भागवत पुराण – षष्ठ स्कन्ध – अध्याय – 18


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अदिति और दितिकी सन्तानोंकी तथा मरुद् गणोंकी उत्पत्तिका वर्णन

श्रीशुकदेवजी कहते हैं – परीक्षित्! सविताकी पत्नी पृश्निके गर्भसे आठ सन्तानें हुईं – सावित्री, व्याहृति, त्रयी, अग्निहोत्र, पशु, सोम, चातुर्मास्य और पंचमहायज्ञ।।१।।

भगकी पत्नी सिद्धिने महिमा, विभु और प्रभु – ये तीन पुत्र और आशिष् नामकी एक कन्या उत्पन्न की।

यह कन्या बड़ी सुन्दरी और सदाचारिणी थी।।२।।

धाताकी चार पत्नियाँ थीं – कुहू, सिनीवाली, राका और अनुमति।

उनसे क्रमशः सायं, दर्श, प्रातः और पूर्णमास – ये चार पुत्र हुए।।३।।

धाताके छोटे भाईका नाम था – विधाता, उनकी पत्नी क्रिया थी।

उससे पुरीष्य नामके पाँच अग्नियोंकी उत्पत्ति हुई।

वरुणजीकी पत्नीका नाम चर्षणी था।

उससे भृगुजीने पुनः जन्म ग्रहण किया।

इसके पहले वे ब्रह्माजीके पुत्र थे।।४।।

महायोगी वाल्मीकिजी भी वरुणके पुत्र थे।

वल्मीकसे पैदा होनेके कारण ही उनका नाम वाल्मीकि पड़ गया था।

उर्वशीको देखकर मित्र और वरुण दोनोंका वीर्य स्खलित हो गया था।

उसे उन लोगोंने घड़ेमें रख दिया।

उसीसे मुनिवर अगस्त्य और वसिष्ठजीका जन्म हुआ।

मित्रकी पत्नी थी रेवती।

उसके तीन पुत्र हुए – उत्सर्ग, अरिष्ट और पिप्पल।।५-६।।

प्रिय परीक्षित्! देवराज इन्द्रकी पत्नी थीं पुलोमनन्दिनी शची।

उनसे हमने सुना है, उन्होंने तीन पुत्र उत्पन्न किये – जयन्त, ऋषभ और मीढ् वान्।।७।।

स्वयं भगवान् विष्णु ही (बलिपर अनुग्रह करने और इन्द्रका राज्य लौटानेके लिये) मायासे वामन (उपेन्द्र)-के रूपमें अवतीर्ण हुए थे।

उन्होंने तीन पग पृथ्वी माँगकर तीनों लोक नाप लिये थे।

उनकी पत्नीका नाम था कीर्ति।

उससे बृहच्छ् लोक नामका पुत्र हुआ।

उसके सौभग आदि कई सन्तानें हुईं।।८।।

कश्यपनन्दन भगवान् वामनने माता अदितिके गर्भसे क्यों जन्म लिया और इस अवतारमें उन्होंने कौन-से गुण, लीलाएँ और पराक्रम प्रकट किये – इसका वर्णन मैं आगे (आठवें स्कन्धमें) करूँगा।।९।।

प्रिय परीक्षित्! अब मैं कश्यपजीकी दूसरी पत्नी दितिसे उत्पन्न होनेवाली उस सन्तानपरम्पराका वर्णन सुनाता हूँ, जिसमें भगवान् के प्यारे भक्त श्रीप्रह्लादजी और बलिका जन्म हुआ।।१०।।

दितिके दैत्य और दानवोंके वन्दनीय दो ही पुत्र हुए – हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्ष।

इनकी संक्षिप्त कथा मैं तुम्हें (तीसरे स्कन्धमें) सुना चुका हूँ।।११।।

हिरण्यकशिपुकी पत्नी दानवी कयाधु थी।

उसके पिता जम्भने उसका विवाह हिरण्यकशिपुसे कर दिया था।

कयाधुके चार पुत्र हुए – संह्राद, अनुह्राद, ह्राद और प्रह्राद।

इनकी सिंहिका नामकी एक बहिन भी थी।

उसका विवाह विप्रचित्ति नामक दानवसे हुआ।

उससे राहु नामक पुत्रकी उत्पत्ति हुई।।१२-१३।।

यह वही राहु है, जिसका सिर अमृतपानके समय मोहिनीरूपधारी भगवान् ने चक्रसे काट लिया था।

