-भिन्न भावोंके अनुसार निर्दोष वेदवाणीसे भगवान् की स्तुति कर रहे हैं।।५३-५४।।

साथ ही लक्ष्मी, पुष्टि, सरस्वती, कान्ति, कीर्ति और तुष्टि (अर्थात् ऐश्वर्य, बल, ज्ञान, श्री, यश और वैराग्य – ये षडैश्वर्यरूप शक्तियाँ), इला (सन्धिनीरूप पृथ्वी-शक्ति), ऊर्जा (लीलाशक्ति), विद्या-अविद्या (जीवोंके मोक्ष और बन्धनमें कारणरूपा बहिरंग शक्ति), ह्लादिनी, संवित् (अन्तरंगा शक्ति) और माया आदि शक्तियाँ मूर्तिमान् होकर उनकी सेवा कर रही हैं।।५५।।

भगवान् की यह झाँकी निरखकर अक्रूरजीका हृदय परमानन्दसे लबालब भर गया।

उन्हें परम भक्ति प्राप्त हो गयी।

सारा शरीर हर्षावेशसे पुलकित हो गया।

प्रेमभावका उद्रेक होनेसे उनके नेत्र आँसूसे भर गये।।५६।।

अब अक्रूरजीने अपना साहस बटोरकर भगवान् के चरणोंमें सिर रखकर प्रणाम किया और वे उसके बाद हाथ जोड़कर बड़ी सावधानीसे धीरे-धीरे गद् गद स्वरसे भगवान् की स्तुति करने लगे।।५७।।

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
दशमस्कन्धे२ पूर्वार्धेऽक्रूरप्रतियाने एकोनचत्वारिंशोऽध्यायः।।३९।।

१. संतापाः श्वास०।

२. बन्धाश्च।

३. तेक्षणाः।

४. ताश्रयाः।

१. सिद्धैर्भुजंगपतिभिरसु०।

१. भिर्नृप।

१. शान्तं।

२. न्धेऽक्रूरप्रतियानं नामैकोन०।


Next.. (आगे पढें…..) >> भागवत पुराण – दशम स्कन्ध – अध्याय – 40

भागवत पुराण – दशम स्कन्ध – अध्याय का अगला पेज पढ़ने के लिए क्लिक करें >>

भागवत पुराण – दशम स्कन्ध – अध्याय – 40


Krishna Bhajan, Aarti, Chalisa

Krishna Bhajan