भागवत पुराण – दशम स्कन्ध – अध्याय – 29


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रासलीलाका आरम्भ

श्रीशुकदेवजी कहते हैं – परीक्षित्! शरद् ऋतु थी।

उसके कारण बेला, चमेली आदि सुगन्धित पुष्प खिलकर महँ-महँ महँक रहे थे।

भगवान् ने चीरहरणके समय गोपियोंको जिन रात्रियोंका संकेत किया था, वे सब-की-सब पुंजीभूत होकर एक ही रात्रिके रूपमें उल्लसित हो रही थीं।

भगवान् ने उन्हें देखा, देखकर दिव्य बनाया।

गोपियाँ तो चाहती ही थीं।

अब भगवान् ने भी अपनी अचिन्त्य महाशक्ति योगमायाके सहारे उन्हें निमित्त बनाकर रसमयी रासक्रीडा करनेका संकल्प किया।

अमना होनेपर भी उन्होंने अपने प्रेमियोंकी इच्छा पूर्ण करनेके लिये मन स्वीकार किया।।१।।

भगवान् के संकल्प करते ही चन्द्रदेवने प्राची दिशाके मुखमण्डलपर अपने शीतल किरणरूपी करकमलोंसे लालिमाकी रोली-केसर मल दी, जैसे बहुत दिनोंके बाद अपनी प्राणप्रिया पत्नीके पास आकर उसके प्रियतम पतिने उसे आनन्दित करनेके लिये ऐसा किया हो! इस प्रकार चन्द्रदेवने उदय होकर न केवल पूर्वदिशाका, प्रत्युत संसारके समस्त चर-अचर प्राणियोंका सन्ताप – जो दिनमें शरत्कालीन प्रखर सूर्य-रश्मियोंके कारण बढ़ गया था – दूर कर दिया।।२।।

उस दिन चन्द्रदेवका मण्डल अखण्ड था।

पूर्णिमाकी रात्रि थी।

वे नूतन केशरके समान लाल-लाल हो रहे थे, कुछ संकोचमिश्रित अभिलाषासे युक्त जान पड़ते थे।

उनका मुखमण्डल लक्ष्मीजीके समान मालूम हो रहा था।

उनकी कोमल किरणोंसे सारा वन अनुरागके रंगमें रँग गया था।

वनके कोने-कोनेमें उन्होंने अपनी चाँदनीके द्वारा अमृतका समुद्र उड़ेल दिया था।

भगवान् श्रीकृष्णने अपने दिव्य उज्ज्वल रसके उद्दीपनकी पूरी सामग्री उन्हें और उस वनको देखकर अपनी बाँसुरीपर व्रजसुन्दरियोंके मनको हरण करनेवाली कामबीज ‘क्लीं’ की अस्पष्ट एवं मधुर तान छेड़ी।।३।।

भगवान् का वह वंशीवादन भगवान् के प्रेमको, उनके मिलनकी लालसाको अत्यन्त उकसानेवाला – बढ़ानेवाला था।

यों तो श्यामसुन्दरने पहलेसे ही गोपियोंके मनको अपने वशमें कर रखा था।

अब तो उनके मनकी सारी वस्तुएँ – भय, संकोच, धैर्य, मर्यादा आदिकी वृत्तियाँ भी – छीन लीं।

वंशीध्वनि सुनते ही उनकी विचित्र गति हो गयी।

जिन्होंने एक साथ साधना की थी श्रीकृष्णको पतिरूपमें प्राप्त करनेके लिये, वे गोपियाँ भी एक-दूसरेको सूचना न देकर – यहाँतक कि एक-दूसरेसे अपनी चेष्टाको छिपाकर जहाँ वे थे, वहाँके लिये चल पड़ीं।

परीक्षित्! वे इतने वेगसे चली थीं कि उनके कानोंके कुण्डल झोंके खा रहे थे।।४।।

वंशीध्वनि सुनकर जो गोपियाँ दूध दुह रही थीं, वे अत्यन्त उत्सुकतावश दूध दुहना छोड़कर चल पड़ीं।

जो चूल्हेपर दूध औंटा रही थीं, वे उफनता हुआ दूध छोड़कर और जो लपसी पका रही थीं वे पकी हुई लपसी बिना उतारे ही ज्यों-की-त्यों छोड़कर चल दीं।।५।।

