भागवत पुराण – दशम स्कन्ध – अध्याय – 14


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ब्रह्माजीके द्वारा भगवान् की स्तुति

ब्रह्माजीने स्तुति की – प्रभो! एकमात्र आप ही स्तुति करनेयोग्य हैं।

मैं आपके चरणोंमें नमस्कार करता हूँ।

आपका यह शरीर वर्षाकालीन मेघके समान श्यामल है, इसपर स्थिर बिजलीके समान झिलमिल-झिलमिल करता हुआ पीताम्बर शोभा पाता है, आपके गलेमें घुँघचीकी माला, कानोंमें मकराकृति कुण्डल तथा सिरपर मोरपंखोंका मुकुट है, इन सबकी कान्तिसे आपके मुखपर अनोखी छटा छिटक रही है।

वक्षःस्थलपर लटकती हुई वनमाला और नन्ही-सी हथेलीपर दही-भातका कौर।

बगलमें बेंत और सिंगी तथा कमरकी फेंटमें आपकी पहचान बतानेवाली बाँसुरी शोभा पा रही है।

आपके कमल-से सुकोमल परम सुकुमार चरण और यह गोपाल-बालकका सुमधुर वेष।

(मैं और कुछ नहीं जानता; बस, मैं तो इन्हीं चरणोंपर निछावर हूँ)।।१।।

स्वयं-प्रकाश परमात्मन्! आपका यह श्रीविग्रह भक्तजनोंकी लालसा-अभिलाषा पूर्ण करनेवाला है।

यह आपकी चिन्मयी इच्छाका मूर्तिमान् स्वरूप मुझपर आपका साक्षात् कृपा-प्रसाद है।

मुझे अनुगृहीत करनेके लिये ही आपने इसे प्रकट किया है।

कौन कहता है कि यह पंचभूतोंकी रचना है? प्रभो! यह तो अप्राकृत शुद्ध सत्त्वमय है।

मैं या और कोई समाधि लगाकर भी आपके इस सच्चिदानन्द-विग्रहकी महिमा नहीं जान सकता।

फिर आत्मा-नन्दानुभवस्वरूप साक्षात् आपकी ही महिमाको तो कोई एकाग्रमनसे भी कैसे जान सकता है।।२।।

प्रभो! जो लोग ज्ञानके लिये प्रयत्न न करके अपने स्थानमें ही स्थित रहकर केवल सत्संग करते हैं और आपके प्रेमी संत पुरुषोंके द्वारा गायी हुई आपकी लीला-कथाका, जो उन लोगोंके पास रहनेसे अपने-आप सुननेको मिलती है, शरीर, वाणी और मनसे विनयावनत होकर सेवन करते हैं – यहाँतक कि उसे ही अपना जीवन बना लेते हैं, उसके बिना जी ही नहीं सकते – प्रभो! यद्यपि आपपर त्रिलोकीमें कोई कभी विजय नहीं प्राप्त कर सकता, फिर भी वे आपपर विजय प्राप्त कर लेते हैं, आप उनके प्रेमके अधीन हो जाते हैं।।३।।

भगवन्! आपकी भक्ति सब प्रकारके कल्याणका मूलस्रोत – उद् गम है।

जो लोग उसे छोड़कर केवल ज्ञानकी प्राप्तिके लिये श्रम उठाते और दुःख भोगते हैं, उनको बस, क्लेश-ही क्लेश हाथ लगता है, और कुछ नहीं – जैसे थोथी भूसी कूटनेवालेको केवल श्रम ही मिलता है, चावल नहीं।।४।।

गुणात्मनस्तेऽपि गुणान् विमातुं हितावतीर्णस्य क ईशिरेऽस्य ।

हे अच्युत! हे अनन्त! इस लोकमें पहले भी बहुत-से योगी हो गये हैं।

जब उन्हें योगादिके द्वारा आपकी प्राप्ति न हुई, तब उन्होंने अपने लौकिक और वैदिक समस्त कर्म आपके चरणोंमें समर्पित कर दिये।

उन समर्पित कर्मोंसे तथा आपकी लीला-कथासे उन्हें आपकी भक्ति प्राप्त हुई।

उस भक्तिसे ही आपके स्वरूपका ज्ञान प्राप्त करके उन्होंने बड़ी सुगमतासे आपके परमपदकी प्राप्ति कर ली।।५।।

