भागवत पुराण – षष्ठ स्कन्ध – अध्याय – 7


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बृहस्पतिजीके द्वारा देवताओंका त्याग और विश्वरूपका देवगुरुके रूपमें वरण

राजा परीक्षित् ने पूछा – भगवन्! देवाचार्य बृहस्पतिजीने अपने प्रिय शिष्य देवताओंको किस कारण त्याग दिया था? देवताओंने अपने गुरुदेवका ऐसा कौन-सा अपराध कर दिया था, आप कृपा करके मुझे बतलाइये।।१।।

श्रीशुकदेवजीने कहा – राजन्! इन्द्रको त्रिलोकीका ऐश्वर्य पाकर घमण्ड हो गया था।

इस घमण्डके कारण वे धर्ममर्यादाका, सदाचारका उल्लंघन करने लगे थे।

एक दिनकी बात है, वे भरी सभामें अपनी पत्नी शचीके साथ ऊँचे सिंहासनपर बैठे हुए थे, उनचास मरुद् गण, आठ वसु, ग्यारह रुद्र, आदित्य, ऋभुगण, विश्वेदेव, साध्यगण और दोनों अश्विनीकुमार उनकी सेवामें उपस्थित थे।

सिद्ध, चारण, गन्धर्व, ब्रह्मवादी मुनिगण, विद्याधर, अप्सराएँ, किन्नर, पक्षी और नाग उनकी सेवा और स्तुति कर रहे थे।

सब ओर ललित स्वरसे देवराज इन्द्रकी कीर्तिका गान हो रहा था।

ऊपरकी ओर चन्द्रमण्डलके समान सुन्दर श्वेत छत्र शोभायमान था।

चँवर, पंखे आदि महाराजोचित सामग्रियाँ यथास्थान सुसज्जित थीं।

इस दिव्य समाजमें देवराज बड़े ही सुशोभित हो रहे थे।।२-६।।

इसी समय देवराज इन्द्र और समस्त देवताओंके परम आचार्य बृहस्पतिजी वहाँ आये।

उन्हें सुर-असुर सभी नमस्कार करते हैं।

इन्द्रने देख लिया कि वे सभामें आये हैं, परन्तु वे न तो खड़े हुए और न आसन आदि देकर गुरुका सत्कार ही किया।

यहाँतक कि वे अपने आसनसे हिले-डुलेतक नहीं।।७-८।।

त्रिकालदर्शी समर्थ बृहस्पतिजीने देखा कि यह ऐश्वर्यमदका दोष है! बस, वे झटपट वहाँसे निकलकर चुपचाप अपने घर चले आये।।९।।

परीक्षित्! उसी समय देवराज इन्द्रको चेत हुआ।

वे समझ गये कि मैंने अपने गुरुदेवकी अवहेलना की है।

वे भरी सभामें स्वयं ही अपनी निन्दा करने लगे।।१०।।

‘हाय-हाय! बड़े खेदकी बात है कि भरी सभामें मूर्खतावश मैंने ऐश्वर्यके नशेमें चूर होकर अपने गुरुदेवका तिरस्कार कर दिया।

सचमुच मेरा यह कर्म अत्यन्त निन्दनीय है।।११।।

भला, कौन विवेकी पुरुष इस स्वर्गकी राजलक्ष्मीको पानेकी इच्छा करेगा? देखो तो सही, आज इसीने मुझ देवराजको भी असुरोंके-से रजोगुणी भावसे भर दिया।।१२।।

जो लोग यह कहते हैं कि सार्वभौम राजसिंहासनपर बैठा हुआ सम्राट् किसीके आनेपर राजसिंहासनसे न उठे, वे धर्मका वास्तविक स्वरूप नहीं जानते।।१३।।

ऐसा उपदेश करनेवाले कुमार्गकी ओर ले जानेवाले हैं।

वे स्वयं घोर नरकमें गिरते हैं।

उनकी बातपर जो लोग विश्वास करते हैं, वे पत्थरकी नावकी तरह डूब जाते हैं।।१४।।

मेरे गुरुदेव बृहस्पतिजी ज्ञानके अथाह समुद्र हैं।

मैंने बड़ी शठता की।

अब मैं उनके चरणोंमें अपना माथा टेककर उन्हें मनाऊँगा’।।१५।।

परीक्षित्! देवराज इन्द्र इस प्रकार सोच ही रहे थे कि भगवान् बृहस्पतिजी अपने घरसे निकलकर योगबलसे अन्तर्धान हो गये।।१६।।

देवराज इन्द्रने अपने गुरुदेवको बहुत ढूँढ़ा-ढुँढ़वाया; परन्तु उनका कहीं पता न चला।

