भागवत पुराण – दशम स्कन्ध – अध्याय – 37


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केशी और व्योमासुरका उद्धार तथा नारदजीके द्वारा भगवान् की स्तुति

श्रीशुकदेवजी कहते हैं – परीक्षित्! कंसने जिस केशी नामक दैत्यको भेजा था, वह बड़े भारी घोड़ेके रूपमें मनके समान वेगसे दौड़ता हुआ व्रजमें आया।

वह अपनी टापोंसे धरती खोदता आ रहा था! उसकी गरदनके छितराये हुए बालोंके झटकेसे आकाशके बादल और विमानोंकी भीड़ तीतर-बितर हो रही थी।

उसकी भयानक हिनहिनाहटसे सब-के-सब भयसे काँप रहे थे।

उसकी बड़ी-बड़ी आँखें थीं, मुँह क्या था, मानो किसी वृक्षका खोड़र ही हो।

उसे देखनेसे ही डर लगता था।

बड़ी मोटी गरदन थी।

शरीर इतना विशाल था कि मालूम होता था काली-काली बादलकी घटा है।

उसकी नीयतमें पाप भरा था।

वह श्रीकृष्णको मारकर अपने स्वामी कंसका हित करना चाहता था।

उसके चलनेसे भूकम्प होने लगता था।।१-२।।

भगवान् श्रीकृष्णने देखा कि उसकी हिनहिनाहटसे उनके आश्रित रहनेवाला गोकुल भयभीत हो रहा है और उसकी पूँछके बालोंसे बादल तितर-बितर हो रहे हैं, तथा वह लड़नेके लिये उन्हींको ढूँढ़ भी रहा है – तब वे बढ़कर उसके सामने आ गये और उन्होंने सिंहके समान गरजकर उसे ललकारा।।३।।

भगवान् को सामने आया देख वह और भी चिढ़ गया तथा उनकी ओर इस प्रकार मुँह फैलाकर दौड़ा, मानो आकाशको पी जायगा।

परीक्षित्! सचमुच केशीका वेग बड़ा प्रचण्ड था।

उसपर विजय पाना तो कठिन था ही, उसे पकड़ लेना भी आसान नहीं था।

उसने भगवान् के पास पहुँचकर दुलत्ती झाड़ी।।४।।

परन्तु भगवान् ने उससे अपनेको बचा लिया।

भला, वह इन्द्रियातीतको कैसे मार पाता! उन्होंने अपने दोनों हाथोंसे उसके दोनों पिछले पैर पकड़ लिये और जैसे गरुड़ साँपको पकड़कर झटक देते हैं, उसी प्रकार क्रोधसे उसे घुमाकर बड़े अपमानके साथ चार सौ हाथकी दूरीपर फेंक दिया और स्वयं अकड़कर खड़े हो गये।।५।।

थोड़ी ही देरके बाद केशी फिर सचेत हो गया और उठ खड़ा हुआ।

इसके बाद वह क्रोधसे तिलमिलाकर और मुँह फाड़कर बड़े वेगसे भगवान् की ओर झपटा।

उसको दौड़ते देख भगवान् मुसकराने लगे।

उन्होंने अपना बायाँ हाथ उसके मुँहमें इस प्रकार डाल दिया, जैसे सर्प बिना किसी आशंकाके अपने बिलमें घुस जाता है।।६।।

परीक्षित्! भगवान् का अत्यन्त कोमल करकमल भी उस समय ऐसा हो गया, मानो तपाया हुआ लोहा हो।

उसका स्पर्श होते ही केशीके दाँत टूट-टूटकर गिर गये और जैसे जलोदर रोग उपेक्षा कर देनेपर बहुत बढ़ जाता है, वैसे ही श्रीकृष्णका भुजदण्ड उसके मुँहमें बढ़ने लगा।।७।।

अचिन्त्यशक्ति भगवान् श्रीकृष्णका हाथ उसके मुँहमें इतना बढ़ गया कि उसकी साँसके भी आने-जानेका मार्ग न रहा।

अब तो दम घुटनेके कारण वह पैर पीटने लगा।

उसका शरीर पसीनेसे लथपथ हो गया, आँखोंकी पुतली उलट गयी, वह मल-त्याग करने लगा।

थोड़ी ही देरमें उसका शरीर निश्चेष्ट होकर पृथ्वीपर गिर पड़ा तथा उसके प्राण-पखेरू उड़ गये।।८।।

उसका निष्प्राण शरीर फूला हुआ होनेके कारण गिरते ही पकी ककड़ीकी तरह फट गया।

महाबाहु भगवान् श्रीकृष्णने उसके शरीरसे अपनी भुजा खींच ली।

उन्हें इससे कुछ भी आश्चर्य या गर्व नहीं हुआ।

बिना प्रयत्नके ही शत्रुका नाश हो गया।

देवताओंको अवश्य ही इससे बड़ा आश्चर्य हुआ।

वे प्रसन्न हो-होकर भगवान् के ऊपर पुष्प बरसाने और उनकी स्तुति करने लगे।।९।।

परीक्षित्! देवर्षि नारदजी भगवान् के परम प्रेमी और समस्त जीवोंके सच्चे हितैषी हैं।