जो भोजन परस रही थीं वे परसना छोड़कर, जो छोटे-छोटे बच्चोंको दूध पिला रही थीं वे दूध पिलाना छोड़कर, जो पतियोंकी सेवा-शुश्रूषा कर रही थीं वे सेवा-शुश्रूषा छोड़कर और जो स्वयं भोजन कर रही थीं वे भोजन करना छोड़कर अपने कृष्णप्यारेके पास चल पड़ीं।।६।।

कोई-कोई गोपी अपने शरीरमें अंगराग चन्दन और उबटन लगा रही थीं और कुछ आँखोंमें अंजन लगा रही थीं।

वे उन्हें छोड़कर तथा उलटे-पलटे वस्त्र धारणकर श्रीकृष्णके पास पहुँचनेके लिये चल पड़ीं।।७।।

पिता और पतियोंने, भाई और जाति-बन्धुओंने उन्हें रोका, उनकी मंगलमयी प्रेमयात्रामें विघ्न डाला।

परन्तु वे इतनी मोहित हो गयी थीं कि रोकनेपर भी न रुकीं, न रुक सकीं।

रुकतीं कैसे? विश्वविमोहन श्रीकृष्णने उनके प्राण, मन और आत्मा सब कुछका अपहरण जो कर लिया था।।८।।

परीक्षित्! उस समय कुछ गोपियाँ घरोंके भीतर थीं।

उन्हें बाहर निकलनेका मार्ग ही न मिला।

तब उन्होंने अपने नेत्र मूँद लिये और बड़ी तन्मयतासे श्रीकृष्णके सौन्दर्य, माधुर्य और लीलाओंका ध्यान करने लगीं।।९।।

परीक्षित्! अपने परम प्रियतम श्रीकृष्णके असह्य विरहकी तीव्र वेदनासे उनके हृदयमें इतनी व्यथा – इतनी जलन हुई कि उनमें जो कुछ अशुभ संस्कारोंका लेशमात्र अवशेष था, वह भस्म हो गया।

इसके बाद तुरंत ही ध्यान लग गया।

ध्यानमें उनके सामने भगवान् श्रीकृष्ण प्रकट हुए।

उन्होंने मन-ही-मन बड़े प्रेमसे, बड़े आवेगसे उनका आलिंगन किया।

उस समय उन्हें इतना सुख, इतनी शान्ति मिली कि उनके सब-के-सब पुण्यके संस्कार एक साथ ही क्षीण हो गये।।१०।।

परीक्षित्! यद्यपि उनका उस समय श्रीकृष्णके प्रति जारभाव भी था; तथापि कहीं सत्य वस्तु भी भावकी अपेक्षा रखती है? उन्होंने जिनका आलिंगन किया, चाहे किसी भी भावसे किया हो, वे स्वयं परमात्मा ही तो थे।

इसलिये उन्होंने पाप और पुण्यरूप कर्मके परिणामसे बने हुए गुणमय शरीरका परित्याग कर दिया।

(भगवान् की लीलामें सम्मिलित होनेके योग्य दिव्य अप्राकृत शरीर प्राप्त कर लिया।) इस शरीरसे भोगे जानेवाले कर्मबन्धन तो ध्यानके समय ही छिन्न-भिन्न हो चुके थे।।११।।

राजा परीक्षित् ने पूछा – भगवन्! गोपियाँ तो भगवान् श्रीकृष्णको केवल अपना परम प्रियतम ही मानती थीं।

उनका उनमें ब्रह्मभाव नहीं था।

इस प्रकार उनकी दृष्टि प्राकृत गुणोंमें ही आसक्त दीखती है।

ऐसी स्थितिमें उनके लिये गुणोंके प्रवाहरूप इस संसारकी निवृत्ति कैसे सम्भव हुई?।।१२।।

श्रीशुकदेवजीने कहा – परीक्षित्! मैं तुमसे पहले ही कह चुका हूँ कि चेदिराज शिशुपाल भगवान् के प्रति द्वेषभाव रखनेपर भी अपने प्राकृत शरीरको छोड़कर अप्राकृत शरीरसे उनका पार्षद हो गया।

ऐसी स्थितिमें जो समस्त प्रकृति और उसके गुणोंसे अतीत भगवान् श्रीकृष्णकी प्यारी हैं और उनसे अनन्य प्रेम करती हैं, वे गोपियाँ उन्हें प्राप्त हो जायँ – इसमें कौन-सी आश्चर्यकी बात है।।१३।।