तब वे गुरुके बिना अपनेको सुरक्षित न समझकर देवताओंके साथ अपनी बुद्धिके अनुसार स्वर्गकी रक्षाका उपाय सोचने लगे, परन्तु वे कुछ भी सोच न सके! उनका चित्त अशान्त ही बना रहा।।१७।।

परीक्षित्! दैत्योंको भी देवगुरु बृहस्पति और देवराज इन्द्रकी अनबनका पता लग गया।

तब उन मदोन्मत्त और आततायी असुरोंने अपने गुरु शुक्राचार्यके आदेशानुसार देवताओंपर विजय पानेके लिये धावा बोल दिया।।१८।।

उन्होंने देवताओंपर इतने तीखे-तीखे बाणोंकी वर्षा की कि उनके मस्तक, जंघा, बाहु आदि अंग कट-कटकर गिरने लगे।

तब इन्द्रके साथ सभी देवता सिर झुकाकर ब्रह्माजीकी शरणमें गये।।१९।।

स्वयम्भू एवं समर्थ ब्रह्माजीने देखा कि देवताओंकी तो सचमुच बड़ी दुर्दशा हो रही है।

अतः उनका हृदय अत्यन्त करुणासे भर गया।

वे देवताओंको धीरज बँधाते कहने लगे।।२०।।

ब्रह्माजीने कहा – देवताओ! यह बड़े खेदकी बात है।

सचमुच तुमलोगोंने बहुत बुरा काम किया।

हरे, हरे! तुमलोगोंने ऐश्वर्यके मदसे अंधे होकर ब्रह्मज्ञानी, वेदज्ञ एवं संयमी ब्राह्मणका सत्कार नहीं किया।।२१।।

देवताओ! तुम्हारी उसी अनीतिका यह फल है कि आज समृद्धिशाली होनेपर भी तुम्हें अपने निर्बल शत्रुओंके सामने नीचा देखना पड़ा।।२२।।

देवराज! देखो, तुम्हारे शत्रु भी पहले अपने गुरुदेव शुक्राचार्यका तिरस्कार करनेके कारण अत्यन्त निर्बल हो गये थे, परन्तु अब भक्तिभावसे उनकी आराधना करके वे फिर धन-जनसे सम्पन्न हो गये हैं।

देवताओ! मुझे तो ऐसा मालूम पड़ रहा है कि शुक्राचार्यको अपना आराध्यदेव माननेवाले ये दैत्यलोग कुछ दिनोंमें मेरा ब्रह्मलोक भी छीन लेंगे।।२३।।

भृगुवंशियोंने इन्हें अर्थशास्त्रकी पूरी-पूरी शिक्षा दे रखी है।

ये जो कुछ करना चाहते हैं, उसका भेद तुमलोगोंको नहीं मिल पाता।

उनकी सलाह बहुत गुप्त होती है।

ऐसी स्थितिमें वे स्वर्गको तो समझते ही क्या हैं, वे चाहे जिस लोकको जीत सकते हैं।

सच है, जो श्रेष्ठ मनुष्य ब्राह्मण, गोविन्द और गौओंको अपना सर्वस्व मानते हैं और जिनपर उनकी कृपा रहती है, उनका कभी अमंगल नहीं होता।।२४।।

इसलिये अब तुमलोग शीघ्र ही त्वष्टाके पुत्र विश्वरूपके पास जाओ और उन्हींकी सेवा करो।

वे सच्चे ब्राह्मण, तपस्वी और संयमी हैं।

यदि तुमलोग उनके असुरोंके प्रति प्रेमको क्षमा कर सकोगे और उनका सम्मान करोगे, तो वे तुम्हारा काम बना देंगे।।२५।।

श्रीशुकदेवजी कहते हैं – परीक्षित्! जब ब्रह्माजीने देवताओंसे इस प्रकार कहा, तब उनकी चिन्ता दूर हो गयी।

वे त्वष्टाके पुत्र विश्वरूप ऋषिके पास गये और उन्हें हृदयसे लगाकर यों कहने लगे।।२६।।

देवताओंने कहा – बेटा विश्वरूप! तुम्हारा कल्याण हो।

हम तुम्हारे आश्रमपर अतिथिके रूपमें आये हैं।

हम एक प्रकारसे तुम्हारे पितर हैं।

इसलिये तुम हमलोगोंकी समयोचित अभिलाषा पूर्ण करो।।२७।।

अकिञ्चनानां हि धनं शिलोञ्छनं तेनेह निर्वर्तितसाधुसत्क्रियः ।

जिन्हें सन्तान हो गयी हो, उन सत्पुत्रोंका भी सबसे बड़ा धर्म यही है कि वे अपने पिता तथा अन्य गुरुजनोंकी सेवा करें।