संह्रादकी पत्नी थी कृति।

उससे पंचजन नामक पुत्र उत्पन्न हुआ।।१४।।

ह्रादकी पत्नी थी धमनि।

उसके दो पुत्र हुए – वातापि और इल्वल।

इस इल्वलने ही महर्षि अगस्त्यके आतिथ्यके समय वातापिको पकाकर उन्हें खिला दिया था।।१५।।

अनुह्रादकी पत्नी सूर्म्या थी, उसके दो पुत्र हुए – बाष्कल और महिषासुर।

प्रह्रादका पुत्र था विरोचन।

उसकी पत्नी देवीके गर्भसे दैत्यराज बलिका जन्म हुआ।।१६।।

बलिकी पत्नीका नाम अशना था।

उससे बाण आदि सौ पुत्र हुए।

दैत्यराज बलिकी महिमा गान करनेयोग्य है।

उसे मैं आगे (आठवें स्कन्धमें) सुनाऊँगा।।१७।।

बलिका पुत्र बाणासुर भगवान् शंकरकी आराधना करके उनके गणोंका मुखिया बन गया।

आज भी भगवान् शंकर उसके नगरकी रक्षा करनेके लिये उसके पास ही रहते हैं।।१८।।

दितिके हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्षके अतिरिक्त उनचास पुत्र और थे।

उन्हें मरुद् गण कहते हैं।

वे सब निःसन्तान रहे।

देवराज इन्द्रने उन्हें अपने ही समान देवता बना लिया।।१९।।

राजा परीक्षित् ने पूछा – भगवन्! मरुद् गणने ऐसा कौन-सा सत्कर्म किया था, जिसके कारण वे अपने जन्मजात असुरोचित भावको छोड़ सके और देवराज इन्द्रके द्वारा देवता बना लिये गये?।।२०।।

ब्रह्मन्! मेरे साथ यहाँकी सभी ऋषिमण्डली यह बात जाननेके लिये अत्यन्त उत्सुक हो रही है।

अतः आप कृपा करके विस्तारसे वह रहस्य बतलाइये।।२१।।

सूतजी कहते हैं – शौनकजी! राजा परीक्षित् का प्रश्न थोड़े शब्दोंमें बड़ा सारगर्भित था।

उन्होंने बड़े आदरसे पूछा भी था।

इसलिये सर्वज्ञ श्रीशुकदेवजी महाराजने बड़े ही प्रसन्न चित्तसे उनका अभिनन्दन करके यों कहा।।२२।।

श्रीशुकदेवजी कहने लगे – परीक्षित्! भगवान् विष्णुने इन्द्रका पक्ष लेकर दितिके दोनों पुत्र हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्षको मार डाला।

अतः दिति शोककी आगसे उद्दीप्त क्रोधसे जलकर इस प्रकार सोचने लगी।।२३।।

‘सचमुच इन्द्र बड़ा विषयी, क्रूर और निर्दयी है।

राम! राम! उसने अपने भाइयोंको ही मरवा डाला।

वह दिन कब होगा, जब मैं भी उस पापीको मरवाकर आरामसे सोऊँगी।।२४।।

लोग राजाओंके, देवताओंके शरीरको ‘प्रभु’ कहकर पुकारते हैं; परन्तु एक दिन वह कीड़ा, विष्ठा या राखका ढेर हो जाता है, इसके लिये जो दूसरे प्राणियोंको सताता है, उसे अपने सच्चे स्वार्थ या परमार्थका पता नहीं है; क्योंकि इससे तो नरकमें जाना पड़ेगा।।२५।।

मैं समझती हूँ इन्द्र अपने शरीरको नित्य मानकर मतवाला हो रहा है।

उसे अपने विनाशका पता ही नहीं है।

अब मैं वह उपाय करूँगी, जिससे मुझे ऐसा पुत्र प्राप्त हो, जो इन्द्रका घमण्ड चूर-चूर कर दे’।।२६।।

दिति अपने मनमें ऐसा विचार करके सेवा-शुश्रूषा, विनय-प्रेम और जितेन्द्रियता आदिके द्वारा निरन्तर अपने पतिदेव कश्यपजीको प्रसन्न रखने लगी।।२७।।