परीक्षित्! वास्तवमें भगवान् प्रकृतिसम्बन्धी वृद्धि-विनाश, प्रमाण-प्रमेय और गुण-गुणीभावसे रहित हैं।

वे अचिन्त्य अनन्त अप्राकृत परम कल्याणस्वरूप गुणोंके एकमात्र आश्रय हैं।

उन्होंने यह जो अपनेको तथा अपनी लीलाको प्रकट किया है, उसका प्रयोजन केवल इतना ही है कि जीव उसके सहारे अपना परम कल्याण सम्पादन करे।।१४।।

इसलिये भगवान् से केवल सम्बन्ध हो जाना चाहिये।

वह सम्बन्ध चाहे जैसा हो – कामका हो, क्रोधका हो या भयका हो; स्नेह, नातेदारी या सौहार्दका हो।

चाहे जिस भावसे भगवान् में नित्य-निरन्तर अपनी वृत्तियाँ जोड़ दी जायँ, वे भगवान् से ही जुड़ती हैं।

इसलिये वृत्तियाँ भगवन्मय हो जाती हैं और उस जीवको भगवान् की ही प्राप्ति होती है।।१५।।

परीक्षित्! तुम्हारे-जैसे परम भागवत भगवान् का रहस्य जाननेवाले भक्तको श्रीकृष्णके सम्बन्धमें ऐसा सन्देह नहीं करना चाहिये।

योगेश्वरोंके भी ईश्वर अजन्मा भगवान् के लिये भी यह कोई आश्चर्यकी बात है? अरे! उनके संकल्पमात्रसे – भौंहोंके इशारेसे सारे जगत् का परम कल्याण हो सकता है।।१६।।

जब भगवान् श्रीकृष्णने देखा कि व्रजकी अनुपम विभूतियाँ गोपियाँ मेरे बिलकुल पास आ गयी हैं, तब उन्होंने अपनी विनोदभरी वाक् चातुरीसे उन्हें मोहित करते हुए कहा – क्यों न हो – भूत, भविष्य और वर्तमानकालके जितने वक्ता हैं, उनमें वे ही तो सर्वश्रेष्ठ हैं।।१७।।

भगवान् श्रीकृष्णने कहा – महाभाग्यवती गोपियो! तुम्हारा स्वागत है।

बतलाओ, तुम्हें प्रसन्न करनेके लिये मैं कौन-सा काम करूँ? व्रजमें तो सब कुशल-मंगल है न? कहो, इस समय यहाँ आनेकी क्या आवश्यकता पड़ गयी?।।१८।।

सुन्दरी गोपियो! रातका समय है, यह स्वयं ही बड़ा भयावना होता है और इसमें बड़े-बड़े भयावने जीव-जन्तु इधर-उधर घूमते रहते हैं।

अतः तुम सब तुरंत व्रजमें लौट जाओ।

रातके समय घोर जंगलमें स्त्रियोंको नहीं रुकना चाहिये।।१९।।

तुम्हें न देखकर तुम्हारे माँ-बाप, पति-पुत्र और भाई-बन्धु ढूँढ़ रहे होंगे।

उन्हें भयमें न डालो।।२०।।

तुमलोगोंने रंग-बिरंगे पुष्पोंसे लदे हुए इस वनकी शोभाको देखा।

पूर्ण चन्द्रमाकी कोमल रश्मियोंसे यह रँगा हुआ है, मानो उन्होंने अपने हाथों चित्रकारी की हो; और यमुनाजीके जलका स्पर्श करके बहनेवाले शीतल समीरकी मन्द-मन्द गतिसे हिलते हुए ये वृक्षोंके पत्ते तो इस वनकी शोभाको और भी बढ़ा रहे हैं।

परन्तु अब तो तुमलोगोंने यह सब कुछ देख लिया।।२१।।

अब देर मत करो, शीघ्र-से-शीघ्र व्रजमें लौट जाओ।

तुमलोग कुलीन स्त्री हो और स्वयं भी सती हो; जाओ, अपने पतियोंकी और सतियोंकी सेवा-शुश्रूषा करो।

देखो, तुम्हारे घरके नन्हे-नन्हे बच्चे और गौओंके बछड़े रो-रँभा रहे हैं; उन्हें दूध पिलाओ, गौएँ दुहो।।२२।।