हे अनन्त! आपके सगुण-निर्गुण दोनों स्वरूपोंका ज्ञान कठिन होनेपर भी निर्गुण स्वरूपकी महिमा इन्द्रियोंका प्रत्याहार करके शुद्धान्तःकरणसे जानी जा सकती है।

(जाननेकी प्रक्रिया यह है कि) विशेष आकारके परित्यागपूर्वक आत्माकार अन्तःकरणका साक्षात्कार किया जाय।

यह आत्माकारता घट-पटादि रूपके समान ज्ञेय नहीं है, प्रत्युत आवरणका भंगमात्र है।

यह साक्षात्कार ‘यह ब्रह्म है’, ‘मैं ब्रह्मको जानता हूँ’ इस प्रकार नहीं, किन्तु स्वयंप्रकाश रूपसे ही होता है।।६।।

परन्तु भगवन्! जिन समर्थ पुरुषोंने अनेक जन्मोंतक परिश्रम करके पृथ्वीका एक-एक परमाणु, आकाशके हिमकण (ओसकी बूँदें) तथा उसमें चमकनेवाले नक्षत्र एवं तारोंतकको गिन डाला है – उनमें भी भला, ऐसा कौन हो सकता है जो आपके सगुण स्वरूपके अनन्त गुणोंको गिन सके? प्रभो! आप केवल संसारके कल्याणके लिये ही अवतीर्ण हुए हैं।

सो भगवन्! आपकी महिमाका ज्ञान तो बड़ा ही कठिन है।।७।।

इसलिये जो पुरुष क्षण-क्षणपर बड़ी उत्सुकतासे आपकी कृपाका ही भलीभाँति अनुभव करता रहता है और प्रारब्धके अनुसार जो कुछ सुख या दुःख प्राप्त होता है उसे निर्विकार मनसे भोग लेता है, एवं जो प्रेमपूर्ण हृदय, गद् गद वाणी और पुलकित शरीरसे अपनेको आपके चरणोंमें समर्पित करता रहता है – इस प्रकार जीवन व्यतीत करनेवाला पुरुष ठीक वैसे ही आपके परम पदका अधिकारी हो जाता है, जैसे अपने पिताकी सम्पत्तिका पुत्र!।।८।।

प्रभो! मेरी कुटिलता तो देखिये।

आप अनन्त आदिपुरुष परमात्मा हैं और मेरे-जैसे बड़े-बड़े मायावी भी आपकी मायाके चक्रमें हैं।

फिर भी मैंने आपपर अपनी माया फैलाकर अपना ऐश्वर्य देखना चाहा! प्रभो मैं आपके सामने हूँ ही क्या।

क्या आगके सामने चिनगारीकी भी कुछ गिनती है?।।९।।

भगवन्! मैं रजोगुणसे उत्पन्न हुआ हूँ।

आपके स्वरूपको मैं ठीक-ठीक नहीं जानता।

इसीसे अपनेको आपसे अलग संसारका स्वामी माने बैठा था।

मैं अजन्मा जगत्कर्ता हूँ – इस मायाकृत मोहके घने अन्धकारसे मैं अन्धा हो रहा था।

इसलिये आप यह समझकर कि ‘यह मेरे ही अधीन है – मेरा भृत्य है, इसपर कृपा करनी चाहिये’, मेरा अपराध क्षमा कीजिये।।१०।।

मेरे स्वामी! प्रकृति, महत्तत्त्व, अहंकार, आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वीरूप आवरणोंसे घिरा हुआ यह ब्रह्माण्ड ही मेरा शरीर है।

और आपके एक-एक रोमके छिद्रमें ऐसे-ऐसे अगणित ब्रह्माण्ड उसी प्रकार उड़ते-पड़ते रहते हैं, जैसे झरोखेकी जालीमेंसे आनेवाली सूर्यकी किरणोंमें रजके छोटे-छोटे परमाणु उड़ते हुए दिखायी पड़ते हैं।