वह अपने पतिदेवके हृदयका एक-एक भाव जानती रहती थी और परम प्रेमभाव, मनोहर एवं मधुर भाषण तथा मुसकानभरी तिरछी चितवनसे उनका मन अपनी ओर आकर्षित करती रहती थी।।२८।।

कश्यपजी महाराज बड़े विद्वान् और विचारवान् होनेपर भी चतुर दितिकी सेवासे मोहित हो गये और उन्होंने विवश होकर यह स्वीकार कर लिया कि ‘मैं तुम्हारी इच्छा पूर्ण करूँगा।’ स्त्रियोंके सम्बन्धमें यह कोई आश्चर्यकी बात नहीं है।।२९।।

सृष्टिके प्रभातमें ब्रह्माजीने देखा कि सभी जीव असंग हो रहे हैं, तब उन्होंने अपने आधे शरीरसे स्त्रियोंकी रचना की और स्त्रियोंने पुरुषोंकी मति अपनी ओर आकर्षित कर ली।।३०।।

हाँ, तो भैया! मैं कह रहा था कि दितिने भगवान् कश्यपकी बड़ी सेवा की।

इससे वे उसपर बहुत ही प्रसन्न हुए।

उन्होंने दितिका अभिनन्दन करते हुए उससे मुसकराकर कहा।।३१।।

कश्यपजीने कहा – अनिन्द्यसुन्दरी प्रिये! मैं तुमपर प्रसन्न हूँ।

तुम्हारी जो इच्छा हो, मुझसे माँग लो।

पतिके प्रसन्न हो जानेपर पत्नीके लिये लोक या परलोकमें कौन-सी अभीष्ट वस्तु दुर्लभ है।।३२।।

शास्त्रोंमें यह बात स्पष्ट कही गयी है कि पति ही स्त्रियोंका परमाराध्य इष्टदेव है।

प्रिये! लक्ष्मीपति भगवान् वासुदेव ही समस्त प्राणियोंके हृदयमें विराजमान हैं।।३३।।

विभिन्न देवताओंके रूपमें नाम और रूपके भेदसे उन्हींकी कल्पना हुई है।

सभी पुरुष – चाहे किसी भी देवताकी उपासना करें – उन्हींकी उपासना करते हैं।

ठीक वैसे ही स्त्रियोंके लिये भगवान् ने पतिका रूप धारण किया है।

वे उनकी उसी रूपमें पूजा करती हैं।।३४।।

इसलिये प्रिये! अपना कल्याण चाहनेवाली पतिव्रता स्त्रियाँ अनन्य प्रेमभावसे अपने पतिदेवकी ही पूजा करती हैं; क्योंकि पतिदेव ही उनके परम प्रियतम आत्मा और ईश्वर हैं।।३५।।

कल्याणी! तुमने बड़े प्रेमभावसे, भक्तिसे मेरी वैसी ही पूजा की है।

अब मैं तुम्हारी सब अभिलाषाएँ पूर्ण कर दूँगा।

असतियोंके जीवनमें ऐसा होना अत्यन्त दुर्लभ है।।३६।।

दितिने कहा – ब्रह्मन्! इन्द्रने विष्णुके हाथों मेरे दो पुत्र मरवाकर मुझे निपूती बना दिया है।

इसलिये यदि आप मुझे मुँहमाँगा वर देना चाहते हैं तो कृपा करके एक ऐसा अमर पुत्र दीजिये, जो इन्द्रको मार डाले।।३७।।

परीक्षित्! दितिकी बात सुनकर कश्यपजी खिन्न होकर पछताने लगे।

वे मन-ही-मन कहने लगे – ‘हाय! हाय! आज मेरे जीवनमें बहुत बड़े अधर्मका अवसर आ पहुँचा।।३८।।

देखो तो सही, अब मैं इन्द्रियोंके विषयोंमें सुख मानने लगा हूँ।

स्त्रीरूपिणी मायाने मेरे चित्तको अपने वशमें कर लिया है।

हाय! हाय! आज मैं कितनी दीन-हीन अवस्थामें हूँ।

अवश्य ही अब मुझे नरकमें गिरना पड़ेगा।।३९।।

इस स्त्रीका कोई दोष नहीं है; क्योंकि इसने अपने जन्मजात स्वभावका ही अनुसरण किया है।

