भागवत पुराण – दशम स्कन्ध – अध्याय – 3


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भगवान् श्रीकृष्णका प्राकट्य श्रीशुक उवाच

श्रीशुकदेवजी कहते हैं – परीक्षित्! अब समस्त शुभ गुणोंसे युक्त बहुत सुहावना समय आया।

रोहिणी नक्षत्र था।

आकाशके सभी नक्षत्र, ग्रह और तारे शान्त – सौम्य हो रहे थे*।।१।।

दिशाएँ स्वच्छ प्रसन्न थीं।

निर्मल आकाशमें तारे जगमगा रहे थे।

पृथ्वीके बड़े-बड़े नगर, छोटे-छोटे गाँव, अहीरोंकी बस्तियाँ और हीरे आदिकी खानें मंगलमय हो रही थीं।।२।।

नदियोंका जल निर्मल हो गया था।

रात्रिके समय भी सरोवरोंमें कमल खिल रहे थे।

वनमें वृक्षोंकी पंक्तियाँ रंग-बिरंगे पुष्पोंके गुच्छोंसे लद गयी थीं।

कहीं पक्षी चहक रहे थे, तो कहीं भौंरे गुनगुना रहे थे।।३।।

उस समय परम पवित्र और शीतल-मन्द-सुगन्ध वायु अपने स्पर्शसे लोगोंको सुखदान करती हुई बह रही थी।

ब्राह्मणोंके अग्नि-होत्रकी कभी न बुझनेवाली अग्नियाँ जो कंसके अत्याचारसे बुझ गयी थीं, वे इस समय अपने-आप जल उठीं।।४।।

संत पुरुष पहलेसे ही चाहते थे कि असुरोंकी बढ़ती न होने पाये।

अब उनका मन सहसा प्रसन्नतासे भर गया।

जिस समय भगवान् के आविर्भावका अवसर आया, स्वर्गमें देवताओंकी दुन्दुभियाँ अपने-आप बज उठीं।।५।।

किन्नर और गन्धर्व मधुर स्वरमें गाने लगे तथा सिद्ध और चारण भगवान् के मंगलमय गुणोंकी स्तुति करने लगे।

विद्याधरियाँ अप्सराओंके साथ नाचने लगीं।।६।।

बड़े-बड़े देवता और ऋषि-मुनि आनन्दसे भरकर पुष्पोंकी वर्षा करने लगे*।

जलसे भरे हुए बादल समुद्रके पास जाकर धीरे-धीरे गर्जना करने लगे†।।७।।

जन्म-मृत्युके चक्रसे छुड़ानेवाले जनार्दनके अवतारका समय था निशीथ।

चारों ओर अन्धकारका साम्राज्य था।

उसी समय सबके हृदयमें विराजमान भगवान् विष्णु देवरूपिणी देवकीके गर्भसे प्रकट हुए, जैसे पूर्व दिशामें सोलहों कलाओंसे पूर्ण चन्द्रमाका उदय हो गया हो।।८।।

वसुदेवजीने देखा, उनके सामने एक अद् भुत बालक है।

उसके नेत्र कमलके समान कोमल और विशाल हैं।

चार सुन्दर हाथोंमें शंख, गदा, चक्र और कमल लिये हुए हैं।

वक्षःस्थलपर श्रीवत्सका चिह्न – अत्यन्त सुन्दर सुवर्णमयी रेखा है।

गलेमें कौस्तुभमणि झिलमिला रही है।

वर्षाकालीन मेघके समान परम सुन्दर श्यामल शरीरपर मनोहर पीताम्बर फहरा रहा है।

बहुमूल्य वैदूर्यमणिके किरीट और कुण्डलकी कान्तिसे सुन्दर-सुन्दर घुँघराले बाल सूर्यकी किरणोंके समान चमक रहे हैं।

कमरमें चमचमाती करधनीकी लड़ियाँ लटक रही हैं।

बाँहोंमें बाजूबंद और कलाइयोंमें कंकण शोभायमान हो रहे हैं।

इन सब आभूषणोंसे सुशोभित बालकके अंग-अंगसे अनोखी छटा छिटक रही है।।९-१०।।

जब वसुदेवजीने देखा कि मेरे पुत्रके रूपमें तो स्वयं भगवान् ही आये हैं, तब पहले तो उन्हें असीम आश्चर्य हुआ; फिर आनन्दसे उनकी आँखें खिल उठीं।

उनका रोम-रोम परमानन्दमें मग्न हो गया।

श्रीकृष्णका जन्मोत्सव मनानेकी उतावलीमें उन्होंने उसी समय ब्राह्मणोंके लिये दस हजार गायोंका संकल्प कर दिया।।११।।

परीक्षित्! भगवान् श्रीकृष्ण अपनी अंगकान्तिसे सूतिकागृहको जगमग कर रहे थे।

जब वसुदेवजीको यह निश्चय हो गया कि ये तो परम पुरुष परमात्मा ही हैं, तब भगवान् का प्रभाव जान लेनेसे उनका सारा भय जाता रहा।

अपनी बुद्धि स्थिर करके उन्होंने भगवान् के चरणोंमें अपना सिर झुका दिया और फिर हाथ जोड़कर वे उनकी स्तुति करने लगे – ।।१२।।