कंसके यहाँसे लौटकर वे अनायास ही अद् भुत कर्म करनेवाले भगवान् श्रीकृष्णके पास आये और एकान्तमें उनसे कहने लगे – ।।१०।।

‘सच्चिदानन्दस्वरूप श्रीकृष्ण! आपका स्वरूप मन और वाणीका विषय नहीं है।

आप योगेश्वर हैं।

सारे जगत् का नियन्त्रण आप ही करते हैं।

आप सबके हृदयमें निवास करते हैं और सब-के-सब आपके हृदयमें निवास करते हैं।

आप भक्तोंके एकमात्र वांछनीय, यदुवंश-शिरोमणि और हमारे स्वामी हैं।।११।।

जैसे एक ही अग्नि सभी लकड़ियोंमें व्याप्त रहती है, वैसे एक ही आप समस्त प्राणियोंके आत्मा हैं।

आत्माके रूपमें होनेपर भी आप अपनेको छिपाये रखते हैं; क्योंकि आप पंचकोशरूप गुफाओंके भीतर रहते हैं।

फिर भी पुरुषोत्तमके रूपमें, सबके नियन्ताके रूपमें और सबके साक्षीके रूपमें आपका अनुभव होता ही है।।१२।।

प्रभो! आप सबके अधिष्ठान और स्वयं अधिष्ठानरहित हैं।

अपने सृष्टिके प्रारम्भमें अपनी मायासे ही गुणोंकी सृष्टि की और उन गुणोंको ही स्वीकार करके आप जगत् की उत्पत्ति स्थिति और प्रलय करते रहते हैं।

यह सब करनेके लिये आपको अपनेसे अतिरिक्त और किसी भी वस्तुकी आवश्यकता नहीं है।

क्योंकि आप सर्वशक्तिमान् और सत्यसङ्कल्प हैं।।१३।।

वही आप दैत्य, प्रमथ और राक्षसोंका, जिन्होंने आजकल राजाओंका वेष धारण कर रखा है, विनाश करनेके लिये तथा धर्मकी मर्यादाओंकी रक्षा करनेके लिये यदुवंशमें अवतीर्ण हुए हैं।।१४।।

यह बड़े आनन्दकी बात है कि आपने खेल-ही-खेलमें घोड़ेके रूपमें रहनेवाले इस केशी दैत्यको मार डाला।

इसकी हिनहिनाहटसे डरकर देवतालोग अपना स्वर्ग छोड़कर भाग जाया करते थे।।१५।।

विशुद्धविज्ञानघनं स्वसंस्थया समाप्तसर्वार्थममोघवांछितम् ।

प्रभो! अब परसों मैं आपके हाथों चाणूर, मुष्टिक, दूसरे पहलवान, कुवलयापीड हाथी और स्वयं कंसको भी मरते देखूँगा।।१६।।

उसके बाद शंखासुर, कालयवन, मुर और नरकासुरका वध देखूँगा।

आप स्वर्गसे कल्पवृक्ष उखाड़ लायेंगे और इन्द्रके चीं-चपड़ करनेपर उनको उसका मजा चखायेंगे।।१७।।

आप अपनी कृपा, वीरता, सौन्दर्य आदिका शुल्क देकर वीर-कन्याओंसे विवाह करेंगे, और जगदीश्वर! आप द्वारकामें रहते हुए नृगको पापसे छुड़ायेंगे।।१८।।

आप जाम्बवतीके साथ स्यमन्तक मणिको जाम्बवान् से ले आयेंगे और अपने धामसे ब्राह्मणके मरे हुए पुत्रोंको ला देंगे।।१९।।

इसके पश्चात् आप पौण्ड्रक – मिथ्यावासुदेवका वध करेंगे।

काशीपुरीको जला देंगे।

युधिष्ठिरके राजसूय-यज्ञमें चेदिराज शिशुपालको और वहाँसे लौटते समय उसके मौसेरे भाई दन्तवक्त्रको नष्ट करेंगे।।२०।।

प्रभो! द्वारकामें निवास करते समय आप और भी बहुत-से पराक्रम प्रकट करेंगे जिन्हें पृथ्वीके बड़े-बड़े ज्ञानी और प्रतिभाशील पुरुष आगे चलकर गायेंगे।

मैं वह सब देखूँगा।।२१।।

इसके बाद आप पृथ्वीका भार उतारनेके लिये कालरूपसे अर्जुनके सारथि बनेंगे और अनेक अक्षौहिणी सेनाका संहार करेंगे।

