भागवत पुराण – दशम स्कन्ध – अध्याय – 22


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चीरहरण

श्रीशुकदेवजी कहते हैं – परीक्षित्! अब हेमन्त ऋतु आयी।

उसके पहले ही महीनेमें अर्थात् मार्गशीर्षमें नन्दबाबाके व्रजकी कुमारियाँ कात्यायनी देवीकी पूजा और व्रत करने लगीं।

वे केवल हविष्यान्न ही खाती थीं।।१।।

राजन्! वे कुमारी कन्याएँ पूर्व दिशाका क्षितिज लाल होते-होते यमुनाजलमें स्नान कर लेतीं और तटपर ही देवीकी बालुकामयी मूर्ति बनाकर सुगन्धित चन्दन, फूलोंके हार, भाँति-भाँतिके नैवेद्य, धूप-दीप, छोटी-बड़ी भेंटकी सामग्री, पल्लव, फल और चावल आदिसे उनकी पूजा करतीं।।२३।।

साथ ही ‘हे कात्यायनी! हे महामाये! हे महायोगिनी! हे सबकी एकमात्र स्वामिनी! आप नन्दनन्दन श्रीकृष्णको हमारा पति बना दीजिये।

देवि! हम आपके चरणोंमें नमस्कार करती हैं।’ – इस मन्त्रका जप करती हुई वे कुमारियाँ देवीकी आराधना करतीं।।४।।

इस प्रकार उन कुमारियोंने, जिनका मन श्रीकृष्णपर निछावर हो चुका था, इस संकल्पके साथ एक महीनेतक भद्रकालीकी भलीभाँति पूजा कीं कि ‘नन्दनन्दन श्यामसुन्दर ही हमारे पति हों’।।५।।

वे प्रतिदिन उषाकालमें ही नाम ले-लेकर एक-दूसरी सखीको पुकार लेतीं और परस्पर हाथ-में-हाथ डालकर ऊँचे स्वरसे भगवान् श्रीकृष्णकी लीला तथा नामोंका गान करती हुई यमुनाजलमें स्नान करनेके लिये जातीं।।६।।

एक दिन सब कुमारियोंने प्रतिदिनकी भाँति यमुनाजीके तटपर जाकर अपने-अपने वस्त्र उतार दिये और भगवान् श्रीकृष्णके गुणोंका गान करती हुई बड़े आनन्दसे जल-क्रीडा करने लगीं।।७।।

परीक्षित्! भगवान् श्रीकृष्ण सनकादि योगियों और शंकर आदि योगेश्वरोंके भी ईश्वर हैं।

उनसे गोपियोंकी अभिलाषा छिपी न रही।

वे उनका अभिप्राय जानकर अपने सखा ग्वालबालोंके साथ उन कुमारियोंकी साधना सफल करनेके लिये यमुना-तटपर गये।।८।।

उन्होंने अकेले ही उन गोपियोंके सारे वस्त्र उठा लिये और बड़ी फुर्तीसे वे एक कदम्बके वृक्षपर चढ़ गये।

साथी ग्वालबाल ठठा-ठठाकर हँसने लगे और स्वयं श्रीकृष्ण भी हँसते हुए गोपियोंसे हँसीकी बात कहने लगे – ।।९।।

‘अरी कुमारियो! तुम यहाँ आकर इच्छा हो, तो अपने-अपने वस्त्र ले जाओ।

मैं तुमलोगोंसे सच-सच कहता हूँ।

हँसी बिलकुल नहीं करता।

तुमलोग व्रत करते-करते दुबली हो गयी हो।।१०।।

ये मेरे सखा ग्वालबाल जानते हैं कि मैंने कभी कोई झूठी बात नहीं कही है।

सुन्दरियो! तुम्हारी इच्छा हो तो अलग-अलग आकर अपने-अपने वस्त्र ले लो, या सब एक साथ ही आओ।

मुझे इसमें कोई आपत्ति नहीं है’।।११।।

भगवान् की यह हँसी-मसखरी देखकर गोपियोंका हृदय प्रेमसे सराबोर हो गया।

वे तनिक सकुचाकर एक-दूसरीकी ओर देखने और मुसकराने लगीं।

जलसे बाहर नहीं निकलीं।।१२।।

जब भगवान् ने हँसी-हँसीमें यह बात कही तब उनके विनोदसे कुमारियोंका चित्त और भी उनकी ओर खिंच गया।

वे ठंढे पानीमें कण्ठतक डूबी हुई थीं और उनका शरीर थर-थर काँप रहा था।

उन्होंने श्रीकृष्णसे कहा – ।।१३।।

‘प्यारे श्रीकृष्ण! तुम ऐसी अनीति मत करो।

हम जानती हैं कि तुम नन्दबाबाके लाड़ले लाल हो।

हमारे प्यारे हो।

सारे व्रजवासी तुम्हारी सराहना करते रहते हैं।

देखो, हम जाड़ेके मारे ठिठुर रही हैं।

तुम हमें हमारे वस्त्र दे दो।।१४।।

प्यारे श्यामसुन्दर! हम तुम्हारी दासी हैं।

तुम जो कुछ कहोगे, उसे हम करनेको तैयार हैं।

तुम तो धर्मका मर्म भलीभाँति जानते हो।

हमें कष्ट मत दो।

हमारे वस्त्र हमें दे दो; नहीं तो हम जाकर नन्दबाबासे कह देंगी’।।१५।।

भगवान् श्रीकृष्णने कहा – कुमारियो! तुम्हारी मुसकान पवित्रता और प्रेमसे भरी है।

देखो, जब तुम अपनेको मेरी दासी स्वीकार करती हो और मेरी आज्ञाका पालन करना चाहती हो तो यहाँ आकर अपने-अपने वस्त्र ले लो।।१६।।

परीक्षित्! वे कुमारियाँ ठंडसे ठिठुर रही थीं, काँप रही थीं।

भगवान् की ऐसी बात सुनकर वे अपने दोनों हाथोंसे गुप्त अंगोंको छिपाकर यमुनाजीसे बाहर निकलीं।