वसुदेवजीने कहा – मैं समझ गया कि आप प्रकृतिसे अतीत साक्षात् पुरुषोत्तम हैं।

आपका स्वरूप है केवल अनुभव और केवल आनन्द।

आप समस्त बुद्धियोंके एकमात्र साक्षी हैं।।१३।।

आप ही सर्गके आदिमें अपनी प्रकृतिसे इस त्रिगुणमय जगत् की सृष्टि करते हैं।

फिर उसमें प्रविष्ट न होनेपर भी आप प्रविष्टके समान जान पड़ते हैं।।१४।।

जैसे जबतक महत्तत्त्व आदि कारण-तत्त्व पृथक्-पृथक् रहते हैं, तबतक उनकी शक्ति भी पृथक्-पृथक् होती है; जब वे इन्द्रियादि सोलह विकारोंके साथ मिलते हैं, तभी इस ब्रह्माण्डकी रचना करते हैं और इसे उत्पन्न करके इसीमें अनुप्रविष्ट-से जान पड़ते हैं; परंतु सच्ची बात तो यह है कि वे किसी भी पदार्थमें प्रवेश नहीं करते।

ऐसा होनेका कारण यह है कि उनसे बनी हुई जो भी वस्तु है, उसमें वे पहलेसे ही विद्यमान रहते हैं।।१५-१६।।

ठीक वैसे ही बुद्धिके द्वारा केवल गुणोंके लक्षणोंका ही अनुमान किया जाता है और इन्द्रियोंके द्वारा केवल गुणमय विषयोंका ही ग्रहण होता है।

यद्यपि आप उनमें रहते हैं, फिर भी उन गुणोंके ग्रहणसे आपका ग्रहण नहीं होता।

इसका कारण यह है कि आप सब कुछ हैं, सबके अन्तर्यामी हैं और परमार्थ सत्य, आत्मस्वरूप हैं।

गुणोंका आवरण आपको ढक नहीं सकता।

इसलिये आपमें न बाहर है न भीतर।

फिर आप किसमें प्रवेश करेंगे? (इसलिये प्रवेश न करनेपर भी आप प्रवेश किये हुएके समान दीखते हैं)।।१७।।

जो अपने इन दृश्य गुणोंको अपनेसे पृथक् मानकर सत्य समझता है, वह अज्ञानी है।

क्योंकि विचार करनेपर ये देह-गेह आदि पदार्थ वाग्विलासके सिवा और कुछ नहीं सिद्ध होते।

विचारके द्वारा जिस वस्तुका अस्तित्व सिद्ध नहीं होता, बल्कि जो बाधित हो जाती है, उसको सत्य माननेवाला पुरुष बुद्धिमान् कैसे हो सकता है?।।१८।।

प्रभो! कहते हैं कि आप स्वयं समस्त क्रियाओं, गुणों और विकारोंसे रहित हैं।

फिर भी इस जगत् की सृष्टि, स्थिति और प्रलय आपसे ही होते हैं।

यह बात परम ऐश्वर्यशाली परब्रह्म परमात्मा आपके लिये असंगत नहीं है।

क्योंकि तीनों गुणोंके आश्रय आप ही हैं, इसलिये उन गुणोंके कार्य आदिका आपमें ही आरोप किया जाता है।।१९।।

आप ही तीनों लोकोंकी रक्षा करनेके लिये अपनी मायासे सत्त्वमय शुक्लवर्ण (पोषणकारी विष्णुरूप) धारण करते हैं, उत्पत्तिके लिये रजःप्रधान रक्तवर्ण (सृजनकारी ब्रह्मारूप) और प्रलयके समय तमोगुणप्रधान कृष्णवर्ण (संहारकारी रुद्ररूप) स्वीकार करते हैं।।२०।।

प्रभो! आप सर्वशक्तिमान् और सबके स्वामी हैं।

इस संसारकी रक्षाके लिये ही आपने मेरे घर अवतार लिया है।

आजकल कोटि-कोटि असुर सेनापतियोंने राजाका नाम धारण कर रखा है और अपने अधीन बड़ी-बड़ी सेनाएँ कर रखी हैं।

आप उन सबका संहार करेंगे।।२१।।

देवताओंके भी आराध्यदेव प्रभो! यह कंस बड़ा दुष्ट है।

इसे जब मालूम हुआ कि आपका अवतार हमारे घर होनेवाला है, तब उसने आपके भयसे आपके बड़े भाइयोंको मार डाला।

अभी उसके दूत आपके अवतारका समाचार उसे सुनायेंगे और वह अभी-अभी हाथमें शस्त्र लेकर दौड़ा आयेगा।।२२।।

श्रीशुकदेवजी कहते हैं – परीक्षित्! इधर देवकीने देखा कि मेरे पुत्रमें तो पुरुषोत्तम भगवान् के सभी लक्षण मौजूद हैं।

पहले तो उन्हें कंससे कुछ भय मालूम हुआ, परन्तु फिर वे बड़े पवित्र भावसे मुसकराती हुई स्तुति करने लगीं।।२३।।