कहाँ अपने परिमाणसे साढ़े तीन हाथके शरीरवाला अत्यन्त क्षुद्र मैं, और कहाँ आपकी अनन्त महिमा।।११।।

वृत्तियोंकी पकड़में न आनेवाले परमात्मन्! जब बच्चा माताके पेटमें रहता है, तब अज्ञानवश अपने हाथ-पैर पीटता है; परन्तु क्या माता उसे अपराध समझती है या उसके लिये वह कोई अपराध होता है? ‘है’ और ‘नहीं है’ – इन शब्दोंसे कही जानेवाली कोई भी वस्तु ऐसी है क्या, जो आपकी कोखके भीतर न हो?।।१२।।

श्रुतियाँ कहती हैं कि जिस समय तीनों लोक प्रलयकालीन जलमें लीन थे, उस समय उस जलमें स्थित श्रीनारायणके नाभिकमलसे ब्रह्माका जन्म हुआ।

उनका यह कहना किसी प्रकार असत्य नहीं हो सकता।

तब आप ही बतलाइये, प्रभो! क्या मैं आपका पुत्र नहीं हूँ?।।१३।।

प्रभो! आप समस्त जीवोंके आत्मा हैं।

इसलिये आप नारायण (नार – जीव और अयन – आश्रय) हैं।

आप समस्त जगत् के और जीवोंके अधीश्वर हैं, इसलिये आप नारायण (नार – जीव और अयन – प्रवर्तक) हैं।

आप समस्त लोकोंके साक्षी हैं, इसलिये भी नारायण (नार – जीव और अयन – जाननेवाला) हैं।

नरसे उत्पन्न होनेवाले जलमें निवास करनेके कारण जिन्हें नारायण (नार – जल और अयन – निवासस्थान) कहा जाता है, वे भी आपके एक अंश ही हैं।

वह अंशरूपसे दीखना भी सत्य नहीं है, आपकी माया ही है।।१४।।

भगवन्! यदि आपका वह विराट् स्वरूप सचमुच उस समय जलमें ही था तो मैंने उसी समय उसे क्यों नहीं देखा, जब कि मैं कमलनालके मार्गसे उसे सौ वर्षतक जलमें ढूँढ़ता रहा? फिर मैंने जब तपस्या की, तब उसी समय मेरे हृदयमें उसका दर्शन कैसे हो गया? और फिर कुछ ही क्षणोंमें वह पुनः क्यों नहीं दीखा, अन्तर्धान क्यों हो गया?।।१५।।

मायाका नाश करनेवाले प्रभो! दूरकी बात कौन करे – अभी इसी अवतारमें आपने इस बाहर दीखनेवाले जगत् को अपने पेटमें ही दिखला दिया, जिसे देखकर माता यशोदा चकित हो गयी थीं।

इससे यही तो सिद्ध होता है कि यह सम्पूर्ण विश्व केवल आपकी माया-ही-माया है।।१६।।

जब आपके सहित यह सम्पूर्ण विश्व जैसा बाहर दीखता है वैसा ही आपके उदरमें भी दीखा, तब क्या यह सब आपकी मायाके बिना ही आपमें प्रतीत हुआ? अवश्य ही आपकी लीला है।।१७।।

उस दिनकी बात जाने दीजिये, आजकी ही लीजिये।

क्या आज आपने मेरे सामने अपने अतिरिक्त सम्पूर्ण विश्वको अपनी मायाका खेल नहीं दिखलाया है? पहले आप अकेले थे।

फिर सम्पूर्ण ग्वालबाल, बछड़े और छड़ी-छीके भी आप ही हो गये।

उसके बाद मैंने देखा कि आपके वे सब रूप चतुर्भुज हैं और मेरे सहित सब-के-सब तत्त्व उनकी सेवा कर रहे हैं।

आपने अलग-अलग उतने ही ब्रह्माण्डोंका रूप भी धारण कर लिया था, परन्तु अब आप केवल अपरिमित अद्वितीय ब्रह्मरूपसे ही शेष रह गये हैं।।१८।।