उस समय ठंड उन्हें बहुत ही सता रही थी।।१७।।

उनके इस शुद्ध भावसे भगवान् बहुत ही प्रसन्न हुए।

उनको अपने पास आयी देखकर उन्होंने गोपियोंके वस्त्र अपने कंधेपर रख लिये और बड़ी प्रसन्नतासे मुसकराते हुए बोले – ।।१८।।

‘अरी गोपियो! तुमने जो व्रत लिया था, उसे अच्छी तरह निभाया है – इसमें सन्देह नहीं।

परन्तु इस अवस्थामें वस्त्रहीन होकर तुमने जलमें स्नान किया है, इससे तो जलके अधिष्ठातृदेवता वरुणका तथा यमुनाजीका अपराध हुआ है।

अतः अब इस दोषकी शान्तिके लिये तुम अपने हाथ जोड़कर सिरसे लगाओ और उन्हें झुककर प्रणाम करो, तदनन्तर अपने-अपने वस्त्र ले जाओ।।१९।।

भगवान् श्रीकृष्णकी बात सुनकर उन व्रजकुमारियोंने ऐसा ही समझा कि वास्तवमें वस्त्रहीन होकर स्नान करनेसे हमारे व्रतमें त्रुटि आ गयी।

अतः उसकी निर्विघ्न पूर्तिके लिये उन्होंने समस्त कर्मोंके साक्षी श्रीकृष्णको नमस्कार किया।

क्योंकि उन्हें नमस्कार करनेसे ही सारी त्रुटियों और अपराधोंका मार्जन हो जाता है।।२०।।

जब यशोदानन्दन भगवान् श्रीकृष्णने देखा कि सब-की-सब कुमारियाँ मेरी आज्ञाके अनुसार प्रणाम कर रही हैं, तब वे बहुत ही प्रसन्न हुए।

उनके हृदयमें करुणा उमड़ आयी और उन्होंने उनके वस्त्र दे दिये।।२१।।

प्रिय परीक्षित्! श्रीकृष्णने कुमारियोंसे छलभरी बातें कीं, उनका लज्जा-संकोच छुड़ाया, हँसी की और उन्हें कठ-पुतलियोंके समान नचाया; यहाँतक कि उनके वस्त्र-तक हर लिये।

फिर भी वे उनसे रुष्ट नहीं हुईं, उनकी इन चेष्टाओंको दोष नहीं माना, बल्कि अपने प्रियतमके संगसे वे और भी प्रसन्न हुईं।।२२।।

परीक्षित्! गोपियोंने अपने-अपने वस्त्र पहन लिये।

परन्तु श्रीकृष्णने उनके चित्तको इस प्रकार अपने वशमें कर रखा था कि वे वहाँसे एक पग भी न चल सकीं।

अपने प्रियतमके समागमके लिये सजकर वे उन्हींकी ओर लजीली चितवनसे निहारती रहीं।।२३।।

भगवान् श्रीकृष्णने देखा कि उन कुमारियोंने उनके चरणकमलोंके स्पर्शकी कामनासे ही व्रत धारण किया है और उनके जीवनका यही एकमात्र संकल्प है।

तब गोपियोंके प्रेमके अधीन होकर ऊखल-तकमें बँध जानेवाले भगवान् ने उनसे कहा – ।।२४।।

‘मेरी परम प्रेयसी कुमारियो! मैं तुम्हारा यह संकल्प जानता हूँ कि तुम मेरी पूजा करना चाहती हो।

मैं तुम्हारी इस अभिलाषाका अनुमोदन करता हूँ, तुम्हारा यह संकल्प सत्य होगा।

तुम मेरी पूजा कर सकोगी।।२५।।

जिन्होंने अपना मन और प्राण मुझे समर्पित कर रखा है उनकी कामनाएँ उन्हें सांसारिक भोगोंकी ओर ले जानेमें समर्थ नहीं होतीं।

ठीक वैसे ही, जैसे भुने या उबाले हुए बीज फिर अंकुरके रूपमें उगनेके योग्य नहीं रह जाते।।२६।।

इसलिये कुमारियो! अब तुम अपने-अपने घर लौट जाओ।

तुम्हारी साधना सिद्ध हो गयी है।

तुम आनेवाली शरद् ऋतुकी रात्रियोंमें मेरे साथ विहार करोगी।

सतियो! इसी उद्देश्यसे तो तुमलोगोंने यह व्रत और कात्यायनी देवीकी पूजा की थी’*।।२७।।

श्रीशुकदेवजी कहते हैं – परीक्षित्! भगवान् की यह आज्ञा पाकर वे कुमारियाँ भगवान् श्रीकृष्णके चरणकमलोंका ध्यान करती हुई जानेकी इच्छा न होनेपर भी बड़े कष्टसे व्रजमें गयीं।

अब उनकी सारी कामनाएँ पूर्ण हो चुकी थीं।।२८।।

प्रिय परीक्षित्! एक दिन भगवान् श्रीकृष्ण बलरामजी और ग्वालबालोंके साथ गौएँ चराते हुए वृन्दावनसे बहुत दूर निकल गये।।२९।।

ग्रीष्म ऋतु थी।

सूर्यकी किरणें बहुत ही प्रखर हो रही थीं।

परन्तु घने-घने वृक्ष भगवान् श्रीकृष्णके ऊपर छत्तेका काम कर रहे थे।

भगवान् श्रीकृष्णने वृक्षोंको छाया करते देख स्तोककृष्ण, अंशु, श्रीदामा, सुबल, अर्जुन, विशाल, ऋषभ, तेजस्वी, देवप्रस्थ और वरूथप आदि ग्वालबालोंको सम्बोधन करके कहा – ।।३०-३१।।

‘मेरे प्यारे मित्रो! देखो, ये वृक्ष कितने भाग्यवान् हैं! इनका सारा जीवन केवल दूसरोंकी भलाई करनेके लिये ही है।

ये स्वयं तो हवाके झोंके, वर्षा, धूप और पाला – सब कुछ सहते हैं, परन्तु हम लोगोंकी उनसे रक्षा करते हैं।।३२।।