अथवा यदि मेरे प्रेमसे परवश होकर तुमलोग यहाँ आयी हो तो इसमें कोई अनुचित बात नहीं हुई, यह तो तुम्हारे योग्य ही है; क्योंकि जगत् के पशु-पक्षीतक मुझसे प्रेम करते हैं, मुझे देखकर प्रसन्न होते हैं।।२३।।

कल्याणी गोपियो! स्त्रियोंका परम धर्म यही है कि वे पति और उसके भाई-बन्धुओंकी निष्कपटभावसे सेवा करें और सन्तानका पालन-पोषण करें।।२४।।

जिन स्त्रियोंको उत्तम लोक प्राप्त करनेकी अभिलाषा हो, वे पातकीको छोड़कर और किसी भी प्रकारके पतिका परित्याग न करें।

भले ही वह बुरे स्वभाव-वाला, भाग्यहीन, वृद्ध, मूर्ख, रोगी या निर्धन ही क्यों न हो।।२५।।

कुलीन स्त्रियोंके लिये जार पुरुषकी सेवा सब तरहसे निन्दनीय ही है।

इससे उनका परलोक बिगड़ता है, स्वर्ग नहीं मिलता, इस लोकमें अपयश होता है।

यह कुकर्म स्वयं तो अत्यन्त तुच्छ, क्षणिक है ही; इसमें प्रत्यक्ष – वर्तमानमें भी कष्ट-ही-कष्ट है।

मोक्ष आदिकी तो बात ही कौन करे, यह साक्षात् परम भय – नरक आदिका हेतु है।।२६।।

अस्वर्ग्यमयशस्यं च फल्गु कृच्छ्रं भयावहम्।

जुगुप्सितं च सर्वत्र औपपत्यं कुलस्त्रियाः।।

गोप्य ऊचुः मैवं विभोऽर्हति भवान् गदितुं नृशंसं सन्त्यज्य सर्वविषयांस्तव पादमूलम् ।

भक्ता भजस्व दुरवग्रह मा त्यजास्मान् देवो यथाऽऽदिपुरुषो भजते मुमुक्षून्।।३१

गोपियो! मेरी लीला और गुणोंके श्रवणसे, रूपके दर्शनसे, उन सबके कीर्तन और ध्यानसे मेरे प्रति जैसे अनन्य प्रेमकी प्राप्ति होती है, वैसे प्रेमकी प्राप्ति पास रहनेसे नहीं होती।

इसलिये तुमलोग अभी अपने-अपने घर लौट जाओ।।२७।।

श्रीशुकदेवजी कहते हैं – परीक्षित्! भगवान् श्रीकृष्णका यह अप्रिय भाषण सुनकर गोपियाँ उदास, खिन्न हो गयीं।

उनकी आशा टूट गयी।

वे चिन्ताके अथाह एवं अपार समुद्रमें डूबने-उतराने लगीं।।२८।।

उनके बिम्बाफल (पके हुए कुँदरू) के समान लाल-लाल अधर शोकके कारण चलनेवाली लम्बी और गरम साँससे सूख गये।

उन्होंने अपने मुँह नीचेकी ओर लटका लिये, वे पैरके नखोंसे धरती कुरेदने लगीं।

नेत्रोंसे दुःखके आँसू बह-बहकर काजलके साथ वक्षःस्थलपर पहुँचने और वहाँ लगी हुई केशरको धोने लगे।

उनका हृदय दुःखसे इतना भर गया कि वे कुछ बोल न सकीं, चुपचाप खड़ी रह गयीं।।२९।।

गोपियोंने अपने प्यारे श्यामसुन्दरके लिये सारी कामनाएँ, सारे भोग छोड़ दिये थे।

श्रीकृष्णमें उनका अनन्य अनुराग, परम प्रेम था।

जब उन्होंने अपने प्रियतम श्रीकृष्णकी यह निष्ठुरतासे भरी बात सुनी, जो बड़ी ही अप्रिय-सी मालूम हो रही थी, तब उन्हें बड़ा दुःख हुआ।

आँखें रोते-रोते लाल हो गयीं, आँसुओंके मारे रुँध गयीं।

उन्होंने धीरज धारण करके अपनी आँखोंके आँसू पोंछे और फिर प्रणयकोपके कारण वे गद् गद वाणीसे कहने लगीं।।३०।।