दोष मेरा है – जो मैं अपनी इन्द्रियोंको अपने वशमें न रख सका, अपने सच्चे स्वार्थ और परमार्थको न समझ सका।

मुझ मूढको बार-बार धिक्कार है।।४०।।

सच है, स्त्रियोंके चरित्रको कौन जानता है।

इनका मुँह तो ऐसा होता है जैसे शरद्ऋतुका खिला हुआ कमल।

बातें सुननेमें ऐसी मीठी होती हैं, मानो अमृत घोल रखा हो।

परन्तु हृदय, वह तो इतना तीखा होता है कि मानो छुरेकी पैनी धार हो।।४१।।

इसमें सन्देह नहीं कि स्त्रियाँ अपनी लालसाओंकी कठपुतली होती हैं।

सच पूछो तो वे किसीसे प्यार नहीं करतीं।

स्वार्थवश वे अपने पति, पुत्र और भाईतकको मार डालती हैं या मरवा डालती हैं।।४२।।

अब तो मैं कह चुका हूँ कि जो तुम माँगोगी, दूँगा।

मेरी बात झूठी नहीं होनी चाहिये।

परन्तु इन्द्र भी वध करनेयोग्य नहीं है।

अच्छा, अब इस विषयमें मैं यह युक्ति करता हूँ’।।४३।।

प्रिय परीक्षित्! सर्वसमर्थ कश्यपजीने इस प्रकार मन-ही-मन अपनी भर्त्सना करके दोनों बात बनानेका उपाय सोचा और फिर तनिक रुष्ट होकर दितिसे कहा।।४४।।

कश्यपजी बोले – कल्याणी! यदि तुम मेरे बतलाये हुए व्रतका एक वर्षतक विधिपूर्वक पालन करोगी तो तुम्हें इन्द्रको मारनेवाला पुत्र प्राप्त होगा।

परन्तु यदि किसी प्रकार नियमोंमें त्रुटि हो गयी तो वह देवताओंका मित्र बन जायगा।।४५।।

दितिने कहा – ब्रह्मन्! मैं उस व्रतका पालन करूँगी।

आप बतलाइये कि मुझे क्या-क्या करना चाहिये, कौन-कौनसे काम छोड़ देने चाहिये और कौन-से काम ऐसे हैं, जिनसे व्रत भंग नहीं होता।।४६।।

कश्यपजीने उत्तर दिया – प्रिये! इस व्रतमें किसी भी प्राणीको मन, वाणी या क्रियाके द्वारा सताये नहीं, किसीको शाप या गाली न दे, झूठ न बोले, शरीरके नख और रोएँ न काटे और किसी भी अशुभ वस्तुका स्पर्श न करे।।४७।।

जलमें घुसकर स्नान न करे, क्रोध न करे, दुर्जनोंसे बातचीत न करे, बिना धुला वस्त्र न पहने और किसीकी पहनी हुई माला न पहने।।४८।।

जूठा न खाय, भद्रकालीका प्रसाद या मांसयुक्त अन्नका भोजन न करे।

शूद्रका लाया हुआ और रजस्वलाका देखा हुआ अन्न भी न खाय और अंजलिसे जलपान न करे।।४९।।

जूठे मुँह, बिना आचमन किये, सन्ध्याके समय, बाल खोले हुए, बिना शृंगारके, वाणीका संयम किये बिना और बिना चद्दर ओढ़े घरसे बाहर न निकले।।५०।।

बिना पैर धोये, अपवित्र अवस्थामें गीले पाँवोंसे, उत्तर या पश्चिम सिर करके, दूसरेके साथ, नग्नावस्थामें तथा सुबह-शाम सोना नहीं चाहिये।।५१।।

इस प्रकार इन निषिद्ध कर्मोंका त्याग करके सर्वदा पवित्र रहे, धुला वस्त्र धारण करे और सभी सौभाग्यके चिह्नोंसे सुसज्जित रहे।

प्रातःकाल कलेवा करनेके पहले ही गाय, ब्राह्मण, लक्ष्मीजी और भगवान् नारायणकी पूजा करे।।५२।।