मैं कहता हूँ कि इन्हींका जीवन सबसे श्रेष्ठ है।

क्योंकि इनके द्वारा सब प्राणियोंको सहारा मिलता है, उनका जीवन-निर्वाह होता है।

जैसे किसी सज्जन पुरुषके घरसे कोई याचक खाली हाथ नहीं लौटता, वैसे ही इन वृक्षोंसे भी सभीको कुछ-न-कुछ मिल ही जाता है।।३३।।

ये अपने पत्ते, फूल, फल, छाया, जड़, छाल, लकड़ी, गन्ध, गोंद, राख, कोयला, अंकुर और कोंपलोंसे भी लोगोंकी कामना पूर्ण करते हैं।।३४।।

मेरे प्यारे मित्रो! संसारमें प्राणी तो बहुत हैं; परन्तु उनके जीवनकी सफलता इतनेमें ही है कि जहाँतक हो सके अपने धनसे, विवेक-विचारसे, वाणीसे और प्राणोंसे भी ऐसे ही कर्म किये जायँ, जिनसे दूसरोंकी भलाई हो।।३५।।

परीक्षित्! दोनों ओरके वृक्ष नयी-नयी कोंपलों, गुच्छों, फल-फूलों और पत्तोंसे लद रहे थे।

उनकी डालियाँ पृथ्वीतक झुकी हुई थीं।

इस प्रकार भाषण करते हुए भगवान् श्रीकृष्ण उन्हींके बीचसे यमुना-तटपर निकल आये।।३६।।

राजन्! यमुनाजीका जल बड़ा ही मधुर, शीतल और स्वच्छ था।

उन लोगोंने पहले गौओंको पिलाया और इसके बाद स्वयं भी जी भरकर स्वादु जलका पान किया।।३७।।

परीक्षित्! जिस समय वे यमुनाजीके तटपर हरे-भरे उपवनमें बड़ी स्वतन्त्रतासे अपनी गौएँ चरा रहे थे, उसी समय कुछ भूखे ग्वालोंने भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामजीके पास आकर यह बात कही – ।।३८।।

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
दशमस्कन्धे पूर्वार्धे१ गोपीवस्त्रापहारो नाम द्वाविंशोऽध्यायः।।२२।।

१. वृन्दावनक्रीडायामेक०।

* चीर-हरणके प्रसंगको लेकर कई तरहकी शंकाएँ की जाती हैं, अतएव इस सम्बन्धमें कुछ विचार करना आवश्यक है।

वास्तवमें बात यह है कि सच्चिदानन्दघन भगवान् की दिव्य मधुर रसमयी लीलाओंका रहस्य जाननेका सौभाग्य बहुत थोड़े लोगोंको होता है।

जिस प्रकार भगवान् चिन्मय हैं, उसी प्रकार उनकी लीला भी चिन्मयी ही होती है।

सच्चिदानन्द रसमय-साम्राज्यके जिस परमोन्नत स्तरमें यह लीला हुआ करती है उसकी ऐसी विलक्षणता है कि कई बार तो ज्ञान-विज्ञान-स्वरूप विशुद्ध चेतन परम ब्रह्ममें भी उसका प्राकट्य नहीं होता, और इसीलिये ब्रह्म-साक्षात्कारको प्राप्त महात्मा लोग भी इस लीला-रसका समास्वादन नहीं कर पाते।

भगवान् की इस परमोज्जवल दिव्य-रस-लीलाका यथार्थ प्रकाश तो भगवान् की स्वरूपभूता ह्लादिनी शक्ति नित्यनिकुंजेश्वरी श्रीवृषभानुनन्दिनी श्रीराधाजी और तदंगभूता प्रेममयी गोपियोंके ही हृदयमें होता है और वे ही निरावरण होकर भगवान् की इस परम अन्तरंग रसमयी लीलाका समास्वादन करती हैं।

यों तो भगवान् के जन्म-कर्मकी सभी लीलाएँ दिव्य होती हैं, परन्तु व्रजकी लीला, व्रजमें निकुंजलीला और निकुंजमें भी केवल रसमयी गोपियोंके साथ होनेवाली मधुर लीला तो दिव्यातिदिव्य और सर्वगुह्यतम है।

यह लीला सर्वसाधारणके सम्मुख प्रकट नहीं है, अन्तरंग लीला है और इसमें प्रवेशका अधिकार केवल श्रीगोपीजनोंको ही है।

अस्तु, दशम स्कन्धके इक्कीसवें अध्यायमें ऐसा वर्णन आया है कि भगवान् की रूप-माधुरी, वंशीध्वनि और प्रेममयी लीलाएँ देख-सुनकर गोपियाँ मुग्ध हो गयीं।

बाईसवें अध्यायमें उसी प्रेमकी पूर्णता प्राप्त करनेके लिये वे साधनमें लग गयी हैं।

इसी अध्यायमें भगवान् ने आकर उनकी साधना पूर्ण की है।

यही चीर-हरणका प्रसंग है।

गोपियाँ क्या चाहती थीं, यह बात उनकी साधनासे स्पष्ट है।

वे चाहती थीं – श्रीकृष्णके प्रति पूर्ण आत्मसमर्पण, श्रीकृष्णके साथ इस प्रकार घुल-मिल जाना कि उनका रोम-रोम, मन-प्राण, सम्पूर्ण आत्मा केवल श्रीकृष्णमय हो जाय।

शरत्-कालमें उन्होंने श्रीकृष्णकी वंशीध्वनिकी चर्चा आपसमें की थी, हेमन्तके पहले ही महीनेमें अर्थात् भगवान् के विभूतिस्वरूप मार्गशीर्षमें उनकी साधना प्रारम्भ हो गयी।

विलम्ब उनके लिये असह्य था।

जाड़ेके दिनमें वे प्रातःकाल ही यमुना-स्नानके लिये जातीं, उन्हें शरीरकी परवा नहीं थी।

बहुत-सी कुमारी ग्वालिनें एक साथ ही जातीं, उनमें ईर्ष्या-द्वेष नहीं था।

वे ऊँचे स्वरसे श्रीकृष्णका नामकीर्तन करती हुई जातीं, उन्हें गाँव और जातिवालोंका भय नहीं था।