गोपियोंने कहा – प्यारे श्रीकृष्ण! तुम घट-घट व्यापी हो।

हमारे हृदयकी बात जानते हो।

तुम्हें इस प्रकार निष्ठुरताभरे वचन नहीं कहने चाहिये।

हम सब कुछ छोड़कर केवल तुम्हारे चरणोंमें ही प्रेम करती हैं।

इसमें सन्देह नहीं कि तुम स्वतन्त्र और हठीले हो।

तुमपर हमारा कोई वश नहीं है।

फिर भी तुम अपनी ओरसे, जैसे आदिपुरुष भगवान् नारायण कृपा करके अपने मुमुक्षु भक्तोंसे प्रेम करते हैं, वैसे ही हमें स्वीकार कर लो।

हमारा त्याग मत करो।।३१।।

प्यारे श्यामसुन्दर! तुम सब धर्मोंका रहस्य जानते हो।

तुम्हारा यह कहना कि ‘अपने पति, पुत्र और भाई-बन्धुओंकी सेवा करना ही स्त्रियोंका स्वधर्म है’ – अक्षरशः ठीक है।

परन्तु इस उपदेशके अनुसार हमें तुम्हारी ही सेवा करनी चाहिये; क्योंकि तुम्हीं सब उपदेशोंके पद (चरम लक्ष्य) हो; साक्षात् भगवान् हो।

तुम्हीं समस्त शरीरधारियोंके सुहृद् हो, आत्मा हो और परम प्रियतम हो।।३२।।

आत्मज्ञानमें निपुण महापुरुष तुमसे ही प्रेम करते हैं; क्योंकि तुम नित्य प्रिय एवं अपने ही आत्मा हो।

अनित्य एवं दुःखद पति-पुत्रादिसे क्या प्रयोजन है? परमेश्वर! इसलिये हमपर प्रसन्न होओ।

कृपा करो।

कमलनयन! चिरकालसे तुम्हारे प्रति पाली-पोसी आशा-अभिलाषाकी लहलहाती लताका छेदन मत करो।।३३।।

मनमोहन! अबतक हमारा चित्त घरके काम-धंधोंमें लगता था।

इसीसे हमारे हाथ भी उनमें रमे हुए थे।

परन्तु तुमने हमारे देखते-देखते हमारा वह चित्त लूट लिया।

इसमें तुम्हें कोई कठिनाई भी नहीं उठानी पड़ी, तुम तो सुखस्वरूप हो न! परन्तु अब तो हमारी गति-मति निराली ही हो गयी है।

हमारे ये पैर तुम्हारे चरणकमलोंको छोड़कर एक पग भी हटनेके लिये तैयार नहीं हैं, नहीं हट रहे हैं।

फिर हम व्रजमें कैसे जायँ? और यदि वहाँ जायँ भी तो करें क्या?।।३४।।

प्राणवल्लभ! हमारे प्यारे सखा! तुम्हारी मन्द-मन्द मधुर मुसकान, प्रेमभरी चितवन और मनोहर संगीतने हमारे हृदयमें तुम्हारे प्रेम और मिलनकी आग धधका दी है।

उसे तुम अपने अधरोंकी रसधारासे बुझा दो।

नहीं तो प्रियतम! हम सच कहती हैं, तुम्हारी विरहव्यथाकी आगसे हम अपने-अपने शरीर जला देंगी और ध्यानके द्वारा तुम्हारे चरणकमलोंको प्राप्त करेंगी।।३५।।

प्यारे कमलनयन! तुम वनवासियोंके प्यारे हो और वे भी तुमसे बहुत प्रेम करते हैं।

इससे प्रायः तुम उन्हींके पास रहते हो।

यहाँतक कि तुम्हारे जिन चरणकमलोंकी सेवाका अवसर स्वयं लक्ष्मीजीको कभी-कभी ही मिलता है, उन्हीं चरणोंका स्पर्श हमें प्राप्त हुआ।

जिस दिन यह सौभाग्य हमें मिला और तुमने हमें स्वीकार करके आनन्दित किया, उसी दिनसे हम और किसीके सामने एक क्षणके लिये भी ठहरनेमें असमर्थ हो गयी हैं – पति-पुत्रादिकोंकी सेवा तो दूर रही।।३६।।