इसके बाद पुष्पमाला, चन्दनादि सुगन्धद्रव्य, नैवेद्य और आभूषणादिसे सुहागिनी स्त्रियोंकी पूजा करे तथा पतिकी पूजा करके उसकी सेवामें संलग्न रहे और यह भावना करती रहे कि पतिका तेज मेरी कोखमें स्थित है।।५३।।

प्रिये! इस व्रतका नाम ‘पुंसवन’ है।

यदि एक वर्षतक तुम इसे बिना किसी त्रुटिके पालन कर सकोगी तो तुम्हारी कोखसे इन्द्रघाती पुत्र उत्पन्न होगा।।५४।।

परीक्षित्! दिति बड़ी मनस्विनी और दृढ़ निश्चयवाली थी।

उसने ‘बहुत ठीक’ कहकर उनकी आज्ञा स्वीकार कर ली।

अब दिति अपनी कोखमें भगवान् कश्यपका वीर्य और जीवनमें उनका बतलाया हुआ व्रत धारण करके अनायास ही नियमोंका पालन करने लगी।।५५।।

प्रिय परीक्षित्! देवराज इन्द्र अपनी मौसी दितिका अभिप्राय जान बड़ी बुद्धिमानीसे अपना वेष बदलकर दितिके आश्रमपर आये और उसकी सेवा करने लगे।।५६।।

वे दितिके लिये प्रतिदिन समय-समयपर वनसे फूल-फल, कन्द-मूल, समिधा, कुश, पत्ते, दूब, मिट्टी और जल लाकर उसकी सेवामें समर्पित करते।।५७।।

राजन्! जिस प्रकार बहेलिया हरिनको मारनेके लिये हरिनकी-सी सूरत बनाकर उसके पास जाता है, वैसे ही देवराज इन्द्र भी कपटवेष धारण करके व्रतपरायणा दितिके व्रतपालनकी त्रुटि पकड़नेके लिये उसकी सेवा करने लगे।।५८।।

सर्वदा पैनी दृष्टि रखनेपर भी उन्हें उसके व्रतमें किसी प्रकारकी त्रुटि न मिली और वे पूर्ववत् उसकी सेवा-टहलमें लगे रहे।

अब तो इन्द्रको बड़ी चिन्ता हुई।

वे सोचने लगे – मैं ऐसा कौन-सा उपाय करूँ, जिससे मेरा कल्याण हो?।।५९।।

दिति व्रतके नियमोंका पालन करते-करते बहुत दुर्बल हो गयी थी।

विधाताने भी उसे मोहमें डाल दिया।

इसलिये एक दिन सन्ध्याके समय जूठे मुँह, बिना आचमन किये और बिना पैर धोये ही वह सो गयी।।६०।।

योगेश्वर इन्द्रने देखा कि यह अच्छा अवसर हाथ लगा।

वे योगबलसे झटपट सोयी हुई दितिके गर्भमें प्रवेश कर गये।।६१।।

उन्होंने वहाँ जाकर सोनेके समान चमकते हुए गर्भके वज्रके द्वारा सात टुकड़े कर दिये।

जब वह गर्भ रोने लगा, तब उन्होंने ‘मत रो, मत रो’ यह कहकर सातों टुकड़ोंमेंसे एक-एकके और भी सात टुकड़े कर दिये।।६२।।

राजन्! जब इन्द्र उनके टुकड़े-टुकड़े करने लगे, तब उन सबोंने हाथ जोड़कर इन्द्रसे कहा – ‘देवराज! तुम हमें क्यों मार रहे हो? हम तो तुम्हारे भाई मरुद् गण हैं’।।६३।।

तब इन्द्रने अपने भावी अनन्यप्रेमी पार्षद मरुद् गणसे कहा – ‘अच्छी बात है, तुमलोग मेरे भाई हो।

अब मत डरो!’।।६४।।

परीक्षित्! जैसे अश्वत्थामाके ब्रह्मास्त्रसे तुम्हारा कुछ भी अनिष्ट नहीं हुआ, वैसे ही भगवान् श्रीहरिकी कृपासे दितिका वह गर्भ वज्रके द्वारा टुकड़े-टुकड़े होनेपर भी मरा नहीं।।६५।।

इसमें तनिक भी आश्चर्यकी बात नहीं है।

क्योंकि जो मनुष्य एक बार भी आदि पुरुष भगवान् नारायणकी आराधना कर लेता है, वह उनकी समानता प्राप्त कर लेता है; फिर दितिने तो कुछ ही दिन कम एक वर्षतक भगवान् की आराधना की थी।।६६।।