वे घरमें भी हविष्यान्नका ही भोजन करतीं, वे श्रीकृष्णके लिये इतनी व्याकुल हो गयी थीं कि उन्हें माता-पिता तकका संकोच नहीं था।

वे विधिपूर्वक देवीकी बालुकामयी मूर्ति बनाकर पूजा और मन्त्र-जप करती थीं।

अपने इस कार्यको सर्वथा उचित और प्रशस्त मानती थीं।

एक वाक्यमें – उन्होंने अपना कुल, परिवार, धर्म, संकोच और व्यक्तित्व भगवान् के चरणोंमें सर्वथा समर्पण कर दिया था।

वे यही जपती रहती थीं कि एकमात्र नन्दनन्दन ही हमारे प्राणोंके स्वामी हों।

श्रीकृष्ण तो वस्तुतः उनके स्वामी थे ही।

परन्तु लीलाकी दृष्टिसे उनके समर्पणमें थोड़ी कमी थी।

वे निरावरणरूपसे श्रीकृष्णके सामने नहीं जा रही थीं, उनमें थोड़ी झिझक थी; उनकी यही झिझक दूर करनेके लिये – उनकी साधना, उनका समर्पण पूर्ण करनेके लिये उनका आवरण भंग कर देनेकी आवश्यकता थी, उनका यह आवरणरूप चीर हर लेना जरूरी था और यही काम भगवान् श्रीकृष्णने किया।

इसीके लिये वे योगेश्वरोंके ईश्वर भगवान् अपने मित्र ग्वालबालोंके साथ यमुनातटपर पधारे थे।

साधक अपनी शक्तिसे, अपने बल और संकल्पसे केवल अपने निश्चयसे पूर्ण समर्पण नहीं कर सकता।

समर्पण भी एक क्रिया है और उसका करनेवाला असमर्पित ही रह जाता है।

ऐसी स्थितिमें अन्तरात्माका पूर्ण समर्पण तब होता है जब भगवान् स्वयं आकर वह संकल्प स्वीकार करते हैं और संकल्प करनेवालेको भी स्वीकार करते हैं।

यहीं जाकर समर्पण पूर्ण होता है।

साधकका कर्तव्य है – पूर्ण समर्पणकी तैयारी।

उसे पूर्ण तो भगवान् ही करते हैं।

भगवान् श्रीकृष्ण यों तो लीलापुरुषोत्तम हैं; फिर भी जब अपनी लीला प्रकट करते हैं, तब मर्यादाका उल्लघंन नहीं करते, स्थापना ही करते हैं।

विधिका अतिक्रमण करके कोई साधनाके मार्गमें अग्रसर नहीं हो सकता।

परन्तु हृदयकी निष्कपटता, सचाई और सच्चा प्रेम विधिके अतिक्रमणको भी शिथिल कर देता है।

गोपियाँ श्रीकृष्णको प्राप्त करनेके लिये जो साधना कर रही थीं, उसमें एक त्रुटि थी।

वे शास्त्र-मर्यादा और परम्परागत सनातन मर्यादाका उल्लंघन करके नग्न-स्नान करती थीं।

यद्यपि उनकी यह क्रिया अज्ञानपूर्वक ही थी, तथापि भगवान् के द्वारा इसका मार्जन होना आवश्यक था।

भगवान् ने गोपियोंसे इसका प्रायश्चित्त भी करवाया।

जो लोग भगवान् के प्रेमके नामपर विधिका उल्लंघन करते हैं, उन्हें यह प्रसंग ध्यानसे पढ़ना चाहिये और भगवान् शास्त्रविधिका कितना आदर करते हैं, यह देखना चाहिये।

वैधी भक्तिका पर्यवसान रागात्मिका भक्तिमें है और रागात्मिका भक्ति पूर्ण समर्पणके रूपमें परिणत हो जाती है।

गोपियोंने वैधी भक्तिका अनुष्ठान किया, उनका हृदय तो रागात्मिकाभक्तिसे भरा हुआ था ही।

अब पूर्ण समर्पण होना चाहिये।

चीर-हरणके द्वारा वही कार्य सम्पन्न होता है।

गोपियोंने जिनके लिये लोक-परलोक, स्वार्थ-परमार्थ, जाति-कुल, पुरजन-परिजन और गुरुजनोंकी परवा नहीं की, जिनकी प्राप्तिके लिये ही उनका यह महान् अनुष्ठान है, जिनके चरणोंमें उन्होंने अपना सर्वस्व निछावर कर रखा है, जिनसे निरावरण मिलनकी ही एकमात्र अभिलाषा है, उन्हीं निरावरण रसमय भगवान् श्रीकृष्णके सामने वे निरावरण भावसे न जा सकें – क्या यह उनकी साधनाकी अपूर्णता नहीं है? है, अवश्य है।

और यह समझकर ही गोपियाँ निरावरणरूपसे उनके सामने गयीं।

श्रीकृष्ण चराचर प्रकृतिके एकमात्र अधीश्वर हैं; समस्त क्रियाओंके कर्ता, भोक्ता और साक्षी भी वही हैं।

ऐसा एक भी व्यक्त या अव्यक्त पदार्थ नहीं है जो बिना किसी परदेके उनके सामने न हो।

वही सर्वव्यापक, अन्तर्यामी हैं।

गोपियोंके, गोपोंके और निखिल विश्वके वही आत्मा हैं।

उन्हें स्वामी, गुरु, पिता, माता, सखा, पति आदिके रूपमें मानकर लोग उन्हींकी उपासना करते हैं।

गोपियाँ उन्हीं भगवान् को जान-बूझकर कि यही भगवान् हैं – यही योगेश्वरेश्वर, क्षराक्षरातीत पुरुषोत्तम हैं – पतिके रूपमें प्राप्त करना चाहती थीं।

श्रीमद्भागवतके दशम स्कन्धका श्रद्धाभावसे पाठ कर जानेपर यह बात बहुत ही स्पष्ट हो जाती है कि गोपियाँ श्रीकृष्णके वास्तविक स्वरूपको जानती थीं, पहचानती थीं।