माता देवकीने कहा – प्रभो! वेदोंने आपके जिस रूपको अव्यक्त और सबका कारण बतलाया है, जो ब्रह्म, ज्योतिःस्वरूप, समस्त गुणोंसे रहित और विकारहीन है, जिसे विशेषणरहित – अनिर्वचनीय, निष्क्रिय एवं केवल विशुद्ध सत्ताके रूपमें कहा गया है – वही बुद्धि आदिके प्रकाशक विष्णु आप स्वयं हैं।।२४।।

जिस समय ब्रह्माकी पूरी आयु – दो परार्ध समाप्त हो जाते हैं, काल शक्तिके प्रभावसे सारे लोक नष्ट हो जाते हैं, पंच महाभूत अहंकारमें, अहंकार महत्तत्त्वमें और महत्तत्त्व प्रकृतिमें लीन हो जाता है – उस समय एकमात्र आप ही शेष रह जाते हैं।

इसीसे आपका एक नाम ‘शेष’ भी है।।२५।।

प्रकृतिके एकमात्र सहायक प्रभो! निमेषसे लेकर वर्षपर्यन्त अनेक विभागोंमें विभक्त जो काल है, जिसकी चेष्टासे यह सम्पूर्ण विश्व सचेष्ट हो रहा है और जिसकी कोई सीमा नहीं है, वह आपकी लीलामात्र है।

आप सर्वशक्तिमान् और परम कल्याणके आश्रय हैं।

मैं आपकी शरण लेती हूँ।।२६।।

प्रभो! यह जीव मृत्युग्रस्त हो रहा है।

यह मृत्युरूप कराल व्यालसे भयभीत होकर सम्पूर्ण लोक-लोकान्तरोंमें भटकता रहा है; परन्तु इसे कभी कहीं भी ऐसा स्थान न मिल सका, जहाँ यह निर्भय होकर रहे।

आज बड़े भाग्यसे इसे आपके चरणारविन्दोंकी शरण मिल गयी।

अतः अब यह स्वस्थ होकर सुखकी नींद सो रहा है।

औरोंकी तो बात ही क्या, स्वयं मृत्यु भी इससे भयभीत होकर भाग गयी है।।२७।।

प्रभो! आप हैं भक्तभयहारी।

और हमलोग इस दुष्ट कंससे बहुत ही भयभीत हैं।

अतः आप हमारी रक्षा कीजिये।

आपका यह चतुर्भुज दिव्यरूप ध्यानकी वस्तु है।

इसे केवल मांस-मज्जामय शरीरपर ही दृष्टि रखनेवाले देहाभिमानी पुरुषोंके सामने प्रकट मत कीजिये।।२८।।

मधुसूदन! इस पापी कंसको यह बात मालूम न हो कि आपका जन्म मेरे गर्भसे हुआ है।

मेरा धैर्य टूट रहा है।

आपके लिये मैं कंससे बहुत डर रही हूँ।।२९।।

विश्वात्मन्! आपका यह रूप अलौकिक है।

आप शंख, चक्र, गदा और कमलकी शोभासे युक्त अपना यह चतुर्भुजरूप छिपा लीजिये।।३०।।

प्रलयके समय आप इस सम्पूर्ण विश्वको अपने शरीरमें वैसे ही स्वाभाविक रूपसे धारण करते हैं, जैसे कोई मनुष्य अपने शरीरमें रहनेवाले छिद्ररूप आकाशको।

वही परम पुरुष परमात्मा आप मेरे गर्भवासी हुए, यह आपकी अद् भुत मनुष्य-लीला नहीं तो और क्या है?।।३१।।

विश्वं यदेतत् स्वतनौ निशान्ते यथावकाशं पुरुषः परो भवान्।

बिभर्ति सोऽयं मम गर्भगोऽभू- दहो नृलोकस्य विडम्बनं हि तत्।।

श्रीभगवान् ने कहा – देवि! स्वायम्भुव मन्वन्तरमें जब तुम्हारा पहला जन्म हुआ था, उस समय तुम्हारा नाम था पृश्नि और ये वसुदेव सुतपा नामके प्रजापति थे।

तुम दोनोंके हृदय बड़े ही शुद्ध थे।।३२।।

जब ब्रह्माजीने तुम दोनोंको सन्तान उत्पन्न करनेकी आज्ञा दी, तब तुमलोगोंने इन्द्रियोंका दमन करके उत्कृष्ट तपस्या की।।३३।।

तुम दोनोंने वर्षा, वायु, घाम, शीत, उष्ण आदि कालके विभिन्न गुणोंका सहन किया और प्राणायामके द्वारा अपने मनके मल धो डाले।।३४।।

तुम दोनों कभी सूखे पत्ते खा लेते और कभी हवा पीकर ही रह जाते।

तुम्हारा चित्त बड़ा शान्त था।

इस प्रकार तुमलोगोंने मुझसे अभीष्ट वस्तु प्राप्त करनेकी इच्छासे मेरी आराधना की।।३५।।

मुझमें चित्त लगाकर ऐसा परम दुष्कर और घोर तप करते-करते देवताओंके बारह हजार वर्ष बीत गये।।३६।।

पुण्यमयी देवि! उस समय मैं तुम दोनोंपर प्रसन्न हुआ।

क्योंकि तुम दोनोंने तपस्या, श्रद्धा और प्रेममयी भक्तिसे अपने हृदयमें नित्य-निरन्तर मेरी भावना की थी।