हमारे स्वामी! जिन लक्ष्मीजीका कृपाकटाक्ष प्राप्त करनेके लिये बड़े-बड़े देवता तपस्या करते रहते हैं, वही लक्ष्मीजी तुम्हारे वक्षःस्थलमें बिना किसीकी प्रतिद्वन्द्विताके स्थान प्राप्त कर लेनेपर भी अपनी सौत तुलसीके साथ तुम्हारे चरणोंकी रज पानेकी अभिलाषा किया करती हैं।

अबतकके सभी भक्तोंने उस चरणरजका सेवन किया है।

उन्हींके समान हम भी तुम्हारी उसी चरणरजकी शरणमें आयी हैं।।३७।।

भगवन्! अबतक जिसने भी तुम्हारे चरणोंकी शरण ली, उसके सारे कष्ट तुमने मिटा दिये।

अब तुम हमपर कृपा करो।

हमें भी अपने प्रसादका भाजन बनाओ।

हम तुम्हारी सेवा करनेकी आशा-अभिलाषासे घर, गाँव, कुटुम्ब – सब कुछ छोड़कर तुम्हारे युगल चरणोंकी शरणमें आयी हैं।

प्रियतम! वहाँ तो तुम्हारी आराधनाके लिये अवकाश ही नहीं है।

पुरुषभूषण! पुरुषोत्तम! तुम्हारी मधुर मुसकान और चारु चितवनने हमारे हृदयमें प्रेमकी – मिलनकी आकांक्षाकी आग धधका दी है; हमारा रोम-रोम उससे जल रहा है।

तुम हमें अपनी दासीके रूपमें स्वीकार कर लो।

हमें अपनी सेवाका अवसर दो।।३८।।

प्रियतम! तुम्हारा सुन्दर मुखकमल, जिसपर घुँघराली अलकें झलक रही हैं; तुम्हारे ये कमनीय कपोल, जिनपर सुन्दर-सुन्दर कुण्डल अपना अनन्त सौन्दर्य बिखेर रहे हैं; तुम्हारे ये मधुर अधर, जिनकी सुधा सुधाको भी लजानेवाली है; तुम्हारी यह नयनमनोहारी चितवन, जो मन्द-मन्द मुसकानसे उल्लसित हो रही है; तुम्हारी ये दोनों भुजाएँ, जो शरणागतोंको अभयदान देनेमें अत्यन्त उदार हैं और तुम्हारा यह वक्षःस्थल, जो लक्ष्मीजीका – सौन्दर्यकी एकमात्र देवीका नित्य क्रीडास्थल है, देखकर हम सब तुम्हारी दासी हो गयी हैं।।३९।।

प्यारे श्यामसुन्दर! तीनों लोकोंमें भी और ऐसी कौन-सी स्त्री है, जो मधुर-मधुर पद और आरोह-अवरोह-क्रमसे विविध प्रकारकी मूर्च्छनाओंसे युक्त तुम्हारी वंशीकी तान सुनकर तथा इस त्रिलोकसुन्दर मोहिनी मूर्तिको – जो अपने एक बूँद सौन्दर्यसे त्रिलोकीको सौन्दर्यका दान करती है एवं जिसे देखकर गौ, पक्षी, वृक्ष और हरिन भी रोमांचित, पुलकित हो जाते हैं – अपने नेत्रोंसे निहारकर आर्य – मर्यादासे विचलित न हो जाय, कुल-कान और लोकलज्जाको त्यागकर तुममें अनुरक्त न हो जाय।।४०।।

हमसे यह बात छिपी नहीं है कि जैसे भगवान् नारायण देवताओंकी रक्षा करते हैं, वैसे ही तुम व्रजमण्डलका भय और दुःख मिटानेके लिये ही प्रकट हुए हो! और यह भी स्पष्ट ही है कि दीन-दुखियोंपर तुम्हारा बड़ा प्रेम, बड़ी कृपा है।

प्रियतम! हम भी बड़ी दुःखिनी हैं।

तुम्हारे मिलनकी आकांक्षाकी आगसे हमारा वक्षःस्थल जल रहा है।

तुम अपनी इन दासियोंके वक्षःस्थल और सिरपर अपने कोमल करकमल रखकर इन्हें अपना लो; हमें जीवनदान दो।।४१।।