एकस्त्वमात्मा पुरुषः पुराणः सत्यः स्वयंज्योतिरनन्त आद्यः ।

जो लोग अज्ञानवश आपके स्वरूपको नहीं जानते, उन्हींको आप प्रकृतिमें स्थित जीवके रूपसे प्रतीत होते हैं और उनपर अपनी मायाका परदा डालकर सृष्टिके समय मेरे (ब्रह्मा) रूपसे, पालनके समय अपने (विष्णु) रूपसे और संहारके समय? रुद्रके रूपमें प्रतीत होते हैं।।१९।।

प्रभो! आप सारे जगत् के स्वामी और विधाता हैं।

अजन्मा होनेपर भी आप देवता, ऋषि, मनुष्य, पशु-पक्षी और जलचर आदि योनियोंमें अवतार ग्रहण करते हैं – इसलिये कि इन रूपोंके द्वारा दुष्ट पुरुषोंका घमंड तोड़ दें और सत्पुरुषोंपर अनुग्रह करें।।२०।।

भगवन्! आप अनन्त परमात्मा और योगेश्वर हैं।

जिस समय आप अपनी योगमायाका विस्तार करके लीला करने लगते हैं, उस समय त्रिलोकीमें ऐसा कौन है, जो यह जान सके कि आपकी लीला कहाँ, किसलिये, कब और कितनी होती है।।२१।।

इसलिये यह सम्पूर्ण जगत् स्वप्नके समान असत्य, अज्ञानरूप और दुःख-पर-दुःख देनेवाला है।

आप परमानन्द, परम ज्ञानस्वरूप एवं अनन्त हैं।

यह मायासे उत्पन्न एवं विलीन होनेपर भी आपमें आपकी सत्तासे सत्यके समान प्रतीत होता है।।२२।।

प्रभो! आप ही एकमात्र सत्य हैं।

क्योंकि आप सबके आत्मा जो हैं।

आप पुराणपुरुष होनेके कारण समस्त जन्मादि विकारोंसे रहित हैं।

आप स्वयंप्रकाश हैं; इसलिये देश, काल और वस्तु – जो परप्रकाश हैं – किसी प्रकार आपको सीमित नहीं कर सकते।

आप जनके भी आदि प्रकाशक हैं।

आप अविनाशी होनेके कारण नित्य हैं।

आपका आनन्द अखण्डित है।

आपमें न तो किसी प्रकारका मल है और न अभाव।

आप पूर्ण, एक हैं।

समस्त उपाधियोंसे मुक्त होनेके कारण आप अमृतस्वरूप हैं।।२३।।

आपका यह ऐसा स्वरूप समस्त जीवोंका ही अपना स्वरूप है।

जो गुरुरूप सूर्यसे तत्त्वज्ञानरूप दिव्य दृष्टि प्राप्त करके उससे आपको अपने स्वरूपके रूपमें साक्षात्कार कर लेते हैं, वे इस झूठे संसार-सागरको मानो पार कर जाते हैं।

(संसार-सागरके झूठा होनेके कारण इससे पार जाना भी अविचार-दशाकी दृष्टिसे ही है)।।२४।।

जो पुरुष परमात्माको आत्माके रूपमें नहीं जानते, उन्हें उस अज्ञानके कारण ही इस नामरूपात्मक निखिल प्रणंचकी उत्पत्तिका भ्रम हो जाता है।

किन्तु ज्ञान होते ही इसका आत्यन्तिक प्रलय हो जाता है।

जैसे रस्सीमें भ्रमके कारण ही साँपकी प्रतीति होती है और भ्रमके निवृत्त होते ही उसकी निवृत्ति हो जाती है।।२५।।

संसार-सम्बन्धी बन्धन और उससे मोक्ष – ये दोनों ही नाम अज्ञानसे कल्पित हैं।

वास्तवमें ये अज्ञानके ही दो नाम हैं।

ये सत्य और ज्ञानस्वरूप परमात्मासे भिन्न अस्तित्व नहीं रखते।

जैसे सूर्यमें दिन और रातका भेद नहीं है, वैसे ही विचार करनेपर अखण्ड चित्स्वरूप केवल शुद्ध आत्मतत्त्वमें न बन्धन है और न तो मोक्ष।।२६।।