उस समय तुम दोनोंकी अभिलाषा पूर्ण करनेके लिये वर देनेवालोंका राजा मैं इसी रूपसे तुम्हारे सामने प्रकट हुआ।

जब मैंने कहा कि ‘तुम्हारी जो इच्छा हो, मुझसे माँग लो’, तब तुम दोनोंने मेरे-जैसा पुत्र माँगा।।३७-३८।।

उस समयतक विषय-भोगोंसे तुम लोगोंका कोई सम्बन्ध नहीं हुआ था।

तुम्हारे कोई सन्तान भी न थी।

इसलिये मेरी मायासे मोहित होकर तुम दोनोंने मुझसे मोक्ष नहीं माँगा।।३९।।

तुम्हें मेरे-जैसा पुत्र होनेका वर प्राप्त हो गया और मैं वहाँसे चला गया।

अब सफलमनोरथ होकर तुमलोग विषयोंका भोग करने लगे।।४०।।

मैंने देखा कि संसारमें शील-स्वभाव, उदारता तथा अन्य गुणोंमें मेरे-जैसा दूसरा कोई नहीं है; इसलिये मैं ही तुम दोनोंका पुत्र हुआ और उस समय मैं ‘पृश्निगर्भ’ के नामसे विख्यात हुआ।।४१।।

फिर दूसरे जन्ममें तुम हुईं अदिति और वसुदेव हुए कश्यप।

उस समय भी मैं तुम्हारा पुत्र हुआ।

मेरा नाम था ‘उपेन्द्र’।

शरीर छोटा होनेके कारण लोग मुझे ‘वामन’ भी कहते थे।।४२।।

सती देवकी! तुम्हारे इस तीसरे जन्ममें भी मैं उसी रूपसे फिर तुम्हारा पुत्र हुआ हूँ१।

मेरी वाणी सर्वदा सत्य होती है।।४३।।

ताः कृष्णवाहे वसुदेव आगते स्वयं व्यवर्यन्त यथा तमो रवेः।

मैंने तुम्हें अपना यह रूप इसलिये दिखला दिया है कि तुम्हें मेरे पूर्व अवतारोंका स्मरण हो जाय।

यदि मैं ऐसा नहीं करता, तो केवल मनुष्य-शरीरसे मेरे अवतारकी पहचान नहीं हो पाती।।४४।।

तुम दोनों मेरे प्रति पुत्रभाव तथा निरन्तर ब्रह्मभाव रखना।

इस प्रकार वात्सल्य-स्नेह और चिन्तनके द्वारा तुम्हें मेरे परम पदकी प्राप्ति होगी।।४५।।

श्रीशुकदेवजी कहते हैं – भगवान् इतना कहकर चुप हो गये।

अब उन्होंने अपनी योगमायासे पिता-माताके देखते-देखते तुरंत एक साधारण शिशुका रूप धारण कर लिया।।४६।।

तब वसुदेवजीने भगवान् की प्रेरणासे अपने पुत्रको लेकर सूतिकागृहसे बाहर निकलनेकी इच्छा की।

उसी समय नन्दपत्नी यशोदाके गर्भसे उस योगमायाका जन्म हुआ, जो भगवान् की शक्ति होनेके कारण उनके समान ही जन्म-रहित है।।४७।।

उसी योगमायाने द्वारपाल और पुरवासियोंकी समस्त इन्द्रिय वृत्तियोंकी चेतना हर ली, वे सब-के-सब अचेत होकर सो गये।

बंदीगृहके सभी दरवाजे बंद थे।

उनमें बड़े-बड़े किवाड़, लोहेकी जंजीरें और ताले जड़े हुए थे।

उनके बाहर जाना बड़ा ही कठिन था; परन्तु वसुदेवजी भगवान् श्रीकृष्णको गोदमें लेकर ज्यों ही उनके निकट पहुँचे, त्यों ही वे सब दरवाजे आप-से-आप खुल गये२।

ठीक वैसे ही, जैसे सूर्योदय होते ही अन्धकार दूर हो जाता है।

उस समय बादल धीरे-धीरे गरजकर जलकी फुहारें छोड़ रहे थे।

इसलिये शेषजी अपने फनोंसे जलको रोकते हुए भगवान् के पीछे-पीछे चलने लगे*।।४८-४९।।

उन दिनों बार-बार वर्षा होती रहती थी, इससे यमुनाजी बहुत बढ़ गयी थीं†।

उनका प्रवाह गहरा और तेज हो गया था।

तरल तरंगोंके कारण जलपर फेन-ही-फेन हो रहा था।

सैकड़ों भयानक भँवर पड़ रहे थे।

जैसे सीतापति भगवान् श्रीरामजीको समुद्रने मार्ग दे दिया था, वैसे ही यमुनाजीने भगवान् को मार्ग दे दिया‡।।५०।।

वसुदेवजीने नन्दबाबाके गोकुलमें जाकर देखा कि सब-के-सब गोप नींदसे अचेत पड़े हुए हैं।

उन्होंने अपने पुत्रको यशोदाजीकी शय्यापर सुला दिया और उनकी नवजात कन्या लेकर वे बंदीगृहमें लौट आये।।५१।।