वेणुगीत, गोपीगीत, युगलगीत और श्रीकृष्णके अन्तर्धान हो जानेपर गोपियोंके अन्वेषणमें यह बात कोई भी देख-सुन-समझ सकता है।

जो लोग भगवान् को भगवान् मानते हैं, उनसे सम्बन्ध रखते हैं, स्वामी-सुहृद् आदिके रूपमें उन्हें मानते हैं, उनके हृदयमें गोपियोंके इस लोकोत्तर माधुर्यसम्बन्ध और उसकी साधनाके प्रति शंका ही कैसे हो सकती है।

गोपियोंकी इस दिव्य लीलाका जीवन उच्च श्रेणीके साधकके लिये आदर्श जीवन है।

श्रीकृष्ण जीवके एकमात्र प्राप्तव्य साक्षात् परमात्मा हैं।

हमारी बुद्धि हमारी दृष्टि देहतक ही सीमित है।

इसलिये हम श्रीकृष्ण और गोपियोंके प्रेमको भी केवल दैहिक तथा कामनाकलुषित समझ बैठते हैं।

उस अपार्थिव और अप्राकृत लीलाको इस प्रकृतिके राज्यमें घसीट लाना हमारी स्थूल वासनाओंका हानिकर परिणाम है।

जीवका मन भोगाभिमुख वासनाओंसे और तमोगुणी प्रवृत्तियोंसे अभिभूत रहता है।

वह विषयोंमें ही इधरसे-उधर भटकता रहता है और अनेकों प्रकारके रोग-शोकसे आक्रान्त रहता है।

जब कभी पुण्यकर्मोंके फल उदय होनेपर भगवान् की अचिन्त्य अहैतुकी कृपासे विचारका उदय होता है, तब जीव दुःखज्वालासे त्राण पानेके लिये और अपने प्राणोंको शान्तिमय धाममें पहुँचानेके लिये उत्सुक हो उठता है।

वह भगवान् के लीलाधामोंकी यात्रा करता है, सत्संग प्राप्त करता है और उसके हृदयकी छटपटी उस आकांक्षाको लेकर, जो अबतक सुप्त थी, जगकर बड़े वेगसे परमात्माकी ओर चल पड़ती है।

चिरकालसे विषयोंका ही अभ्यास होनेके कारण बीच-बीचमें विषयोंके संस्कार उसे सताते हैं और बार-बार विक्षेपोंका सामना करना पड़ता है।

परन्तु भगवान् की प्रार्थना, कीर्तन-स्मरण, चिन्तन करते-करते चित्त सरस होने लगता है और धीरे-धीरे उसे भगवान् की सन्निधिका अनुभव भी होने लगता है।

थोड़ा-सा रसका अनुभव होते ही चित्त बड़े वेगसे अन्तर्देशमें प्रवेश कर जाता है और भगवान् मार्गदर्शकके रूपमें संसार-सागरसे पार ले जानेवाली नावपर केवटके रूपमें अथवा यों कहें कि साक्षात् चित् स्वरूप गुरुदेवके रूपमें प्रकट हो जाते हैं।

ठीक उसी क्षण अभाव, अपूर्णता और सीमाका बन्धन नष्ट हो जाता है, विशुद्ध आनन्द – विशुद्ध ज्ञानकी अनुभूति होने लगती है।

गोपियाँ, जो अभी-अभी साधनसिद्ध होकर भगवान् की अन्तरंग लीलामें प्रविष्ट होनेवाली हैं, चिरकालसे श्रीकृष्णके प्राणोंमें अपने प्राण मिला देनेके लिये उत्कण्ठित हैं, सिद्धिलाभके समीप पहुँच चुकी हैं।

अथवा जो नित्यसिद्धा होनेपर भी भगवान् की इच्छाके अनुसार उनकी दिव्य लीलामें सहयोग प्रदान कर रही हैं, उनके हृदयके समस्त भावोंके एकान्त ज्ञाता श्रीकृष्ण बाँसुरी बजाकर उन्हें आकृष्ट करते हैं और जो कुछ उनके हृदयमें बचे-खुचे पुराने संस्कार हैं, मानो उन्हें धो डालनेके लिये साधनामें लगाते हैं।

उनकी कितनी दया है, वे अपने प्रेमियोंसे कितना प्रेम करते हैं – यह सोचकर चित्त मुग्ध हो जाता है, गद् गद हो जाता है।

श्रीकृष्ण गोपियोंके वस्त्रोंके रूपमें उनके समस्त संस्कारोंके आवरण अपने हाथमें लेकर पास ही कदम्बके वृक्षपर चढ़कर बैठ गये।

गोपियाँ जलमें थीं, वे जलमें सर्वव्यापक सर्वदर्शी भगवान् श्रीकृष्णसे मानो अपनेको गुप्त समझ रही थीं – वे मानो इस तत्त्वको भूल गयी थीं कि श्रीकृष्ण जलमें ही नहीं हैं, स्वयं जलस्वरूप भी वही हैं।

उनके पुराने संस्कार श्रीकृष्णके सम्मुख जानेमें बाधक हो रहे थे; वे श्रीकृष्णके लिये सब कुछ भूल गयी थीं, परन्तु अबतक अपनेको नहीं भूली थीं।

वे चाहती थीं केवल श्रीकृष्णको, परन्तु उनके संस्कार बीचमें एक परदा रखना चाहते थे।

प्रेम प्रेमी और प्रियतमके बीचमें एक पुष्पका भी परदा नहीं रखना चाहता।

प्रेमकी प्रकृति है सर्वथा व्यवधानरहित, अबाध और अनन्त मिलन।

जहाँतक अपना सर्वस्व – इसका विस्तार चाहे जितना हो – प्रेमकी ज्वालामें भस्म नहीं कर दिया जाता, वहाँतक प्रेम और समर्पण दोनों ही अपूर्ण रहते हैं।