भगवन्! कितने आश्चर्यकी बात है कि आप हैं अपने आत्मा, पर लोग आपको पराया मानते हैं।

और शरीर आदि हैं पराये, किन्तु उनको आत्मा मान बैठते हैं।

और इसके बाद आपको कहीं अलग ढूँढ़ने लगते हैं।

भला, अज्ञानी जीवोंका यह कितना बड़ा अज्ञान है।।२७।।

हे अनन्त! आप तो सबके अन्तःकरणमें ही विराजमान हैं।

इसलिये सन्तलोग आपके अतिरिक्त जो कुछ प्रतीत हो रहा है, उसका परित्याग करते हुए अपने भीतर ही आपको ढूँढ़ते हैं।

क्योंकि यद्यपि रस्सीमें साँप नहीं है, फिर भी उस प्रतीयमान साँपको मिथ्या निश्चय किये बिना भला, कोई सत्पुरुष सच्ची रस्सीको कैसे जान सकता है?।।२८।।

अपने भक्तजनोंके हृदयमें स्वयं स्फुरित होनेवाले भगवन्! आपके ज्ञानका स्वरूप और महिमा ऐसी ही है, उससे अज्ञानकल्पित जगत् का नाश हो जाता है।

फिर भी जो पुरुष आपके युगल चरणकमलोंका तनिक-सा भी कृपा-प्रसाद प्राप्त कर लेता है, उससे अनुगृहीत हो जाता है – वही आपकी सच्चिदानन्दमयी महिमाका तत्त्व जान सकता है।

दूसरा कोई भी ज्ञान-वैराग्यादि साधनरूप अपने प्रयत्नसे बहुत कालतक कितना भी अनुसन्धान करता रहे, वह आपकी महिमाका यथार्थ ज्ञान नहीं प्राप्त कर सकता।।२९।।

इसलिये भगवन्! मुझे इस जन्ममें, दूसरे जन्ममें अथवा किसी पशु-पक्षी आदिके जन्ममें भी ऐसा सौभाग्य प्राप्त हो कि मैं आपके दासोंमेंसे कोई एक दास हो जाऊँ और फिर आपके चरणकमलोंकी सेवा करूँ।।३०।।

मेरे स्वामी! जगत् के बड़े-बड़े यज्ञ सृष्टिके प्रारम्भसे लेकर अबतक आपको पूर्णतः तृप्त न कर सके।

परन्तु आपने व्रजकी गायों और ग्वालिनोंके बछड़े एवं बालक बनकर उनके स्तनोंका अमृत-सा दूध बड़े उमंगसे पिया है।

वास्तवमें उन्हींका जीवन सफल है, वे ही अत्यन्त धन्य हैं।।३१।।

अहो, नन्द आदि व्रजवासी गोपोंके धन्य भाग्य हैं।

वास्तवमें उनका अहोभाग्य है।

क्योंकि परमानन्दस्वरूप सनातन परिपूर्ण ब्रह्म आप उनके अपने सगे-सम्बन्धी और सुहृद् हैं।।३२।।

हे अच्युत! इन व्रजवासियोंके सौभाग्यकी महिमा तो अलग रही – मन आदि ग्यारह इन्द्रियोंके अधिष्ठातृदेवताके रूपमें रहनेवाले महादेव आदि हम लोग बड़े ही भाग्यवान् हैं।

क्योंकि इन व्रजवासियोंकी मन आदि ग्यारह इन्द्रियोंको प्याले बनाकर हम आपके चरणकमलोंका अमृतसे भी मीठा, मदिरासे भी मादक मधुर मकरन्दरस पान करते रहते हैं।

जब उसका एक-एक इन्द्रियसे पान करके हम धन्य-धन्य हो रहे हैं, तब समस्त इन्द्रियोंसे उसका सेवन करनेवाले व्रजवासियोंकी तो बात ही क्या है।।३३।।

प्रभो! इस व्रजभूमिके किसी वनमें और विशेष करके गोकुलमें किसी भी योनिमें जन्म हो जाय, यही हमारे लिये बड़े सौभाग्यकी बात होगी! क्योंकि यहाँ जन्म हो जानेपर आपके किसी-न-किसी प्रेमीके चरणोंकी धूलि अपने ऊपर पड़ ही जायगी।