जेलमें पहुँचकर वसुदेवजीने उस कन्याको देवकीकी शय्यापर सुला दिया और अपने पैरोंमें बेड़ियाँ डाल लीं तथा पहलेकी तरह वे बंदीगृहमें बंद हो गये।।५२।।

उधर नन्दपत्नी यशोदाजीको इतना तो मालूम हुआ कि कोई सन्तान हुई है, परन्तु वे यह न जान सकीं कि पुत्र है या पुत्री।

क्योंकि एक तो उन्हें बड़ा परिश्रम हुआ था और दूसरे योगमायाने उन्हें अचेत कर दिया था*।।५३।।

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
दशमस्कन्धे पूर्वार्धे कृष्णजन्मनि तृतीयोऽध्यायः।।३।।

* जैसे अन्तःकरण शुद्ध होनेपर उसमें भगवान् का आविर्भाव होता है, श्रीकृष्णावतारके अवसरपर भी ठीक उसी प्रकारका समष्टिकी शुद्धिका वर्णन किया गया है।

इसमें काल, दिशा, पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन और आत्मा – इस नौ द्रव्योंका अलग-अलग नामोल्लेख करके साधकके लिये एक अत्यन्त उपयोगी साधन-पद्धतिकी ओर संकेत किया गया है।

काल – भगवान् कालसे परे हैं।

शास्त्रों और सत्पुरुषोंके द्वारा ऐसा निरूपण सुनकर काल मानो क्रुद्ध हो गया था और रुद्ररूप धारण करके सबको निगल रहा था।

आज जब उसे मालूम हुआ कि स्वयं परिपूर्णतम भगवान् श्रीकृष्ण मेरे अंदर अवतीर्ण हो रहे हैं, तब वह आनन्दसे भर गया और समस्त सद् गुणोंको धारणकर तथा सुहावना बनकर प्रकट हो गया।

दिशा – १. प्राचीन शास्त्रोंमें दिशाओंको देवी माना गया है।

उनके एक-एक स्वामी भी होते हैं – जैसे प्राचीके इन्द्र, प्रतीचीके वरुण आदि।

कंसके राज्य-कालमें ये देवता पराधीन – कैदी हो गये थे।

अब भगवान् श्रीकृष्णके अवतारसे देवताओंकी गणनाके अनुसार ग्यारह-बारह दिनोंमें ही उन्हें छुटकारा मिल जायगा, इसलिये अपने पतियोंके संगम-सौभाग्यका अनुसंधान करके देवियाँ प्रसन्न हो गयीं।

जो देव एवं दिशाके परिच्छेदसे रहित हैं, वे ही प्रभु भारत देशके व्रज-प्रदेशमें आ रहे हैं, यह अपूर्व आनन्दोत्सव भी दिशाओंकी प्रसन्नताका हेतु है।

२. संस्कृत-साहित्यमें दिशाओंका एक नाम ‘आशा’ भी है।

दिशाओंकी प्रसन्नताका एक अर्थ यह भी है कि अब सत्पुरुषोंकी आशा-अभिलाषा पूर्ण होगी।

३. विराट् पुरुषके अवयव-संस्थानका वर्णन करते समय दिशाओंको उनका कान बताया गया है।

श्रीकृष्णके अवतारके अवसरपर दिशाएँ मानो यह सोचकर प्रसन्न हो गयीं कि प्रभु असुर-असाधुओंके उपद्रवसे दुःखी प्राणियोंकी प्रार्थना सुननेके लिये सतत सावधान हैं।

पृथ्वी – १. पुराणोंमें भगवान् की दो पत्नियोंका उल्लेख मिलता है – एक श्रीदेवी और दूसरी भूदेवी।

ये दोनों चल-सम्पत्ति और अचल-सम्पत्तिकी स्वामिनी हैं।

इनके पति हैं – भगवान्, जीव नहीं।

जिस समय श्रीदेवीके निवासस्थान वैकुण्ठसे उतरकर भगवान् भूदेवीके निवासस्थान पृथ्वीपर आने लगे, तब जैसे परदेशसे पतिके आगमनका समाचार सुनकर पत्नी सज-धजकर अगवानी करनेके लिये निकलती है, वैसे ही पृथ्वीका मंगलमयी होना, मंगलचिह्नोंको धारण करना स्वाभाविक ही है।

२. भगवान् के श्रीचरण मेरे वक्षःस्थलपर पड़ेंगे, अपने सौभाग्यका ऐसा अनुसन्धान करके पृथ्वी आनन्दित हो गयी।

३. वामन ब्रह्मचारी थे।

परशुरामजीने ब्राह्मणोंको दान दे दिया।

श्रीरामचन्द्रने मेरी पुत्री जानकीसे विवाह कर लिया।

इसलिये उन अवतारोंमें मैं भगवान् से जो सुख नहीं प्राप्त कर सकी, वही श्रीकृष्णसे प्राप्त करूँगी।

यह सोचकर पृथ्वी मंगलमयी हो गयी।

४. अपने पुत्र मंगलको गोदमें लेकर पतिदेवका स्वागत करने चली।

जल (नदियाँ) – १. नदियोंने विचार किया कि रामावतारमें सेतु-बन्धके बहाने हमारे पिता पर्वतोंको हमारी ससुराल समुद्रमें पहुँचाकर इन्होंने हमें मायकेका सुख दिया था।