यह सब मैं अपनी आँखोंसे देखूँगा।।२२।।

प्रभो! आप विशुद्ध विज्ञानघन हैं।

आपके स्वरूपमें और किसीका अस्तित्व है ही नहीं।

आप नित्य-निरन्तर अपने परमानन्दस्वरूपमें स्थित रहते हैं।

इसलिये सारे पदार्थ आपको नित्य प्राप्त ही हैं।

आपका संकल्प अमोघ है।

आपकी चिन्मयी शक्तिके सामने माया और मायासे होनेवाला यह त्रिगुणमय संसार-चक्र नित्यनिवृत्त है – कभी हुआ ही नहीं।

ऐसे आप अखण्ड, एकरस, सच्चिदानन्दस्वरूप, निरतिशय ऐश्वर्यसम्पन्न भगवान् की मैं शरण ग्रहण करता हूँ।।२३।।

आप सबके अन्तर्यामी और नियन्ता हैं।

अपने-आपमें स्थित, परम स्वतन्त्र हैं।

जगत् और उसके अशेष विशेषों – भाव-अभावरूप सारे भेद-विभेदोंकी कल्पना केवल आपकी मायासे ही हुई है।

इस समय अपने अपनी लीला प्रकट करनेके लिये मनुष्यका-सा श्रीविग्रह प्रकट किया है और आप यदु, वृष्णि तथा सात्वतवंशियोंके शिरोमणि बने हैं।

प्रभो! मैं आपको नमस्कार करता हूँ’।।२४।।

श्रीशुकदेवजी कहते हैं – परीक्षित्! भगवान् के परमप्रेमी भक्त देवर्षि नारदजीने इस प्रकार भगवान् की स्तुति और प्रणाम किया।

भगवान् के दर्शनोंके आह्लादसे नारदजीका रोम-रोम खिल उठा।

तदनन्तर उनकी आज्ञा प्राप्त करके वे चले गये।।२५।।

इधर भगवान् श्रीकृष्ण केशीको लड़ाईमें मारकर फिर अपने प्रेमी एवं प्रसन्नचित्त ग्वाल-बालोंके साथ पूर्ववत् पशु-पालनके काममें लग गये तथा व्रजवासियोंको परमानन्द वितरण करने लगे।।२६।।

एक समय वे सब ग्वालबाल पहाड़की चोटियोंपर गाय आदि पशुओंको चरा रहे थे तथा कुछ चोर और कुछ रक्षक बनकर छिपने-छिपानेका – लुका-लुकीका खेल खेल रहे थे।।२७।।

राजन्! उन लोगोंमेंसे कुछ तो चोर और कुछ रक्षक तथा कुछ भेड़ बन गये थे।

इस प्रकार वे निर्भय होकर खेलमें रम गये थे।।२८।।

उसी समय ग्वालका वेष धारण करके व्योमासुर वहाँ आया।

वह मायावियोंके आचार्य मयासुरका पुत्र था और स्वयं भी बड़ा मायावी था।

वह खेलमें बहुधा चोर ही बनता और भेड़ बने हुए बहुत-से बालकोंको चुराकर छिपा आता।।२९।।

वह महान् असुर बार-बार उन्हें ले जाकर एक पहाड़की गुफामें डाल देता और उसका दरवाजा एक बड़ी चट्टानसे ढक देता।

इस प्रकार ग्वालबालोंमें केवल चार-पाँच बालक ही बच रहे।।३०।।

भक्तवत्सल भगवान् उसकी यह करतूत जान गये।

जिस समय वह ग्वालबालोंको लिये जा रहा था, उसी समय उन्होंने, जैसे सिंह भेड़ियेको दबोच ले उसी प्रकार, उसे धर दबाया।।३१।।

व्योमासुर बड़ा बली था।

उसने पहाड़के समान अपना असली रूप प्रकट कर दिया और चाहा कि अपनेको छुड़ा लूँ।

परन्तु भगवान् ने उसको इस प्रकार अपने शिकंजेमें फाँस लिया था कि वह अपनेको छुड़ा न सका।।३२।।

तब भगवान् श्रीकृष्णने अपने दोनों हाथोंसे जकड़कर उसे भूमिपर गिरा दिया और पशुकी भाँति गला घोंटकर मार डाला।

देवतालोग विमानोंपर चढ़कर उनकी यह लीला देख रहे थे।।३३।।

अब भगवान् श्रीकृष्णने गुफाके द्वारपर लगे हुए चट्टानोंके पिहान तोड़ डाले और ग्वालबालोंको उस संकटपूर्ण स्थानसे निकाल लिया।

बड़े-बड़े देवता और ग्वालबाल उनकी स्तुति करने लगे और भगवान् श्रीकृष्ण व्रजमें चले आये।।३४।।

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
दशमस्कन्धे पूर्वार्धे व्योमासुरवधो नाम सप्तत्रिंशोऽध्यायः।।३७।।

१. सुविस्मितैः पद्मभवादिभिः सुरैः प्रसू०।


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