प्रभो! आपके प्रेमी व्रजवासियोंका सम्पूर्ण जीवन आपका ही जीवन है।

आप ही उनके जीवनके एकमात्र सर्वस्व हैं।

इसलिये उनके चरणोंकी धूलि मिलना आपके ही चरणोंकी धूलि मिलना है और आपके चरणोंकी धूलिको तो श्रुतियाँ भी अनादि कालसे अबतक ढूँढ़ ही रही हैं।।३४।।

देवताओंके भी आराध्यदेव प्रभो! इन व्रजवासियोंको इनकी सेवाके बदलेमें आप क्या फल देंगे? सम्पूर्ण फलोंके फलस्वरूप! आपसे बढ़कर और कोई फल तो है ही नहीं, यह सोचकर मेरा चित्त मोहित हो रहा है।

आप उन्हें अपना स्वरूप भी देकर उऋण नहीं हो सकते।

क्योंकि आपके स्वरूपको तो उस पूतनाने भी अपने सम्बन्धियों – अघासुर, बकासुर आदिके साथ प्राप्त कर लिया, जिसका केवल वेष ही साध्वी स्त्रीका था, पर जो हृदयसे महान् क्रूर थी।

फिर, जिन्होंने अपने घर, धन, स्वजन, प्रिय, शरीर, पुत्र, प्राण और मन – सब कुछ आपके ही चरणोंमें समर्पित कर दिया है, जिनका सब कुछ आपके ही लिये है, उन व्रजवासियोंको भी वही फल देकर आप कैसे उऋण हो सकते हैं।।३५।।

सच्चिदानन्दस्वरूप श्यामसुन्दर! तभीतक राग-द्वेष आदि दोष चोरोंके समान सर्वस्व अपहरण करते रहते हैं, तभीतक घर और उसके सम्बन्धी कैदकी तरह सम्बन्धके बन्धनोंमें बाँध रखते हैं और तभीतक मोह पैरकी बेड़ियोंकी तरह जकड़े रखता है – जबतक जीव आपका नहीं हो जाता।।३६।।

प्रभो! आप विश्वके बखेड़ेसे सर्वथा रहित हैं, फिर भी अपने शरणागत भक्तजनोंको अनन्त आनन्द वितरण करनेके लिये पृथ्वीमें अवतार लेकर विश्वके समान ही लीला-विलासका विस्तार करते हैं।।३७।।

मेरे स्वामी! बहूत कहनेकी आवश्यकता नहीं – जो लोग आपकी महिमा जानते हैं, वे जानते रहें; मेरे मन, वाणी और शरीर तो आपकी महिमा जाननेमें सर्वथा असमर्थ हैं।।३८।।

सच्चिदानन्दस्वरूप श्रीकृष्ण! आप सबके साक्षी हैं।

इसलिये आप सब कुछ जानते हैं।

आप समस्त जगत् के स्वामी हैं।

यह सम्पूर्ण प्रपंच आपमें ही स्थित है।

आपसे मैं और क्या कहूँ? अब आप मुझे स्वीकार कीजिये।

मुझे अपने लोकमें जानेकी आज्ञा दीजिये।।३९।।

सबके मन-प्राणको अपनी रूप-माधुरीसे आकर्षित करनेवाले श्यामसुन्दर! आप यदुवंशरूपी कमलको विकसित करनेवाले सूर्य हैं।

प्रभो! पृथ्वी, देवता, ब्राह्मण और पशुरूप समुद्रकी अभिवृद्धि करनेवाले चन्द्रमा भी आप ही हैं।

आप पाखण्डियोंके धर्मरूप रात्रिका घोर अन्धकार नष्ट करनेके लिये सूर्य और चन्द्रमा दोनोंके ही समान हैं।

पृथ्वीपर रहनेवाले राक्षसोंके नष्ट करनेवाले आप चन्द्रमा, सूर्य आदि समस्त देवताओंके भी परम पूजनीय हैं।

भगवन्! मैं अपने जीवनभर, महाकल्पपर्यन्त आपको नमस्कार ही करता रहूँ।।४०।।

श्रीशुकदेवजी कहते हैं – परीक्षित्! संसारके रचयिता ब्रह्माजीने इस प्रकार भगवान् श्रीकृष्णकी स्तुति की।