अब इनके शुभागमनके अवसरपर हमें भी प्रसन्न होकर इनका स्वागत करना चाहिये।

२. नदियाँ सब गंगाजीसे कहती थीं – ‘तुमने हमारे पिता पर्वत देखे हैं, अपने पिता भगवान् विष्णुके दर्शन कराओ।’ गंगाजीने सुनी-अनसुनी कर दी।

अब वे इसलिये प्रसन्न हो गयीं कि हम स्वयं देख लेंगी।

३. यद्यपि भगवान् समुद्रमें नित्य निवास करते हैं, फिर भी ससुराल होनेके कारण वे उन्हें वहाँ देख नहीं पातीं।

अब उन्हें पूर्णरूपसे देख सकेंगी, इसलिये वे निर्मल हो गयीं।

४. निर्मल हृदयको भगवान् मिलते हैं, इसलिये वे निर्मल हो गयीं।

५. नदियोंको जो सौभाग्य किसी भी अवतारमें नहीं मिला, वह कृष्णावतारमें मिला।

श्रीकृष्णकी चतुर्थ पटरानी हैं – श्रीकालिन्दीजी।

अवतार लेते ही यमुनाजीके तटपर जाना, ग्वालबाल एवं गोपियोंके साथ जलक्रीडा करना, उन्हें अपनी पटरानी बनाना – इन सब बातोंको सोचकर नदियाँ आनन्दसे भर गयीं।

ह्रद – कालिय-दमन करके कालिय-दहका शोधन, ग्वालबालों और अक्रूरको ब्रह्म-ह्रदमें ही अपने स्वरूपके दर्शन आदि स्व-सम्बन्धी लीलाओंका अनुसन्धान करके ह्रदोंने कमलके बहाने अपने प्रफुल्लित हृदयको ही श्रीकृष्णके प्रति अर्पित कर दिया।

उन्होंने कहा कि ‘प्रभो! भले ही हमें लोग जड समझा करें, आप हमें कभी स्वीकार करेंगे, इस भावी सौभाग्यके अनुसन्धानसे हम सहृदय हो रहे हैं।’ अग्नि – १. इस अवतारमें श्रीकृष्णने व्योमासुर, तृणावर्त, कालियके दमनसे आकाश, वायु और जलकी शुद्धि की है।

मृद्-भक्षणसे पृथ्वीकी और अग्निपानसे अग्निकी।

भगवान् श्रीकृष्णने दो बार अग्निको अपने मुँहमें धारण किया।

इस भावी सुखका अनुसन्धान करके ही अग्निदेव शान्त होकर प्रज्वलित होने लगे।

२. देवताओंके लिये यज्ञ-भाग आदि बन्द हो जानेके कारण अग्निदेव भी भूखे ही थे।

अब श्रीकृष्णावतारसे अपने भोजन मिलनेकी आशासे अग्निदेव प्रसन्न होकर प्रज्वलित हो उठे।

वायु – १. उदारशिरोमणि भगवान् श्रीकृष्णके जन्मके अवसरपर वायुने सुख लुटाना प्रारम्भ किया; क्योंकि समान शीलसे ही मैत्री होती है।

जैसे स्वामीके सामने सेवक, प्रजा अपने गुण प्रकट करके उसे प्रसन्न करती है, वैसे ही वायु भगवान् के सामने अपने गुण प्रकट करने लगे।

२. आनन्दकन्द श्रीकृष्णचन्द्रके मुखारविन्दपर जब श्रमजनित स्वेदविन्दु आ जायँगे, तब मैं ही शीतल-मन्द-सुगन्ध गतिसे उसे सुखाऊँगा – यह सोचकर पहलेसे ही वायु सेवाका अभ्यास करने लगा।

३. यदि मनुष्यको प्रभु-चरणारविन्दके दर्शनकी लालसा हो तो उसे विश्वकी सेवा ही करनी चाहिये, मानो यह उपदेश करता हुआ वायु सबकी सेवा करने लगा।

४. रामावतारमें मेरे पुत्र हनुमान् ने भगवान् की सेवा की, इससे मैं कृतार्थ ही हूँ; परन्तु इस अवतारमें मुझे स्वयं ही सेवा कर लेनी चाहिये।

इस विचारसे वायु लोगोंको सुख पहुँचाने लगा।

५. सम्पूर्ण विश्वके प्राण वायुने सम्पूर्ण विश्वकी ओरसे भगवान् के स्वागत-समारोहमें प्रतिनिधित्व किया।

आकाश – १. आकाशकी एकता, आधारता, विशालता और समताकी उपमा तो सदासे ही भगवान् के साथ दी जाती रही, परन्तु अब उसकी झूठी नीलिमा भी भगवान् के अंगसे उपमा देनेसे चरितार्थ हो जायगी, इसलिये आकाशने मानो आनन्दोत्सव मनानेके लिये नीले चँदोवेमें हीरोंके समान तारोंकी झालरें लटका ली हैं।

२. स्वामीके शुभागमनके अवसरपर जैसे सेवक स्वच्छ वेष-भूषा धारण करते हैं और शान्त हो जाते हैं, इसी प्रकार आकाशके सब नक्षत्र, ग्रह, तारे शान्त एवं निर्मल हो गये।