इसी अपूर्णताको दूर करते हुए, ‘शुद्ध भावसे प्रसन्न हुए’ (शुद्धभावप्रसादितः) श्रीकृष्णने कहा कि ‘मुझसे अनन्य प्रेम करनेवाली गोपियो! एक बार, केवल एक बार अपने सर्वस्वको और अपनेको भी भूलकर मेरे पास आओ तो सही।

तुम्हारे हृदयमें जो अव्यक्त त्याग है, उसे एक क्षणके लिये व्यक्त तो करो।

क्या तुम मेरे लिये इतना भी नहीं कर सकती हो?’ गोपियोंने मानो कहा – ‘श्रीकृष्ण! हम अपनेको कैसे भूलें? हमारी जन्म-जन्मकी धारणाएँ भूलने दें, तब न।

हम संसारके अगाध जलमें आकण्ठमग्न हैं।

जाड़ेका कष्ट भी है।

हम आना चाहनेपर भी नहीं आ पाती हैं।

श्यामसुन्दर! प्राणोंके प्राण! हमारा हृदय तुम्हारे सामने उन्मुक्त है।

हम तुम्हारी दासी हैं।

तुम्हारी आज्ञाओंका पालन करेंगी।

परन्तु हमें निरावरण करके अपने सामने मत बुलाओ।’ साधककी यह दशा – भगवान् को चाहना और साथ ही संसारको भी न छोड़ना, संस्कारोंमें ही उलझे रहना – मायाके परदेको बनाये रखना, बड़ी द्विविधाकी दशा है।

भगवान् यही सिखाते हैं कि ‘संस्कारशून्य होकर, निरावरण होकर, मायाका परदा हटाकर आओ; मेरे पास आओ।

अरे, तुम्हारा यह मोहका परदा तो मैंने ही छीन लिया है; तुम अब इस परदेके मोहमें क्यों पड़ी हो? यह परदा ही तो परमात्मा और जीवके बीचमें बड़ा व्यवधान है; यह हट गया, बड़ा कल्याण हुआ।

अब तुम मेरे पास आओ, तभी तुम्हारी चिरसंचित आकांक्षाएँ पूरी हो सकेंगी।’ परमात्मा श्रीकृष्णका यह आह्वान, आत्माके आत्मा परम प्रियतमके मिलनका यह मधुर आमन्त्रण भगवत्कृपासे जिसके अन्तर्देशमें प्रकट हो जाता है, वह प्रेममें निमग्न होकर सब कुछ छोड़कर, छोड़ना भी भूलकर प्रियतम श्रीकृष्णके चरणोंमें दौड़ आता है।

फिर न उसे अपने वस्त्रोंकी सुधि रहती है और न लोगोंका ध्यान! न वह जगत् को देखता है न अपनेको।

यह भगवत्प्रेमका रहस्य है।

विशुद्ध और अनन्य भगवत्प्रेममें ऐसा होता ही है।

गोपियाँ आयीं, श्रीकृष्णके चरणोंके पास मूकभावसे खड़ी हो गयीं।

उनका मुख लज्जावनत था।

यत्किञ्चत् संस्कारशेष श्रीकृष्णके पूर्ण आभिमुख्यमें प्रतिबन्ध हो रहा था।

श्रीकृष्ण मुसकराये।

उन्होंने इशारेसे कहा – ‘इतने बड़े त्यागमें यह संकोच कलंक है।

तुम तो सदा निष्कलंका हो; तुम्हें इसका भी त्याग, त्यागके भावका भी त्याग – त्यागकी स्मृतिका भी त्याग करना होगा।’ गोपियोंकी दृष्टि श्रीकृष्णके मुखकमलपर पड़ी।

दोनों हाथ अपने-आप जुड़ गये और सूर्यमण्डलमें विराजमान अपने प्रियतम श्रीकृष्णसे ही उन्होंने प्रेमकी भिक्षा माँगी।

गोपियोंके इसी सर्वस्व त्यागने, इसी पूर्ण समर्पणने, इसी उच्चतम आत्मविस्मृतिने उन्हें भगवान् श्रीकृष्णके प्रेमसे भर दिया।

वे दिव्य रसके अलौकिक अप्राकृत मधुके अनन्त समुद्रमें डूबने-उतराने लगीं।

वे सब कुछ भूल गयीं, भूलनेवालेको भी भूल गयीं, उनकी दृष्टिमें अब श्यामसुन्दर थे।

बस, केवल श्यामसुन्दर थे।

जब प्रेमी भक्त आत्मविस्मृत हो जाता है तब उसका दायित्व प्रियतम भगवान् पर होता है।

अब मर्यादारक्षाके लिये गोपियोंको तो वस्त्रकी आवश्यकता नहीं थी।

क्योंकि उन्हें जिस वस्तुकी आवश्यकता थी, वह मिल चुकी थी।

परन्तु श्रीकृष्ण अपने प्रेमीको मर्यादाच्युत नहीं होने देते।

वे स्वयं वस्त्र देते हैं और अपनी अमृतमयी वाणीके द्वारा उन्हें विस्मृतिसे जगाकर फिर जगत् में लाते हैं।

श्रीकृष्णने कहा – ‘गोपियो! तुम सती साध्वी हो।

तुम्हारा प्रेम और तुम्हारी साधना मुझसे छिपी नहीं है।

तुम्हारा संकल्प सत्य होगा।

तुम्हारा यह संकल्प – तुम्हारी यह कामना तुम्हें उस पदपर स्थित करती है, जो निस्संकल्पता और निष्कामताका है।

तुम्हारा उद्देश्य पूर्ण, तुम्हारा समर्पण पूर्ण और आगे आनेवाली शारदीय रात्रियोंमें हमारा रमण पूर्ण होगा।

भगवान् ने साधना सफल होनेकी अवधि निर्धारित कर दी।

इससे भी स्पष्ट है कि भगवान् श्रीकृष्णमें किसी भी कामविकारकी कल्पना नहीं थी।

कामी पुरुषका चित्त वस्त्रहीन स्त्रियोंको देखकर एक क्षणके लिये भी कब वशमें रह सकता है! एक बात बड़ी – विलक्षण है।