फिर जो ब्रह्मचारी हैं, उनके लिये तो कहना ही क्या है।।२८।।

वत्स! आचार्य वेदकी, पिता ब्रह्माजीकी, भाई इन्द्रकी और माता साक्षात् पृथ्वीकी मूर्ति होती है।।२९।।

(इसी प्रकार) बहिन दयाकी, अतिथि धर्मकी, अभ्यागत अग्निकी और जगत् के सभी प्राणी अपने आत्माकी ही मूर्ति – आत्मस्वरूप होते हैं।।३०।।

पुत्र! हम तुम्हारे पितर हैं।

इस समय शत्रुओंने हमें जीत लिया है।

हम बड़े दुःखी हो रहे हैं।

तुम अपने तपोबलसे हमारा यह दुःख, दारिद्र‍य, पराजय टाल दो।

पुत्र! तुम्हें हमलोगोंकी आज्ञाका पालन करना चाहिये।।३१।।

तुम ब्रह्मनिष्ठ ब्राह्मण हो, अतः जन्मसे ही हमारे गुरु हो।

हम तुम्हें आचार्यके रूपमें वरण करके तुम्हारी शक्तिसे अनायास ही शत्रुओंपर विजय प्राप्त कर लेंगे।।३२।।

पुत्र! आवश्यकता पड़नेपर अपनेसे छोटोंका पैर छूना भी निन्दनीय नहीं है।

वेदज्ञानको छोड़कर केवल अवस्था बड़प्पनका कारण भी नहीं है।।३३।।

श्रीशुकदेवजी कहते हैं – परीक्षित्! जब देवताओंने इस प्रकार विश्वरूपसे पुरोहिती करनेकी प्रार्थना की, तब परम तपस्वी विश्वरूपने प्रसन्न होकर उनसे अत्यन्त प्रिय और मधुर शब्दोंमें कहा।।३४।।

विश्वरूपने कहा – पुरोहितीका काम ब्रह्मतेजको क्षीण करनेवाला है।

इसलिये धर्मशील महात्माओंने उसकी निन्दा की है।

किन्तु आप मेरे स्वामी हैं और लोकेश्वर होकर भी मुझसे उसके लिये प्रार्थना कर रहे हैं।

ऐसी स्थितिमें मेरे-जैसा व्यक्ति भला, आपलोगोंको कोरा जवाब कैसे दे सकता है? मैं तो आपलोगोंका सेवक हूँ।

आपकी आज्ञाओंका पालन करना ही मेरा स्वार्थ है।।३५।।

देवगण! हम अकिंचन हैं।

खेती कट जानेपर अथवा अनाजकी हाट उठ जानेपर उसमेंसे गिरे हुए कुछ दाने चुन लाते हैं और उसीसे अपने देवकार्य तथा पितृकार्य सम्पन्न कर लेते हैं।

लोकपालो! इस प्रकार जब मेरी जीविका चल ही रही है, तब मैं पुरोहितीकी निन्दनीय वृत्ति क्यों करूँ? उससे तो केवल वे ही लोग प्रसन्न होते हैं, जिनकी बुद्धि बिगड़ गयी है।।३६।।

जो काम आपलोग मुझसे कराना चाहते हैं वह निन्दनीय है – फिर भी मैं आपके कामसे मुँह नहीं मोड़ सकता; क्योंकि आपलोगोंकी माँग ही कितनी है।

इसलिये आपलोगोंका मनोरथ मैं तन-मन-धनसे पूरा करूँगा।।३७।।

श्रीशुकदेवजी कहते हैं – परीक्षित्! विश्वरूप बड़े तपस्वी थे।

देवताओंसे ऐसी प्रतिज्ञा करके उनके वरण करनेपर वे बड़ी लगनके साथ उनकी पुरोहिती करने लगे।।३८।।

यद्यपि शुक्राचार्यने अपने नीतिबलसे असुरोंकी सम्पत्ति सुरक्षित कर दी थी, फिर भी समर्थ विश्वरूपने वैष्णवी विद्याके प्रभावसे उनसे वह सम्पत्ति छीनकर देवराज इन्द्रको दिला दी।।३९।।

राजन्! जिस विद्यासे सुरक्षित होकर इन्द्रने असुरोंकी सेनापर विजय प्राप्त की थी, उसका उदारबुद्धि विश्वरूपने ही उन्हें उपदेश किया था।।४०।।

इति श्रीमद् भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
षष्ठस्कन्धे सप्तमोऽध्यायः।।७।।


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