वक्रता, अतिचार और युद्ध छोड़कर श्रीकृष्णका स्वागत करने लगे।

नक्षत्र – मैं देवकीके गर्भसे जन्म ले रहा हूँ तो रोहिणीके संतोषके लिये कम-से-कम रोहिणी नक्षत्रमें जन्म तो लेना ही चाहिये।

अथवा चन्द्रवंशमें जन्म ले रहा हूँ, तो चन्द्रमाकी सबसे प्यारी पत्नी रोहिणीमें ही जन्म लेना उचित है।

यह सोचकर भगवान् ने रोहिणी नक्षत्रमें जन्म लिया।

मन – १. योगी मनका निरोध करते हैं, मुमुक्षु निर्विषय करते हैं और जिज्ञासु बाध करते हैं।

तत्त्वज्ञोंने तो मनका सत्यानाश ही कर दिया।

भगवान् के अवतारका समय जानकर उसने सोचा कि अब तो मैं अपनी पत्नी – इन्द्रियाँ और विषय – बाल-बच्चे सबके साथ ही भगवान् के साथ खेलूँगा।

निरोध और बाधसे पिण्ड छूटा।

इसीसे मन प्रसन्न हो गया।

२. निर्मलको ही भगवान् मिलते हैं, इसलिये मन निर्मल हो गया।

३. वैसे शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्धका परित्याग कर देनेपर भगवान् मिलते हैं।

अब तो स्वयं भगवान् ही वह सब बनकर आ रहे हैं।

लौकिक आनन्द भी प्रभुमें मिलेगा।

यह सोचकर मन प्रसन्न हो गया।

४. वसुदेवके मनमें निवास करके ये ही भगवान् प्रकट हो रहे हैं।

वह हमारी ही जातिका है, यह सोचकर मन प्रसन्न हो गया।

५. सुमन (देवता और शुद्ध मन) को सुख देनेके लिये ही भगवान् का अवतार हो रहा है।

यह जानकर सुमन प्रसन्न हो गये।

६. संतोंमें, स्वर्गमें और उपवनमें सुमन (शुद्ध मन, देवता और पुष्प) आनन्दित हो गये।

क्यों न हो, माधव (विष्णु और वसन्त) का आगमन जो हो रहा है।

भाद्रमास – भद्र अर्थात् कल्याण देनेवाला है।

कृष्णपक्ष स्वयं कृष्णसे सम्बद्ध है।

अष्टमी तिथि पक्षके बीचोबीच सन्धि-स्थलपर पड़ती है।

रात्रि योगीजनोंको प्रिय है।

निशीथ यतियोंका सन्ध्याकाल और रात्रिके दो भागोंकी सन्धि है।

उस समय श्रीकृष्णके आविर्भावका अर्थ है – अज्ञानके घोर अन्धकारमें दिव्य प्रकाश।

निशानाथ चन्द्रके वंशमें जन्म लेना है, तो निशाके मध्यभागमें अवतीर्ण होना उचित भी है।

अष्टमीके चन्द्रोदयका समय भी वही है।

यदि वसुदेवजी मेरा जातकर्म नहीं कर सकते तो हमारे वंशके आदिपुरुष चन्द्रमा समुद्रस्नान करके अपने कर-किरणोंसे अमृतका वितरण करें।

१. गुणाश्रयः।

२. दाद्युदायुधम्।

* ऋषि, मुनि और देवता जब अपने सुमनकी वर्षा करनेके लिये मथुराकी ओर दौड़े, तब उनका आनन्द भी पीछे छूट गया और उनके पीछे-पीछे दौड़ने लगा।

उन्होंने अपने निरोध और बाधसम्बन्धी सारे विचार त्यागकर मनको श्रीकृष्णकी ओर जानेके लिये मुक्त कर दिया, उनपर न्योछावर कर दिया।

† १. मेघ समुद्रके पास जाकर मन्द-मन्द गर्जना करते हुए कहते – जलनिधे! यह तुम्हारे उपदेश (पास आने) का फल है कि हमारे पास जल-ही-जल हो गया।

अब ऐसा कुछ उपदेश करो कि जैसे तुम्हारे भीतर भगवान् रहते हैं, वैसे हमारे भीतर भी रहें।

२. बादल समुद्रके पास जाते और कहते कि समुद्र! तुम्हारे हृदयमें भगवान् रहते हैं, हमें भी उनका दर्शन-प्यार प्राप्त करवा दो।

समुद्र उन्हें थोड़ा-सा जल देकर कह देता – अपनी उत्ताल तरंगोंसे ढकेल देता – जाओ अभी विश्वकी सेवा करके अन्तःकरण शुद्ध करो, तब भगवान् के दर्शन होंगे।

स्वयं भगवान् मेघश्याम बनकर समुद्रसे बाहर व्रजमें आ रहे हैं।

हम धूपमें उनपर छाया करेंगे, अपनी फुइयाँ बरसाकर जीवन न्योछावर करेंगे और उनकी बाँसुरीके स्वरपर ताल देंगे।