भगवान् के सम्मुख जानेके पहले जो वस्त्र समर्पणकी पूर्णतामें बाधक हो रहे थे विक्षेपका काम कर रहे थे – वही भगवान् की कृपा, प्रेम, सान्निध्य और वरदान प्राप्त होनेके पश्चात् ‘प्रसाद’-स्वरूप हो गये।

इसका कारण क्या है? इसका कारण है भगवान् का सम्बन्ध।

भगवान् ने अपने हाथसे उन वस्त्रोंको उठाया था और फिर उन्हें अपने उत्तम अंग कंधेपर रख लिया था।

नीचेके शरीरमें पहननेकी साड़ियाँ भगवान् के कंधेपर चढ़कर – उनका संस्पर्श पाकर कितनी अप्राकृत रसात्मक हो गयीं, कितनी पवित्र – कृष्णमय हो गयीं, इसका अनुमान कौन लगा सकता है।

असलमें यह संसार तभीतक बाधक और विक्षेपजनक है, जबतक यह भगवान् से सम्बन्ध और भगवान् का प्रसाद नहीं हो जाता।

उनके द्वारा प्राप्त होनेपर तो यह बन्धन ही मुक्तिस्वरूप हो जाता है।

उनके सम्पर्कमें जाकर माया शुद्ध विद्या बन जाती है।

संसार और उसके समस्त कर्म अमृतमय आनन्दरससे परिपूर्ण हो जाते हैं।

तब बन्धनका भय नहीं रहता।

कोई भी आवरण भगवान् के दर्शनसे वञ्चित नहीं रख सकता।

नरक नरक नहीं रहता, भगवान् का दर्शन होते रहनेके कारण वह वैकुण्ठ बन जाता है।

इसी स्थितिमें पहुँचकर बड़े-बड़े साधक प्राकृत पुरुषके समान आचरण करते हुए-से दीखते हैं।

भगवान् श्रीकृष्णकी अपनी होकर गोपियाँ पुनः वे ही वस्त्र धारण करती हैं अथवा श्रीकृष्ण वे ही वस्त्र धारण कराते हैं; परन्तु गोपियोंकी दृष्टिमें अब ये वस्त्र वे वस्त्र नहीं हैं; वस्तुतः वे हैं भी नहीं – अब तो ये दूसरी वस्तु हो गये हैं।

अब तो ये भगवान् के पावन प्रसाद हैं, पल-पलपर भगवान् का स्मरण करानेवाले भगवान् के परम सुन्दर प्रतीक हैं।

इसीसे उन्होंने स्वीकार भी किया।

उनकी प्रेममयी स्थिति मर्यादाके ऊपर थी, फिर भी उन्होंने भगवान् की इच्छासे मर्यादा स्वीकार की।

इस दृष्टिसे विचार करनेपर ऐसा जान पड़ता है कि भगवान् की यह चीरहरण-लीला भी अन्य लीलाओंकी भाँति उच्चतम मर्यादासे परिपूर्ण है।

भगवान् श्रीकृष्णकी लीलाओंके सम्बन्धमें केवल वे ही प्राचीन आर्षग्रन्थ प्रमाण हैं जिनमें उनकी लीलाका वर्णन हुआ है।

उनमेंसे एक भी ऐसा ग्रन्थ नहीं है, जिसमें श्रीकृष्णकी भगवत्ताका वर्णन न हो।

श्रीकृष्ण ‘स्वयं भगवान् हैं’ यही बात सर्वत्र मिलती है।

जो श्रीकृष्णको भगवान् नहीं मानते, यह स्पष्ट है कि वे उन ग्रन्थोंको भी नहीं मानते।

और जो उन ग्रन्थोंको ही प्रमाण नहीं मानते, वे उनमें वर्णित लीलाओंके आधारपर श्रीकृष्ण-चरित्रकी समीक्षा करनेका अधिकार भी नहीं रखते।

भगवान् की लीलाओंको मानवीय चरित्रके समकक्ष रखना शास्त्र-दृष्टिसे एक महान् अपराध है और उसके अनुकरणका तो सर्वथा ही निषेध है।

मानवबुद्धि – जो स्थूलताओंसे ही परिवेष्टित है – केवल जडके सम्बन्धमें ही सोच सकती है, भगवान् की दिव्य चिन्मयी लीलाके सम्बन्धमें कोई कल्पना ही नहीं कर सकती।

वह बुद्धि स्वयं ही अपना उपहास करती है, जो समस्त बुद्धियोंके प्रेरक और बुद्धियोंसे अत्यन्त परे रहनेवाले परमात्माकी दिव्य लीलाको अपनी कसौटीपर कसती है।

हृदय और बुद्धिके सर्वथा विपरीत होनेपर भी यदि थोड़ी देरके लिये मान लें कि श्रीकृष्ण भगवान् नहीं थे या उनकी यह लीला मानवी थी तो भी तर्क और युक्तिके सामने ऐसी कोई बात नहीं टिक पाती जो श्रीकृष्णके चरित्रमें लाञ्छन हो।

श्रीमद्भागवतका पारायण करनेवाले जानते हैं कि व्रजमें श्रीकृष्णने केवल ग्यारह वर्षकी अवस्थातक ही निवास किया था।

यदि रासलीलाका समय दसवाँ वर्ष मानें तो नवें वर्षमें ही चीरहरण लीला हुई थी।

इस बातकी कल्पना भी नहीं हो सकती कि आठ-नौ वर्षके बालकमें कामोत्तेजना हो सकती है।

गाँवकी गँवारिन ग्वालिनें, जहाँ वर्तमानकालकी नागरिक मनोवृत्ति नहीं पहुँच पायी है, एक आठ-नौ वर्षके बालकसे अवैध सम्बन्ध करना चाहें और उसके लिये साधना करें – यह कदापि सम्भव नहीं दीखता।

उन कुमारी गोपियोंके मनमें कलुषित वृत्ति थी, यह वर्तमान कलुषित मनोवृत्तिकी उट्टङ्कना है।