इसके बाद उन्होंने तीन बार परिक्रमा करके उनके चरणोंमें प्रणाम किया और फिर अपने गन्तव्य स्थान सत्यलोकमें चले गये।।४१।।

ब्रह्माजीने बछड़ों और ग्वालबालोंको पहले ही यथास्थान पहुँचा दिया था।

भगवान् श्रीकृष्णने ब्रह्माजीको विदा कर दिया और बछड़ोंको लेकर यमुनाजीके पुलिनपर आये, जहाँ वे अपने सखा ग्वालबालोंको पहले छोड़ गये थे।।४२।।

परीक्षित्! अपने जीवनसर्वस्व – प्राणवल्लभ श्रीकृष्णके वियोगमें यद्यपि एक वर्ष बीत गया था, तथापि उन ग्वालबालोंको वह समय आधे क्षणके समान जान पड़ा।

क्यों न हो, वे भगवान् की विश्व-विमोहिनी योगमायासे मोहित जो हो गये थे।।४३।।

जगत् के सभी जीव उसी मायासे मोहित होकर शास्त्र और आचार्योंके बार-बार समझानेपर भी अपने आत्माको निरन्तर भूले हुए हैं।

वास्तवमें उस मायाकी ऐसी ही शक्ति है।

भला, उससे मोहित होकर जीव यहाँ क्या-क्या नहीं भूल जाते हैं?।।४४।।

परीक्षित्! भगवान् श्रीकृष्णको देखते ही ग्वालबालोंने बड़ी उतावलीसे कहा – ‘भाई! तुम भले आये।

स्वागत है, स्वागत! अभी तो हमने तुम्हारे बिना एक कौर भी नहीं खाया है।

आओ, इधर आओ; आनन्दसे भोजन करो।।४५।।

तब हँसते हुए भगवान् ने ग्वालबालोंके साथ भोजन किया और उन्हें अघासुरके शरीरका ढाँचा दिखाते हुए वनसे व्रजमें लौट आये।।४६।।

श्रीकृष्णके सिरपर सोरपंखका मनोहर मुकुट और घुँघराले बालोंमें सुन्दर-सुन्दर महँ-महँ महँकते हुए पुष्प गुँथ रहे थे।

नयी-नयी रंगीन धातुओंसे श्याम शरीरपर चित्रकारी की हुई थी।

वे चलते समय रास्तेमें उच्च स्वरसे कभी बाँसुरी, कभी पत्ते और कभी सिंगी बजाकर वाद्योत्सवमें मग्न हो रहे हैं।

पीछे-पीछे ग्वालबाल उनकी लोकपावन कीर्तिका गान करते जा रहे हैं।

कभी वे नाम ले-लेकर अपने बछड़ोंको पुकारते, तो कभी उनके साथ लाड़-लड़ाने लगते।

मार्गके दोनों ओर गोपियाँ खड़ी हैं; जब वे कभी तिरछे नेत्रोंसे उनकी नजरमें नजर मिला देते हैं, तब गोपियाँ आनन्द-मुग्ध हो जाती हैं।

इस प्रकार भगवान् श्रीकृष्णने गोष्ठमें प्रवेश कियो।।४७।।

परीक्षित्! उसी दिन बालकोंने व्रजमें जाकर कहा कि ‘आज यशोदा मैयाके लाड़ले नन्दनन्दनने वनमें एक बड़ा भारी अजगर मार डाला है और उससे हमलोगोंकी रक्षा की है’।।४८।।

राजा परीक्षित् ने कहा – ब्रह्मन्! व्रजवासियोंके लिये श्रीकृष्ण अपने पुत्र नहीं थे, दूसरेके पुत्र थे।

फिर उनका श्रीकृष्णके प्रति इतना प्रेम कैसे हुआ? ऐसा प्रेम तो उनका अपने बालकोंपर भी पहले कभी नहीं हुआ था! आप कृपा करके बतलाइये, इसका क्या कारण है?।।४९।।

श्रीशुकदेवजी कहते हैं – राजन्! संसारके सभी प्राणी अपने आत्मासे ही सबसे बढ़कर प्रेम करते हैं।