अपने इस सौभाग्यका अनुसन्धान करके बादल समुद्रके पास पहुँचे और मन्द-मन्द गर्जना करने लगे।

मन्द-मन्द इसलिये कि यह ध्वनि प्यारे श्रीकृष्णके कानोंतक न पहुँच जाय।

१-भगवान् श्रीकृष्णने विचार किया कि मैंने इनको वर तो यह दे दिया कि मेरे सदृश पुत्र होगा, परन्तु इसको मैं पूरा नहीं कर सकता।

क्योंकि वैसा कोई है ही नहीं।

किसीको कोई वस्तु देनेकी प्रतिज्ञा करके पूरी न कर सके तो उसके समान तिगुनी वस्तु देनी चाहिये।

मेरे सदृश पदार्थके समान मैं ही हूँ।

अतएव मैं अपनेको तीन बार इनका पुत्र बनाऊँगा।

२-जिनके नाम-श्रवणमात्रसे असंख्य जन्मार्जित प्रारब्ध-बन्धन ध्वस्त हो जाते हैं, वे ही प्रभु जिसकी गोदमें आ गये, उसकी हथकड़ी-बेड़ी खुल जाय, इसमें क्या आश्चर्य है? * बलरामजीने विचार किया कि मैं बड़ा भाई बना तो क्या, सेवा ही मेरा मुख्य धर्म है।

इसलिये वे अपने शेषरूपसे श्रीकृष्णके छत्र बनकर जलका निवारण करते हुए चले।

उन्होंने सोचा कि यदि मेरे रहते मेरे स्वामीको वर्षासे कष्ट पहुँचा तो मुझे धिक्कार है।

इसलिये उन्होंने अपना सिर आगे कर दिया।

अथवा उन्होंने यह सोचा कि ये विष्णुपद (आकाश) वासी मेघ परोपकारके लिये अधःपतित होना स्वीकार कर लेते हैं, इसलिये बलिके समान सिरसे वन्दनीय हैं।

† १. श्रीकृष्ण शिशुको अपनी ओर आते देखकर यमुनाजीने विचार किया – अहा! जिनके चरणोंकी धूलि सत्पुरुषोंके मानस-ध्यानका विषय है, वे ही आज मेरे तटपर आ रहे हैं।

वे आनन्द और प्रेमसे भर गयीं, आँखोंसे इतने आँसू निकले कि बाढ़ आ गयी।

२. मुझे यमराजकी बहिन समझकर श्रीकृष्ण अपनी आँख न फेर लें, इसलिये वे अपने विशाल जीवनका प्रदर्शन करने लगीं।

३. ये गोपालनके लिये गोकुलमें जा रहे हैं, ये सहस्र-सहस्र लहरियाँ गौएँ ही तो हैं।

ये उन्हींके समान इनका भी पालन करें।

४. एक कालियनाग तो मुझमें पहलेसे ही है, यह दूसरे शेषनाग आ रहे हैं।

अब मेरी क्या गति होगी – यह सोचकर यमुनाजी अपने थपेड़ोंसे उनका निवारण करनेके लिये बढ़ गयीं।

‡ १. एकाएक यमुनाजीके मनमें विचार आया कि मेरे अगाध जलको देखकर कहीं श्रीकृष्ण यह न सोच लें कि मैं इसमें खेलूँगा कैसे, इसलिये वे तुरंत कहीं कण्ठभर, कहीं नाभिभर और कहीं घुटनोंतक जलवाली हो गयीं।

२. जैसे दुःखी मनुष्य दयालु पुरुषके सामने अपना मन खोलकर रख देता है, वैसे ही कालियनागसे त्रस्त अपने हृदयका दुःख निवेदन कर देनेके लिये यमुनाजीने भी अपना दिल खोलकर श्रीकृष्णके सामने रख दिया।

३. मेरी नीरसता देखकर श्रीकृष्ण कहीं जलक्रीडा करना और पटरानी बनाना अस्वीकार न कर दें, इसलिये वे उच्छृंखलता छोड़कर बड़ी विनयसे अपने हृदयकी संकोचपूर्ण रसरीति प्रकट करने लगीं।

४. जब इन्होंने सूर्यवंशमें रामावतार ग्रहण किया, तब मार्ग न देनेपर चन्द्रमाके पिता समुद्रको बाँध दिया था।

अब ये चन्द्रवंशमें प्रकट हुए हैं और मैं सूर्यकी पुत्री हूँ।

यदि मैं इन्हें मार्ग न दूँगी तो ये मुझे भी बाँध देंगे।

इस डरसे मानो यमुनाजी दो भागोंमें बँट गयीं।

५. सत्पुरुष कहते हैं कि हृदयमें भगवान् के आ जानेपर अलौकिक सुख होता है।

मानो उसीका उपभोग करनेके लिये यमुनाजीने भगवान् को अपने भीतर ले लिया।

६. मेरा नाम कृष्णा, मेरा जल कृष्ण, मेरे बाहर श्रीकृष्ण हैं।

फिर मेरे हृदयमें ही उनकी स्फूर्ति क्यों न हो? ऐसा सोचकर मार्ग देनेके बहाने यमुनाजीने श्रीकृष्णको अपने हृदयमें ले लिया।


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भागवत पुराण – दशम स्कन्ध – अध्याय – 4


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