आजकल जैसे गाँवकी छोटी-छोटी लड़कियाँ ‘राम’-सा वर और ‘लक्ष्मण’-सा देवर पानेके लिये देवी-देवताओंकी पूजा करती हैं, वैसे ही उन कुमारियोंने भी परम सुन्दर, परम मधुर श्रीकृष्णको पानेके लिये देवी-पूजन और व्रत किये थे।

इसमें दोषकी कौन-सी बात है? आजकी बात निराली है।

भोगप्रधान देशोंमें तो नग्नसम्प्रदाय और नग्नस्नानके क्लब भी बने हुए हैं! उनकी दृष्टि इन्द्रिय-तृप्तितक ही सीमित है।

भारतीय मनोवृत्ति इस उत्तेजक एवं मलिन व्यापारके विरुद्ध है।

नग्नस्नान एक दोष है, जो कि पशुत्वको बढ़ानेवाला है।

शास्त्रोंमें इसका निषेध है, ‘न नग्नः स्नायात्’ – यह शास्त्रकी आज्ञा है।

श्रीकृष्ण नहीं चाहते थे कि गोपियाँ शास्त्रके विरुद्ध आचरण करें।

केवल लौकिक अनर्थ ही नहीं – भारतीय ऋषियोंका वह सिद्धान्त, जो प्रत्येक वस्तुमें पृथक्-पृथक् देवताओंका अस्तित्व मानता है, इस नग्नस्नानको देवताओंके विपरीत बतलाता है।

श्रीकृष्ण जानते थे कि इससे वरुण देवताका अपमान होता है।

गोपियाँ अपनी अभीष्ट-सिद्धिके लिये जो तपस्या कर रही थीं, उसमें उनका नग्नस्नान अनिष्ट फल देनेवाला था और इस प्रथाके प्रभातमें ही यदि इसका विरोध न कर दिया जाय तो आगे चलकर इसका विस्तार हो सकता है; इसलिये श्रीकृष्णने अलौकिक ढंगसे निषेध कर दिया।

गाँवोंकी ग्वालिनोंको इस प्रथाकी बुराई किस प्रकार समझायी जाय, इसके लिये भी श्रीकृष्णने एक मौलिक उपाय सोचा।

यदि वे गोपियोंके पास जाकर उन्हें देवतावादकी फिलासफी समझाते तो वे सरलतासे नहीं समझ सकती थीं।

उन्हें तो इस प्रथाके कारण होनेवाली विपत्तिका प्रत्यक्ष अनुभव करा देना था।

और विपत्तिका अनुभव करानेके पश्चात् उन्होंने देवताओंके अपमानकी बात भी बता दी तथा अंजलि बाँधकर क्षमा-प्रार्थनारूप प्रायश्चित्त भी करवाया।

महापुरुषोंमें उनकी बाल्यावस्थामें भी ऐसी प्रतिभा देखी जाती है।

श्रीकृष्ण आठ-नौ वर्षके थे, उनमें कामोत्तेजना नहीं हो सकती और नग्नस्नानकी कुप्रथाको नष्ट करनेके लिये उन्होंने चीरहरण किया – यह उत्तर सम्भव होनेपर भी मूलमें आये हुए ‘काम’ और ‘रमण’ शब्दोंसे कई लोग भड़क उठते हैं।

यह केवल शब्दकी पकड़ है, जिसपर महात्मालोग ध्यान नहीं देते।

श्रुतियोंमें और गीतामें भी अनेकों बार ‘काम’ ’रमण’ और ‘रति’ आदि शब्दोंका प्रयोग हुआ है; परन्तु वहाँ उनका अश्लील अर्थ नहीं होता।

गीतामें तो ‘धर्माविरुद्ध काम’ को परमात्माका स्वरूप बतलाया गया है।

महापुरुषोंका आत्मरमण, आत्ममिथुन और आत्मरति प्रसिद्ध ही है।

ऐसी स्थितिमें केवल कुछ शब्दोंको देखकर भड़कना विचारशील पुरुषोंका काम नहीं है।

जो श्रीकृष्णको केवल मनुष्य समझते हैं उन्हें रमण और रति शब्दका अर्थ केवल क्रीडा अथवा खिलवाड़ समझना चाहिये, जैसा कि व्याकरणके अनुसार ठीक है – ‘रमु क्रीडायाम्’।

दृष्टिभेदसे श्रीकृष्णकी लीला भिन्न-भिन्न रूपमें दीख पड़ती है।

अध्यात्मवादी श्रीकृष्णको आत्माके रूपमें देखते हैं और गोपियोंको वृत्तियोंके रूपमें।

वृत्तियोंका आवरण नष्ट हो जाना ही ‘चीरहरण-लीला’ है और उनका आत्मामें रम जाना ही ‘रास’ है।

इस दृष्टिसे भी समस्त लीलाओंकी संगति बैठ जाती है।

भक्तोंकी दृष्टिसे गोलोकाधिपति पूर्णतम पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्णका यह सब नित्यलीला-विलास है और अनादिकालसे अनन्तकालतक यह नित्य चलता रहता है।

कभी-कभी भक्तोंपर कृपा करके वे अपने नित्य धाम और नित्य सखा-सहचरियोंके साथ लीला-धाममें प्रकट होकर लीला करते हैं और भक्तोंके स्मरण-चिन्तन तथा आनन्दमंगलकी सामग्री प्रकट करके पुनः अन्तर्धान हो जाते हैं।

साधकोंके लिये किस प्रकार कृपा करके भगवान् अन्तर्मलको और अनादिकालसे सञ्चित संस्कारपटको विशुद्ध कर देते हैं, यह बात भी इस चीरहरण-लीलासे प्रकट होती है।

भगवान् की लीला रहस्यमयी है, उसका तत्त्व केवल भगवान् ही जानते हैं और उनकी कृपासे उनकी लीलामें प्रविष्ट भाग्यवान् भक्त कुछ-कुछ जानते हैं।

यहाँ तो शास्त्रों और संतोंकी वाणीके आधारपर कुछ लिखनेकी धृष्टता की गयी है।

– हनुमानप्रसाद पोद्दार १. स्थिभोगैः।

२. सामग्र‍यं।

३. श्रेयआचरणं सदा।


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