पुत्रसे, धनसे या और किसीसे जो प्रेम होता है – वह तो इसलिये कि वे वस्तुएँ अपने आत्माको प्रिय लगती हैं।।५०।।

राजेन्द्र! यही कारण है कि सभी प्राणियोंका अपने आत्माके प्रति जैसा प्रेम होता है, वैसा अपने कहलानेवाले पुत्र, धन और गृह आदिमें नहीं होता।।५१।।

नृपश्रेष्ठ! जो लोग देहको ही आत्मा मानते हैं, वे भी अपने शरीरसे जितना प्रेम करते हैं, उतना प्रेम शरीरके सम्बन्धी पुत्र-मित्र आदिसे नहीं करते।।५२।।

जब विचारके द्वारा यह मालूम हो जाता है कि ‘यह शरीर मैं नहीं हूँ, यह शरीर मेरा है’ तब इस शरीरसे भी आत्माके समान प्रेम नहीं रहता।

यही कारण है कि इस देहके जीर्ण-शीर्ण हो जानेपर भी जीनेकी आशा प्रबल रूपसे बनी रहती है।।५३।।

इससे यह बात सिद्ध होती है कि सभी प्राणी अपने आत्मासे ही सबसे बढ़कर प्रेम करते हैं और उसीके लिये इस सारे चराचर जगत् से भी प्रेम करते हैं।।५४।।

इन श्रीकृष्णको ही तुम सब आत्माओंका आत्मा समझो।

संसारके कल्याणके लिये ही योगमायाका आश्रय लेकर वे यहाँ देहधारीके समान जान पड़ते हैं।।५५।।

जो लोग भगवान् श्रीकृष्णके वास्तविक स्वरूपको जानते हैं, उनके लिये तो इस जगत् में जो कुछ भी चराचर पदार्थ हैं, अथवा इससे परे परमात्मा, ब्रह्म, नारायण आदि जो भगवत्स्वरूप हैं, सभी श्रीकृष्णस्वरूप ही हैं।

श्रीकृष्णके अतिरिक्त और कोई प्राकृत-अप्राकृत वस्तु है ही नहीं।।५६।।

सभी वस्तुओंका अन्तिम रूप अपने कारणमें स्थित होता है।

उस कारणके भी परम कारण हैं भगवान् श्रीकृष्ण।

तब भला बताओ, किस वस्तुको श्रीकृष्णसे भिन्न बतलायें।।५७।।

जिन्होंने पुण्यकीर्ति मुकुन्द मुरारीके पदपल्लवकी नौकाका आश्रय लिया है, जो कि सत्पुरुषोंका सर्वस्व है, उनके लिये यह भवसागर बछड़ेके खुरके गढ़ेके समान है।

उन्हें परमपदकी प्राप्ति हो जाती है और उनके लिये विपत्तियोंका निवासस्थान – यह संसार नहीं रहता।।५८।।

परीक्षित्! तुमने मुझसे पूछा था कि भगवान् के पाँचवें वर्षकी लीला ग्वालबालोंने छठे वर्षमें कैसे कही, उसका सारा रहस्य मैंने तुम्हें बतला दिया।।५९।।

भगवान् श्रीकृष्णकी ग्वालबालोंके साथ वनक्रीड़ा, अघासुरको मारना, हरी-हरी घाससे युक्त भूमिपर बैठकर भोजन करना, अप्राकृतरूपधारी बछड़ों और ग्वालबालोंका प्रकट होना और ब्रह्माजीके द्वारा की हुई इस महान् स्तुतिको जो मनुष्य सुनता और कहता है – उस-उसको धर्म, अर्थ, काम और मोक्षकी प्राप्ति हो जाती है।।६०।।

परीक्षित्! इस प्रकार श्रीकृष्ण और बलरामने कुमार-अवस्थाके अनुरूप आँखमिचौनी, सेतु-बन्धन, बन्दरोंकी भाँति उछलना-कूदना आदि अनेकों लीलाएँ करके अपनी कुमार-अवस्था व्रजमें ही त्याग दी।।६१।।

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
दशमस्कन्धे पूर्वार्धे ब्रह्मस्तुतिर्नाम चतुर्दशोऽध्यायः।।१४।।


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