अब वे उनचास मरुद् गण इन्द्रके साथ मिलकर पचास हो गये।

इन्द्रने भी सौतेली माताके पुत्रोंके साथ शत्रुभाव न रखकर उन्हें सोमपायी देवता बना लिया।।६७।।

जब दितिकी आँख खुली, तब उसने देखा कि उसके अग्निके समान तेजस्वी उनचास बालक इन्द्रके साथ हैं।

इससे सुन्दर स्वभाववाली दितिको बड़ी प्रसन्नता हुई।।६८।।

उसने इन्द्रको सम्बोधन करके कहा – ‘बेटा! मैं इस इच्छासे इस अत्यन्त कठिन व्रतका पालन कर रही थी कि तुम अदितिके पुत्रोंको भयभीत करनेवाला पुत्र उत्पन्न हो।।६९।।

मैंने केवल एक ही पुत्रके लिये संकल्प किया था, फिर ये उनचास पुत्र कैसे हो गये? बेटा इन्द्र! यदि तुम्हें इसका रहस्य मालूम हो, तो सच-सच मुझे बतला दो।

झूठ न बोलना’।।७०।।

इन्द्रने कहा – माता! मुझे इस बातका पता चल गया था कि तुम किस उद्देश्यसे व्रत कर रही हो।

इसीलिये अपना स्वार्थ सिद्ध करनेके उद्देश्यसे मैं स्वर्ग छोड़कर तुम्हारे पास आया।

मेरे मनमें तनिक भी धर्मभावना नहीं थी।

इसीसे तुम्हारे व्रतमें त्रुटि होते ही मैंने उस गर्भके टुकड़े-टुकड़े कर दिये।।७१।।

पहले मैंने उसके सात टुकड़े किये थे।

तब वे सातों टुकड़े सात बालक बन गये।

इसके बाद मैंने फिर एक-एकके सात-सात टुकड़े कर दिये।

तब भी वे न मरे, बल्कि उनचास हो गये।।७२।।

यह परम आश्चर्यमयी घटना देखकर मैंने ऐसा निश्चय किया कि परमपुरुष भगवान् की उपासनाकी यह कोई स्वाभाविक सिद्धि है।।७३।।

जो लोग निष्कामभावसे भगवान् की आराधना करते हैं और दूसरी वस्तुओंकी तो बात ही क्या, मोक्षकी भी इच्छा नहीं करते, वे ही अपने स्वार्थ और परमार्थमें निपुण हैं।।७४।।

भगवान् जगदीश्वर सबके आराध्यदेव और अपने आत्मा ही हैं।

वे प्रसन्न होकर अपने-आपतकका दान कर देते हैं।

भला, ऐसा कौन बुद्धिमान् है, जो उनकी आराधना करके विषयभोगोंका वरदान माँगे।

माताजी! ये विषयभोग तो नरकमें भी मिल सकते हैं।।७५।।

मेरी स्नेहमयी जननी! तुम सब प्रकार मेरी पूज्या हो।

मैंने मूर्खतावश बड़ी दुष्टताका काम किया है।

तुम मेरे अपराधको क्षमा कर दो।

यह बड़े सौभाग्यकी बात है कि तुम्हारा गर्भ खण्ड-खण्ड हो जानेसे एक प्रकार मर जानेपर भी फिरसे जीवित हो गया।।७६।।

श्रीशुकदेवजी कहते हैं – परीक्षित्! दिति देवराज इन्द्रके शुद्धभावसे सन्तुष्ट हो गयी।

उससे आज्ञा लेकर देवराज इन्द्रने मरुद् गणोंके साथ उसे नमस्कार किया और स्वर्गमें चले गये।।७७।।

राजन्! यह मरुद् गणका जन्म बड़ा ही मंगलमय है।

इसके विषयमें तुमने मुझसे जो प्रश्न किया था, उसका उत्तर समग्ररूपसे मैंने तुम्हें दे दिया।

अब तुम और क्या सुनना चाहते हो?।।७८।।

इति श्रीमद् भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
षष्ठस्कन्धे मरुदुत्पत्तिकथनं नामाष्टादशोऽध्यायः।।१८।।


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