का स्त्र्यङ्ग ते कलपदायतमूर्च्छितेन सम्मोहिताऽऽर्यचरितान्न चलेत्त्रिलोक्याम् ।

त्रैलोक्यसौभगमिदं च निरीक्ष्य रूपं यद् गोद्विजद्रुममृगाः पुलकान्यबिभ्रन्।।

श्रीशुकदेवजी कहते हैं – परीक्षित्! भगवान् श्रीकृष्ण सनकादि योगियों और शिवादि योगेश्वरोंके भी ईश्वर हैं।

जब उन्होंने गोपियोंकी व्यथा और व्याकुलतासे भरी वाणी सुनी, तब उनका हृदय दयासे भर गया और यद्यपि वे आत्माराम हैं – अपने-आपमें ही रमण करते रहते हैं, उन्हें अपने अतिरिक्त और किसी भी बाह्य वस्तुकी अपेक्षा नहीं है, फिर भी उन्होंने हँसकर उनके साथ क्रीडा प्रारम्भ की।।४२।।

भगवान् श्रीकृष्णने अपनी भाव-भंगी और चेष्टाएँ गोपियोंके अनुकूल कर दीं; फिर भी वे अपने स्वरूपमें ज्यों-के-त्यों एकरस स्थित थे, अच्युत थे।

जब वे खुलकर हँसते, तब उनके उज्ज्वल-उज्ज्वल दाँत कुन्दकलीके समान जान पड़ते थे।

उनकी प्रेमभरी चितवनसे और उनके दर्शनके आनन्दसे गोपियोंका मुखकमल प्रफुल्लित हो गया।

वे उन्हें चारों ओरसे घेरकर खड़ी हो गयीं।

उस समय श्रीकृष्णकी ऐसी शोभा हुई, मानो अपनी पत्नी तारिकाओंसे घिरे हुए चन्द्रमा ही हों।।४३।।

गोपियोंके शत-शत यूथोंके स्वामी भगवान् श्रीकृष्ण वैजयन्ती माला पहने वृन्दावनको शोभायमान करते हुए विचरण करने लगे।

कभी गोपियाँ अपने प्रियतम श्रीकृष्णके गुण और लीलाओंका गान करतीं, तो कभी श्रीकृष्ण गोपियोंके प्रेम और सौन्दर्यके गीत गाने लगते।।४४।।

इसके बाद भगवान् श्रीकृष्णने गोपियोंके साथ यमुनाजीके पावन पुलिनपर, जो कपूरके समान चमकीली बालूसे जगमगा रहा था, पदार्पण किया।

वह यमुनाजीकी तरल तरंगोंके स्पर्शसे शीतल और कुमुदिनीकी सहज सुगन्धसे सुवासित वायुके द्वारा सेवित हो रहा था।

उस आनन्दप्रद पुलिनपर भगवान् ने गोपियोंके साथ क्रीडा की।।४५।।

हाथ फैलाना, आलिंगन करना, गोपियोंके हाथ दबाना, उनकी चोटी, जाँघ, नीवी और स्तन आदिका स्पर्श करना, विनोद करना, नखक्षत करना, विनोदपूर्ण चितवनसे देखना और मुसकाना – इन क्रियाओंके द्वारा गोपियोंके दिव्य कामरसको, परमोज्ज्वल प्रेमभावको उत्तेजित करते हुए भगवान् श्रीकृष्ण उन्हें क्रीडाद्वारा आनन्दित करने लगे।।४६।।

उदारशिरोमणि सर्वव्यापक भगवान् श्रीकृष्णने जब इस प्रकार गोपियोंका सम्मान किया, तब गोपियोंके मनमें ऐसा भाव आया कि संसारकी समस्त स्त्रियोंमें हम ही सर्वश्रेष्ठ हैं, हमारे समान और कोई नहीं है।

वे कुछ मानवती हो गयीं।।४७।।

जब भगवान् ने देखा कि इन्हें तो अपने सुहागका कुछ गर्व हो आया है और अब मान भी करने लगी हैं, तब वे उनका गर्व शान्त करनेके लिये तथा उनका मान दूर कर प्रसन्न करनेके लिये वहीं – उनके बीचमें ही अन्तर्धान हो गये।।४८।।

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
दशमस्कन्धे पूर्वार्धे भगवतो रासक्रीडावर्णनं नामैकोनत्रिंशोऽध्यायः।।२९।।


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